Tuesday, December 1, 2020

Why am I suffering?

Because of ignorance I think of myself as what I am not. This sense of 'separate self' cause sufferings. Illusions like  - 'I am angry', 'I am in pain', 'I am old', 'I am intelligent', 'I am better than my neighbour' cause wrong perceptions like Ekatva, Mamatva, Kartatva, Bhokrutva etc. These illusions cause passions. And I weave the passions as a spider does and get stuck within.


If I am in my 'real self', then there is no illusion. There is no good or bad. I neither age nor die. There are no desires because I am ever complete, ever pristine and ever pure. And liberation happens.

Saturday, November 21, 2020

अन्तरात्मा और बहिरात्मा

 बहिरात्मा के गुण: 

▪️शरीर के लिये सारा जीवन व्यतीत करता है।

▪️पुद्गलो में सुख ढूंढ़ता है। सुख सुविधा के साधन इकट्ठा करके सुखी होता है।

▪️इसका लक्ष्य होता है - मैं अपने व्यक्तित्व को कैसे बढ़ाऊं, कैसे धन कमाऊं, कैसे परिवार को बढ़ाऊं, कैसे अपने नाम को बढ़ाऊं

▪️एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करता है।


अन्तरात्मा के गुण:

▪️संसार को छोटा करता चला जाता है।

▪️नाम, पद, प्रतिष्ठा को गौण करता है, अपने जीव को मुख्यता देता है

▪️आरम्भ, समारम्भ त्यागकर, सुख सुविधा, परिग्रह को कम करके प्रसन्न होता है।

▪️सबमें आत्मा के दर्शन करता है। सबको समान देखता है।

▪️अपनी आत्मा में सुख प्राप्त कर सन्तुष्ट होता है।

Sunday, August 23, 2020

आत्माश्रित करूणा - Compassion

 किसी ने गुस्सा किया। तो देखे उसके अन्दर अनिष्ट बुद्धि थी। ’यह पर पदार्थ मेरे लिये बुरा है’ यह अज्ञान था- विभाव था - रोग था। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में यह विशेषता है कि वो गलत ज्ञान भी कर सकता है - और उसने भी कुछ गलत ज्ञान कर लिया। वो अनिष्ट बुद्धि के कारण और क्रोध कर्मे के उदय उदीरण से उसकी आत्मा रोगी होकर - गुलाम होकर - मोहित होकर द्वेष करने लगा। उस क्रोध को रोग जानकार करूणा करना।



Sunday, July 19, 2020

वैराग्य शतकम - selected verses

  • Why am I interested in body, family, home and money - while they neither give sukh or dukh to me. Even an iota of interest in them causes me suffering, then why interest?

  • सभी बान्धव, मित्र, पिता, माता, पुत्र, पत्नी आदि मृतक के प्रति जलांजलि देकर श्मसानभूमि से वापस अपने घर लौट आते हैं ॥

  • इस संसार में पुत्रों का वियोग होता है, बन्धुओं का वियोग होता है, पत्नी का वियोग होता है, एक मात्र जिनेश्वर भगवन्त के धर्म का कभी वियोग नहीं होता है

  • वैभव, स्वजनों का संग, विलास से मनोहर सुख-सभी कमल के पत्र के अग्रभाग पर रहे जलबिंदु की भांति अत्यन्त ही चंचल हैं 

  • शरीर का बल कहाँ गया ? वह जवानी कहाँ चली गई । शरीर का सौंदर्य कहाँ चला गया ? काल इन सभी को तहस नहस कर देता है, अतः सब कुछ अनित्य है, ऐसा समझो

  • गाढ़ कर्म रूपी पाश से बँधा हुआ जीव इस संसार रूपी नगर की चार गति रूप मार्ग में अनेक प्रकार की विडंबनाएँ प्राप्त करता है, यहाँ उसको शरण देनेवाला कौन है ? 

  • कर्म के प्रभाव से यह जीव वीर्य और मल रूपी कीचड़ की अशुचि से भयानक ऐसे गर्भावास में अनंतीबार रहा है 

  • इस संसार में रहे हुए और चौरासी लाख योनि में बसे हुए माता-पिता व बंधु द्वारा यह लोक भरा हुआ है, परंतु रक्षण करनेवाला या शरण देनेवाला कोई नहीं है 

  • रोगों से आक्रान्त यह जीव जल बिन मछली की भाँति तड़पता है, तब सभी स्वजन उसे रोग से पीड़ित देखते हैं फिर भी कोई भी उस वेदना को दूर करने में समर्थ नहीं होता है 

  • हे जीव ! तू यह मत मान ले कि इस संसार में पुत्र, स्त्री आदि मुझे सुख के कारण बनेंगे। क्योंकि संसार में भ्रमण करते हुए जीवों को पुत्र-स्त्री आदि तीव्र बंधन के ही कारण बनते हैं 

  • इस संसार में कर्म की पराधीनता के कारण सभी जीवों की ऐसी अनवस्था है कि माता मरकर पत्नी बनती है, पत्नी मरकर माता बनती है और पिता मरकर पुत्र बनता है 

  • इस संसार में ऐसी कोई जाति नहीं, ऐसी कोई योनि नहीं, ऐसा कोई स्थान नहीं, ऐसा कोई कुल नहीं, जहाँ सभी जीव अनंत बार जन्मे और मरे न हों 

  • इस संसार में बाल के अग्र भाग के जितना भी स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ इस जीव ने अनेक बार सुख-दुःख की परंपरा प्राप्त न की हो

  • यह जीव अकेला ही कर्मबंध करता है । अकेला ही वध, बंधन और मरण के कष्ट सहन करता है । कर्म से ठगा हुआ जीव अकेला ही संसार में भटकता है 

  • अन्य कोई जीव अपना अहित नहीं करता है और अपना हित भी आत्मा स्वयं ही करती है, दूसरा कोई नहीं करता है । अपने ही किए हुए कर्मों को - सुखदुःख को तू भोगता है, तो फिर दीन मुखवाला क्यों बनता है ? 

  • हे जीव ! बहुत से आरंभ समारंभ से उपार्जित तेरे धन का स्वजन लोग भोग करते हैं परंतु उस धन के उपार्जन में बंधे हुए पापकर्म तुझे ही भोगने पड़ेंगे 

  • हे आत्मन् ! तुमने "मेरे बच्चे दुःखी हैं, भूखे हैं ?" इस प्रकार की चिंता की, परंतु कभी भी अपने हित की चिंता नहीं की ? अतः अब तुझे क्या कहें ? 

  • यह शरीर क्षणभंगुर है और उससे भिन्न आत्मा शाश्वत स्वरूपी है। कर्म के वश से इसके साथ संबंध हुआ है, अतः इस शरीर के विषय में तुझे मूर्छा क्यों है ? 

  • हे आत्मा ! यह कुटुंब कहाँ से आया और कहाँ जाएगा ? तू भी कहाँ से आया और कहाँ जाएगा ? तुम दोनों परस्पर यह जानते नहीं हो तो यह कुटुंब तुम्हारा कहाँ से ?

  • जन्म दुःखदायी है, वृद्धावस्था दुःखदायी है, संसार में रोग और मृत्यु हैं। अहो ! यह संसार ही दुःख रूप है जहाँ प्राणी पीड़ा का अनुभव करते हैं 

  • जब तक इन्द्रियों की हानि नहीं हुई, जब तक वृद्धावस्था रूपी राक्षसी प्रगट नहीं हुई, जब तक रोग के विकार पैदा नहीं हुए और जब तक मृत्यु नहीं आई है, तब तक हे आत्मा ! तू धर्म का सेवन कर ले 

  • हे जीव ! घर में आग लगी हो तब कोई कुआँ खोदने के लिए समर्थ नहीं होता है, उसी प्रकार मृत्यु के नजदीक आने पर तू धर्म कैसे कर सकेगा ? 

  • यह रूप अशाश्वत है। विद्युत् के समान चंचल अपना जीवन है। संध्या के रंग के समान क्षण मात्र रमणीय यह यौवन है 

  • हाथी के कान की तरह यह लक्ष्मी चंचल है। जीवों का विषयसुख इन्द्रधनुष के समान चपल है । हे जीव ! तू बोध पा और उसमें मोहित न बन 

  • हे जीव ! संध्या के समय में पक्षियों का समागम और मार्ग में पथिकों का समागम क्षणिक है, उसी तरह स्वजनों का संयोग भी क्षणभंगुर है 

  • जिस प्रकार यहाँ सिंह मृग को पकड़कर ले जाते हैं, उसी प्रकार अंत समय में मृत्यु मनुष्य को पकड़कर ले जाती है । उस समय माता-पिता, भाई आदि कोई सहायक नहीं होते हैं 

  • यह जीवन जलबिंदु के समान है। सारी संपत्तियाँ जल की तरंग की तरह चंचल हैं और स्वजनों का स्नेह स्वप्न के समान है, अतः अब जैसा जानो, वैसा करो 

  • अन्य-अन्य जन्मों में रोती हुई माताओं की आँखों में से जो आँसू गिरे हैं, उसका प्रमाण सागर के जल से भी अधिक हो जाता है। 

  • नरक में नारक जीव जिन घोर भयङ्कर अनन्त दुःखों को प्राप्त करते हैं, उससे अनन्तगुणा दुःख निगोद में होता है 

  • हे जीव ! विविध कर्मों की पराधीनता के कारण उस निगोद के मध्य में रहते हुए अनंत पुद्गल परावर्त काल तक तीक्ष्ण दु:खों को तूने सहन किया है 

  • उस संसार को धिक्कार हो, धिक्कार हो, जिस संसार में देव मरकर तिर्यंच बनते हैं और राजाओं के राजा मरकर नरक की ज्वालाओं में पकाए जाते हैं 

  • धन, धान्य, अलङ्कार, घर, स्वजन और कुटुम्ब के मिलने पर भी कर्मरूपी पवन से आहत वृक्ष के पुष्प की तरह अनाथ हो जाता है 

  • संसार में परिभ्रमण करती हुई आत्मा पर्वत पर बसी है, गुफा में बसी है, समुद्र में बसी है और वृक्ष के अग्र भाग पर भी रही है 

  • यह जीव देव बना है, नारक बना है, कीड़ा और पतङ्गा भी बना है और मनुष्य भी बना है । सुन्दर रूपवाला और खराब रूपवाला भी बना है। सुखी भी बना है और दुःखी भी बना है 

  • यह जीव राजा और भिखारी भी बना है। चाण्डाल भी बना है और वेदपाठी भी बना है। स्वामी भी हुआ है और दास भी हुआ है। पूज्य भी बना है और दुर्जन भी बना है। धनवान भी बना है और निर्धन भी बना है 

  • अपने किए हुए कर्म के अनुसार चेष्टा करता हुआ यह जीव नट की तरह अन्य-अन्य रूप और वेष को धारण कर बदलता रहता है इसमें कोई नियम नहीं है (कि पुरुष मरकर पुरुष ही होता है 

  • हे जीव ! नरकगति में तूने अशाता से भरपूर और जिनकी कोई उपमा न दी जा सके, ऐसी वेदनाएँ अनन्तबार प्राप्त की है 

  • देव और मनुष्य भव में भी पराधीनता के कारण अनेक प्रकार का भयङ्कर दुःख अनन्तबार सहन किया है 

  • अनेक प्रकार की महाभयङ्कर वेदना से युक्त तिर्यंचगति को प्राप्तकर इस जीव ने जन्म-मरण रूप अरहट्ट में अनन्तबार परिभ्रमण किया है 

  • इस संसार में जितने भी शारीरिक और मानसिक दुःख हैं वे सब दुःख इस संसार में इस जीव ने अनंती बार प्राप्त किए हैं 

  • संसार में अनन्त बार तुझे ऐसी तृषा लगी, जिसे शान्त करने के लिए सभी समुद्रों का पानी भी समर्थ नहीं था 

  • इस संसार में तुझे अनंत बार ऐसी भी भूख लगी है, जिसे शांत करने के लिए सभी पुद्गल भी समर्थ नहीं थे। 

  • हे जीव ! सुनो ! चंचल स्वभाववाले इन बाह्य पदार्थों और नौ प्रकार के परिग्रह के जाल को यहीं छोड़कर तुझे जाना है। संसार में यह सब इन्द्रजाल के समान है 

  • हे मूर्ख ! इस जगत् में पिता, पुत्र, मित्र, पत्नी आदि का समूह अपने-अपने सुख को शोधने के स्वभाव वाला है। तेरे लिए कोई शरण रूप नहीं है। तिर्यंच और नरकगति में तू अकेला ही दुःखों को सहन करेगा 

  • घास के अग्र भाग पर रहा जलबिंदु अल्पकाल के लिए रहता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी अल्पकाल के लिए है। अतः हे गौतम ! तू एक समय का भी प्रमाद मत कर 

  • तुम बोध पाओ ! तुम्हें बोध क्यों नहीं होता है ? वास्तव में परलोक में बोधि की प्राप्ति होना दुर्लभ है। जिस प्रकार बीते हुए रात-दिन वापस नहीं लौटते हैं, उसी प्रकार यह जीवन पुनः सुलभ नहीं है 

  • अनंत दु:ख के कारणरूप धन, स्वजन और वैभव आदि में तू ममता करता है और अनन्त सुखस्वरूप मोक्ष में अपने आदरभाव को शिथिल करता है

  • जो दुःख का कारण है, दुःख का फल है और जो अत्यन्त दुःसह ऐसे दुखोंवाला है, ऐसे संसार को, स्नेह की साँकल से बँधे हुए जीव छोड़ते नहीं हैं 

  • अपने कर्मरूपी पवन से चलित बना हुआ यह जीव इस संसार रूपी घोर जंगल में असह्य वेदनाओं से युक्त कौन कौनसी विडंबनाओं को प्राप्त नहीं करता है 

  • हे आत्मन् ! तिर्यंच के भव में ठण्डी ऋतु में ठण्डी लहरियों से तेरा पुष्ट देह भेदा गया और तू अनन्ती बार मरा है 

  • इस आत्मा ने तिर्यंच के भव में भयङ्कर जङ्गल में ग्रीष्म ऋतु के ताप से अत्यन्त ही संतप्त होकर अनेक बार भूख और प्यास की वेदना से दुःखी होकर मरण के दुःख को प्राप्त किया है 

  • तिर्यंच के भव में जङ्गल में वर्षा ऋतु में झरने के जल के प्रवाह में बहते हुए तथा ठण्डे पवन से संतप्त होकर अनेक बार बेमौत मरा है 

  • इस प्रकार इस संसार रूपी जङ्गल में हजारों लाखों प्रकार के दुःखों से पीड़ित होकर तिर्यंच के भव में अनन्त बार रहा है 

  • हे जीव ! दुष्ट ऐसे आठ कर्मरूपी प्रलय के पवन से प्रेरित होकर इस भयङ्कर जङ्गल में भटकता हुआ तू अनन्त बार नरकगति में भी गया है 

  • जहाँ वज्र की आग के समान दाह की पीड़ा है और भयङ्कर असह्य शीतवेदना है ऐसी सातों नरक पृथवियों में भी करुण शब्दों से विलाप करता हुआ अनन्त बार रहा है 

  • साररहित ऐसे मानवभव में माता-पिता तथा स्वजनरहित भयङ्कर व्याधि से अनेक बार पीड़ित हुआ तू विलाप करता था, उसे तू क्यों याद नहीं करता है ?

  • स्थान-स्थान में धन तथा स्वजन के समूह को छोड़कर भव वन में अपरिचित बना हुआ यह जीव आकाश मार्ग में पवन की तरह अदृश्य रहकर भटकता रहता है 

  • इस संसार में भटकनेवाले जीव जन्म, जरा और मृत्युरूपी तीक्ष्ण भालों से बिंधाते हुए भयङ्कर दुःखों का अनुभव करते हैं 

  • इस देहरूपी बावड़ी में तू कितने समय तक क्रीड़ा करेगा? जहाँ से प्रति समय कालरूपी अरहट के घड़ों द्वारा जीवनरूपी पानी के प्रवाह का शोषण हो रहा है 

Saturday, July 18, 2020

शास्त्र का अध्ययन क्यों करना?

👉🏻क्या इसलिये करना कि मैं दूसरे को पडाऊं। और दूसरो को पढ़ाके लोग कहें कि ’बहुत ज्ञान है’ इसमें सन्तुष्ट हो जाऊं?
👉या अपना समय व्याकरण आदि पढ़ने में गवा देना। या आलू प्याज का त्याग करके सन्तुष्ट हो जाना। या पाप से हटके पुण्य में सन्तुष्ट हो जाना?

*शास्त्र अध्यायन का प्रथम प्रयोजन है* - तत्व ज्ञान। अध्यात्म शास्त्रो से 7 तत्व तो पढ़ लिये, मगर 
👉मैं ज्ञान हूं, ऐसी मान्यता नहीं हुई। अपने को अनादि अनन्त जीव तत्व नहीं जाना
👉ये क्रोध, बुद्धि, intelligence, talent, शरीर, धन, परिवार का मेरे से किस प्रकार का सम्बन्ध है - ये नहीं जाना
👉अपने उठने वाली कषाय और अश्रद्धान को आस्रव नहीं देखना शुरू किया, उसे छोङने लायक नहीं जाना
👉अपने अन्दर आठ कर्मो की सत्त्ता को स्वीकार नहीं किया, और उसे अहितकारी रूप स्वीकार नहीं किया
👉मिथ्यात्व, पाप, कषाय रहित होकर मैं कर्मो को रोक दूं - ऐसा लक्ष्य नहीं लिया
👉तपस्या से मैं सारे कर्मो का नाश कर दू - ऐसा लक्ष्य नहीं लिया
👉सब कर्म, शरीर से सदा के लिये मुक्त हो जाऊं- उस मुक्त अवस्था को दुनिया में सबसे उत्तम अवस्था नहीं मानी। और संसार के अन्य अवस्थाओं के पीछे भागता रहा
👉आस पास के जीवो को आत्मा और कर्म और शरीर से मिला जुला पिण्ड ना देखकर उसे एक पर्याय रूप ही देखता रहा

तो फ़िर मेरे शास्त्र अभ्यास का क्या फ़ायदा?

Wednesday, July 15, 2020

दूसरो के दोष मेरे मन में क्यों चलते हैं?

हम देखे कि कहीं ऐसा तो नहीं कि दूसरो के दोष हमारे चित्त में चलते रहते हैं। ऐसा अधिकतर तब होता है कि जब हमें सामने वाले में तो दोष दिखाई देता है और वो दोष हमारे अन्दर नहीं दिखाई देता। तो हमें अपने निर्दोष होने पर जो मान होता है, उसके वजह से दूसरे के दोष के प्रति हमारे मन में तिरस्कार भाव रहता है, और उसके प्रति चिन्तन चलता है। उसके प्रति द्वेष रहता है।

हम ऐसा समझे कि जैसा सामने वाले के अन्दर दोष है, ऐसा मेरे साथ भी हो सकता है। अभी कर्मोदय या हीन पुरूषार्थ की वजह से उसमें ये दोष है, तो मेरे अन्दर उसके सुधार की भावना होनी चाहिये। उसके दोष के बारे में चिन्तन से मेरे मन जो उसके प्रति द्वेष, तिरस्कार होता है उससे मैं नीच गोत्र का बन्धन करता हूं। और मेरे जब दोष उजागर होयेंगे तो मुझे दूसरे के प्रति तिरस्कार प्राप्त होयेगा।

Sunday, July 5, 2020

ममता, इष्ट अनिष्ट चिन्तन

वस्तु मेरी, या इष्ट-अनिष्ट नहीं होती, मगर हमारे उसके साथ हमारे interactions कभी उपकारक और कभी अपकारक बनते हैं। जब उपकारक बनते हैं, तो हम ऐसा मानने लगते हैं कि इससे हमारे सम्बन्ध सदा उपकारक ही रहेंगे। जैसे कोई अनित्य वस्तु थोङे ही समय के लिये हमारे पास है, मगर ऐसा प्रतीत होने लगता है कि ये सदा रहेगा। ऐसे हे उपकारक सम्बनध होने पर, इससे मेरे को सदा उपकार होगा, ऐसा प्रतीत होने लगता है। 


और उस वस्तु में इष्टपने की बुद्धि बना लेते हैं, और उससे राग करते हैं। और जो इससे राग या द्वेष करते हैं, उससे भी राग द्वेष करता है। इस वस्तु में राग की वजह से पांच पाप, चार कषाय, इन्द्रिय भोग भी करता है। जबकि उस वस्तु में इष्टपने की मानयता मिथ्या है। पुण्य उदय वशात उस वस्तु के साथ उपकारक सम्बन्ध बन गया। अनादि से अनन्त काल तक कर्म वशात उसी वस्तु से कभी उपकारक और कभी अपकारक सम्बन्ध बन जाता है।


इस दुनिया सब जीवो के अन्य जीवो से कर्म वशात उपकारक/अपकारक सम्बन्ध तो हैं, मगर इष्ट अनिष्ट सम्बन्ध नहीं हैं। कोई जीव दूसरे किसी जीव को सदा उपकार ही करता हो, या अपकार ही करता हो ऐसा कोई सम्बन्ध नहीं है। मगर ऐसी मान्यता मोह वशात है जिसे इष्ट-अनिष्ट बुद्धि कहते हैं।


Saturday, July 4, 2020

सेठ सुदर्शन जी से सीखने योग्य बातें

🌼जब राजा ने सेठ सुदर्शन को मारने की आज्ञा दी, तो सेठ जी ने कोई अपनी तरफ़ से सफ़ाई नहीं दी। रानी का दोष नहीं बताया, मगर समता से ही सब कुछ सहा। अपनी पत्नी और पुत्र के प्रति ममता ने उनको व्याकुल नहीं किया - कि मेरे मरने के बाद उनका क्या होगा?

🌼जब कपिला ने उनसे गलत सम्बन्ध के लिये कहा, तो उन्होने बङी चतुराई से यह कह दिया- कि मैं तो नपुंसक हूं, जिससे कपिला के मन का विकार ही समाप्त हो जाये। और अपने मान की परवाह नहीं की।

🌼पिछले भव में गवाले थे। और सम्यग्दॄष्टी नहीं थे। इस एक ही भव में उन्होने महान पुरूषार्थ से एक आदर्श श्रावक बने, उपसर्गो को सहा, फ़िर मुनि बने और फ़िर उपसर्गो को सहा और पटना से केवलज्ञान प्राप्त किया।

🌼जिस प्रकार से उपसर्ग उन पर रानी और वैश्या ने किये, उनको जीत पाना विरले जीव ही कर सकते हैं।

Thursday, July 2, 2020

कर्तत्व/भोक्तृत्व भाव से मेरा नुकसान

हम देखे कि किस किस प्रकार की कार्यो में मेरा कर्तापना होता है:
👉🏻मैंने सम्पत्ति इकट्ठी करी, दूसरो को समझाया, किताबे लिखी, परिवार पाला, कलायें सीखे, खेल खेले, विषय भोग भोगे, इत्यादि

किस किस प्रकार की कर्ता पने से कषायें होती हैं -
👉🏻’देखो मैने ये ये कार्य किया’ इस प्रकार का मान
👉🏻’देखो, उसे ये भी करना नहीं आता’ - इस प्रकार से दूसरे के प्रति तिरस्कार
👉🏻’उसने यह करना कैसे सीख लिया’ - इस प्रकार से ईर्ष्या
👉🏻’मैं भविष्य में ये करूंगा, ये करना मैं सीखूंगा’ - इस प्रकार का लोभ
👉🏻’जो मुझे करना आता है, वो मुझसे छूट ना जाये’, ’दूसरे मेरे कार्य को तिरस्कार तो नहीं करेंगे’  - इस प्रकार का भय
👉🏻’अगर कोई मेरे कर्तत्व में बाधक आये’ - उसके प्रति क्रोध, भय
👉🏻’हाय मैने ऐसा क्यों कर दिया’ - ऐसा शोक


और ऊपर वाली कषायो से प्रेरित होकर जीव हिंसा, झूठ, चोरी, परिग्रह, कुशील - ये पांच पाप भी करता है।

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भोक्तृत्व भाव से मेरा नुकसान
ये मैने सुख भोगा, दुख भोगा - इस प्रकार के विकल्प चलते रहते हैं।

सुखद अनुभव से राग, सन्तोष का अनुभव करता है, और दुखद अनुभव के प्रति द्वेष का अनुभव करता है।

किस किस प्रकार की भोक्ता पने से कषायें होती हैं -
👉🏻’देखो मैने ये ये सुख भोगा ’ इस प्रकार का मान
👉🏻’देखो, उसे ये तो सुख मिला ही नहीं’ - इस प्रकार से दूसरे के प्रति तिरस्कार
👉🏻’उसने यह कैसे सुख भोग लिया’ - इस प्रकार से ईर्ष्या
👉🏻’मैं भविष्य में ये भोगूंगा’ - इस प्रकार का लोभ
👉🏻’जो मैं भोगता हूं, वो मुझसे छूट ना जाये’  - इस प्रकार का भय
👉🏻’अगर कोई मेरे सुखद भोक्तृत्व में बाधक आये’ - उसके प्रति क्रोध, भय
👉🏻’हाय मैने ऐसा क्यों दुख भोगा’ - ऐसा शोक

Tuesday, June 16, 2020

धन के बारे में हमारी सोच

👉🏻’यह मेरा है’ यह समझकर उसे बढ़ाने की कोशिश में लगे रहते हैं। उसके लिये हिंसा भी करनी पङती है, झूठ भी बोलना पङता है.. मानसिक तनाव भी होता है.. उससे पाप कमाता है, और कुगतियों में जाता है।
👉उसकी रक्षा में लगा रहता है। चिन्ता करता है। ’कोई चुरा ना ले’- ऐसे भयभीत रहता है। अगर नुकसान हो जाये तो  शोक करता है।
👉’इसको मैने कमाया’ - ऐसा अहंकार करता है। मान करता है। उसके अधिकार के लिये परिवार जनो से झगङा करता है।अपने नियंत्रण में रखना चाह्ता है।
👉धन आने पर विषय भोग में लीन हो जाता है। गुणी जनो के प्रति इसका आदर कम हो जाता है। जितना धन बङता जाता है, इसकी तॄष्णा बङती जाती है।
👉अपने धन को नित्य मानता है। जैसे वह हमेशा इसके साथ रहेगा। मगर पाप का उदय आता है, तो बङे बङे भण्डार भी नष्ट हो जाते हैं, और पुण्य का उदय आता  है तो खाली भण्डार भी एकदम भर जाते हैं।
👉उसे शरण रूप मानता है। कि मुसीबत में काम आयेगा ही। मगर यह नहीं जानता कि तीव्र पाप का उदय हो रखा हुआ धन भी काम नहीं आता, और तीव्र पुण्य का उदय हो तो बिना धन के भी काम हो जाते हैं।
👉’मैने अनन्त बार राजा होकर, सेठ होकर, अरब पति आदि होकर खूब पैसा कमा कमा के छोङ चुका हूं’ इस सत्य को समझकर उससे विरक्त नहीं होता।
👉धन के आधार पर अपने को अपने मित्रो से तुलना करता है। ईर्ष्या करता है।
👉भगवान की पूजा तो बहुत करता है। मगर जैसे वो धन से रहित हैं, ऐसे मैं भी धन रहित हो जाऊं - ऐसी भावना नहीं भाता।
👉जीवन में धन की आवश्यकता जरूर है। लेकिन कितना जरूरी है, और कहां यह हमें नुकसान देता है - यह समझ विकसित करनी जरूरी है।

Saturday, June 13, 2020

संसार मार्ग और मोक्ष मार्ग क्या?

*संसार मार्ग क्या?*
जीव सुख प्राप्त करना चाहता है। मगर गलत समझ से गलत रस्ते पर चलता है। सुख मिलने के बजाय अपने दुखो को बढाने वाले आठ कर्मो को इकट्ठा करता रहता है। यह संसार मार्ग है।

*मोक्षमार्ग क्या?*
सही समझ से, सही रास्ते पर चलकर आठो कर्मो को नाश करते चले जाना मोक्ष मार्ग है।

*गलत रास्ता क्या है?*:
वस्तुओं में इष्ट अनिष्ट कल्पना करना और उससे राग-द्वेष करना और उससे हिंसादि, पंचेन्द्रिय पाप करना।

*गलत समझ:*
ये राग,द्वेष मेरे स्वभाव हैं। अजीव को अपना मानकर - उसमें अच्छा बुरा की कल्पना करना। मोक्ष को अपना लक्ष्य नहीं मानना।

*सही समझ:*
मैं जीव हूं। राग-द्वेष त्याज्य हैं।  मोक्षा ग्रहण करने योग्य है।

*सही रास्ता:*
सम, शम। (सम का मतलब समता, शम का मतलब इन्द्रिय का शमन)

Monday, June 8, 2020

6 Mantras for a solid meditation


  • Do not run away from anything.
  • Do not want to change anything
  • Do not want to achieve anything. 
  • Be at ease with everything. Accept it. 
  • Do not label things as right or wrong. 
  • Change your 'some relationship' to 'no relationship' with everything around

Thursday, June 4, 2020

कैसी भक्ति है मेरी?

दो कैदी थे। २५ साल की सजा थी। जेलर आया और उसने उनके हाल चाल पूछे। पहले कैदी ने कहा कि सब बढिया है बस पानी थोङा खराब है और उसके लिये अच्छे पानी की व्यवस्था कर दी जाये। दूसरे कैदी ने कहा कि उसे जेल में नहीं रहना। और पूछा कि मुझे तरीका बताओ कि मैं कैसे अपनी सजा को कम कर सकता हूं। अब आप ही सोचिये कि कौन सा कैदी जल्दी से जेल से मुक्त होगा?

ऐसी ही भक्त भी दो प्रकार के होते हैं। एक को कुछ कष्ट परेशान करते रहते हैं, और प्रभु के पास जाकर भी वो ही ध्यान आता है।  कहता है कि - हे प्रभु मेरे को ये समस्या खत्म हो जाय, और वो चीज मिल जाये। सही बात है - जो दिमाग में चलता है वही भगवान के पास भी ध्यान आ ही जाता है।

मगर एक दूसरा भक्त है - उसकी समझ विस्तृत है। उसे अपनी अवस्था अनादि से संसार में भटकता हुई समझ में आ चुकी है। द्रव्यकर्म और भावकर्म का चक्र उसे एक चक्रवात के तूफ़ान की तरह दिखाई दे रहा है। आठ कर्म और विषयों की इच्छा उसे भयंकर रोग दिखाई दे रही है। और पूरी दुनिया में एक मोक्ष अवस्था ही सुखदायी दिखाई देती है। अब बताइये ऐसा भक्त जब प्रभु का नाम लेगा तो उसके परिणाम में गजब की शुद्धता क्यों नहीं बनेगी। अब उसकी प्रार्थना का फ़ल चमत्कारिक क्यों नहीं होगा?

संसार से भय होना, मोक्ष की रूचि होना बहुत दुर्लभ है। और वह सच्ची भक्ति का कारण है। इसलिये सच्ची भक्ति भी बहुत दुर्लभ है।

Wednesday, June 3, 2020

हे प्रभु! क्या मुझे मोक्ष प्राप्त हो पायेगा?

अनादि से कर्म बन्धन में हूं। ऐसा कर्म बन्धन जिसमें अनन्त काल बीत गया। ऐसा अनन्त जिसकी कोई सीमा नहीं, जिसे किसी संख्या में ना बांधा जा सके। क्या ऐसे कर्म बन्धन का मैं नाश कर पाऊंगा? क्या इस मोहनीय को मैं जीत पाऊंगा?

द्रव्यकर्म और भावकर्म के चक्रवात में अनादि से घूमता हुआ, क्या मैं विश्राम प्राप्त कर पाऊंगा? जो अनादि से नहीं कर पाया, वो क्या अब कर पाऊंगा? जिस मोहनीय ने मेरी बुद्धि ही भ्रष्ट कर दी है, क्या उसे जीत पाऊंगा?


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हे कर्मो, जब तुम्हे अपनी स्थिति आने पर छुट ही जाना है, तो तुम मेरे से बन्धते ही क्यों हो? हे परिवार जनो जब तुम्हे एक दिन मुझे अलविदा ही कहना है, तो मुझे तुम अपना बनाते ही क्यों हो? 

Friday, May 22, 2020

संसारी जीव उन्मुक्त (पागल) है

जैसे एक शराबी जीव नशे में द्युत हुआ वास्तविकता से परे कुछ का कुछ क्रियायें करता है। पागल जैसा हो जाता है। वैसी ही सारे संसारी जीव मोह शराब के नशे में द्युत हो उन्मुक्त हुवे अपने ही पैरो पर कुल्हाङी मार रहे हैं। 


ऐसे संयोग जो अनित्य हैं, सार रहित हैं, और जो इसके कभी नहीं हुवे, उन शरीर, परिवार, घर को अपना मानकर, उनमें लीन होकर उनके संरक्षण, संवर्धन के लिये पांच पाप, चार कषाय करता हुआ गहरे पापो को बांधता जाता है। इन्द्रिय विषय को परम सुख समझकर व्याकुल हुआ पापो से लिप्त होता चला जाता है।


सारा संसार इस मोह से पीङित हो रहा है। नारकी क्रोध मोह से, तिर्यंच माया मोह से, देव लोभ मोह से और मनुष्य मान मोह से अपना ही घात कर रहे हैं। 


ज्ञानी जीव संसारी जीवो पर करूणा करते हैं, मगर मोह से संसारी जीव इतना उन्मुक्त है कि ज्ञानी जीव को भी कहता है- तुम उन्मुक्त हो! जो आत्मा परमात्मा की बात करते हो - तुमने अभी विषयो को चखा कहां है - जरा आओ और तुम भी चखो। देखो कितना आनन्द हुआ।

और ऐसे पागलपन में अनन्त काल बिताता है।

Friday, May 15, 2020

इन्द्रिय भोग एक trap है

तीन लोक के बारे में सोचे। सारे जीव निरन्तर ही भव भ्रमण कर रहे हैं। उन्हे हमेशा इन्द्रिय सुख की इच्छा रहती है। मगर इन्द्रिय सुख शाश्वत नहीं। इन्द्रिय सुख प्राप्त करने जाते हैं.. आनन्द आता है .. मगर कुछ क्षण बाद उससे ऊब जाते हैं। और उसे बाद किसी और इन्द्रिय विषय के बारे में इच्छा लेके बैठ जाते हैं। मगर यह नहीं सोच पाते कि इस इन्द्रिय सुख में विश्राम नहीं है। ऐसी अवस्था नहीं है जहां पर जीव इन्द्रिय सुख प्राप्त करता हुआ एक ही अवस्था में स्थिर हो जाये। अगर एक अवस्था में स्थिर ना हो पाये और एक विषय से दूसरे विषय में भी गमन करता रहे, तो वो अव्स्था भी स्थिर नहीं। जैसे भोगभूमि, स्वर्ग में एक से दूसरे विषय भोगो को भोगता ही रहता है। मगर वो भी आयु पूरी होने पर समाप्त हो जाती है, और जीव संचित पाप से दुर्गति में प्रवेश कर जाता है। इस विस्तृत दृष्टि को ना देखते हुवे, जीव अपनी संकुचित दॄष्टि से विषय भोग को ही उपादेय मानता हुआ मॄग की भांति दौङता रहता है। विषयों की प्राप्ति में अनेको पाप करता है - हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, परिग्रह करता है, अब्रहम सेवन करता है, सब प्रकार की कषाय करता है। और अनेक पापो का संचय कर दुर्गति प्राप्त करता है।


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Notes:
इन्द्रिय सुख:
१. पराधीन है: पांचो इन्द्रियों और पर द्रव्यो के द्वारा प्राप्त होता है।
२. बाधा सहित (भोजन, पानी, मैथुन आदि की तृष्णाओं से युक्त)
३. विच्छिन्न: असाता वेदनीय का उदय इसे च्युत कर देता है।
४. कर्म बंध का कारण

५. विषम: विशेष वृद्धि और विशेष हानि में परिणत होने के कारण अत्यन्त अस्थिरता वाला है। उपशम या शान्तभाव से रहित है। जबकि तोन्द्रियसुख परम तृप्तिकारी और हानि बृद्धि से रहित है।

Sunday, May 10, 2020

मोक्ष को कैसे समझे?

हम आस पास जी जितनी भी चीजे देखते हैं, वो अन्य अनेक वस्तुओं से मिलकर बनी हैं। टेलीविजन है, वो अनेक प्रमाणुओं से मिलकर बना है। देखने में तो टेलीविजन एक वस्तु लगता है, मगर वास्तव में वो अनगनित परमाणुओं से मिलकर बनी है। वो सब परमाणु अलग अलग भी हो सकते हैं, और फ़िर दुबार मिलकर कोई नयी चीज भी बना सकते हैं - जैसे शीशम का पेङ। और चाहे वो स्वतन्त्र रूप में भी वो अनगनित परमाणु रह सकते हैं।

अब देखते हैं इन्सान को। वो भी अनगनित परमाणु और एक आत्मा से मिलकर बना है। शरीर तो आता जाता रहता है। मरते ही पूरा का पूरा शरीर एक ही झटके में अलग हो जाता है, फ़िर नया मिल जाता है। मतलब नया शरीर मिलता रहता है और पुराना बिछुङता रहता है। और ये शरीर के साथ ही नहीं - बल्कि राग-द्वेष के साथ भी है। क्रोध खत्म होता है तो लोभ आ जाता है। मान जाता है भय आ जाता है। जैसी टेलीविजन में हमने सारे परमाणुओं के अलग होने की कल्पना करी, ऐसी कल्पना अगर हम एक क्षण के लिये उस इन्सान के लिये करें।

उसका पूरा शरीर उससे अलग हो जाय। क्रोध, मान वगैरह जो आते जाते रहते हैं, ये भी उससे अलग हो जाये, तो क्या बचेगा? क्या सोचा है कभी आपने? कैसी अवस्था होगी वो?

वो है मोक्ष! जहां मात्र ज्ञान है और आनन्द।

Saturday, May 2, 2020

मिथ्यात्व से संसार में जीव क्यों भटकता है?

मिथ्यात्व से शरीर को अपना मानता है, और उसके संरक्षन, संवर्धन के लिये परिग्रह जुटाता है, घर बनाता है, वुद्धावस्था से भय करता है, उसकी वॄद्धि ह्रास में क्रोध, मान, लोभ करता है, उसे अपना मानकर भोगो में प्रवृत्त रहता है, शरीर से सम्बन्धित पारिवारिक सम्बन्धियों को अपना मानके - इन सबके लिये पांचो पाप, चार कषाय, ५ इन्द्रिय भोग में प्रवृत्त रहता है। और संसार भ्रमण पुष्ट करता है।

राग-द्वेष (आस्रव) को अपना स्वभाव मानकर उन्हे जीतने के बजाय उनके अनुसार परिणमन करता है। राग-द्वेष को दुखदायक मानने के बजाय जिनपर राग-द्वेष होता है उन्हे इष्ट अनिष्ट मानकर महापाप करता है। राग-द्वेष से कर्मास्रव होकर जो दुखो से भरे फ़ल आते हैं, उन्हे ना जानकर, रागद्वेष को अपना स्वभाव मानकर उसी में लीन रहता है।

आठ कर्मो के बन्ध से जो अवस्थायें होती हैं, उन्हे कर्म बन्ध से हुई ना जानकर, इनके परिणमन में या तो खुद को या दूसरे को कर्ता जानकर भयंकर पाप करता है।

राग-द्वेष को अपना शत्रु जाने बिना, बन्ध को अपना शत्रु जाने बिना उनके संवर, निर्जरा के प्रति श्रधान हो नहीं पाता, और पता ना होने से कर्म काटने की बजाय जो बाहर में निमित्त को व्यवस्थित करने का पुरूषार्थ करता है। और संसार पुष्ट होता रहता है।

कर्मोजनित अवस्था को रोग नहीं मानता, तो कर्म से रहित मोक्ष को लक्ष्य कैसे बनाये? ये तो कर्म जनित लौकिक उपाधियों को ही लक्ष्य बनाकर भटकता रहता है। धन प्राप्ति, परिवार पुष्टि, भोग प्राप्ति, यश कामना को ही लक्ष्य बनाकर महापापों में लीन रहता है।

और इस प्रकार मिथ्यात्व के कारण पांच पाप रूपी सर्पो से दुख पाता हुआ चारो गतियों में भटकता रहता है।

Wednesday, April 29, 2020

तीन तरह के शत्रु


तीन तरह के शत्रु होते हैं
१. पहल वो जो छूरी लेके आता है, और तुम्हारे ऊपर घात करता है।
२. दूसरा वो छूरी बगल में लेके आता है, पहले आपसे अच्छी बाते करता है, ऐसी बाते करता है जिससे आपको लगे कि वो आपक हितैषी है और फ़िर मौका देखकर वार कर देता है। यह पहले वाले से खतरनाक है।
३. और तीसरा होता है। वो भी बगल में छूरी लेके आता है, आपसे अच्छी बाते करता है, विश्वास जीतता है, और मौका मिलने पर ऐसा वार करता है कि आपको घांव हो जाता है मगर आपको पता नहीं पङता कि किसने किया। और वो आपका विश्वासपात्र बना रहता है, और आपको घात भी करता रहता है। आप अज्ञानवश ऐसे शत्रु से बार बार पीङित होते रहते हो। और ठगाये जाते रहते हो। ये महाखतरनाक शत्रु है।

ये घर परिवार भी ऐसे ही शत्रु है। जिससे हम अनादि काल से राग करते हैं। जब पक्षी बनते हैं तो घोसला बनाके उससे राग करते हैं, जब सांप बनते हैं तो बिल से, जब शेर बनते हैं तो गुफ़ा से और जब मनुष्य बनते हैं तो मकान से, परिवार से। इस राग वश अनेको पाप करते हैं। उस घर के लिये भाई भाई से लङ जाता है, झूठ बोलता है, क्रोध करता है, मायाचारी करता है, अन्याय करता है। कितना दुर्ध्यान करता है और दुर्गति को जाता है, और अगली गति में जाकर भी यही करता है।

मगर यह घर परिवार का राग ऐसा ठगिया है जो मीठा तो लगता है मगर पीछे से भयंकर घांव करता रहता है। और हमारे दुखी होने का प्रबन्ध बनाये रखता है। और हम मुर्ख इस शत्रु से ठगाये जा रहे.. हर भव में ठगाये जा रहे हैं…। विचार करो - कि तुम मुर्ख हो या बुद्धिमान?

Monday, April 6, 2020

[नीती] ग्रहण और त्याग

जीवन में कुछ छोङना हो या ग्रहण करना हो तो उसके गुण और दोषो का, उससे होने वाले लाभ और अलाभ का सम्यक विचार करो। उसके ग्रहण या त्याग से मेरे को क्या सुख होगा, या क्या दुख होगा। इसका पूर्ण विचार करो, तभी उसके ग्रहण या त्याग में तीव्र अनुराग होगा और उसमें पुरूषार्थ भी सच्चा होगा।

त्याग या ग्रहण करने वाली चीजे छोटी भी हो सकती हैं या बढ़ी भी। छॊटी चीजे जैसे टीवी को देखना छोङ देना इत्यादि। बढ़ी चीजे जैसे साधु बन जाना या व्रत ले लेना।

जो वर्तमान में ग्रहण या त्याग किया है उस पर भी विचार करना चाहिये कि उसमें मेरे को फ़ायदा है या नुकसान। और विचार कर जो सम्यक लगे वैसा चारित्र में लेना चाहिये

अपना कल्याण पहले या दूसरो का?


अगर दूसरो का कल्याण में ही लग जाते हैं, तो अपना कल्याण गौण हो जाता है। दूसरे के कल्याण भी उतना ही हो पाता है जितना मेरा दानान्तराय का क्षयोपशम है और अन्य कर्मो की अनुकूलता है।

इसकी जगह अगर जीव विशुद्ध भावो से अपने कल्याण में ही लग जावे तो सातिशय पुण्य का बन्ध करता है और भविष्य में अपने आत्म उत्थान करने के बाद ज्यादा जीवो का कल्याण करता है।

अगर अपना कल्याण गौण करके दूसरो के कल्याण में ही लग जाता है तो अपना कल्याण भी विलम्ब को प्राप्त होता है और अपने वर्तमान में हीन कर्मो से उतना पर कल्याण भी नहीं कर पाता।

अतः अपना कल्याण मुख्य करे और अपने कल्याण में जब-जब स्थिरता ना बन पा रही हो तो थोङा समय पर कल्याण में देवें। एक सम्यक सन्तुलन बनाकर चले। मुख्यता स्व कल्याण की रहे।

मैं किसी को छूता ही नहीं

वास्तविक जगत और जो जगत हमें दिखाई देता है उसमें अन्तर है। जो हमें दिखता है, वो इन्द्रिय से दिखता है और इन्द्रियों की अपनी सीमितता है। और जो ...