Tuesday, June 28, 2022

विषय, क्रोध, मान - सुभाषित रत्न सन्दोह जी से

 विषय

  • विषय शत्रु है। पापको संचित कराके अनेक जन्म-जन्मान्तरोंमें दुःख दिया करता है ।

  • जिन विषयों से चक्रवर्ती भी तृप्त नहीं प्राप्त होता उनसे भला साधारण मनुष्य कैसे हो सकता हैं 

  • तृष्णा रूपी ज्वालाओं को शान्ति इन्द्रिय विषयों से नहीं हो सकती है, बल्कि विषय उनको और अधिक बढ़ा देती हैं।

  • अपने कुटुम्बी जनों के लिये विषयो की प्राप्ति के लिये हिंसा करके तीव्र पाप करता हैं, मगर अकेला ही उन पाप के फ़लो को सहता है।

  • विषय अनित्य हैं।

क्रोध

  • क्रोधी का कोई आदर नहीं करता।

  • क्रोध संचित किये हुए पुण्यको क्षण भर में नष्ट कर देता है।

  • क्रोध धैर्य को नष्ट करता है, विवेक को नष्ट करता है, निन्द वचन बुलवाता है। 

  • क्रोध से मित्रता, दया, उपकारी जीवो के प्रति कृतज्ञता नष्ट हो जाती है।

  • ’मैने पूर्व में इसको दुख दिया है’ ऐसे कर्म सिद्धान्त को समझके क्रोध को शान्त करना चाहिये।

  • ’अच्छा हुआ! इससे मेरे कर्मो की निर्जरा हो रही है’।

  • यह बेचारा अज्ञानी प्राणी स्वयं ही पापका संचय कर रहा है। ऐसा विचार करके उसे क्षमा करें।

  • अगर कोई गाली दे, तो सोचो ’मारा तो नहीं’। अगर मार दे, तो सोचो ’धर्म तो नष्ट नहीं किया’ - ऐसे अपने क्रोध को शान्त करें।

  • अध्यात्म:

    • वस्तु स्वातंत्र्य का चिन्तन करके क्रोध शान्त करे

    • सबको ज्ञान स्वभावी आत्मा देखें

    • क्रोध को विभाव समझके उससे भेद विज्ञान करें

  • चिन्तन वाक्य:

    • मेरे से किसी के प्रति कटु वचन नहीं निकलें।

    • जीवन में एक साधना बनायें कि किसी भी स्थिति में मेरे को क्रोश उत्पन्न ना हो


मान

  • जो यह समझता है कि 'मैं ही सबकुछ है, मुझसे अधिक दूसरा कोई नहीं है।” वह अनेक भवों में नीच कुलको प्राप्त होता है।

  • अभिमान से विवेक नष्ट होता है, नम्रता समाप्त होती है, कीर्ति मलिन होती है।

  • अभिमान वश माननीय जनों का भी सन्मान नहीं करता है।

  • मान धर्मको नष्ट करता है, पापको संचित करता है, दुर्भाग्य को लाता है

  • अभिमान से माता, पिता, मित्र आदि सब प्रतिकूल हो जाते हैं। कोई प्रेम नहीं करता।

  • अभिमान से व्यक्ति नष्ट होता है, जबकि नम्रता से समृद्धिको प्राप्त होता है।

  • जहां मान है, वहां आत्म बोध नहीं। क्योंकि जिसको अपना समझके मैने मान किया है, वह मेरा आत्म स्वरूप नहीं।

  • मान में जीव अपने को दूसरो से ऊंचा समझता है। और पर सापेक्ष चिन्तन होने से आत्म चिन्तन अवरूद्ध हो जाता है। 

  • घर में, समाज में झगङे का मुख्य कारण मान कषाय ही है।

  • धर्म के प्रसंग में कोई उच्चता दिखाने का भाव रखता है तो वह है - अनन्तानुबन्धी मान।

  • चिन्तन वाक्य:

    • मुझे दुनिया जाने तो क्या, ना जाने तो क्या?

    • आत्महित चाहने वाले व्यक्ति को तो यह मान कषाय दूर ही कर देनी चाहिये।

    • नाम की इच्छा एक बहुत ही बुरी समस्या है।


मननीय बिन्दु

  • पर का आश्रय करके कोई शान्ति चाहे तो शान्ति मिलना असम्भव है।

  • अपना लक्ष्य शुद्ध हो तो सारे काम सही बनेंगे।


मैं किसी को छूता ही नहीं

वास्तविक जगत और जो जगत हमें दिखाई देता है उसमें अन्तर है। जो हमें दिखता है, वो इन्द्रिय से दिखता है और इन्द्रियों की अपनी सीमितता है। और जो ...