Thursday, August 27, 2009

Fault finding attitude

While progressing in this human birth, I realize there are many bad qualities I have- for example I am narrow minded, selfish, greedy, impatient, in-tolerant, disrespectful at times. As soon I realize my mistakes I try to correct it. For example, if I had been narow minded, I was happy that way till I realized it. And as I realize I fantazise telling others about the right way, and at the same time when I see someone being narrow minded, I start pondering about his faults.

This has been happening not just with one thing, but anything I learn. When I try to lower my pride, I start finding faults in others who keep a big pride. When I try to be compassionate, I start finding faults in others who are not. When I want to proceed on the path to dharma, I start finding fault in others who do not realize that path to Dharma is good.

So it seems it is one step front and one step back. One step front, because I found something good and corrected myself, and one step back because I start finding fault in others. So overall there is no progress.

I think I can get rid of it only once I have love for all living beings and start looking them as a living being, and have compassion for their faults. I do not know when I would be able to achieve such state.
(Related quality in Jainism: Samyakdrishti has a quality 'Upguhan' which means not looking at fault of others.)

Friday, August 21, 2009

Mahatma Gandhi Quotes Part 1

From the autobiography of Mahatma Gandhi Ji:

  • बड़ों के दोष न देखने का गुण मुझ में स्वभाव से ही था । बाद में इन शिक्षक के दूसरे दोष भी मुझे मालूम हुए थे । फिर भी उनके प्रति मेरा आदर बना ही रहा । मैं यह जानता था कि बड़ों का आज्ञा का पालन करना चाहिये । वे जो कहें सो करना करे उसके काजी न बनना ।
  • श्रवण का वह दृश्य भी देखा, जिसमें वह अपने माता-पिता को काँवर में बैठाकर यात्रा पर ले जाता हैं। मन में इच्छा होती कि मुझे भी श्रवण के समान बनना चाहिये ।
  • इन्हीं दिनों कोई नाटक कंपनी आयी थी और उसका नाटक देखने की इजाजत मुझे मिली थी। उस नाटक को देखते हुए मैं थकता ही न था। हरिशचन्द का आख्यान था । उस बारबार देखने की इच्छा होती थी । लेकिन यों बारबार जाने कौन देता ? पर अपने मन में मैने उस नाटक को सैकड़ो बार खेला होगा । हरिशचन्द की तरह सत्यवादी सब क्यों नहीं होते ? यह धुन बनी रहती । हरिशचन्द पर जैसी विपत्तियाँ पड़ी वैसी विपत्तियों को भोगना और सत्य का पालन करना ही वास्तविक सत्य हैं ।
  • मेरी राय हैं कि घनिष्ठ मित्रता अनिष्ट हैं, क्योंकि मनुष्य दोषों को जल्दी ग्रहण करता हैं । गुण ग्रहण करने के लिए प्रयास की आवश्यकता हैं । जो आत्मा की, ईश्वर की मित्रता चाहता हैं, उसे एकाकी रहना चाहिये, अथवा समूचे संसार के साथ मित्रता रखनी चाहिये । ऊपर का विचार योग्य हो तो अथवा अयोग्य, घनिष्ठ मित्रता बढ़ाने का मेरा प्रयोग निष्फल रहा ।\
  • पत्नी पति की दासी नहीं, पर उलकी सहचारिणी हैं, सहधर्मिणी हैं , दोनो एक दूसरे के सुख-दुःख के समान साझेदार हैं , और भला-बुरा करने की जितनी स्वतंत्रता पति को हैं उतनी ही पत्नी को हैं ।
  • इस प्रकार की शान्त क्षमा पिताजी के स्वभाव के विरुद्ध थी । मैने सोचा था कि वे क्रोध करेंगे, शायद अपना सिर पीट लेंगे । पर उन्होंने इतनी अपार शान्ति जो धारण की , मेरे विचार उसका कारण अपराध की सरल स्वीकृति थी । जो मनुष्य अधिकारी के सम्मुख स्वेच्छा से और निष्कपट भाव से अपराध स्वीकार कर लेता हैं और फिर कभी वैसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा करता हैं, वह शुद्धतम प्रायश्चित करता हैं ।
  • नीति का एक छप्पय दिल में बस गया । अपकार का बदला अपकार नहीं, उपकार ही हो सकता हैं , यह एक जीवन सूत्र ही बन गया । उसमे मुझ पर साम्राज्य चलाना शुरु किया । अपकारी का भला चाहना और करना , इसका मैं अनुरागी बन गया । इसके अनगिनत प्रयोग किये। वह चमत्कारी छप्पय यह हैं :
    पाणी आपने पाय, भलुं भोजन तो दीजे
    आवी नमावे शीश , दंडवत कोडे कीजे ।
    आपण घासे दाम, काम महोरोनुं करीए
    आप उगारे प्राण, ते तणा दुःखमां मरीए ।
    गुण केडे तो गुण दश गणो, मन, वाचा, कर्मे करी
    अपगुण केडे जो गुण करे, तो जगमां जीत्यो सही ।
    (जो हमें पानी पिलाये , उसे हम अच्छा भोजन कराये । जो हमारे सामने सिर नवाये, उसे हम उमंग से दण्डवत् प्रणाम करे । जो हमारे लिए एक पैसा खर्च करे, उसका हम मुहरों की कीमत का काम कर दे । जो हमारे प्राण बचाये , उसका दुःख दूर करने के लिए हम अपने प्राणो तक निछावर कर दे । जो हमारी उपकार करे , उसका हमे मन, वचन और कर्म से दस गुना उपकार करना ही चाहिये । लेकिन जग मे सच्चा और सार्थक जीना उसी का हैं , जो अपकार करने वाले के प्रति भी उपकार करता हैं ।)

Friday, August 14, 2009

Poem: मेरे वीर प्रभु

मेरे वीर प्रभु:

मैं सुदामा तुम कृष्ण, कैसे आऊं तुम द्वार
लाज मारे चरण ना बङे, ना हो दहलीज पार

कुएं का मेंडक कुएं मे रहे, ना देखे उसके पार
कहां भाग्य मेरे प्रभुवर, जो आऊं तुम दरबार

इन्द्र आयें दरबार तुम्हारे, करे तुम दर्शन
मैं अभागा दूर से ही, नाम लेके करू कीर्तन

मुनिवर अपने पवित्र ह्रदय में, लेते तुम्हारा नाम
मेरे काले ह्रदय में, कैसे बिठाऊ तुम्हे भगवान

शक्ति नहीं प्रभु कि कर लूं तुम वचनो का भान
शब्द गम्भीर मुझको लगे, क्योंकि मैं निपट अजान

तुम अंगुलि पकङ के, लायो निज दरबार,
कहां मुझ मे सामर्थ, जो करूं दहलीज भी पार

तुम देशना सरल करी, बतायो कल्याण पथ
मैं तो अविवेकी हमेशा से,सेवा विषय कुपथ

तुम नाम जपता रहू, पाऊ तीन रतन
२४ भगवान के मार्ग पर, हो जाऊं अर्पण।

मैं किसी को छूता ही नहीं

वास्तविक जगत और जो जगत हमें दिखाई देता है उसमें अन्तर है। जो हमें दिखता है, वो इन्द्रिय से दिखता है और इन्द्रियों की अपनी सीमितता है। और जो ...