हम देखे कि कहीं ऐसा तो नहीं कि दूसरो के दोष हमारे चित्त में चलते रहते हैं। ऐसा अधिकतर तब होता है कि जब हमें सामने वाले में तो दोष दिखाई देता है और वो दोष हमारे अन्दर नहीं दिखाई देता। तो हमें अपने निर्दोष होने पर जो मान होता है, उसके वजह से दूसरे के दोष के प्रति हमारे मन में तिरस्कार भाव रहता है, और उसके प्रति चिन्तन चलता है। उसके प्रति द्वेष रहता है।
हम ऐसा समझे कि जैसा सामने वाले के अन्दर दोष है, ऐसा मेरे साथ भी हो सकता है। अभी कर्मोदय या हीन पुरूषार्थ की वजह से उसमें ये दोष है, तो मेरे अन्दर उसके सुधार की भावना होनी चाहिये। उसके दोष के बारे में चिन्तन से मेरे मन जो उसके प्रति द्वेष, तिरस्कार होता है उससे मैं नीच गोत्र का बन्धन करता हूं। और मेरे जब दोष उजागर होयेंगे तो मुझे दूसरे के प्रति तिरस्कार प्राप्त होयेगा।
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