राग-द्वेष (आस्रव) को अपना स्वभाव मानकर उन्हे जीतने के बजाय उनके अनुसार परिणमन करता है। राग-द्वेष को दुखदायक मानने के बजाय जिनपर राग-द्वेष होता है उन्हे इष्ट अनिष्ट मानकर महापाप करता है। राग-द्वेष से कर्मास्रव होकर जो दुखो से भरे फ़ल आते हैं, उन्हे ना जानकर, रागद्वेष को अपना स्वभाव मानकर उसी में लीन रहता है।
आठ कर्मो के बन्ध से जो अवस्थायें होती हैं, उन्हे कर्म बन्ध से हुई ना जानकर, इनके परिणमन में या तो खुद को या दूसरे को कर्ता जानकर भयंकर पाप करता है।
राग-द्वेष को अपना शत्रु जाने बिना, बन्ध को अपना शत्रु जाने बिना उनके संवर, निर्जरा के प्रति श्रधान हो नहीं पाता, और पता ना होने से कर्म काटने की बजाय जो बाहर में निमित्त को व्यवस्थित करने का पुरूषार्थ करता है। और संसार पुष्ट होता रहता है।
कर्मोजनित अवस्था को रोग नहीं मानता, तो कर्म से रहित मोक्ष को लक्ष्य कैसे बनाये? ये तो कर्म जनित लौकिक उपाधियों को ही लक्ष्य बनाकर भटकता रहता है। धन प्राप्ति, परिवार पुष्टि, भोग प्राप्ति, यश कामना को ही लक्ष्य बनाकर महापापों में लीन रहता है।
और इस प्रकार मिथ्यात्व के कारण पांच पाप रूपी सर्पो से दुख पाता हुआ चारो गतियों में भटकता रहता है।
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