सभी बान्धव, मित्र, पिता, माता, पुत्र, पत्नी आदि मृतक के प्रति जलांजलि देकर श्मसानभूमि से वापस अपने घर लौट आते हैं ॥
इस संसार में पुत्रों का वियोग होता है, बन्धुओं का वियोग होता है, पत्नी का वियोग होता है, एक मात्र जिनेश्वर भगवन्त के धर्म का कभी वियोग नहीं होता है
वैभव, स्वजनों का संग, विलास से मनोहर सुख-सभी कमल के पत्र के अग्रभाग पर रहे जलबिंदु की भांति अत्यन्त ही चंचल हैं
शरीर का बल कहाँ गया ? वह जवानी कहाँ चली गई । शरीर का सौंदर्य कहाँ चला गया ? काल इन सभी को तहस नहस कर देता है, अतः सब कुछ अनित्य है, ऐसा समझो
गाढ़ कर्म रूपी पाश से बँधा हुआ जीव इस संसार रूपी नगर की चार गति रूप मार्ग में अनेक प्रकार की विडंबनाएँ प्राप्त करता है, यहाँ उसको शरण देनेवाला कौन है ?
कर्म के प्रभाव से यह जीव वीर्य और मल रूपी कीचड़ की अशुचि से भयानक ऐसे गर्भावास में अनंतीबार रहा है
इस संसार में रहे हुए और चौरासी लाख योनि में बसे हुए माता-पिता व बंधु द्वारा यह लोक भरा हुआ है, परंतु रक्षण करनेवाला या शरण देनेवाला कोई नहीं है
रोगों से आक्रान्त यह जीव जल बिन मछली की भाँति तड़पता है, तब सभी स्वजन उसे रोग से पीड़ित देखते हैं फिर भी कोई भी उस वेदना को दूर करने में समर्थ नहीं होता है
हे जीव ! तू यह मत मान ले कि इस संसार में पुत्र, स्त्री आदि मुझे सुख के कारण बनेंगे। क्योंकि संसार में भ्रमण करते हुए जीवों को पुत्र-स्त्री आदि तीव्र बंधन के ही कारण बनते हैं
इस संसार में कर्म की पराधीनता के कारण सभी जीवों की ऐसी अनवस्था है कि माता मरकर पत्नी बनती है, पत्नी मरकर माता बनती है और पिता मरकर पुत्र बनता है
इस संसार में ऐसी कोई जाति नहीं, ऐसी कोई योनि नहीं, ऐसा कोई स्थान नहीं, ऐसा कोई कुल नहीं, जहाँ सभी जीव अनंत बार जन्मे और मरे न हों
इस संसार में बाल के अग्र भाग के जितना भी स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ इस जीव ने अनेक बार सुख-दुःख की परंपरा प्राप्त न की हो
यह जीव अकेला ही कर्मबंध करता है । अकेला ही वध, बंधन और मरण के कष्ट सहन करता है । कर्म से ठगा हुआ जीव अकेला ही संसार में भटकता है
अन्य कोई जीव अपना अहित नहीं करता है और अपना हित भी आत्मा स्वयं ही करती है, दूसरा कोई नहीं करता है । अपने ही किए हुए कर्मों को - सुखदुःख को तू भोगता है, तो फिर दीन मुखवाला क्यों बनता है ?
हे जीव ! बहुत से आरंभ समारंभ से उपार्जित तेरे धन का स्वजन लोग भोग करते हैं परंतु उस धन के उपार्जन में बंधे हुए पापकर्म तुझे ही भोगने पड़ेंगे
हे आत्मन् ! तुमने "मेरे बच्चे दुःखी हैं, भूखे हैं ?" इस प्रकार की चिंता की, परंतु कभी भी अपने हित की चिंता नहीं की ? अतः अब तुझे क्या कहें ?
यह शरीर क्षणभंगुर है और उससे भिन्न आत्मा शाश्वत स्वरूपी है। कर्म के वश से इसके साथ संबंध हुआ है, अतः इस शरीर के विषय में तुझे मूर्छा क्यों है ?
हे आत्मा ! यह कुटुंब कहाँ से आया और कहाँ जाएगा ? तू भी कहाँ से आया और कहाँ जाएगा ? तुम दोनों परस्पर यह जानते नहीं हो तो यह कुटुंब तुम्हारा कहाँ से ?
जन्म दुःखदायी है, वृद्धावस्था दुःखदायी है, संसार में रोग और मृत्यु हैं। अहो ! यह संसार ही दुःख रूप है जहाँ प्राणी पीड़ा का अनुभव करते हैं
जब तक इन्द्रियों की हानि नहीं हुई, जब तक वृद्धावस्था रूपी राक्षसी प्रगट नहीं हुई, जब तक रोग के विकार पैदा नहीं हुए और जब तक मृत्यु नहीं आई है, तब तक हे आत्मा ! तू धर्म का सेवन कर ले
हे जीव ! घर में आग लगी हो तब कोई कुआँ खोदने के लिए समर्थ नहीं होता है, उसी प्रकार मृत्यु के नजदीक आने पर तू धर्म कैसे कर सकेगा ?
यह रूप अशाश्वत है। विद्युत् के समान चंचल अपना जीवन है। संध्या के रंग के समान क्षण मात्र रमणीय यह यौवन है
हाथी के कान की तरह यह लक्ष्मी चंचल है। जीवों का विषयसुख इन्द्रधनुष के समान चपल है । हे जीव ! तू बोध पा और उसमें मोहित न बन
हे जीव ! संध्या के समय में पक्षियों का समागम और मार्ग में पथिकों का समागम क्षणिक है, उसी तरह स्वजनों का संयोग भी क्षणभंगुर है
जिस प्रकार यहाँ सिंह मृग को पकड़कर ले जाते हैं, उसी प्रकार अंत समय में मृत्यु मनुष्य को पकड़कर ले जाती है । उस समय माता-पिता, भाई आदि कोई सहायक नहीं होते हैं
यह जीवन जलबिंदु के समान है। सारी संपत्तियाँ जल की तरंग की तरह चंचल हैं और स्वजनों का स्नेह स्वप्न के समान है, अतः अब जैसा जानो, वैसा करो
अन्य-अन्य जन्मों में रोती हुई माताओं की आँखों में से जो आँसू गिरे हैं, उसका प्रमाण सागर के जल से भी अधिक हो जाता है।
नरक में नारक जीव जिन घोर भयङ्कर अनन्त दुःखों को प्राप्त करते हैं, उससे अनन्तगुणा दुःख निगोद में होता है
हे जीव ! विविध कर्मों की पराधीनता के कारण उस निगोद के मध्य में रहते हुए अनंत पुद्गल परावर्त काल तक तीक्ष्ण दु:खों को तूने सहन किया है
उस संसार को धिक्कार हो, धिक्कार हो, जिस संसार में देव मरकर तिर्यंच बनते हैं और राजाओं के राजा मरकर नरक की ज्वालाओं में पकाए जाते हैं
धन, धान्य, अलङ्कार, घर, स्वजन और कुटुम्ब के मिलने पर भी कर्मरूपी पवन से आहत वृक्ष के पुष्प की तरह अनाथ हो जाता है
संसार में परिभ्रमण करती हुई आत्मा पर्वत पर बसी है, गुफा में बसी है, समुद्र में बसी है और वृक्ष के अग्र भाग पर भी रही है
यह जीव देव बना है, नारक बना है, कीड़ा और पतङ्गा भी बना है और मनुष्य भी बना है । सुन्दर रूपवाला और खराब रूपवाला भी बना है। सुखी भी बना है और दुःखी भी बना है
यह जीव राजा और भिखारी भी बना है। चाण्डाल भी बना है और वेदपाठी भी बना है। स्वामी भी हुआ है और दास भी हुआ है। पूज्य भी बना है और दुर्जन भी बना है। धनवान भी बना है और निर्धन भी बना है
अपने किए हुए कर्म के अनुसार चेष्टा करता हुआ यह जीव नट की तरह अन्य-अन्य रूप और वेष को धारण कर बदलता रहता है इसमें कोई नियम नहीं है (कि पुरुष मरकर पुरुष ही होता है
हे जीव ! नरकगति में तूने अशाता से भरपूर और जिनकी कोई उपमा न दी जा सके, ऐसी वेदनाएँ अनन्तबार प्राप्त की है
देव और मनुष्य भव में भी पराधीनता के कारण अनेक प्रकार का भयङ्कर दुःख अनन्तबार सहन किया है
अनेक प्रकार की महाभयङ्कर वेदना से युक्त तिर्यंचगति को प्राप्तकर इस जीव ने जन्म-मरण रूप अरहट्ट में अनन्तबार परिभ्रमण किया है
इस संसार में जितने भी शारीरिक और मानसिक दुःख हैं वे सब दुःख इस संसार में इस जीव ने अनंती बार प्राप्त किए हैं
संसार में अनन्त बार तुझे ऐसी तृषा लगी, जिसे शान्त करने के लिए सभी समुद्रों का पानी भी समर्थ नहीं था
इस संसार में तुझे अनंत बार ऐसी भी भूख लगी है, जिसे शांत करने के लिए सभी पुद्गल भी समर्थ नहीं थे।
हे जीव ! सुनो ! चंचल स्वभाववाले इन बाह्य पदार्थों और नौ प्रकार के परिग्रह के जाल को यहीं छोड़कर तुझे जाना है। संसार में यह सब इन्द्रजाल के समान है
हे मूर्ख ! इस जगत् में पिता, पुत्र, मित्र, पत्नी आदि का समूह अपने-अपने सुख को शोधने के स्वभाव वाला है। तेरे लिए कोई शरण रूप नहीं है। तिर्यंच और नरकगति में तू अकेला ही दुःखों को सहन करेगा
घास के अग्र भाग पर रहा जलबिंदु अल्पकाल के लिए रहता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी अल्पकाल के लिए है। अतः हे गौतम ! तू एक समय का भी प्रमाद मत कर
तुम बोध पाओ ! तुम्हें बोध क्यों नहीं होता है ? वास्तव में परलोक में बोधि की प्राप्ति होना दुर्लभ है। जिस प्रकार बीते हुए रात-दिन वापस नहीं लौटते हैं, उसी प्रकार यह जीवन पुनः सुलभ नहीं है
अनंत दु:ख के कारणरूप धन, स्वजन और वैभव आदि में तू ममता करता है और अनन्त सुखस्वरूप मोक्ष में अपने आदरभाव को शिथिल करता है
जो दुःख का कारण है, दुःख का फल है और जो अत्यन्त दुःसह ऐसे दुखोंवाला है, ऐसे संसार को, स्नेह की साँकल से बँधे हुए जीव छोड़ते नहीं हैं
अपने कर्मरूपी पवन से चलित बना हुआ यह जीव इस संसार रूपी घोर जंगल में असह्य वेदनाओं से युक्त कौन कौनसी विडंबनाओं को प्राप्त नहीं करता है
हे आत्मन् ! तिर्यंच के भव में ठण्डी ऋतु में ठण्डी लहरियों से तेरा पुष्ट देह भेदा गया और तू अनन्ती बार मरा है
इस आत्मा ने तिर्यंच के भव में भयङ्कर जङ्गल में ग्रीष्म ऋतु के ताप से अत्यन्त ही संतप्त होकर अनेक बार भूख और प्यास की वेदना से दुःखी होकर मरण के दुःख को प्राप्त किया है
तिर्यंच के भव में जङ्गल में वर्षा ऋतु में झरने के जल के प्रवाह में बहते हुए तथा ठण्डे पवन से संतप्त होकर अनेक बार बेमौत मरा है
इस प्रकार इस संसार रूपी जङ्गल में हजारों लाखों प्रकार के दुःखों से पीड़ित होकर तिर्यंच के भव में अनन्त बार रहा है
हे जीव ! दुष्ट ऐसे आठ कर्मरूपी प्रलय के पवन से प्रेरित होकर इस भयङ्कर जङ्गल में भटकता हुआ तू अनन्त बार नरकगति में भी गया है
जहाँ वज्र की आग के समान दाह की पीड़ा है और भयङ्कर असह्य शीतवेदना है ऐसी सातों नरक पृथवियों में भी करुण शब्दों से विलाप करता हुआ अनन्त बार रहा है
साररहित ऐसे मानवभव में माता-पिता तथा स्वजनरहित भयङ्कर व्याधि से अनेक बार पीड़ित हुआ तू विलाप करता था, उसे तू क्यों याद नहीं करता है ?
स्थान-स्थान में धन तथा स्वजन के समूह को छोड़कर भव वन में अपरिचित बना हुआ यह जीव आकाश मार्ग में पवन की तरह अदृश्य रहकर भटकता रहता है
इस संसार में भटकनेवाले जीव जन्म, जरा और मृत्युरूपी तीक्ष्ण भालों से बिंधाते हुए भयङ्कर दुःखों का अनुभव करते हैं
इस देहरूपी बावड़ी में तू कितने समय तक क्रीड़ा करेगा? जहाँ से प्रति समय कालरूपी अरहट के घड़ों द्वारा जीवनरूपी पानी के प्रवाह का शोषण हो रहा है