Wednesday, July 14, 2021

संसार का स्वरूप

 सारे जीव जन्म मरण के दुख भोग रहे हैं। इसके पीछे एक ही मूल कारण है - अज्ञानता। यह अज्ञानता है - मैं कौन, मेरे को इष्ट क्या, अनिष्ट क्या। कर्म का भान ना होना। 

लौकिक क्षेत्र में भी अज्ञानता से कैसे कैसे दुख भोगता है। जैसे:

  • अज्ञान से मानव जाति प्रकृति से खिलवाङ कर रही है।
  • कुछ लोगो को देखकर पूरे समुदाय को एक जैसा समझना। 
  • किसी व्यक्ति के 1-2 बार अनुभवो को देखकर उसे सर्वथा वैसा ही समझ लेना
  • यह समझना कि हिंसा से समाधान निकल जायेग। 
  • यह समझना कि क्रोध से समाधान निकल जायेग। इत्यादि

ऐसे ही अपने इन्द्रिय ज्ञान को सम्यक मानते हुवे - 

  • शरीर, परिवार, धन आदि को अपना मानकर उसकी रक्षा करने और उसे बढ़ने के लिये कितने पाप करता है - हिंसा करता है। 
  • दूसरी चीजे अच्छी हैं बुरी हैं-  ये विकल्प करके कितने पाप करता है। 
  • यह नहीं जानता कि इनमें से तेरा कुछ भी शाश्वत नहीं है। 
  • कर्म से ही सब कुछ मिला है - इसलिये ना कुछ तेरा, ना अच्छा और् ना बुरा। और तेरी इष्ट अनिष्ट बुद्धि से ही तुझे मानसिक सुख दुख मिलता है
  • इन्द्रिय सुख से मानसिक सुख होना समझ बैठा है। और पर पदार्थो में हेर फ़ेर् करने में लगा है, जबकि सुख तो तुझे अपनी इष्ट अनिष्ट बुद्धि को तजने से आता है। 

मनुष्य में ही कुछ समुदाय के लोग पर्याय बुद्धि वशात अपने को उस समुदाय से इतना जोङ लेते हैं- कि उनके जीवन का लक्ष्य दूसरो को नीचा दिखाना, अपने समुदाय के लिये विषयों की समस्त सामग्री इकट्ठा करना। यही लक्ष्य हो जाता है। अपने को आत्मा ना समझने से और कर्म का ज्ञान ना होने से आस्रव करते हैं, और दुखो को भोगते हैं।

कितने ही जानवर अपना पूरा जीवन पर्यायबुद्धि वश भय, परिग्रह संचय में, हिंसा आदि में व्यतीत करदेते हैं, और आस्रव होता रहता है। ऐसा ही कितने मनुष्यों के साथ होता है।

देवता लोग भी पर्यायमूढ़ होकर विषयों में ही आनन्द मानते हुवे, आस्रव करते हुवे पूरी जीवन व्यतीत करते हैं।

इस प्रकार अज्ञानता की अग्नि में कषायो से पूरा संसार जल रहा है। आस्रव कर रहा है। बन्ध के दुख भोग रहा है। और ऐसा करता ही जा रहा है।

Sunday, July 11, 2021

संसार में लोग क्यों भाग रहे हैं? - Part 2

ऐसा समझ में आता है कि संसारी जीव को ये चीजे चाहिये

▪️इन्द्रिय सुख  

▪️मानसिक सुख 

▪️अपने मान और अन्य कषायो की पूर्ती

▪️अच्छा मकान, व्यवसाय, धन, परिग्रह

▪️अच्छा शरीर, परिवार आदि


*अब देखते हैं कि ये चीजे क्यों चाहियें?*


बिना ज्ञान के कोई डायबीटीज का मरीज चीनी खाता रहता है, उसे उसमें रस लेकर आनन्द मानता है, मगर यह नहीं जानता कि वो अपने पैरो पर कुल्हाङी मार रहा है। ऐसे ही हम संसारी जीव अनादि से कर रहे हैं। 


▪️*इन्द्रिय सुख*: वो इसको नित्य बनाने का प्रयास करता रहता है, जबकि वो अनित्य है। "इससे कर्म बन्ध होता है इसलिये ये मेरे दुख का कारण है, यह नहीं समझता", बल्कि उसे मित्र समझकर प्राप्त करने का प्रयास करता है। उसे यह नहीं समझ में आता कि इन्द्रिय सुख केवल हमें इन्द्रिय सुख दे सकता है, मानसिक सुख नहीं।   इस प्रकार गलत समझ से वो इसी के पीछे भागता रहता है, और उसमें अनेक पाप करते हुवे बहुत पाप कर्मो का संचय करता है। 

▪️*मानसिक सुख*: अपने थोङे से मानसिक सुख के लिये या तनाव मुक्त होने के लिये ही अधिकतर धर्म या अध्यात्म करता है, मगर शाश्वत सुख को नहीं जानता। मानसिक सुख इष्ट अनिष्ट, ममत्व, कर्तत्व, भोक्तृत्व आदि की वजह से होती है। मगर उसे अपने मानसिक सुख के कारण बाहर ही दिखाई देते हैं, और बाहर में चीजे इकट्ठी करता है, और अपने अन्दर की इष्ट अनिष्ट आदि बुद्धि को सही करने का प्रयास नहीं करता।

▪️*मान की पुष्टी* के लिये प्रसिद्धि, धन आदि चाहता है। उन्हे इस प्रकार इकट्ठा करताहै , जैसे वो हमेशा इसके पास रहने वाले हों। उन्हे और अपने शरीर को अपना मानता है। उन्हे सुख का कारण मानता है, जबकि वो उसके कर्म बन्धन में ही कारण बनते हैं।

▪️*हिंसा* करके सुख मानता है। कषाय को अपना स्वभाव मानता है। और उन्ही में लगा रहता है।

▪️*सच्चे सुख का ज्ञान नहीं*: उसे सच्चे सुख और ज्ञान का भान नहीं। इसलिये इन्द्रिय सुख और इन्द्रिय ज्ञान के पीछे ही भागता रहता है।

Sunday, July 4, 2021

संसार में लोग क्यों भटक रहे हैं?

संसार में लोग क्यों भटक रहे हैं:


अज्ञानता वश भटक रहे हैं और दुख भोग रहे है। 


  • (आस्रव तत्त्व) हिंसा में आनन्द मान रहे हैं, जबकि कर्म का आस्रव हो रहा है।
  • (आस्रव तत्त्व) परिग्रह में सुख मान रहें हैं, जबकि वो छुटने वाला है।
  • (आस्रव तत्त्व) धन इकट्ठा होकर मानी हो रहे हैं, जबकि उसका राग तेरा पतन कर रहा है।
  • (बन्ध तत्त्व) दूसरे को सुख दुख का कारण समझकर उसे हटाने या जुगाङने की कोशिश में लगा है, जबकि मूल कारण कर्म के लिये कुछ नहीं कर रहा।
  • (आस्रव तत्त्व) मानसिक दुखी तीव्र कषायो से होता है| उसके लिये दूसरो को दोष दे रहा है। जबकि इसकी कषायो की जिमीदारे को इसकी खुद की है।
  • (आस्रव तत्त्व) इन्द्रिय सुख के पीछे भाग रहा है, जबकि उससे दुख ही मिलता है। अतिन्द्रिय सुख को जानता ही नहीं।
  • (मोक्ष तत्त्व) इन्दिय ज्ञान को बढ़ाने में लगा है, जबकि अतिन्द्रिय ज्ञान के बारे में पता हीन हीं
  • (मोक्ष तत्त्व) संयोगो में सुख समझ रखा है, जबकि सुख सबके वियोग में है।
  • (आस्रव तत्त्व) कषायों को बिमारी नहीं समझता।
  • (मोक्ष तत्त्व) मुक्ति सुखको  ना जानता है, और ना ही उसके लिये कार्य करता है।
  • (जीव अजीव तत्त्व) पर्यायबुद्धि होकर दुखी हो रहा है। शरीर और कषाय को अपना मान बैठा है। बिमारी को अपना स्वभाव मान बैठा है।
  • (संवर निर्जरा तत्त्व) तप, ज्ञान, ध्यान को उपयोगी नहीं मानता।

मैं किसी को छूता ही नहीं

वास्तविक जगत और जो जगत हमें दिखाई देता है उसमें अन्तर है। जो हमें दिखता है, वो इन्द्रिय से दिखता है और इन्द्रियों की अपनी सीमितता है। और जो ...