उत्तर: हमारे अन्दर कितनी विरक्ति होती है उसके अनुसार ही कार्य करने योग्य है। अगर जीव में पर्याप्त विरक्ति है, तो परिवार छोङकर सन्यास धारण करना ही युक्त है। तब विपदायें आने पर भी वो अपनी विरक्ति के बल पर आर्त-रौद्र ध्यान रूप परिणत ना होकर धर्मध्यान करके अपनी आत्मा का उत्थन ही करेगा।
जिस जीव में इतनी विरक्ति नहीं है, और वो सन्यास ले ले तो वहां अनेक प्रसंग पर पर्याप्त विरक्ति ना होने से आर्त-रौद्र ध्यान ही करेगा। जब तक उसे पर्याप्त विरक्ति ना हो जाये, तब तक घर में रहकर जितना धर्म ध्यान उसके लिये सम्भव है वो करना चाहिये। और घर में रहकर अपना पारिवारिक कर्तव्यो को ना करे तो आर्त-रौद्र ध्यान होयेगा। इसलिये उन कर्तव्यो का निर्वाह कर कम से कम आर्त-रौद्र ध्यान करते हुवे, और अपने धर्मध्यान को बढ़ाने का पुरूषार्थ करे। परिपक्व होने पर अपने योग्य धर्म की अगली सीढ़ी पर चढ़ जाये।
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