Sunday, July 19, 2020

वैराग्य शतकम - selected verses

  • Why am I interested in body, family, home and money - while they neither give sukh or dukh to me. Even an iota of interest in them causes me suffering, then why interest?

  • सभी बान्धव, मित्र, पिता, माता, पुत्र, पत्नी आदि मृतक के प्रति जलांजलि देकर श्मसानभूमि से वापस अपने घर लौट आते हैं ॥

  • इस संसार में पुत्रों का वियोग होता है, बन्धुओं का वियोग होता है, पत्नी का वियोग होता है, एक मात्र जिनेश्वर भगवन्त के धर्म का कभी वियोग नहीं होता है

  • वैभव, स्वजनों का संग, विलास से मनोहर सुख-सभी कमल के पत्र के अग्रभाग पर रहे जलबिंदु की भांति अत्यन्त ही चंचल हैं 

  • शरीर का बल कहाँ गया ? वह जवानी कहाँ चली गई । शरीर का सौंदर्य कहाँ चला गया ? काल इन सभी को तहस नहस कर देता है, अतः सब कुछ अनित्य है, ऐसा समझो

  • गाढ़ कर्म रूपी पाश से बँधा हुआ जीव इस संसार रूपी नगर की चार गति रूप मार्ग में अनेक प्रकार की विडंबनाएँ प्राप्त करता है, यहाँ उसको शरण देनेवाला कौन है ? 

  • कर्म के प्रभाव से यह जीव वीर्य और मल रूपी कीचड़ की अशुचि से भयानक ऐसे गर्भावास में अनंतीबार रहा है 

  • इस संसार में रहे हुए और चौरासी लाख योनि में बसे हुए माता-पिता व बंधु द्वारा यह लोक भरा हुआ है, परंतु रक्षण करनेवाला या शरण देनेवाला कोई नहीं है 

  • रोगों से आक्रान्त यह जीव जल बिन मछली की भाँति तड़पता है, तब सभी स्वजन उसे रोग से पीड़ित देखते हैं फिर भी कोई भी उस वेदना को दूर करने में समर्थ नहीं होता है 

  • हे जीव ! तू यह मत मान ले कि इस संसार में पुत्र, स्त्री आदि मुझे सुख के कारण बनेंगे। क्योंकि संसार में भ्रमण करते हुए जीवों को पुत्र-स्त्री आदि तीव्र बंधन के ही कारण बनते हैं 

  • इस संसार में कर्म की पराधीनता के कारण सभी जीवों की ऐसी अनवस्था है कि माता मरकर पत्नी बनती है, पत्नी मरकर माता बनती है और पिता मरकर पुत्र बनता है 

  • इस संसार में ऐसी कोई जाति नहीं, ऐसी कोई योनि नहीं, ऐसा कोई स्थान नहीं, ऐसा कोई कुल नहीं, जहाँ सभी जीव अनंत बार जन्मे और मरे न हों 

  • इस संसार में बाल के अग्र भाग के जितना भी स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ इस जीव ने अनेक बार सुख-दुःख की परंपरा प्राप्त न की हो

  • यह जीव अकेला ही कर्मबंध करता है । अकेला ही वध, बंधन और मरण के कष्ट सहन करता है । कर्म से ठगा हुआ जीव अकेला ही संसार में भटकता है 

  • अन्य कोई जीव अपना अहित नहीं करता है और अपना हित भी आत्मा स्वयं ही करती है, दूसरा कोई नहीं करता है । अपने ही किए हुए कर्मों को - सुखदुःख को तू भोगता है, तो फिर दीन मुखवाला क्यों बनता है ? 

  • हे जीव ! बहुत से आरंभ समारंभ से उपार्जित तेरे धन का स्वजन लोग भोग करते हैं परंतु उस धन के उपार्जन में बंधे हुए पापकर्म तुझे ही भोगने पड़ेंगे 

  • हे आत्मन् ! तुमने "मेरे बच्चे दुःखी हैं, भूखे हैं ?" इस प्रकार की चिंता की, परंतु कभी भी अपने हित की चिंता नहीं की ? अतः अब तुझे क्या कहें ? 

  • यह शरीर क्षणभंगुर है और उससे भिन्न आत्मा शाश्वत स्वरूपी है। कर्म के वश से इसके साथ संबंध हुआ है, अतः इस शरीर के विषय में तुझे मूर्छा क्यों है ? 

  • हे आत्मा ! यह कुटुंब कहाँ से आया और कहाँ जाएगा ? तू भी कहाँ से आया और कहाँ जाएगा ? तुम दोनों परस्पर यह जानते नहीं हो तो यह कुटुंब तुम्हारा कहाँ से ?

  • जन्म दुःखदायी है, वृद्धावस्था दुःखदायी है, संसार में रोग और मृत्यु हैं। अहो ! यह संसार ही दुःख रूप है जहाँ प्राणी पीड़ा का अनुभव करते हैं 

  • जब तक इन्द्रियों की हानि नहीं हुई, जब तक वृद्धावस्था रूपी राक्षसी प्रगट नहीं हुई, जब तक रोग के विकार पैदा नहीं हुए और जब तक मृत्यु नहीं आई है, तब तक हे आत्मा ! तू धर्म का सेवन कर ले 

  • हे जीव ! घर में आग लगी हो तब कोई कुआँ खोदने के लिए समर्थ नहीं होता है, उसी प्रकार मृत्यु के नजदीक आने पर तू धर्म कैसे कर सकेगा ? 

  • यह रूप अशाश्वत है। विद्युत् के समान चंचल अपना जीवन है। संध्या के रंग के समान क्षण मात्र रमणीय यह यौवन है 

  • हाथी के कान की तरह यह लक्ष्मी चंचल है। जीवों का विषयसुख इन्द्रधनुष के समान चपल है । हे जीव ! तू बोध पा और उसमें मोहित न बन 

  • हे जीव ! संध्या के समय में पक्षियों का समागम और मार्ग में पथिकों का समागम क्षणिक है, उसी तरह स्वजनों का संयोग भी क्षणभंगुर है 

  • जिस प्रकार यहाँ सिंह मृग को पकड़कर ले जाते हैं, उसी प्रकार अंत समय में मृत्यु मनुष्य को पकड़कर ले जाती है । उस समय माता-पिता, भाई आदि कोई सहायक नहीं होते हैं 

  • यह जीवन जलबिंदु के समान है। सारी संपत्तियाँ जल की तरंग की तरह चंचल हैं और स्वजनों का स्नेह स्वप्न के समान है, अतः अब जैसा जानो, वैसा करो 

  • अन्य-अन्य जन्मों में रोती हुई माताओं की आँखों में से जो आँसू गिरे हैं, उसका प्रमाण सागर के जल से भी अधिक हो जाता है। 

  • नरक में नारक जीव जिन घोर भयङ्कर अनन्त दुःखों को प्राप्त करते हैं, उससे अनन्तगुणा दुःख निगोद में होता है 

  • हे जीव ! विविध कर्मों की पराधीनता के कारण उस निगोद के मध्य में रहते हुए अनंत पुद्गल परावर्त काल तक तीक्ष्ण दु:खों को तूने सहन किया है 

  • उस संसार को धिक्कार हो, धिक्कार हो, जिस संसार में देव मरकर तिर्यंच बनते हैं और राजाओं के राजा मरकर नरक की ज्वालाओं में पकाए जाते हैं 

  • धन, धान्य, अलङ्कार, घर, स्वजन और कुटुम्ब के मिलने पर भी कर्मरूपी पवन से आहत वृक्ष के पुष्प की तरह अनाथ हो जाता है 

  • संसार में परिभ्रमण करती हुई आत्मा पर्वत पर बसी है, गुफा में बसी है, समुद्र में बसी है और वृक्ष के अग्र भाग पर भी रही है 

  • यह जीव देव बना है, नारक बना है, कीड़ा और पतङ्गा भी बना है और मनुष्य भी बना है । सुन्दर रूपवाला और खराब रूपवाला भी बना है। सुखी भी बना है और दुःखी भी बना है 

  • यह जीव राजा और भिखारी भी बना है। चाण्डाल भी बना है और वेदपाठी भी बना है। स्वामी भी हुआ है और दास भी हुआ है। पूज्य भी बना है और दुर्जन भी बना है। धनवान भी बना है और निर्धन भी बना है 

  • अपने किए हुए कर्म के अनुसार चेष्टा करता हुआ यह जीव नट की तरह अन्य-अन्य रूप और वेष को धारण कर बदलता रहता है इसमें कोई नियम नहीं है (कि पुरुष मरकर पुरुष ही होता है 

  • हे जीव ! नरकगति में तूने अशाता से भरपूर और जिनकी कोई उपमा न दी जा सके, ऐसी वेदनाएँ अनन्तबार प्राप्त की है 

  • देव और मनुष्य भव में भी पराधीनता के कारण अनेक प्रकार का भयङ्कर दुःख अनन्तबार सहन किया है 

  • अनेक प्रकार की महाभयङ्कर वेदना से युक्त तिर्यंचगति को प्राप्तकर इस जीव ने जन्म-मरण रूप अरहट्ट में अनन्तबार परिभ्रमण किया है 

  • इस संसार में जितने भी शारीरिक और मानसिक दुःख हैं वे सब दुःख इस संसार में इस जीव ने अनंती बार प्राप्त किए हैं 

  • संसार में अनन्त बार तुझे ऐसी तृषा लगी, जिसे शान्त करने के लिए सभी समुद्रों का पानी भी समर्थ नहीं था 

  • इस संसार में तुझे अनंत बार ऐसी भी भूख लगी है, जिसे शांत करने के लिए सभी पुद्गल भी समर्थ नहीं थे। 

  • हे जीव ! सुनो ! चंचल स्वभाववाले इन बाह्य पदार्थों और नौ प्रकार के परिग्रह के जाल को यहीं छोड़कर तुझे जाना है। संसार में यह सब इन्द्रजाल के समान है 

  • हे मूर्ख ! इस जगत् में पिता, पुत्र, मित्र, पत्नी आदि का समूह अपने-अपने सुख को शोधने के स्वभाव वाला है। तेरे लिए कोई शरण रूप नहीं है। तिर्यंच और नरकगति में तू अकेला ही दुःखों को सहन करेगा 

  • घास के अग्र भाग पर रहा जलबिंदु अल्पकाल के लिए रहता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी अल्पकाल के लिए है। अतः हे गौतम ! तू एक समय का भी प्रमाद मत कर 

  • तुम बोध पाओ ! तुम्हें बोध क्यों नहीं होता है ? वास्तव में परलोक में बोधि की प्राप्ति होना दुर्लभ है। जिस प्रकार बीते हुए रात-दिन वापस नहीं लौटते हैं, उसी प्रकार यह जीवन पुनः सुलभ नहीं है 

  • अनंत दु:ख के कारणरूप धन, स्वजन और वैभव आदि में तू ममता करता है और अनन्त सुखस्वरूप मोक्ष में अपने आदरभाव को शिथिल करता है

  • जो दुःख का कारण है, दुःख का फल है और जो अत्यन्त दुःसह ऐसे दुखोंवाला है, ऐसे संसार को, स्नेह की साँकल से बँधे हुए जीव छोड़ते नहीं हैं 

  • अपने कर्मरूपी पवन से चलित बना हुआ यह जीव इस संसार रूपी घोर जंगल में असह्य वेदनाओं से युक्त कौन कौनसी विडंबनाओं को प्राप्त नहीं करता है 

  • हे आत्मन् ! तिर्यंच के भव में ठण्डी ऋतु में ठण्डी लहरियों से तेरा पुष्ट देह भेदा गया और तू अनन्ती बार मरा है 

  • इस आत्मा ने तिर्यंच के भव में भयङ्कर जङ्गल में ग्रीष्म ऋतु के ताप से अत्यन्त ही संतप्त होकर अनेक बार भूख और प्यास की वेदना से दुःखी होकर मरण के दुःख को प्राप्त किया है 

  • तिर्यंच के भव में जङ्गल में वर्षा ऋतु में झरने के जल के प्रवाह में बहते हुए तथा ठण्डे पवन से संतप्त होकर अनेक बार बेमौत मरा है 

  • इस प्रकार इस संसार रूपी जङ्गल में हजारों लाखों प्रकार के दुःखों से पीड़ित होकर तिर्यंच के भव में अनन्त बार रहा है 

  • हे जीव ! दुष्ट ऐसे आठ कर्मरूपी प्रलय के पवन से प्रेरित होकर इस भयङ्कर जङ्गल में भटकता हुआ तू अनन्त बार नरकगति में भी गया है 

  • जहाँ वज्र की आग के समान दाह की पीड़ा है और भयङ्कर असह्य शीतवेदना है ऐसी सातों नरक पृथवियों में भी करुण शब्दों से विलाप करता हुआ अनन्त बार रहा है 

  • साररहित ऐसे मानवभव में माता-पिता तथा स्वजनरहित भयङ्कर व्याधि से अनेक बार पीड़ित हुआ तू विलाप करता था, उसे तू क्यों याद नहीं करता है ?

  • स्थान-स्थान में धन तथा स्वजन के समूह को छोड़कर भव वन में अपरिचित बना हुआ यह जीव आकाश मार्ग में पवन की तरह अदृश्य रहकर भटकता रहता है 

  • इस संसार में भटकनेवाले जीव जन्म, जरा और मृत्युरूपी तीक्ष्ण भालों से बिंधाते हुए भयङ्कर दुःखों का अनुभव करते हैं 

  • इस देहरूपी बावड़ी में तू कितने समय तक क्रीड़ा करेगा? जहाँ से प्रति समय कालरूपी अरहट के घड़ों द्वारा जीवनरूपी पानी के प्रवाह का शोषण हो रहा है 

Saturday, July 18, 2020

शास्त्र का अध्ययन क्यों करना?

👉🏻क्या इसलिये करना कि मैं दूसरे को पडाऊं। और दूसरो को पढ़ाके लोग कहें कि ’बहुत ज्ञान है’ इसमें सन्तुष्ट हो जाऊं?
👉या अपना समय व्याकरण आदि पढ़ने में गवा देना। या आलू प्याज का त्याग करके सन्तुष्ट हो जाना। या पाप से हटके पुण्य में सन्तुष्ट हो जाना?

*शास्त्र अध्यायन का प्रथम प्रयोजन है* - तत्व ज्ञान। अध्यात्म शास्त्रो से 7 तत्व तो पढ़ लिये, मगर 
👉मैं ज्ञान हूं, ऐसी मान्यता नहीं हुई। अपने को अनादि अनन्त जीव तत्व नहीं जाना
👉ये क्रोध, बुद्धि, intelligence, talent, शरीर, धन, परिवार का मेरे से किस प्रकार का सम्बन्ध है - ये नहीं जाना
👉अपने उठने वाली कषाय और अश्रद्धान को आस्रव नहीं देखना शुरू किया, उसे छोङने लायक नहीं जाना
👉अपने अन्दर आठ कर्मो की सत्त्ता को स्वीकार नहीं किया, और उसे अहितकारी रूप स्वीकार नहीं किया
👉मिथ्यात्व, पाप, कषाय रहित होकर मैं कर्मो को रोक दूं - ऐसा लक्ष्य नहीं लिया
👉तपस्या से मैं सारे कर्मो का नाश कर दू - ऐसा लक्ष्य नहीं लिया
👉सब कर्म, शरीर से सदा के लिये मुक्त हो जाऊं- उस मुक्त अवस्था को दुनिया में सबसे उत्तम अवस्था नहीं मानी। और संसार के अन्य अवस्थाओं के पीछे भागता रहा
👉आस पास के जीवो को आत्मा और कर्म और शरीर से मिला जुला पिण्ड ना देखकर उसे एक पर्याय रूप ही देखता रहा

तो फ़िर मेरे शास्त्र अभ्यास का क्या फ़ायदा?

Wednesday, July 15, 2020

दूसरो के दोष मेरे मन में क्यों चलते हैं?

हम देखे कि कहीं ऐसा तो नहीं कि दूसरो के दोष हमारे चित्त में चलते रहते हैं। ऐसा अधिकतर तब होता है कि जब हमें सामने वाले में तो दोष दिखाई देता है और वो दोष हमारे अन्दर नहीं दिखाई देता। तो हमें अपने निर्दोष होने पर जो मान होता है, उसके वजह से दूसरे के दोष के प्रति हमारे मन में तिरस्कार भाव रहता है, और उसके प्रति चिन्तन चलता है। उसके प्रति द्वेष रहता है।

हम ऐसा समझे कि जैसा सामने वाले के अन्दर दोष है, ऐसा मेरे साथ भी हो सकता है। अभी कर्मोदय या हीन पुरूषार्थ की वजह से उसमें ये दोष है, तो मेरे अन्दर उसके सुधार की भावना होनी चाहिये। उसके दोष के बारे में चिन्तन से मेरे मन जो उसके प्रति द्वेष, तिरस्कार होता है उससे मैं नीच गोत्र का बन्धन करता हूं। और मेरे जब दोष उजागर होयेंगे तो मुझे दूसरे के प्रति तिरस्कार प्राप्त होयेगा।

Sunday, July 5, 2020

ममता, इष्ट अनिष्ट चिन्तन

वस्तु मेरी, या इष्ट-अनिष्ट नहीं होती, मगर हमारे उसके साथ हमारे interactions कभी उपकारक और कभी अपकारक बनते हैं। जब उपकारक बनते हैं, तो हम ऐसा मानने लगते हैं कि इससे हमारे सम्बन्ध सदा उपकारक ही रहेंगे। जैसे कोई अनित्य वस्तु थोङे ही समय के लिये हमारे पास है, मगर ऐसा प्रतीत होने लगता है कि ये सदा रहेगा। ऐसे हे उपकारक सम्बनध होने पर, इससे मेरे को सदा उपकार होगा, ऐसा प्रतीत होने लगता है। 


और उस वस्तु में इष्टपने की बुद्धि बना लेते हैं, और उससे राग करते हैं। और जो इससे राग या द्वेष करते हैं, उससे भी राग द्वेष करता है। इस वस्तु में राग की वजह से पांच पाप, चार कषाय, इन्द्रिय भोग भी करता है। जबकि उस वस्तु में इष्टपने की मानयता मिथ्या है। पुण्य उदय वशात उस वस्तु के साथ उपकारक सम्बन्ध बन गया। अनादि से अनन्त काल तक कर्म वशात उसी वस्तु से कभी उपकारक और कभी अपकारक सम्बन्ध बन जाता है।


इस दुनिया सब जीवो के अन्य जीवो से कर्म वशात उपकारक/अपकारक सम्बन्ध तो हैं, मगर इष्ट अनिष्ट सम्बन्ध नहीं हैं। कोई जीव दूसरे किसी जीव को सदा उपकार ही करता हो, या अपकार ही करता हो ऐसा कोई सम्बन्ध नहीं है। मगर ऐसी मान्यता मोह वशात है जिसे इष्ट-अनिष्ट बुद्धि कहते हैं।


Saturday, July 4, 2020

सेठ सुदर्शन जी से सीखने योग्य बातें

🌼जब राजा ने सेठ सुदर्शन को मारने की आज्ञा दी, तो सेठ जी ने कोई अपनी तरफ़ से सफ़ाई नहीं दी। रानी का दोष नहीं बताया, मगर समता से ही सब कुछ सहा। अपनी पत्नी और पुत्र के प्रति ममता ने उनको व्याकुल नहीं किया - कि मेरे मरने के बाद उनका क्या होगा?

🌼जब कपिला ने उनसे गलत सम्बन्ध के लिये कहा, तो उन्होने बङी चतुराई से यह कह दिया- कि मैं तो नपुंसक हूं, जिससे कपिला के मन का विकार ही समाप्त हो जाये। और अपने मान की परवाह नहीं की।

🌼पिछले भव में गवाले थे। और सम्यग्दॄष्टी नहीं थे। इस एक ही भव में उन्होने महान पुरूषार्थ से एक आदर्श श्रावक बने, उपसर्गो को सहा, फ़िर मुनि बने और फ़िर उपसर्गो को सहा और पटना से केवलज्ञान प्राप्त किया।

🌼जिस प्रकार से उपसर्ग उन पर रानी और वैश्या ने किये, उनको जीत पाना विरले जीव ही कर सकते हैं।

Thursday, July 2, 2020

कर्तत्व/भोक्तृत्व भाव से मेरा नुकसान

हम देखे कि किस किस प्रकार की कार्यो में मेरा कर्तापना होता है:
👉🏻मैंने सम्पत्ति इकट्ठी करी, दूसरो को समझाया, किताबे लिखी, परिवार पाला, कलायें सीखे, खेल खेले, विषय भोग भोगे, इत्यादि

किस किस प्रकार की कर्ता पने से कषायें होती हैं -
👉🏻’देखो मैने ये ये कार्य किया’ इस प्रकार का मान
👉🏻’देखो, उसे ये भी करना नहीं आता’ - इस प्रकार से दूसरे के प्रति तिरस्कार
👉🏻’उसने यह करना कैसे सीख लिया’ - इस प्रकार से ईर्ष्या
👉🏻’मैं भविष्य में ये करूंगा, ये करना मैं सीखूंगा’ - इस प्रकार का लोभ
👉🏻’जो मुझे करना आता है, वो मुझसे छूट ना जाये’, ’दूसरे मेरे कार्य को तिरस्कार तो नहीं करेंगे’  - इस प्रकार का भय
👉🏻’अगर कोई मेरे कर्तत्व में बाधक आये’ - उसके प्रति क्रोध, भय
👉🏻’हाय मैने ऐसा क्यों कर दिया’ - ऐसा शोक


और ऊपर वाली कषायो से प्रेरित होकर जीव हिंसा, झूठ, चोरी, परिग्रह, कुशील - ये पांच पाप भी करता है।

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भोक्तृत्व भाव से मेरा नुकसान
ये मैने सुख भोगा, दुख भोगा - इस प्रकार के विकल्प चलते रहते हैं।

सुखद अनुभव से राग, सन्तोष का अनुभव करता है, और दुखद अनुभव के प्रति द्वेष का अनुभव करता है।

किस किस प्रकार की भोक्ता पने से कषायें होती हैं -
👉🏻’देखो मैने ये ये सुख भोगा ’ इस प्रकार का मान
👉🏻’देखो, उसे ये तो सुख मिला ही नहीं’ - इस प्रकार से दूसरे के प्रति तिरस्कार
👉🏻’उसने यह कैसे सुख भोग लिया’ - इस प्रकार से ईर्ष्या
👉🏻’मैं भविष्य में ये भोगूंगा’ - इस प्रकार का लोभ
👉🏻’जो मैं भोगता हूं, वो मुझसे छूट ना जाये’  - इस प्रकार का भय
👉🏻’अगर कोई मेरे सुखद भोक्तृत्व में बाधक आये’ - उसके प्रति क्रोध, भय
👉🏻’हाय मैने ऐसा क्यों दुख भोगा’ - ऐसा शोक

मैं किसी को छूता ही नहीं

वास्तविक जगत और जो जगत हमें दिखाई देता है उसमें अन्तर है। जो हमें दिखता है, वो इन्द्रिय से दिखता है और इन्द्रियों की अपनी सीमितता है। और जो ...