तीन लोक के बारे में सोचे। सारे जीव निरन्तर ही भव भ्रमण कर रहे हैं। उन्हे हमेशा इन्द्रिय सुख की इच्छा रहती है। मगर इन्द्रिय सुख शाश्वत नहीं। इन्द्रिय सुख प्राप्त करने जाते हैं.. आनन्द आता है .. मगर कुछ क्षण बाद उससे ऊब जाते हैं। और उसे बाद किसी और इन्द्रिय विषय के बारे में इच्छा लेके बैठ जाते हैं। मगर यह नहीं सोच पाते कि इस इन्द्रिय सुख में विश्राम नहीं है। ऐसी अवस्था नहीं है जहां पर जीव इन्द्रिय सुख प्राप्त करता हुआ एक ही अवस्था में स्थिर हो जाये। अगर एक अवस्था में स्थिर ना हो पाये और एक विषय से दूसरे विषय में भी गमन करता रहे, तो वो अव्स्था भी स्थिर नहीं। जैसे भोगभूमि, स्वर्ग में एक से दूसरे विषय भोगो को भोगता ही रहता है। मगर वो भी आयु पूरी होने पर समाप्त हो जाती है, और जीव संचित पाप से दुर्गति में प्रवेश कर जाता है। इस विस्तृत दृष्टि को ना देखते हुवे, जीव अपनी संकुचित दॄष्टि से विषय भोग को ही उपादेय मानता हुआ मॄग की भांति दौङता रहता है। विषयों की प्राप्ति में अनेको पाप करता है - हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, परिग्रह करता है, अब्रहम सेवन करता है, सब प्रकार की कषाय करता है। और अनेक पापो का संचय कर दुर्गति प्राप्त करता है।
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Notes:
इन्द्रिय सुख:
१. पराधीन है: पांचो इन्द्रियों और पर द्रव्यो के द्वारा प्राप्त होता है।
२. बाधा सहित (भोजन, पानी, मैथुन आदि की तृष्णाओं से युक्त)
३. विच्छिन्न: असाता वेदनीय का उदय इसे च्युत कर देता है।
४. कर्म बंध का कारण
५. विषम: विशेष वृद्धि और विशेष हानि में परिणत होने के कारण अत्यन्त अस्थिरता वाला है। उपशम या शान्तभाव से रहित है। जबकि तोन्द्रियसुख परम तृप्तिकारी और हानि बृद्धि से रहित है।
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