सहज चिन्तन, सहज परिक्षा, करे सहज आनन्द,
सहज ध्यान, सहज सुख, ऐसे सहजानन्द।
न्याय ज्ञान, अनुयोग ज्ञान, अरू संस्कृत व्याकरण,
ऐसे ज्ञान का तीर चलाकर, करे राग द्वेष दमन।
मैं अभागा मैं अज्ञानी, कहां मिले गुरु चरण,
हर्षित हुआ गुरु पाकर, परोक्ष ही हुए दर्शन।
आत्म ज्ञान की कला, जो सबमें करे आनन्द,
ऐसी कला को समझाने वाले, महान सहजानद।
आचार्य गुरू उपदेश दे, शब्द पङे गम्भीर,
मंथन कर सरल करी, ऐसे सहजानन्द वीर।
भव भव दुःख पाकर, दुःख मार्ग ही अपनाऊं,
सुःख मार्ग लेने, अब तुम चरण मे चित्त लाऊं।
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शरीर
परमाणु से परमाणु मिले, हुआ शरीर निर्माण,
इसमें मैं अहं बुद्धि धरू, मिटे न भव बंधान।
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कर्मकाण्ड जी, नेमिचन्द्राचार्य जी:
अज्ञान खण्डन, ज्ञान मण्डन, असत्य नाशक, सत्य प्रकाशक।
अहित विमुखाय, हित दर्शाय, मुनिवर नेमि, तोङे भव फ़ेरि॥
आत्मा एक, कर्म अनेक, स्वभाव एक, विभाव अनेक।
समझना जटिल, मिथ्यामति कुटिल, रहस्य प्रकटाय, कर्मकाण्ड सिरनाय।।
कूआं एक, पिपासु अनेक, प्यासे आयें, प्यास बुझावें।
कर्मकाण्ड एक, श्रोता अनेक, विभावी आवें, विभाव मिटावें॥
ज्ञान पकटाय, समता दिलाय, बन्धन तुङाय, स्वाश्रय दिलाय।
आनन्द प्रकटाय, विकास कराय, शरण मे आउं, मुक्ति पाउं॥
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Dream for Kevalgyaan:
A little boy,
who holds a kite,
in a sunny optimistic day,
with an optimism which his father has filled him with,
that there is world beyond the clouds,
there is a sky, infinite,
and you can reach to it,
by flying high
with your kite,
and ambition.
Similarly,
I hold some knowledge,
which had been given to me by the Lord,
and He says there is a world,
with infinite knowledge,
and bliss,
and constant-ness,
~dream high~
~reach to it~
and I am unaware of the path,
about - how to fly the kite?
- how to reach to it?
Still, I am want the dream to become real
someday.
somehow.
The boy,
tries hard,
pulls the rope- flies the kite,
it falls onto his face.
Dejected, he cries.
The father comes, and says-
"this is how you learn"
The boys, adds some patience
to his rope,
and right direction to the kite,
and start trying to reach to the sky,
which in infinite,
never ending, blissful,
and something which he does not know completely about.
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यह प्रकाश कहां से आ रहा है।
कुछ सत्य सा भासित होता है।
इस धुंधले से परिवेश में
किस दिशा में जाऊं कि प्रकाश बढ़े।
ये मेरे ज्ञान का बल मेरे को खींच के
कहें तो ले-ले जाता है।
सत्यार्थ या असत्यार्थ, स्पष्ट पता नहीं पङ पाता है।
मैं भ्रमण कर रहा उस क्षण के इन्तजार में,
जब पूर्ण सत्य का भान हो।
मगर ये मेरा स्थूल ज्ञान,
सत्यार्थ प्रकाशित नहीं कर पाता है।
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