Monday, June 18, 2012

Jeevan ke Sutra (all)


जीवन के सूत्र



  1. समस्या बाहर नहीं, अन्दर है
  2. जो हुआ सो न्याय
  3. पर वस्तु से सुख दुख नहीं होता। 
  4. प्रभु की प्रतिमा साक्षात प्रभु ही हैं 
  5. अपने अन्दर शक्ति रूप प्रभु का ध्यान करें। 
  6. मेरा मरण नहीं 
  7. प्रसिद्धी की चाह विष है। बालक की तरह प्रसिद्धी की चाह से बचे। 
  8. कोई मेरा नहीं 
  9. कोई अच्छा नहीं, कोई बुरा नहीं 
  10. जो होता है, उसे होने दो 
  11. (Not available)
  12. कोई किसी को परिणमा नहीं सकता। 
  13. स्वतन्त्रता में ही सुख है 
  14. रोज दान दे 
  15. इन्द्रिय सुख दुख है। 
  16. (Not available) 
  17. किसी के पाप जानकर भी उससे घृणा मत करो। 
  18. किसी को दुख न हो 
  19. दूसरो में दोष ना देखे 
  20. संसार में नाटककार की तरह रहो। 
  21. मुझे कोई भय नहीं 
  22. हित केवल जानन हार रहने में है 
  23. मैं शुद्ध ज्ञान मात्र हूं 
  24. ज्ञान और राग भिन्न हैं।
  25. ज्ञान का स्वामी मैं हूं, राग का स्वामी पुद्‌गल है।
  26. संसार एक movie है।
  27. मान को जीत लें
  28. सब अनित्य है
  29. संसार में कोई शरण नहीं।
  30. शरीर की गुलामी छोङे




सूत्र १: समस्या बाहर नहीं, अन्दर है
जीवन में देखो तो समस्यायें बहुत हैं। परिवार में कितनी परेशानियां, समाज में कितनी परेशानियां, भारत में कितनी परेशानियां है।

तो प्रश्न उठता है कि हम क्या करें? क्या जाग उठे, और मिटा दे इन सब समस्याओं को। एक कर्मठ व्यक्ति की तरह जुट जायें और जमे रहे जब तक ये विषमतायें ध्वंस नहीं हो जाती।

श्रीगुरू कहते है - नहीं। दो दृष्टियां हैं। दूसरे को सुधारना, उठाना तो लौकिक दृष्टि है। अपने को सुधारना, उठाना आध्यात्मिक दृष्टि है।

शिष्य प्रश्न करे ऐसा क्यों? श्रीगुरू करूणा पूर्वक समझाते हैं कि ये जो समस्या भिन्न भिन्न रूपों में बाहर में दिखाई देती हैं, ये वास्तव में बाहर नहीं तुम्हारे अन्दर हैं। जितनी दुनिया हमें दिखाई देती है, ऐसी अनगिनत दुनिया  पूरे लोक के अन्दर हैं। तुम्हारी एक दुनिया है, जो चींटी हमारे घर की नाली की दिवारो पर रहती है, उसकी एक दम अलग दुनिया। उसकी समस्यायें भी एकदम अलग प्रकार की है। ऐसे ही एक मकङी की दुनिया है जो जाले पर झूलती रहती है, और नये जाले बुनती रहती है। इसी ही प्रकार मच्छरो, चमगादङ, छोटी मछली, बङी मछली की अपनी अपनी दुनिया है और उनकी अपनी अपनी समस्यायें हैं।

जानवरो की तो बात ही और, इन्सानो में भी तो अलग देश मे जन्मे लोगो की दुनिया अलग और समस्यायें अलग। अलग देश छोङो, एक ही देश में भिन्न भिन्न व्यक्तियों के अनुभव, ज्ञान और भावो के आधार पर उनकी दुनिया अलग और समस्यायें भी अलग।

जिस प्रकार के हमने कर्म किये उसी प्रकार की दुनिया में हम चले जाते हैं। इसलिये समस्यायें वास्तव मे दुनिया मे नहीं वरन अपने मे हैं। और इसका समाधान भी बाहर नहीं वरन अपने भीतर ही है। हम अन्दर की दुनियां सुधार लेंगे तो सहज ही बहिरंग दुनिया भी सर्व सुन्दर मिल जायेगी, और अगर बाहरी दुनिया में ही लगे रहे तो दुनिया से बन्धन कभी तोङ नहीं पायेंगे।

शिष्य प्रश्न करे- क्या लोक की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता? श्रीगुरू कहते हैं - अगर इनका समाधान हो सकता होता, तो अनादि काल से लोक की सत्ता है - इनका समाधान हो गया होता। इन समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। तुम्हारा इष्ट इसी में है कि तुम अपना समाधान कर लो।

शिष्य प्रश्न करे- तो क्या पर उपकार कदापि ना करे। तो श्रीगुरू कहते हैं- अपने को सुधारने के पथ पर अपने अन्तरंग को पवित्र करने के लिये और स्थूल पाप भाव से बचने के लिये पर उपकार में भी निमित्त बनो।

इस प्रकार हम बाहर में समस्यायें ना देखकर बाहर से राग-द्वेष ना करे। वरन उसका मूलकारण अपने अंतरंग को जानकर उसे परम पवित्र करें। जिससे परम पवित्र सिद्धलोक की केवलज्ञान रूपी दुनियां में हमारा वास होये।



सूत्र २: जो हुआ सो न्याय
दूसरो को देखकर जो प्रकार के विकल्प होते है उसका समाधान है प्रभु द्वारा बताया गया सत्य - ’जो हुआ सो न्याय’

(क) दुनिया में हमें लगता कि इसने हमारे साथ बङा ही अच्छा किया, या बहुत ही बुरा किया।
इस पर विचार करे कि वास्तव में ऐसा है क्या? वास्तव में कोई हमारा अच्छा या बुरा नहीं करता। दुनिया में जीव की यात्रा बहुत बङी है। अनादि अनन्त काल की है। इस प्रकार की यात्रा विश्व में समस्त जीवो की है। सब जीवो की एक ही कहानी है- चाहे हम माने या ना माने। इस यात्रा में सब कोई जीव अपना किया करा ही भोगते हैं। कोई किसी को सुखी या दुखी नहीं कर सकता है। कोई किसी को सुखी या दुखी कर सके तो यह तो प्रकृति का अन्याय होगा। जिसने जितने गलत काम किये उसे या तो उसे भोगने होंगे या तप के द्वारा भस्म करने होंगे- उसके बिना किसी के द्वारा वो समाप्त कर दियी जायें, तो यह तो प्रकृति का अन्याय होगा, और यह प्रकृति को स्वीकार नहीं। प्रकृति की न्याय का तराजू एकदम सटीक न्याय अनादि काल से करता आ रहा है, और करता रहेगा।

इसके लिये एक उदाहरण लेते हैं- जैसे हमने खूब पैसा कमाया और निकट के बैंक में जमा करा दिया। जब बैंक में पैसा जमा करने गये तब किसी कैशियर ने बैक में हमारा पैसा जमा करवा दिया। अब १० साल बाद हम जब बैंक में गये तो पाया कि कैशियर बदल गया। मगर इस कैशियर ने मेरा पैसा मुझे दे दिया क्योंकि जमा पैसा मेरा था। इसी प्रकार जब हमने भूतकाल में अच्छे-बुरे भाव किये तो भविष्य में किसी निमित्त से अपने को अच्छी बुरी परिस्थितियां बनी। तो उस निमित्त ने मेरे को सुख-दुख नहीं दिया। ये तो उसने मेरा किया कराया ही मुझे दिया। तो जो हुआ सो न्याय ही हुआ। दूसरा व्यक्ति तो मात्र दुख सुख देने का निमित्त बना जैसे कि कैशियर हमें पैसा देने का।

इस बात से हमें ये समझ में आ गया कि कोई भी व्यक्ति या वस्तु मेरे लिये बुरी अच्छी नहीं है। चाहें वो मेरा घर, पति, पत्नि, सास, ससुर, भाई, बहन, दोस्त इत्यादि भी क्यों ना हो। इसलिये, इस बात को गांठ बांध लें - जो हुआ सो न्याय।

(ख) दूसरे की गलत चेष्टाओं को देखके ऐसा लगना कि कितना गन्दा व्यक्ति है।

एक उदाहरण लें- मान लो कि हमने देखा कि समाज की एक बङे बुजुर्ग ने कहा - ’अच्छा हुआ यहां मन्दिर का निर्माण नहीं हुआ’। उसे सुनते ही हमारे मन में उठा कि देखो कैसे अन्यायपूर्ण बात करते हैं। मन्दिर से तो कितनी प्रभावना होती है, कितने लोगो को सुख की प्रप्ति होती है। इनका यह कहना तो एकदम अन्याय पूर्ण है, और मन ही मन में थोङा गुस्सा भी आया कि इतने बुजूर्ग होते हुये भी ऐसी अनुचित बात इन्होने कही। बाद में पता पङा कि ये व्यक्ति तो दिमाग के मरीज है, और बङी ही करूणाजनक अवस्था में हैं। ऐसा सुनते ही पता नहीं गुस्सा तो कहां चला गया, और मन में उनके प्रति करूणा भी आ गयी।

इस उदाहरण से एक बात तो समझने में आयी कि जब हमें कोई चीज न्यायपूर्ण लगती है, तो हमें उसके प्रति दुर्भावनायें नहीं रहती। वास्तव में देखा जायें तो जब हमें घटना न्याय पूर्वक लगती है तो अन्ततया हमें कोई भावनायें ही नहीं रहती, हम मध्यस्थ हो जाते हैं। अन्यायपूर्ण बात पर दुर्भावनायें रखना और बिना उम्मीद के कोई अच्छी घटना के होने पर सुखद भवनायें रखना ही लोक में दिखाई देता है।

अब हम एक उदाहरण और लेते हैं, और उसका तात्विक दृष्टि से विशलेषण करते हैं: एक व्यक्ति हमारे गांव में आया। पता पङा पहुंचे हुवे सन्त हैं। जाकर मिले तो पता पङा कि बाहर से सन्त हैं और अन्दर से पाखण्डी। ऐसा पता पङते ही मन में द्वेष की नाना प्रकार की तरंगे नृत्य करने लगी। लौकिक ज्ञान से तो ये ही पता पङता है कि ये व्यक्ति बहुत गन्दा है। मगर तात्विक दृष्टि से देखा तो पता पङा कि उसका पाखण्ड का कारण तो उसका अज्ञान और कषाय हैं। और ये अज्ञान, कषाय का कारण तो पूर्वजन्म में किये गये भाव हैं। अब समझ में आया जैसा सन्त की अज्ञान, कषाय की अवस्था है, तो उसी के हिसाब से तो कर रहा है, इसीलिये न्यायपूर्ण है। द्वेष करूं तो किस पर करू? उस सन्त की अज्ञान और कषाय पर? मगर उस पर भी कैसे करू, उसका मूल कारण तो भूतकाल में किया गया वो भाव है जिससे इस प्रकार का अज्ञान, कषाय सन्त मे अभी दिखाई पङ रहे है। तो भूतकाल के भाव पर करूं? उस पर भी कैसे करू उसका भी तो कारण उसके भूतकाल में कुछ है। तो मतलब कषाय ही ना करूं। हां! बस यही इष्ट है!

मगर जो कर रहा है, उसके फ़ल में इसे भविष्य में दुख होगा, इसीलिये मन में करूणा भी है। मगर जो कर रहा है, वो अब अन्याय नहीं दिखेगा। इस प्रकार से सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड में समस्त जीवो की नाना प्रकार की अवस्थायें न्यायपूर्ण दिखाई पङती है। चाहें वो भ्रष्ट नेता, आतंकवादी, पाखण्डी सन्त इत्यादि क्यों ना हो। जगत मे अन्याय नाम की कोई चीज नहीं। जो गलत कार्य करता है, उसे भविष्य में उससे दुख ना हो इसीलिये उसे सम्बोधा जाता है। यह बात समझके अपने को सब व्यक्ति के प्रति- यह अच्छा है, यह बुरा है- इस प्रकार की भवनाओं का अन्त हो जाता है।

ऐसी दृष्टी बनने से ना तो हम राग करते हैं और ना द्वेष और शान्ति को प्राप्त करते हैं। अगर बाहर कमीयां दिखे तो उसे न्यायपूर्ण देखे, अगर अच्छाईयां दिखे तो उसे न्यायपूर्ण देखें, इस प्रकार से बाहर में अच्छे बुरे के भेद करने की दृष्टी समाप्त हो जाती है, और समता दृष्टी पैदा होती है।


सूत्र ३: पर वस्तु से सुख दुख नहीं होता।हमारी लोक में यह धारणा रहती है कि अमूक व्यक्ति ने हमें सुख दिया या दुख दिया। सामने वाले व्यक्ति ने कुछ उपकार कर दिया, तो हम कहते हैं कि हमें सुख दिया। कोई अच्छा TV serial देख लिया तो हमने कहा कि इसने कितना सुख दिया। ऐसा ही दुख में भी होता है। घर पर किसी से ना बने तो कहते हैं कि हमारी सास ने तो हमे बङा ही परेशान किया है।

वास्तव में क्या कोई हमें सुखी दुखी कर सकता है? इसमें विचार २ तरीके से करते है।
१. पहली बात तो यह- कि हमें निमित्त अपने कर्मानुसार मिले। अच्छे कर्म थे तो किसी निमित्त ने आकर हमरा भला कर दिया। बुरे थे तो बुरा कर दिया। तो हम दूसरे को सुखी दुखी करने का जिम्मेदार किस प्रकार ठहरा सकते हैं? यही बात सूत्र ’जो हुआ सो न्याय’ में भी समझी थी।
२. अब दूसरी बात यह है कि जो सुख दुख हुआ वो अपने कषाय के अनुसार हुआ। जब हम कहते हैं कि दूसरे व्यक्ति या वस्तु ने हमे अच्छा या बुरा किया तो हमे जो दुख हुआ वो अपनी कषाय के अनुसार हुआ। अच्छा निमित्त मिलने पर हम रति या लोभ कषाय से ग्रसित हुये तो हमने कहा कि आपने तो मजा दिला दिया। वास्तव में हम खुद ही सुखी दुखी हुवे या दूसरे ने हमें सुखी दुखी कराया, इसके समझने के लिये निमित्तों से सम्बन्ध समझते हैं। ये दो प्रकार के हैं-
  २ क) निमित्त driven: अग्नि और पानी का सम्बन्ध: ये ऐसा सम्बन्ध है कि अगर अग्नि और पानी का संयोग हो तो पानी गर्म होगा ही होगा। ऐसा नहीं हो सकता कि अग्नि का संयोग तो हो मगर पानी गर्म ना हो। एक और उदाहरण लें तो जैसे थाली पर चम्मच मारे तो थाली पर कम्पन्न होगा ही होगा।
  २ ख) उपादान driven: मछली और पानी का सम्बन्ध: मछली और पानी के बीच मे सम्बन्ध अलग प्रकार का है। जब मछ्ली गमन करती है तो पानी सहायक होता है, मगर पानी मछली को गमन कराता नहीं है। मछली चाहें तो पानी का सहयोग लेकर गमन करे चाहें तो स्थिर रहे। एक और उदाहरण लें - जैसे जमीन और हमारा उस पर चलना। जमीन हमें चलाती नहीं है, मगर हमारे चलाने में सहायक बनती हैं।

उपर्युक्त दो प्रकार के सम्बन्धो में ये विशेष बात देखने में आती है कि पहले वाले सम्बन्ध में निमित्त contribute कर रहा है कार्य होने में, जबकि दूसरे प्रकार के सम्बन्ध में उपादान निमित्त का आश्रय ले रहा है। या दूसरे शब्दो में कहे कि पहला सम्बन्ध निमित्त driven है और दूसरा सम्बन्ध उपादान  driven है। पहले सम्बन्ध में निमित्त की मर्जी कि वो कार्य को drive करे या ना करे। और दूसरे सम्बन्ध में उपादान की मर्जी की वो कार्य drive करे या ना करे। अब हम दुबारा से उपर के उदाहरणो (२क, २ ख) को पढे तो ये बात एकदम स्पष्ट हो जायेगी।

जो हमें व्यक्तियों और पर वस्तुओं से सुख दुख होता है उसमे दूसरी प्रकार का सम्बन्ध बनता है। अर्थात उन सम्बन्धो मे दुख या दुख हमारे द्वारा driven है। हमारी मर्जी कि हम उस निमित्त का आश्रय लेकर सुखी हों या दुखे हो। हमारी खुशी/दुख दूसरी वस्तु drive नहीं करती वरन हम drive करते हैं। और खास बात यह है कि हम चाहें जैसे drive कर लें। चाहें तो उस निमित्त पर सुखी हो जाये और चाहे दुखी और चाहे तो एक सन्त की भांति वीतरागी। I am the driver whether I want to have pain, pleasure or equanimity.
जैसे कि एक horror movie को देखके कुछ लोग भयभीत हो जाते हैं और कुछ मस्त लोग उस पर ठहाके मार के हंसते हैं। बिल्कुल उसी तरह जिस तरह मछली होती है- चाहें तो वो पानी मे रहकार उत्तर दिशा की और दौङ लगा ले और चाहें तो दक्षिण की ओर, और चाहें तो निराकुल अपने स्थान पर ही बैठी रहे। एकदम उसी प्रकार यहां पर भी बात लागू होती है। सो सार यह है कि हम पर वस्तु से नहीं अपनी ही राग द्वेष से दुखी होते हैं। और ऐसा श्रधान करने से हम पर-वस्तु पर होने वाले राग द्वेष को जीत निरकुल सुखी ओर शान्त हो सकते हैं।




सूत्र ४: प्रभु की प्रतिमा साक्षात प्रभु ही हैं
हम रोज मन्दिर जाते हैं, और प्रभु प्रतिमा के दर्शन करते हैं। उसका सच्चा फ़ल तभी है जब हम ये समझे कि यह प्रतिमा नहीं साक्षात प्रभु हैं।

इस बात को एक उदाहरण से समझते हैं। जैसे कि हम video game खेले और उसमे कम्प्यूटर के साथ tennis खेल रहे हों, तो उसमें मजा तभी है जब हम ऐस माने कि हम वास्तव मे tennis खेल रहे हैं। इसी प्रकार से जब हम किसी movie देखने जायें और movie देखते वक्त ये मान ले कि ये ही विचार करते रहे कि ये तो सब अभिनेता इत्यादि ने घन कमाने हेतु किया है, वास्तव में ऐसी कोई घटना घटी नहीं जैसी movie में दिखाई है, तो हम क्या movie का मजा ले पायेंगे, और क्या उस सन्देश को समझ पायेंगे जो movie देना चाह रही है? इसका मतलब जिस चीज का जो प्रयोजन हो हम उसे उसी अनुसार माने तो ही कार्य बन सकता है।

उसी प्रकार हम जब मन्दिर में जायें तो यह समझ ले कि हम साक्षात प्रभु के दर्शन करने जा रहे हैं, उसी में हमारा कल्याण है। साक्षात अनन्त सुखी, सम्पूर्ण विश्व को जानने वाले प्रभु को दर्शन करे। मन्दिर जाते वक्त, पूजा करते वक्त, प्रक्रिमा लेते वक्त, नमस्कार करते वक्त, अर्घ्य चढाते वक्त इसी बात का ध्यान रखे।



सूत्र ५: अपने अन्दर शक्ति रूप प्रभु का ध्यान करें।
ध्यान मे बढी ताकत है। यह गलत दिशा में हो तो जीव को खूंखर दरिंदा बना देता है, और सही दिशा में हो तो तीर्थंकर बना देता है, सिद्ध बना देता है। इसी ध्यान के परिणाम स्वरूप ही जीव के विभिन्न चित्र-विचित्र इस ३ लोक के Canvass पर दिखाई पङते हैं। विज्ञान के जगत में जिस प्रकार मात्र ३ मौलिक कणो (प्रोटान, न्यूट्रान, इलेक्ट्रान) से ही सम्पूण जगत के अनगिनत पुद्गल दिखाई पङती हैं- जैसे लकङी, अनेक प्रकार की धातुयें, प्लास्टिक इत्यादि। उसी प्रकार से मात्र १४८ प्रकृतियों के कर्मो के संयोग से अनेको प्रकार के अवस्थायें जीव में पायी जाती हैं जैसे मच्छर, बैक्टीरिया, देव, नारक, नर, सीप इत्यादि

इन सब अवस्थाओं से विलक्षण, सर्वत्र सुन्दर, अनुपम, तीन लोक में पूज्य जीव की स्वतन्त्र अवस्था है। जिसमें कर्मो या किसी भी अन्य द्रव्य का कोई हस्तक्षेप नहीं और जब कोई जीव समस्त कर्मो से मुक्त होता है तो ऐसी अवस्था प्राप्त करता है। दूसरे शब्दो में सभी संसारी जीवो में सम्पूर्ण स्वतन्त्र होने की शक्ति है। इसी शक्ति का ध्यान करने को आचार्यो ने शास्त्रो में बताया है।

पहले समझते हैं शक्ति का मतलब क्या? जैसे एक पहलवान को जंजीरो मे जकङा हुआ है, और वह अब कुछ भी करने मे समर्थ नहीं। जैसे ही जंजीरे खुलती हैं तो वह अकेले २-३ पहलवानो को चित करने में समर्थ हो। तो हम कहेंगे कि जंजीरो में बंधे हुये पहलवान के दूसरे पहल्वानो को चित्त करने की शक्ति है मगर अभी व्यक्त रूप में नहीं है, एक बार जंजीर खोल के देखो तो सारी शक्ति समझ में आयेगी। उसी प्रकार कर्मो के बन्धन में आत्मा का ज्ञान, वीर्य, सुख संकुचित है, मगर है उसमे शक्ति अनन्त ज्ञान, वीर्य और सुख की। जो एक बार कर्म नष्ट हो जाते तो एकदम प्रकट हो समझ मे आती हैं जैसे पहलवान के उदाहरण मे हमने समझा।

लोक में भी शक्तिओं का ध्यान करके ही कार्य बनता है। अगर एक राजा दूसरे राजा से युद्ध करे, और उसकी सेना को अपने जीतने की शक्ति पर विश्वास ही ना हो तो क्या राजा जीत सकता है? इसी प्रकार हमारे मन के विकार जीतने हो और अपने अन्दर वीतराग शक्ति का ध्यान ना हो, तो विकार भी जीता नहीं जा सकता।

जैसे हमें क्रोध जीतना हो तो हम ध्यान करें कि हमारे अन्दर शक्ति है कि हम विपरीत अवस्थाओं में शान्त रह सकूं। हमें लोभ जीतना है तो हम ध्यान करें कि हमारे अन्दर शक्ति है कि हम समस्त लोभ रहित हो सकते हैं। बाहर में विषय को देखकर चित्त डगमगा जाये, तो ध्यान करें कि हम विषयों को जीतने की शक्ति से युक्त हैं। दसलक्षण के अवसर पर हमारे अन्दर धर्म रूप परिणत होने की शक्ति का ध्यान करें। अरहंत भगवान की भक्ति करें तो साथ में अपने अन्दर अरहंत होने की शाक्ति का भी ध्यान करें। साधू सन्तो के दर्शन करें तो हमरे अन्दर तप, परिषह में वीतरागता धारण करने की शक्ति का ध्यान करें। इस प्रकार का ध्यान करें कि हमारे अन्दर शक्ति है कि उनोदर करें और फ़िर भी वीतरागे रह सके, क्षुधा आदि परिषह हो तो फ़िर भी वीतरागी रह सके। हम सब जीवो के अन्दर ये शक्तियां समान रूप से विद्यमान हैं। इस प्रकार हम विभिन्न शक्तियों का ध्यान चलते फ़िरते कर सकते हैं। या फ़िर बैठकर कर सकते हैं, अगर मन ना लगे तो मंत्र ध्यान के साथ भी कर सकते हैं। ऐसा practical हम खुद अपने पर करे।

इस प्रकार उस शक्ति का ध्यान करने से चमत्कार हो जाता है। कर्मो की अवस्था पर परिवर्तन होने लगता है। समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अनुकूल हो जाते हैं। और शीघ्र ही वो शक्तियां व्यक्त होने लग जाती है।


सूत्र ६: मेरा मरण नहीं
मात्र शरीर का मरण होता है, आत्मा का नहीं। इस सूत्र को बार बार भावना करने से शरीर के जन्म, मरण, रोग से भय शोक समाप्त हो जाते हैं, और जीव सुखी हो जाता है।

आत्मा किस प्रकार से शारीर में है, इसे समझते हैं। जिस प्रकार से दूध में कोई मणि हो और उसका प्रकाश पूरे दूध में फ़ैला हो, उसी प्रकार से आत्मा पूरे शरीर में फ़ैली हुई है।

अगर हम उस दूध को उबाल दे तो उफ़नते हुये दूध में भी प्रकाश पूरा फ़ैला रहता है, और उस दूध को अलग आकृति वाले बर्तन में डाल दे तो मणि का प्रकाश भी उसी आकार का हो जाता है। एकदम उसी प्रकार आत्मा भी जैसा शरीर हो वैसा ही आकार ले लेती है। छोटी चींटी में जाये तो उसका छोटा आकार ले लेता है, बढे हाथी में जाये तो वैसा आकार ले लेती है। वो प्रकाश दूध के हर प्रदेश में है; दूसरे शब्दो में दूध में ऐसा कोना नहीं जहां प्रकाश ना हो, ठीक उसी प्रकार आत्मा भी सम्पूर्ण शरीर में फ़ैली है।

जिस प्रकार से हम प्रकाश को दूध से भिन्न मानते हैं जबकि वो दोनो एक साथ है, उसी प्रकार जानने वाली आत्मा शरीर से भिन्न है। शरीर आंखो से दिखाई देता है, किसी ना किसी रंग को धारण किये होता है, मगर आत्मा बिना किसी रंग, गंध की है। जिस प्रकार से दूध में प्रकाश को हम उसकी रोशनी से दूध से भिन्न जानते हैं, उसी प्रकार आत्मा अपने ’जानने वाले गुण’ से ही शरीर से भिन्न जाना जाता है। आत्मा हमें अलग से आंखो से दिखाई दे जाये, ऐसा नहीं है। वरन आत्मा को हम उसके जानने के गुण से शरीर से भिन्न अनुभव कर पाते हैं। आत्मा के बारे हम कल्पना करे कि वो श्वेत रंग की है, अमूक आकार ही है- ऐसा भी नहीं। आत्मा के समझ तो उसके जानने के गुण से ही हो पाती है।

एक और उदाहरण लें - जैसे बल्ब में चमक होती है, वो उसके अन्दर बिजली के प्रवाह से होती है। अगर बिजली बल्ब में प्रवाहित ना हो तो चमक भी समाप्त हो जायेगी। उसी प्रकार से आत्मा शरीर में है, और मरण पर आत्मा के शरीर से निकल जाने पर शरीर कोई काम का नहीं रहता।

इस प्रकार आत्मा को शरीर से भिन्न जानने पर व्यक्ति का दृष्टिकोण ही बदल जाता है। जैसे कोई व्यक्ति लाल चश्मा लगाये तो समस्त दुनिया अब अलग प्रकार से दिखती है, उसी प्रकार जब शरीर से भिन्न आत्मा को जानता है तो पूरी दुनिया को देखने का नजरिया ही बदल जाता है। अपना शरीर जिसे ’मेरा’ कहता था, अब पराया लगने लगता था। शरीर रूपी घर में अपने को मेहमान समझने लगता है। पहले शरीर के जन्म के साथ अपना जन्म और मरण के साथ अपना विनाश मानता था, अब अपने को अविनाशी मानने लगता है। मरने का अब उसे भय नहीं लगता। पहले बिमारी होने पर सोचता था ’हाय मरा’, अब बिमारी होने पर उसे पङोसी बीमार हुआ ऐसा लगता है। पहले जीवन के निर्णय अपने 70-80 साल की जिन्दगी की आधार पर लिया करता था, अब निर्णय भव-भवान्तर को सोच कर लेता है। पहले शारीरिक गुणों के आधार पर अपने को अच्छा - बुरा, बङा-छोटा समझता था, अब आत्मिक गुणों के आधार पर अपना मापदण्ड करता है। पहले भाई, बन्धु, माता, पिता स्त्री को अपना सब कुछ मानता था। अब उन्हे ऐसा मानता है - जैसे कि हम लोगो से ट्रेन के सफ़र में कुछ समय के लिये मिलते हैं और फ़िर सदा के लिये छोङ देते हैं, उसी प्रकार इन सम्बन्धीयों को भी सदा के छोङ देना है इसीलिये ये सम्बन्धी किस बात के । इस प्रकार से आगे बढते बढते शरीर से भी समस्त प्रकार के राग द्वेष को जीत लेता है, और परम निर्मल पवित्र सिद्ध दशा को प्राप्त करता है।

इसी से सम्बन्धित और सूत्र भी समझने हैं: मेरा जन्म नहीं, मेरे को रोग नहीं, मैं काला-गोरा नहीं इत्यादि


सूत्र ७: प्रसिद्धी की चाह विष है। बालक की तरह प्रसिद्धी की चाह से बचे।

हमारे जीने के मकसद की दिशा भी विचित्र तरीको से निर्धारित होती है। हम अपने जीवन में क्या करते हैं - इसमें अनेको कारण बनते हैं। इनमें से एक मुख्य कारण रहता है हमारी इच्छा कि हम दूसरो के सामने अच्छे दिखे।

लोक मे प्रसिद्धी की चाह एक विष के समान है जो अध्यात्मिक सन्त को मोक्षमार्ग से च्युत कर संसारमार्गी बना देती है। साधक साधना निज कल्याण के लिये करता है, और निजकल्याण के साथ-साथ पर कल्याण (ज्ञान दान) में भी जागरूक हो सकता है। परकल्याण करते हुये कई बार प्रसिद्धी का रस चखने के बाद, निजकल्याण से साधक च्युत हो जाता है। कई बार तो निजकल्याण करते हुये भी प्रसिद्धी की चाह अन्दर ही अन्दर पनपने लग जाती है।

सन्त का जीवन तो बालक की तरह है- जैसे बालक को मात्र अपनी इच्छा पूरी करनी होती है, उसे कोई परवाह नहीं कि लोग क्या कहते हैं। सन्त भी वीतरागता की इच्छा से साधना करता है, बिना किसी प्रसिद्धी की आकांक्षा के। और एकदम बालक की तरह सादा जीवन जीता है। यहां तक की वस्त्र भी नहीं पहनता, इससे सादा और क्या हो सकता है।

दूसरी तरीके से देखे - हमें क्या मतलब कि लोग हमारे बारे में अच्छा कहें या बुरा। लोग तो हमें अच्छा बुरा उनके विवेक के अनुसार कहेंगे। मगर वास्तविकता यह है कि मेरा अच्छा बुरा का मापदण्ड तो श्रीगुरू के द्वारा बताये गये सिद्धान्त के अनुसार ही हो सकता है। फ़िर मैं क्यों भागूं लोगो के मापदण्ड के आधार पर। मुझे तो अपना सही बुरे का मापदण्ड श्रीगुरू द्वारा बताये गये सिद्धान्त के अनुसार बना लेना है और उसी अनुसार कार्य करना है।

बाहर में जीव संसारी है, और मुख्यतः संसार मार्ग को ही अच्छा मानते हैं। अगर मैने उनके अनुसार कार्य करने शुरू कर दिये तो संसार में कल्याण होना असंभव ही है। अतः हम लोक में प्रसिद्धी की चाह से बचे।


सूत्र ८: कोई मेरा नहीं
ये सूत्र बहुत ही महान सूत्र है, ये जगत की वास्तविकता का सच्चा बोध कराने वाला है। जगत के मध्य रहते हुये भी जगत के राग से हमें छुटाने वाला है। यह परम सत्य है, और पूर्ण सुख का कारण है। अनगिनत मुनियों ने इस सुत्र का ध्यान कर वीतरागता को अपनाया है, और सब भव्य जनो का यह सूत्र भला करने वाला है।

पहले हम ये समझते है कि वास्तव में हम किसे अपना समझते हैं। स्थूल रूप से - देश मेरा, समाज मेरा है। और कम स्थूल पर जायें तो परिवार, कुटुम्ब, मित्र मेरे हैं। और सूक्ष्म पर जायें तो शरीर मेरा है। और अध्यत्मिकता की सूक्ष्मता में जाये तो राग द्वेष अज्ञानता मेरी है, विकल्प मेरे हैं। इस प्रकार का मेरा-पना हमारे अन्दर बसा हुआ है। वास्तविकता में देखा जाये तो इनमें से हमारा कोई भी नहीं।

इनमें एक उदाहरण देखे- मानो हमारा एक मित्र को जो कर्तव्य निभाने वाला और सही दिशा दिखाने वाला हो, और एक आदर्श मित्र के सर्व गुणो से युक्त हो। तो वास्तव में क्या वह व्यक्ति हमारा मित्र है? तो इसमें पहली बात तो हमारे भाग्य अनुसार ही हमें मित्र मिला है। और जो वो हमारा अच्छा बुरा करता है वो भी कर्मानुसार करता है। हमारा पुण्य अच्छा है तो वो हमारी इच्छा के अनुसार की कार्य करता है, और हम मान बैठते हैं कि ये तो मेरा भला करने वाला है- इसलिये मित्र है। अभी ही पाप उदय आये और वो ही मित्र प्रतिकूल हो जाये तो हम कहेंगे कि ये ’मेरा शत्रु’ है। वास्तव में तो ना मित्र था और ना ही शत्रु है- मात्र भाग्य उदयानुसार निमित्त था जैसे कि Caishier होता है, जो बैंक में जाने पर हमारे ही पैसे हमे देने मे सहयोगी बनता है- उसे हम यह तो नहीं कह सकता है कि वो Caishier हमें महीने के खर्च के पैसे देने वाला है।

वास्तव मे जब हम कहते हैं कि यह मित्र मेरा है, तो हम समझते है कि वो हमारा साथ निभायेगा और हमारी उम्मीदो के अनुसार परिणमन करेगा। और वास्तव मे ऐसा कई बार देखने में भी आता है, मगर ऐसा नियम नहीं है। और इस प्रकार के अनुकूल परिणमन में मूल कारण वो मित्र नहीं वरन हमारा भाग्य है। तो हम अपने भाग्य को तो अपना मित्र या शत्रु कह सकते हैं, उस मित्र को नहीं। यहां शास्त्रीय भाषा में भाग्य(कर्म) को अन्तरंग निमित्त और उस मित्र को बहिरंग निमित्त कहते हैं।

इसी प्रकार से ये देश मेरा नहीं। ये समाज मेरा नहीं। ये परिवार मेरा नहीं। ये स्त्री, पुत्र मेरे नहीं। यहां तक कि शरीर भी मेरा नहीं, क्योंकि जिस प्रकार से सम्बन्ध मित्र से हम उपर समझ आयें हैं वैसा ही सम्बन्ध शरीर के साथ बनता है। और सूक्ष्म में जाये तो एक दृष्टी से राग द्वेष भी मेरे नहीं, और वही दष्टी सुखदायिनी है और ग्रहण करने योग्य है। ऐसा समझने से और आस्था करने से भव्य जन आत्मिक सुख शान्ति को प्राप्त करते हैं। ऐसा विश्व में सत्य को उद्घोषित करते हुये अनन्तकाल से जिनेन्द्र भगवन्त कहते आये हैं, और भविक जन इस वस्तु स्वरूप को जानकर चरितार्थ करते हुये इच्छाओं से रहित, अनन्त सौख्य सहित मोक्ष अवस्था को प्राप्त करते आयें हैं। हम भी इस सूत्र को सदा के लिये अपना लें।

इस सूत्र के साथ और भी सूत्र हमें अपनाने हैं: घर मेरा नहीं। स्त्री मेरी नहीं। धन मेरा नहीं। समाज मेरा नहीं। शरीर मेरा नहीं। सूक्ष्म दृष्टी में राग-द्वेष मेरे नहीं।


सूत्र ९: कोई अच्छा नहीं, कोई बुरा नहीं




सूत्र १०: जो होता है, उसे होने दो
क्योंकि जो होता है सो न्यायपूर्वक, जैसे सूत्र २ मे हम समझ आये हैं, इसलिये जो होता है उसे होने दो।

क्योंकि जीनें में इन्द्रिय से सुखी या दुखी होने का कोई कारण नहीं, इसलिये शान्तिपूर्वक समता से सुखी और प्रसन्न जीव को रहना चाहिये।

जीवन में कर्म के निमित्त से अनेक उतार चढाव आते हैं- वे पुराने किये हुये कार्यो के ही फ़ल हैं, इसीलिये न्यायपूर्वक(justified) हैं और इसीलिये उन्हे दूर भगाने या नजदीक ही रख लेने का कोई मतलब नहीं है। इसलिये सुखी रहो। कोई कारण नहीं कि हम आयी परिस्थिति से प्रेम करे या द्वेष करे।

सुखी प्रभु की हम उपासना करे। मन्दिर में जाते हुये प्रभु के दर्शन करें, तो उनके सुख का विचार करें- उनका सुख असीम है। उसकी तुलना समुन्द्र से नहीं कर सकते क्योंकि उसकी गहराई और विस्तार की तो सीमा है, मगर प्रभु का सुख तो सीमा से परे हैं। उसकी तुलना आसमान की ऊंचाई से भी नहीं कर सकते क्योंकि उसकी भी सीमायें हैं। ना ही उसकी तुलना चन्द्रमा को देखने से मिली शान्ति से कर सकते, क्योंकि वो तो कुछ पल के लिये, मगर प्रभु का सुख तो अनन्त सुख के लिये है। ऐसे अनन्तसुखी प्रभु के दर्शन करते ही चमत्कार होता है, हमारे अन्दर भी सच्चे सुख की छोटी लहर जन्म ले लेती है, और वो ही बढते बढते मुनी अवस्था मे महा समुन्द्र का रूप ले लेती है और मुक्त अवस्था में असीम हो जाती है।

सुखी मुनिजन की हम उपासना करें। जो हर परिस्थिती में समता सुख का पान करते हैं। आहार मिला तो सुखी, नहीं मिला तो सुखी। किसी ने गाली दी तो सुखी, प्रशंसा करी तो सुखी। रोग हुआ तो सुखी, निरोग रहें तो सुखी। विरोधी मिले तो सुखी, भक्त मिले तो सुखी। जीये तो सुखी, मरे तो सुखी। सर्व अवस्था में समता।

वैसे भी देखा जाये तो दुखी होने का कोई कारण नहीं। क्योंकि आत्मा तो सदा शाश्वत है और कभी अपने स्वभाव को छोङती नहीं, तो फ़िर इन्द्रियों में सुखी दुखी होने का क्या कारण? आत्मा से कोई कुछ छीन नहीं सकता और ना ही कुछ दे सकता, तो किस बात का राग या किस बात का द्वेष।

इसका मतलब ये ना समझना कि हम तो अब सुखी, अब भक्ति, दान, स्वाध्याय इत्यादि से क्या फ़ायदा। और आलोचना, प्रतिक्रमण से क्या फ़ायदा। ऐसा समझे तो अनर्थ हो जायेगा। मार्ग निश्चय-वयवहारात्मक है, निश्चय और व्यवहार दोनो का ही हम ध्यान रखें।

सूत्र १२: कोई किसी को परिणमा नहीं सकता।
"संसार में मनुष्यॊ की प्रवृत्ति स्वेच्छानुसार होती है और वे अन्य को अपने रूप परिणमाना चाहते हैं जब कि वे परिणमते नहीं। इस दशा में महा दुःख के पात्र होते हैं। मनुष्य यदि यह मानना छोङ देवे कि पदार्थ का परिणमन हम अपने अनुकूल कर सकते हैं तो दुःखी होने की कुछ भी बात ना रहे।" [मेरी जीवन गाथा: भाग २, पृ० १ - Autobiography of Pujya Ganesh Varni Ji]


सूत्र १३: स्वतन्त्रता में ही सुख है
पर के सम्बन्ध से जीव कभी भी सुखी नहीं हो सकता, क्योंकि जहां पर पराधीनता है, वही दुःख है। स्वतन्त्रता ही सुख की जननी है, सुख का साधन एकाकी होना है।
[मेरी जीवन गाथा: भाग २, पृ० ४१ - Autobiography of Pujya Ganesh Varni Ji]


सूत्र १४: रोज दान दे
अपने और दूसरे के उपकार के लिये अपनी वस्तु का त्याग करना दान है। श्रावक का कर्तव्य है कि जिन जिन जीवो से उसका सम्पर्क हो, उनको सुखी करे। इसी में उसका खुद का भी सुख है। शास्त्रो में तो श्रावको के लिये पूजा और दान मुख्य कर्तव्य बताये हैं

सबसे पहले चरण में अपने निकट स्व-स्त्री/पुरूष को सुख शान्ति देवे, फ़िर रिश्तेदार इत्यादि को सुख में निमित्त बनें, फ़िर मित्रगण समाज के सुख मे निमित होये। कोई जानने वालो को व्यवसाय ना हो, तो उनकी मदद कर दे। किसे निकट वृद्ध के तकलीफ़ होवे, तो उनकी सहायता कर दे। अपने घर में जितने जीव हैं, उनके प्रति करूणा वरते।

इसी प्रकार समाज के उपकार के लिये जिन प्रभु के मन्दिर में दान देवे। मन्दिर के द्वारा समाज को उपकार होता है। समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक संस्कारों के लिये मन्दिर की बहुत महिमा है। मन्दिर में दर्शन करके, प्रभु की भक्ति करके कितने ही जीवो को यथार्थ धर्म की श्रद्धा होती है। नयी पीढी के भीतर सुसंस्कारो का निर्माण होता है। ऐसे मन्दिर में बहुत ही अच्छी भावनाओं से रोज दान देवें। साल में एक-दो बार बङा दान देने से अच्छा है कि रोज थोङा थोङा दान दे- इससे परिणामो कि विशुद्दि हर दिन होती है। अगर मन्दिर रोज जाना ना हो तो घर मे एक गुल्लक बना ले, और उसमे रोज दान डालते रहे, और जब मन्दिर जावे तो गुल्लक का दान मन्दिर में दे आवे। इससे श्रावक के प्रतिदिन दान का आवश्यक पूरा होगा।

दान को मात्र मन्दिर तक ही सीमित ना रखे। सबसे उत्तम दान तो मोक्षमार्ग मे लगे मुनि, प्रतिमाधारी के लिये होता है। इसके अलावा तन, मन, धन से लोगो की सेवा करे- जिसको भी जरूरत लगे।


सूत्र १५: इन्द्रिय सुख दुख है।

संसारी जीव की प्रवृत्ति इन्द्रिय सुख में रमने को तङपती रहती है। जिस प्रकार से एक प्यासा व्यक्ति कुएं को हर राह पर ढूंढता रहता है, उसे प्रकार संसारी जीव हर कार्य मे इन्द्रिय सुख ढूंढता रहता है। सुबह उठते ही, शरीर को चलाने के लिये भोजन में इन्द्रिय सुख ढूंढता है, काम पर हंसी ठठ्ठा का बहाना ढूंढ्ता है, शाम को चलचित्र ढूंढता है, स्त्री के साथ सुख ढूंढता है, और कहीं ना मन लगे तो कम्प्यूटर में मन लगाता है। देश विदेश की खबरों में जिसमें इसका दूर दूर से कोई सम्बन्ध नहीं, उन्हे जानकर उसमें मन लगाता है। और तो और, कभी धर्म में थोङा मन लगा, तो उसमें भी संगीत इत्यादि भोग ही ढूंढता है।

वास्तव में ये इन्द्रिय सुख सुख नहीं, दुख है। जिस प्रकार से हम अन्न को प्राण कहते हैं, क्योंकि प्राण को शरीर में रखने के लिये अन्न साधक है। उसी प्रकार इन्द्रिय सुख दुख का साधक है, इसीलिये इन्द्रिय सुख दुख ही है।

पहली बात तो यह कि इन्द्रिय सुख स्थाई नहीं होता, क्षणिक होता है। किसी भी इन्द्रिय भोग को ले लो ज्यादा देर नहीं टिक सकता। जो इन्द्रिय सुख आनन्द का कारण बन रहा था, बही कुछ समय बात बोरियत का कारण बनने लगता है। ऐसा जानकर संसारी जन एक इन्द्रिय सुख से दूसरे इन्द्रिय सुख की तरफ़ भागते हैं, और विवेकी जन इन्द्रिय सुख के पीछे भागना छोङते हैं, क्योंकि विवेकी जन शाश्वत सुख के पीछे ही भागते हैं।

फ़िर भी कोई प्रश्न करे कि इन्द्रिय सुख शाश्वत नहीं तो कम से कम क्षणिक तो है, तो कुछ क्षण भर के सुख के लिये क्यों ना उसके पीछे भागें? तो उसका बहुत सुन्दर उत्तर गुरूवर देते हैं- इन्द्रिय सुख भाग्य के आधीन है। जब भाग्य के आधीन है तो उसके पीछे भागने से क्या फ़ायदा।

फ़िर शिष्य प्रश्न करता है, कि भाग्य के आधीन है तो भी हमें तो मजा आता है, इसलिये हम तो लेंगे। तो गुरूवर बताते हैं कि यह इन्द्रिय सुख राग से मिश्रित है इसलिये दुख रूप है और पाप से हमें बान्ध देता है, जिसका फ़ल हमें जन्म जन्मान्तर मे भोगना है। ऐसा सुनकर शिष्य सन्तुष्ट हुआ इन्द्रिय सुख से विमुख हो, अतिन्द्रिय सुख की प्राप्ति का उपाय करता है।


सूत्र 17: किसी के पाप जानकर भी उससे घृणा मत करो।
किसी के पाप जानकर भी उससे घृणा मत करो और न उसका बुरा ही चाहो। अगर ऐसा नहीं करोगे तो उसका पाप तो न मलूम कब दूर होगा, पर तुम्हारे में घृणा, द्वेष, हिंसा आदि को अवश्यमेव स्थान प्राप्त हो जायेगा। उसमें तो एक ही पाप था परन्तु तुम्हारे में तो घृणा आदि अनेक पाप पैदा हो जायेंगे।

- क्षुल्लक शीतल सागर जी, गुरू महावीर कीर्ति जी, पुस्तक- सुखानुभव की  तरंगे पृष्ठ ४


सूत्र 18 : किसी को दुख न हो
किसी को दुख ना हो। वास्तव में तो कोई किसी को सुख दुख दे नहीं सकता, सब अपने कर्मानुसार होता है। मगर अपने अन्दर किसी को दुख देने के भाव आयें और उसके अनुसार मन, वचन, काय की प्रवृत्ति करें तो उसे ही व्यवहार में कहा जाता है कि ’दूसरे को दुख दिया’। अब जब गुरू उपदेश देते हैं कि दूसरो को दुख न दे, तो इसका मतलब है कि दूसरो को दुख देने का मन में भाव भी ना आये।

सुबह उठके रोज भावना भाये कि मेरे को मन, वचन, काय से किसे को दुख ना पहुंचे। वास्तव में देखा जाये तो कोई जीव इस लोक में सुखी हो ही नहीं सकता जब तक कि वो दूसरे को दुख देने की भाव ना छोङे। इसलिये दया को धर्म का मूल कहा है।

यह प्रक्रिया सबसे पहले घर से शुरू करें। घर मे परिवार जनो को, घर में रहने वाले जीव-जन्तुओं को दुख ना देवें। फ़िर बाहर में जिन जिन लोग से बात करे, उनके बारे में सोचे तो यही मन में भावना रहे ’किसी को दुख ना हो’।

सब जीवो को अपनी तरह ही जीव देखे। जैसे हम दुखी होते हैं, वैसे ही दूसरे भी। इसलिये सबके प्रति ’किसी को दुख ना हो’ ऐसी भावना रखे। यही वास्तव में मैत्री भावना है, जो तत्वार्थ सूत्र में समझायी गयी है।


सूत्र 19: दूसरो में दोष ना देखे
"दूसरो में जो दोष दिखाई देते हैं, सचमुच में इसका मुख्य कारण हमारे चित्त की दुषित-वृत्ति ही है। अपने चित्त को निर्दोष बनाया, कि संसार में दोषी दिखेंगे ही नहीं" - - क्षुल्लक शीतल सागर जी, गुरू महावीर कीर्ति जी, पुस्तक- सुखानुभव की  तरंगे पृष्ठ ४

दूसरो के दोष देखकर वास्तव में हम अपना ही चित्त दुषित करते हैं। हम बिना किसी कारण के अपने को ही दुखी करते हैं। जैसे हम अच्छी जगह घूमने जाये तो खुश होते हैं, और बेकार जगह जायें तो दुखी होते हैं। वैसे ही हम दूसरो के गुण देखे तो प्रसन्न होते हैं, और दूसरो के दोष देखे तो अपने को ही बरबाद करते हैं।

हम दूसरो को देखें तो उसके अवगुणो को उसके कर्मो का उदय जाने। जैसे कोई व्यक्ति अपनी बहुत बढ़ाई करता हो, तो अपने मन में ख्याल आ जाता है कि ये तो बढा घमण्डी है। इसमें हम उस व्यक्ति के घमण्ड को उसके कर्मो का उदय जाने। वास्तव में उसकी आत्मा तो हमारी आत्मा जैसे ज्ञान स्वरूपी ही है, इसलिये आत्मा में दोष तो निकाल नहीं सकते। और जो कर्म है उसके उदय से घमण्ड, जो कि आत्मिक विभाव है, हो रहा है। यह कर्म पुदगल है, इसलिये इसमें हम क्या दोष निकाले। इसी तरह उसका जो अज्ञान है जिसकी वजह से उसे अपना घमण्ड गलत नहीं दिखता, वो भी कर्मजनित है।

इस प्रकार जैसे हम खुद में भेदज्ञान करते हैं, वैसे दूसरे में भी आत्मतत्व और कर्म में भेद करके तत्वदृष्टि से देखेंगे तो उसके दोष दोष नहीं देखेंगे। अभी तक हम उसे एक मनुष्य देखते थे, अब वो हमें- आत्मा, कर्म, शरीर का एक पिण्ड दिखाई पङता है। और इस भेद के पता पङते ही जो दृष्टि दोष देखने वाली थी, वो भी समाप्त हो जाती थी। शरीर को हम दोष दे नहीं सकते। आत्मा हमारे जैसी ज्ञान स्वभावी है- इसलिये वो भी दोषी नहीं। और कर्म पुदगल हैं - उन पर भी क्या दोष दे।

वास्तव में पूरा जगत निर्दोष है। सब अपने अपने कर्म उदय के अनुसार न्यायगत नियमों से अनन्त काल से इस जगत में गोते खा रहें हैं। इस प्रकृति के न्यायपूर्ण जगत में कोई दोषी है ही नहीं।


सूत्र 20: संसार में नाटककार की तरह रहो।
"संसार में नाटककार की तरह रहो। अपना पार्ट पूरा करने में कभी चूको मत तथा किसी भी पदार्थ को अपना मत समझो। पार्ट करने में चूकना नमकहरामी और किसी को भी अपना मानना बेइमानी है।" - क्षुल्लक शीतल सागर जी, गुरू महावीर कीर्ति जी, पुस्तक- सुखानुभव की  तरंगे पृष्ठ ११

वास्तव में संसार नाटक ही है। जैसे अभिनयकार नाना प्रकार के मुखौटे लगाकर अभिनय करता है, वैसे ही हम जीवन में कर्म के उदय से नाना प्रकार के रोल निभाते हैं। वास्तव में इस जग में ना कोई अपना था, और ना ही होगा। हम कुछ भी अपना ना मनते हुए ही अपना कर्तव्य का निर्वाह करें जैसा कि उपर क्षुल्लक महाराज जी ने बताया है।




सूत्र २१: मुझे कोई भय नहीं
मैं चैतन्य मात्र हूं और मुझमें पर का प्रवेश नहीं इसलिये निर्भय हूं। इसमें निम्न ७ बिन्दू मुख्य हैं:

1.       मुझे इस लोक से कोई भय नहीं: ज्ञानी को इस लोक से भय नहीं रहता कि इस जीवन में कैसे गुजारा होगा, क्योंकि ज्ञानी की दृष्टि है कि मेरा लोक तो चैतन्य है इसका गुजारा तो निर्बाध होता ही रहेगा।
2.       मुझे पर लोक का भय नहीं: ज्ञानी को पर लोक(मरण के बाद दूसरा जीवन) से भी भय नहीं रहता कि पर लोक में कैसे गुजारा होगा, क्योंकि ज्ञानी की दृष्टि है कि मेरा पर लोक भी तो चैतन्य है इसका गुजारा तो भी निर्बाध ही रहेगा।
3.       मुझे वेदना का भय नहीं: ज्ञानी जीव के वेदना का भय नहीं होता कि रोग से मेरी वेदना कैसी होगी, क्योंकि ज्ञानी की दृष्टि है कि यह अविचल ज्ञान स्वयं वेदा जा रहा है यही मेरी वेदना है, यह अन्य वस्तु से नहीं होती।
4.       मुझे अरक्षा भय नहीं: ज्ञानी जीव के अरक्षा भय नहीं होता कि मेरी कोई रक्षा नहीं, कभी मेरा नाश ना हो जाये, क्योंकि ज्ञानी आत्मा की दृष्टि है कि जो सार है उसका नाश नहीं होता, सत स्वयं सुरक्षित है, मैं भी सत हूं अतः सुरक्षित हूं।
5.       मुझे कोई अगुप्तिभय नहीं: ज्ञानी जीव के अगुप्तिभय नहीं होता कि मेरा कोई गुप्त स्थान(किला आदि सुदृढ़ स्थान) नहीं है, कोई मुझे बाधा देने न आ जावे। क्योंकि ज्ञानी जीव की दृष्टि है कि मेरा स्वरूप ही मेरी गुप्ति है उसमें पर का प्रवेश ही नहीं हो सकता।
6.       मेरे मरण भय नहीं: ज्ञानी जीव के मरण भय नहीं कि मेरे प्राण नष्ट न हो जायें, क्योंकि ज्ञानी आत्मा की यह दृष्टि है कि मेरा प्राण तो ज्ञान है, वह कभी नष्ट नहीं हो सकता।
7.       मेरे आकस्मिक भय नहीं: ज्ञानी जीव के आकस्मिक भय नहीं होता कि मुझ पर कोई विपत्ति ना आ जाये क्योंकि ज्ञानी जीव की दृष्टि है कि मैं अनादि, अनन्त, अचल, स्वतः सिद्ध ज्ञानमात्र हूं, मुझ में दूसरे का आक्रमण नहीं हो सकता।

(Inspired from ‘समयसार महिमा’ written by महाराज सहजानन्द वर्णी जी, पृ० २४-२५)



सूत्र २२: हित केवल जानन हार रहने में है
हित वही है, जहां आकुलता लेश मात्र नहीं है। आकुलता उस ही स्थिती में नहीं है जहां मोह-रागद्वेष नहीं है। ऐसी निर्मल स्थिति का अविनाभाव केवल जानन हार स्थिति से है। अतः केवल जाननहार रहो, अर्थात जानन के साथ विकल्प, स्नेह, रोष-घ्रणा, ईर्ष्या, लोभ, छल आदि किसी विभाव प्रवर्तनरूप प्रवर्तन न रहे। बुद्धिपूर्वक विभाव प्रवर्तन न रहे, यह तो अब भी किया जा सकता है। इसके लिये केवल जाननहार रहो। अर्थात सकल औपाधिक संपर्क से रहित सहज ज्ञान स्वभाव के जाननहार बनो और ऐसा यथा बल जानन हार रहो। इसके लिए केवल के द्वारा जानन हार बनो अर्थात इन्द्रियों का व्यापार बन्द करके मानसिक विकल्पो को निरूद्ध करके अन्तः ही मात्र जानन परिणाम के द्वारा जानन हार बनो और यथा बल जानन हार रहो। हित केवल जान हार रहने में है।

(From 'सहजानन्द वाणी’ written by महाराज सहजानन्द वर्णी जी, पृ० 3)



सूत्र २३: मैं शुद्ध ज्ञान मात्र हूं
देखो जब कष्ट आता है तो उनसे बचने का उपाय क्या है? कष्ट पर दृष्टि देना कष्ट मिटाने का उपाय है क्या? यह उपाय नहीं है, किन्तु कष्ट रहित जो जीव का स्वरूप है चैतन्यमात्र उस पर दृष्टि देना यह है मेरा स्वरूप। यह उपाय है...। जैसे खून का दाग खून से नहीं धुलता ऐसे ही राग द्वेष मोहजन्य संकट रागद्वेष मोह से दूर नहीं हो सकता। उसके लिये तो विशुद्धज्ञान जल चाहिये और यह ज्ञान बङी आसानी से बार-बार की भावना से प्राप्त हो सकता है। अपने को इस तरह देखे कि मैं शुद्ध ज्ञान मात्र हूं, केवल जाननमात्र। जानन में राग नहीं होता, जानन में द्वेष नहीं, कलंक नहीं, विकार नहीं।

जैसे पानी में तो स्वच्छता ही है। अगर गंदा है पानी तो वह पानी के स्वरूप के कारण गंदा नहीं है, किन्तु कीचङ का संयोग, काई का संयोग, घांस का संयोग, पत्ते पङ गये, उसका संयोग, उससे मलिनता है, पर मलिनता जल में जल के कारण नहीं होती, ऐसे ही मुझ आत्मा में मलिनता मेरे ज्ञान के कारण नहीं होती, ज्ञान का काम तो विशुद्ध जाननहार रहना है, पर मलिनता जो आयी है वह कषाय के सम्बन्ध से, कर्मानुभाग के प्रतिफ़लन से मलिनता बनी है। सो है तो मलिनता और की, मगर भोगना पङ रहा है ज्ञान को। और कोई कैसे भोगे? अचेतन हैं।

तो जैसे दुष्ट के मिलने पर दुखी कौन होगा, दुष्ट या सज्जन? सज्जन दुखी होगा। दुष्ट तो इठलायेगा, अपने को मौज मानेगा, ऐसे ही इस कर्म प्रपंच में, इस अज्ञान वातावरण में जो कुछ मलिनता बनती है वह मलिनता मुझ आत्मा के माथे ही लद गयी है। इससे अपने को अपने आप पर करूणा की आवश्यकता हुई है। दया करे अपने आप पर। ये सब कुछ मैं नहीं हूं। मैं तो विशुद्ध चैतन्यमात्र हूं, सर्व विशुद्धज्ञान मात्र हूं, केवल ज्योति ज्योति, ज्ञान प्रकाश, ऐसा बराबर अपने को अनुभव करें तो अनुभव बनेगा और उस समय जो एक विशुद्ध अनाकुलता अनुभव में आयेगी, उससे और दृढ़ श्रद्धा बनेगी कि अहो यह ही मैं हूं और इसी स्वरूप में मेरा हित है, कल्याण है और यह ही सर्वस्व शरण है मुझको।

(From सहजानन्द वर्णी जी, प्रवचन, तत्वार्थ सूत्र, अध्याय २, सूत्र ७, पारिणामिक भाव)



सूत्र २4: ज्ञान और राग भिन्न हैं।
देखो बहुत अन्तर्दृष्टि से समझियेगा कि आत्मा में राग भाव भी हो रहा है और ज्ञान भी चल रहा है तो अन्तरात्मा ज्ञानी पुरूष  उस राग को भी जानता है - यह राग है, यह ज्ञान है तो वहां भी जो राग का जानना हुआ सो राग के कारण से जानना नहीं हुआ, किन्तु ज्ञान अपने ही स्वभाव से, अपनी ही परिणति से जाना। देखो यह है भेदविज्ञान की पराकाष्ठा। राग अपने कारण से हो रहा है, ज्ञान अपने कारण से हो रहा है, राग अपने परिणमन में हो रहा है, ज्ञान अपने परिणमन में हो रहा है। यद्यपि दोनो हैं एक आत्मपदार्थ में और उस ही पदार्थ में परिणमन है, पर भेद दृष्टि करके जब हम गुणो को, परिणमनो को न्यारा-न्यारा कह रहे हैं तो इस दृष्टि में वे सब न्यारे-न्यारे हैं।
(From सहजानन्द वर्णी जी, प्रवचन)




सूत्र २५: ज्ञान का स्वामी मैं हूं, राग का स्वामी पुद्‌गल है।
यहां राग का स्वामी जो पुद्‌गल कहा है उसकी एक दृष्टि है। चूंकि राग का अविनाभाव, अन्वयव्यतिरेक कर्म के साथ है। कर्म के होने पर राग हो, कर्म के न होने पर राग न हो, इस दृष्टि को लेकर उसका स्वामी पुद्‌गल को कह दिया है। परिणमा तो यद्यपि यह जीव रागरूप, लेकिन जैसे हम यहां देखते हैं कि दर्पण के सामने हाथ किया तो हाथ की छाया हुई। अब कितना सीधा जंच रहा कि हाथ हटाया तो छाया खतम, हाथ सामने किया तो छाया तैयार। हाथ हिलाया तो छाया हिली। इस बात से यह पता पङा कि इस छाया के होने न होने में इस हाथ का स्वामित्व माना जा रहा है। यद्यपि उपादान दृष्टि से छायारूप परिणमन करने वाला वह दर्पण है। लेकिन अन्वयव्यतिरेक दर्पण के साथ नहीं है। जिसके साथ अन्वयव्यतिरेक है उसके प्रति कहा जा रहा है। हे राग! तुम जिसके होने पर होते और न होने पर नहीं होते तुम तो उसके हो, मेरे मित्र कैसे हो? तुम जावो पुद्‌गल के पास, मेरे को तुमसे मतलब नहीं। तो ऐसा भेदविज्ञान करके इस ज्ञानी ने अपनी उपयोगभूमि को स्वच्छ किया है।

(From सहजानन्द वर्णी जी, प्रवचन)



सूत्र २६: संसार एक movie है।
एक movie जब बनाई जाती है, तो पात्रो को script दी जाती है। उसी script के अनुसार पूरी movie बनती है। इसमें किसको क्या बोलना है, कैसे वर्ताव करना है, वह सब script के अनुसार होता है। इसी प्रकार हमारे जीवन में भी हम सब एक पात्र की तरह है। हम अपने कर्मो (संस्कारों), समझ और पुरूषार्थ के आधार पर कार्य करते हैं। नये कर्मो को बांधते हैं, और इस भव और भव में सब सम्बन्धियों को छोङकर चले जाते हैं। यहां किसी भी अन्य पात्र से हमारा सम्बन्ध हमेशा के लिये नहीं है, फ़िर भी अज्ञानवश हम उससे ऐसे प्रेम करते हैं, जैसे कि वह सदा के लिये हमारा है। Movie की shooting करते समय पात्रों को हमेशा भान रहता है कि यहां पात्र मात्र acting कर रहे हैं और movie की shooting समाप्त होने पर सब अपने अलग अलग रास्ते निकल जाते हैं। उसी प्रकार ज्ञानी जानता है कि संसार में सब सम्बन्धी भी कुछ समय के लिये हैं, और उसके बाद ये सब अलग होने वाले हैं।


सूत्र २७: मान को जीत लें।मान कषाय को जीतने के कईं उपायो में से एक उपाय को यहां पर समझते है।

मान कषाय क्या?
संसार में ऊंच नीच का भेद चलता है। या ऐसा कहे कुछ गुणो के आधार पर लोग एक दूसरे को ऊंचा नीचा आंका करते हैं। जैसे जिसके पास डिग्रियां ज्यादा वो ऊंचा, और जिसके पास कम वो नीचा। ऐसा समझकर लोगो के ह्रदय में दूसरो के प्रति तिरस्कार और अपने गुण को देखकर गर्व आ जाता है। यही मान कषाय है।

मान कषाय कहां कहां?
यह मान कषाय भी बङी व्यापक है। मात्र डिग्रियों तक ही इसकी सीमा नहीं, यह तो खानदान, रूप,  ज्ञान, धन, शारीरिक बल और समाज में प्रतिष्ठा तक पहुंची हुयी है। इससे भी आगे धर्म के क्षेत्र में भी इसका प्रवेश है- ’मेरा आत्मा का ज्ञान ऐसा है जैसा हमारे गांव में किसी का नहीं’ अथवा ’मेरी तपस्या को देखकर तो सारे लोग चकित रह जाते हैं’।

तिरस्कार को कैसे जीते?
पहले विचार करते हैं मान होता कैसे है। उदाहरण लेते हैं:
१. जब हम किसी अंधे को देखते हैं कि वह कुछ समझ नहीं सकता। तो हमें उसके प्रति तिरस्कार नहीं करूणा आती है।
२. जब हम किसी पढ़े लिखे को देखते हैं कि वह कुछ समझ नहीं सकता, तो उसके प्रति तिरस्कार की भावना आते है- ’कैसा बेवकूफ़ है, इतना भी नहीं पढ़ा नहीं जाता’

विचार करें - दोनो ही नहीं पढ़ पा रहे - फ़िर एक के प्रति करूणा क्यों और एक के प्रति तिरस्कार क्यों? क्योंकि हम अंधे का ’ना समझना’ न्यायपूर्ण(justified) मानते हैं और पढ़े लिखे का न्यायपूर्ण(justified) नहीं।

हम विचार करें - कि पढे लिखे के प्रति तिरस्कार करें तो किसके प्रति तिरस्कार करें - उसके वर्तमान के प्रति कि जिसमें उसके हीन गुण दिखाई दे रहें है, या उसके भूतकाल के प्रति जिसमें उसने ऐसे कर्म किये कि जिसके फ़लस्वरूप उसका वर्तमान हीन गुणो से भरा है। इससे तो ऐसा लगता है कि वर्तमान के प्रति तिरस्कार करने के बजाय उसके उस भूतकाल की अवस्था पर ही तिरस्कार करना चाहिये - क्योंकि वह भूतकाल वर्तमान की हीन अवस्था का कारण है। मगर उस भूतकाल पर भी कैसे तिरस्कार करें- उस भूतकाल अवस्था में जो उसने कर्म बान्धा, उसकी जिम्मेदार भी तो पीछॆ का तो कोई पुराना भूतकाल होगा जिसकी वजह से यह अवस्था बनी कि वो भूतकाल में ऐसे गलत कर्म बान्ध पाया। वास्तव में देखा जाय तो अनादि की सन्तति कर्मो की चल रही है- और यह व्यवस्था पूर्ण व्यवस्थित होने से इसमें किसी के तिरस्कार करने की गुंजाईश नहीं रह जाती।

सामान्यतः हम यह मानते हैं कि दूसरे को हीन जानने में तो तिरस्कार हो ही जायेगा। वास्तव में ऐसा नहीं। किसी को गुणो में हीन जानना अलग बात है, और उसके प्रति तिरस्कार होना अलग। तत्वज्ञान से हम उसके हीन पने को पर्याय दृष्टि से हीन जानते हुये भी तिरस्कार दृष्टि से रहित हो जाते हैं। वो जैसा है- उसे जान लेते हैं, और मात्र जानते हैं - तिरस्कार नहीं करते।

गर्व को कैसे जीतें?
जिस प्रकार से तिरस्कार को जीता वैसे ही गर्व को जीतना है। वर्तमान में कुछ लोगो ने प्रशंसा करनी शुरू कर दी और हो गया गर्व।

जिन गुणो के आधार पर मान हो, तो हम विचार करें - ये गुण कैसे मिले? यह तो भूतकाल का पुरूषार्थ है जो वर्तमान में फ़लित हो रहा है। तो भूतकाल पर गर्व क्यों नहीं करते? उस पर भी गर्व कैसे करें - उसके पीछॆ भी तो भूतकाल था .. वास्तव में अनादि की परम्परा है! तो कोई प्रशंसा करे तो उसके मात्र ज्ञाता रहें, उसमें गर्व करने की क्या बात। जब हम अपने को ऊच्च बिना कारण के जानते हैं तो गर्व करते हैं, मगर जब उसका कारण समझकर के जानते हैं - तो मात्र जानते हैं, गर्व नहीं करते।

कारण सहित जाननें में मान का नाश कैसे- कारण रहित जानने पर मान क्यों?
अगर आपको प्रश्न हो कि कारण सहित जानने में मान कषाय क्यों चली जाती है। तो उसका कारण यह है कि कारण सहित जानने में हमारी दृष्टि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय को समझ लेती है। द्रव्य से हम सब समान हैं- उसके आधार पर हम गर्व या तिरस्कार नहीं करते। गर्व या तिरस्कार होता है पर्याय के आधार पर। और पर्यायें व्यवस्थित हैं- प्रत्येक पर्याय के पीछे उसका कोई ना कोई व्यवस्थित कारण है। इस प्रकार प्रत्येक पर्याय के पीछे सही कारण जानकर हम मान कषाय को जीत लेते हैं।

अन्य तरीके मान जीतने के:
अन्य भी तरीके हैं मान जीतने के, जो यहां पर हमने नहीं समझें, मगर किसी और सूत्र में समझेंगे या आगम से भी समझ सकते हैं - जैसे - द्रव्यार्थिक दृष्टि से सबको समान देखना, विभावी पर्याय को रत्नत्रय के आगे गौणरूप देखना आदि।


सूत्र २८: सब अनित्य है।
जन्म है, सो मरण सहित है।
यौवन है, सो बुढापे सहित है।
धन है, सो विनाश सहित है।
पत्नि के साथ विवाह होकर संयोग है, तो मरण समय उसका वियोग भी है।
जन्म होते शरीर का संयोग है, तो मरते वक्त उसका वियोग भी है।
जो घर खरीदा उसका संयोग है, तो एक दिन उसका वियोग भी है।
समाज में जो यश फ़ैला है, उसका समाज को एक दिन भुला देना भी है।
खाना खाते हुये नये परमाणु शरीर में आते है, तो वो एक दिन शरीर छोङकर चले भी जाते हैं।
मित्र नये बनते हैं, तो एक न एक दिन वो अनजाने भी हो जाते हैं। इस भव में ना हो, तो मरण पर तो हो ही जाते हैं।
परिवार मित्र बादलों के समान अस्थिर हैं।
विषय भोग की सामग्री, अच्छे सेवक, घोङे हाथी, रथ इन्द्रधनुष और बिजली के समान चंचल हैं।
जैसे train में पथिकजनो का संयोग कुछ समय के लिये है, वैसे ही हमें माता पिता आदि लोग कुछ समय के लिये हैं।
शरीर को कितना भी क्यों ना सेवा करो, यह एक दिन नष्ट होता ही है।
धन, यौवन, जीवन जल के बुलबुले के समान तुरंत नष्ट होने वाला है, फ़िर भी मोह के वजह से अज्ञानी इसे नित्य मानता है।

इस प्रकार से संसार में सब अवस्थायें विरोधी भाव को लिये हुए हैं। द्रव्य नित्य है और पर्याये अनित्य हैं। अतः ज्ञानी पर्ययों के परिणमन में समभाव रखता है।

विचार करूं - जब कोई मित्र बनता है, तो मन में उल्लास होता है। मगर वो उल्लास किस बात का? क्योंकि वो मित्र बना है तो ये भी निश्चित है कि एक दिन वो अजनबी हो जायेगा। ऐसे ही विवाह के समय संयोग होता है, तो यह भी निश्चित होता है कि एक दिन स्त्री से वियोग हो ही हो जायेगा। ऐसा ही शरीरे के साथ है- इसके साथ भी पैदा होते ही संयोग हुआ और यह भी एक दम निश्चित है कि इसका वियोग एक दिन होना ही है। यह अनित्यता का महान सिद्धान्त है, जिसकी सत्यता हमें साक्षात दिखाई देती है।


सूत्र २९: संसार में कोई शरण नहीं।
  • जिस संसार में इन्द्र का, बढ़े बढ़े राजाओं का नाश देखा जाता है, उस संसार में अपनी कौन शरण है।
  • जैसे सिंह के पैर के नीचे हिरण को कोई बचाने वाला नहीं, वैसे ही मृत्यु के द्वारा ग्रहण किये हुए जीव को बचाने वाला कोई नहीं।
  • अगर कोई देव, तंत्र, मंत्र अपने को बचा सके, फ़िर तो मनुष्य अमर होवे।
  • चाहें कोई अपनी कितनी भी रक्षा कर ले, फ़िर भी मरण के बिना कोई जीव इस दुनिया में दिखाई नहीं देता।
  • ऐसा देखते हुये भी मुर्ख प्राणी मिथ्यात्व भाव से अनेक जगह शरण मानता है।
  • आयु कर्म से मरण होता है और आयुकर्म कोई देने वाला नहीं, इसलिये इन्द्र भी मरने से नहीं बचा सकता।
  • यदि इन्द्र भी अपने को मरने से बचा सकता तो भोगो से युक्त स्वर्ग को क्यों छोङता।
  • वास्तव में सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ही शरण है। दस धर्म ही शरण हैं।




सूत्र ३०: शरीर की गुलामी छोङेइस संसार में हम हर वस्तु से कोई ना कोई काम ले लेते हैं। हर प्रक्रिया का कोई ना कोई sideproduct भी निकल आता है। पर यह शरीर ऐसा है कि इससे जो भी निकलता है वो नाली में ही डालना पङता है।

शरीर में सांस निकलती है तो वो ऐसी कि उसे निकालने वाला ही सूंघना नहीं चाहता। मल इत्यादि एक बार शरीर से छूट जाने पर उसे देखना नहीं चाहता।

शरीर पर powder लगा लो, दांतो के लिये मंजन लगा लो- कोई भी ऐसी चीज नहीं जो लगाने पर भी स्वच्छ रहे - जो भी शरीर के संयोग में आता है वो खुद ही अपवित्र हो जाता है।

शरीर के साथ कुछ ना करो फ़िर भी अपने आप ही रोज गन्दा हो जाता है, कि साबुन से मल मल के इसे साफ़ करना पङता है।

रोज ही इसे सुबह शाम खिलाना पङता है। फ़िर भी यह ऐसा दगाबाज है, कि किसी दिन खाने को ना दो तो काम करने से मना कर देता है। इतनी देखभाल करने पर भी एक दिन हमें छोङ देता है।

यह जीव सदा से ही शरीर का गुलाम रहा है। जैसा शरीर कहता है वैसा करता है। शरीर में थोङी कमी हो तो इसे खाना खिलाता है, उसे खूब सुगंधित मिष्ठान खिलाता है। और शरीर उस सुगन्धित भोजन को विघटित कर मल में परिवर्तित कर देता है। शरीर काम करना चाहता है तो काम कराता है। शरीर थक जाता है तो उसे आराम देता है। शरीर को सजाने के लिये नाना कपङे, इत्र इसे लगाता है। विचार करें- क्या हम शरीर के गुलाम नहीं?

वास्तव में यह आत्मा शरीर का गुलाम नहीं, शरीर आत्मा का गुलाम है। मगर अज्ञान से यह अपने को शरीर का गुलाम बना बैठा है। आत्मा की कषायों से ही कर्म बन्धा और कर्म से ही शरीर मिला। कर्म ही शरीर की अच्छी बुरी अवस्था में निमित्त हुआ- इसलिये शरीर आत्मा का गुलाम हुआ। मगर अपने को शरीर समझ जाने पर आत्मा ने अपने को शरीर का गुलाम बना लिया।

आत्मा ने अपने को शरीर का गुलाम मानकर अपनी बहुत हानि करी। अपने को गुलाम मान लिया तो उससे ऐसे कर्म बान्धे कि फ़िर गुलाम ही बना रहे। और ये चक्र चलता रहा।

कार्तिकेयानुप्रेक्षा से शरीर के बारे में कुछ गाथाओं के सारांश:
इस शरीर को अपवित्र द्रव्यों से बना हुआ जानो। क्योंकि यह शरीर समस्त बुरी वस्तुओं से बना हुआ समूह है। उदर में उत्पन्न होने वाली लट, जूं तथा निगोदिया जीवो से भरा हुआ है, अत्यन्त दुर्गन्धमयी है, तथा मल और मूत्र का घर है।
जो द्रव्य अत्यन्त पवित्र, अपूर्व रस और गन्ध से युक्त, तथा चित्त को हरने वाले हैं, वे द्रव्य भी देह में लगने पर अति घिनावने तथा दुर्गन्धयुक्त हो जाते हैं।


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I wrote or extracted above explanations based on my knowledge from Spiritual Texts and Saints, and knowledgeable people correct for me for any mistakes. Micchami Dukkadam, Shrish shrishjain@gmail.com

मैं किसी को छूता ही नहीं

वास्तविक जगत और जो जगत हमें दिखाई देता है उसमें अन्तर है। जो हमें दिखता है, वो इन्द्रिय से दिखता है और इन्द्रियों की अपनी सीमितता है। और जो ...