Wednesday, February 15, 2012

Sutra # 10: जो होता है, उसे होने दो

सूत्र १०: जो होता है, उसे होने दो

क्योंकि जो होता है सो न्यायपूर्वक, जैसे सूत्र २ मे हम समझ आये हैं, इसलिये जो होता है उसे होने दो।

क्योंकि जीनें में इन्द्रिय से सुखी या दुखी होने का कोई कारण नहीं, इसलिये शान्तिपूर्वक समता से सुखी और प्रसन्न जीव को रहना चाहिये।

जीवन में कर्म के निमित्त से अनेक उतार चढाव आते हैं- वे पुराने किये हुये कार्यो के ही फ़ल हैं, इसीलिये न्यायपूर्वक(justified) हैं और इसीलिये उन्हे दूर भगाने या नजदीक ही रख लेने का कोई मतलब नहीं है। इसलिये सुखी रहो। कोई कारण नहीं कि हम आयी परिस्थिति से प्रेम करे या द्वेष करे।

सुखी प्रभु की हम उपासना करे। मन्दिर में जाते हुये प्रभु के दर्शन करें, तो उनके सुख का विचार करें- उनका सुख असीम है। उसकी तुलना समुन्द्र से नहीं कर सकते क्योंकि उसकी गहराई और विस्तार की तो सीमा है, मगर प्रभु का सुख तो सीमा से परे हैं। उसकी तुलना आसमान की ऊंचाई से भी नहीं कर सकते क्योंकि उसकी भी सीमायें हैं। ना ही उसकी तुलना चन्द्रमा को देखने से मिली शान्ति से कर सकते, क्योंकि वो तो कुछ पल के लिये, मगर प्रभु का सुख तो अनन्त सुख के लिये है। ऐसे अनन्तसुखी प्रभु के दर्शन करते ही चमत्कार होता है, हमारे अन्दर भी सच्चे सुख की छोटी लहर जन्म ले लेती है, और वो ही बढते बढते मुनी अवस्था मे महा समुन्द्र का रूप ले लेती है और मुक्त अवस्था में असीम हो जाती है।

सुखी मुनिजन की हम उपासना करें। जो हर परिस्थिती में समता सुख का पान करते हैं। आहार मिला तो सुखी, नहीं मिला तो सुखी। किसी ने गाली दी तो सुखी, प्रशंसा करी तो सुखी। रोग हुआ तो सुखी, निरोग रहें तो सुखी। विरोधी मिले तो सुखी, भक्त मिले तो सुखी। जीये तो सुखी, मरे तो सुखी। सर्व अवस्था में समता।

वैसे भी देखा जाये तो दुखी होने का कोई कारण नहीं। क्योंकि आत्मा तो सदा शाश्वत है और कभी अपने स्वभाव को छोङती नहीं, तो फ़िर इन्द्रियों में सुखी दुखी होने का क्या कारण? आत्मा से कोई कुछ छीन नहीं सकता और ना ही कुछ दे सकता, तो किस बात का राग या किस बात का द्वेष।

इसका मतलब ये ना समझना कि हम तो अब सुखी, अब भक्ति, दान, स्वाध्याय इत्यादि से क्या फ़ायदा। और आलोचना, प्रतिक्रमण से क्या फ़ायदा। ऐसा समझे तो अनर्थ हो जायेगा। मार्ग निश्चय-वयवहारात्मक है, निश्चय और व्यवहार दोनो का ही हम ध्यान रखें।

Sutra # 8: Nobody is mine

सूत्र ८: कोई मेरा नहीं

ये सूत्र बहुत ही महान सूत्र है, ये जगत की वास्तविकता का सच्चा बोध कराने वाला है। जगत के मध्य रहते हुये भी जगत के राग से हमें छुटाने वाला है। यह परम सत्य है, और पूर्ण सुख का कारण है। अनगिनत मुनियों ने इस सुत्र का ध्यान कर वीतरागता को अपनाया है, और सब भव्य जनो का यह सूत्र भला करने वाला है।

पहले हम ये समझते है कि वास्तव में हम किसे अपना समझते हैं। स्थूल रूप से - देश मेरा, समाज मेरा है। और कम स्थूल पर जायें तो परिवार, कुटुम्ब, मित्र मेरे हैं। और सूक्ष्म पर जायें तो शरीर मेरा है। और अध्यत्मिकता की सूक्ष्मता में जाये तो राग द्वेष अज्ञानता मेरी है, विकल्प मेरे हैं। इस प्रकार का मेरा-पना हमारे अन्दर बसा हुआ है। वास्तविकता में देखा जाये तो इनमें से हमारा कोई भी नहीं।

इनमें एक उदाहरण देखे- मानो हमारा एक मित्र को जो कर्तव्य निभाने वाला और सही दिशा दिखाने वाला हो, और एक आदर्श मित्र के सर्व गुणो से युक्त हो। तो वास्तव में क्या वह व्यक्ति हमारा मित्र है? तो इसमें पहली बात तो हमारे भाग्य अनुसार ही हमें मित्र मिला है। और जो वो हमारा अच्छा बुरा करता है वो भी कर्मानुसार करता है। हमारा पुण्य अच्छा है तो वो हमारी इच्छा के अनुसार की कार्य करता है, और हम मान बैठते हैं कि ये तो मेरा भला करने वाला है- इसलिये मित्र है। अभी ही पाप उदय आये और वो ही मित्र प्रतिकूल हो जाये तो हम कहेंगे कि ये ’मेरा शत्रु’ है। वास्तव में तो ना मित्र था और ना ही शत्रु है- मात्र भाग्य उदयानुसार निमित्त था जैसे कि Caishier होता है, जो बैंक में जाने पर हमारे ही पैसे हमे देने मे सहयोगी बनता है- उसे हम यह तो नहीं कह सकता है कि वो Caishier हमें महीने के खर्च के पैसे देने वाला है।

वास्तव मे जब हम कहते हैं कि यह मित्र मेरा है, तो हम समझते है कि वो हमारा साथ निभायेगा और हमारी उम्मीदो के अनुसार परिणमन करेगा। और वास्तव मे ऐसा कई बार देखने में भी आता है, मगर ऐसा नियम नहीं है। और इस प्रकार के अनुकूल परिणमन में मूल कारण वो मित्र नहीं वरन हमारा भाग्य है। तो हम अपने भाग्य को तो अपना मित्र या शत्रु कह सकते हैं, उस मित्र को नहीं। यहां शास्त्रीय भाषा में भाग्य(कर्म) को अन्तरंग निमित्त और उस मित्र को बहिरंग निमित्त कहते हैं।

इसी प्रकार से ये देश मेरा नहीं। ये समाज मेरा नहीं। ये परिवार मेरा नहीं। ये स्त्री, पुत्र मेरे नहीं। यहां तक कि शरीर भी मेरा नहीं, क्योंकि जिस प्रकार से सम्बन्ध मित्र से हम उपर समझ आयें हैं वैसा ही सम्बन्ध शरीर के साथ बनता है। और सूक्ष्म में जाये तो एक दृष्टी से राग द्वेष भी मेरे नहीं, और वही दष्टी सुखदायिनी है और ग्रहण करने योग्य है। ऐसा समझने से और आस्था करने से भव्य जन आत्मिक सुख शान्ति को प्राप्त करते हैं। ऐसा विश्व में सत्य को उद्घोषित करते हुये अनन्तकाल से जिनेन्द्र भगवन्त कहते आये हैं, और भविक जन इस वस्तु स्वरूप को जानकर चरितार्थ करते हुये इच्छाओं से रहित, अनन्त सौख्य सहित मोक्ष अवस्था को प्राप्त करते आयें हैं। हम भी इस सूत्र को सदा के लिये अपना लें।

इस सूत्र के साथ और भी सूत्र हमें अपनाने हैं: घर मेरा नहीं। स्त्री मेरी नहीं। धन मेरा नहीं। समाज मेरा नहीं। शरीर मेरा नहीं। सूक्ष्म दृष्टी में राग-द्वेष मेरे नहीं।

Sutra # 7: प्रसिद्धी की चाह विष है। बालक की तरह प्रसिद्धी की चाह से बचे।

सूत्र ७: प्रसिद्धी की चाह विष है। बालक की तरह प्रसिद्धी की चाह से बचे।

हमारे जीने के मकसद की दिशा भी विचित्र तरीको से निर्धारित होती है। हम अपने जीवन में क्या करते हैं - इसमें अनेको कारण बनते हैं। इनमें से एक मुख्य कारण रहता है हमारी इच्छा कि हम दूसरो के सामने अच्छे दिखे।

लोक मे प्रसिद्धी की चाह एक विष के समान है जो अध्यात्मिक सन्त को मोक्षमार्ग से च्युत कर संसारमार्गी बना देती है। साधक साधना निज कल्याण के लिये करता है, और निजकल्याण के साथ-साथ पर कल्याण (ज्ञान दान) में भी जागरूक हो सकता है। परकल्याण करते हुये कई बार प्रसिद्धी का रस चखने के बाद, निजकल्याण से साधक च्युत हो जाता है। कई बार तो निजकल्याण करते हुये भी प्रसिद्धी की चाह अन्दर ही अन्दर पनपने लग जाती है।

सन्त का जीवन तो बालक की तरह है- जैसे बालक को मात्र अपनी इच्छा पूरी करनी होती है, उसे कोई परवाह नहीं कि लोग क्या कहते हैं। सन्त भी वीतरागता की इच्छा से साधना करता है, बिना किसी प्रसिद्धी की आकांक्षा के। और एकदम बालक की तरह सादा जीवन जीता है। यहां तक की वस्त्र भी नहीं पहनता, इससे सादा और क्या हो सकता है।

दूसरी तरीके से देखे - हमें क्या मतलब कि लोग हमारे बारे में अच्छा कहें या बुरा। लोग तो हमें अच्छा बुरा उनके विवेक के अनुसार कहेंगे। मगर वास्तविकता यह है कि मेरा अच्छा बुरा का मापदण्ड तो श्रीगुरू के द्वारा बताये गये सिद्धान्त के अनुसार ही हो सकता है। फ़िर मैं क्यों भागूं लोगो के मापदण्ड के आधार पर। मुझे तो अपना सही बुरे का मापदण्ड श्रीगुरू द्वारा बताये गये सिद्धान्त के अनुसार बना लेना है और उसी अनुसार कार्य करना है।

बाहर में जीव संसारी है, और मुख्यतः संसार मार्ग को ही अच्छा मानते हैं। अगर मैने उनके अनुसार कार्य करने शुरू कर दिये तो संसार में कल्याण होना असंभव ही है। अतः हम लोक में प्रसिद्धी की चाह से बचे।

Sutra # 6: I do not die

सूत्र ६: मेरा मरण नहीं

मात्र शरीर का मरण होता है, आत्मा का नहीं। इस सूत्र को बार बार भावना करने से शरीर के जन्म, मरण, रोग से भय शोक समाप्त हो जाते हैं, और जीव सुखी हो जाता है।

आत्मा किस प्रकार से शारीर में है, इसे समझते हैं। जिस प्रकार से दूध में कोई मणि हो और उसका प्रकाश पूरे दूध में फ़ैला हो, उसी प्रकार से आत्मा पूरे शरीर में फ़ैली हुई है।

अगर हम उस दूध को उबाल दे तो उफ़नते हुये दूध में भी प्रकाश पूरा फ़ैला रहता है, और उस दूध को अलग आकृति वाले बर्तन में डाल दे तो मणि का प्रकाश भी उसी आकार का हो जाता है। एकदम उसी प्रकार आत्मा भी जैसा शरीर हो वैसा ही आकार ले लेती है। छोटी चींटी में जाये तो उसका छोटा आकार ले लेता है, बढे हाथी में जाये तो वैसा आकार ले लेती है। वो प्रकाश दूध के हर प्रदेश में है; दूसरे शब्दो में दूध में ऐसा कोना नहीं जहां प्रकाश ना हो, ठीक उसी प्रकार आत्मा भी सम्पूर्ण शरीर में फ़ैली है।

जिस प्रकार से हम प्रकाश को दूध से भिन्न मानते हैं जबकि वो दोनो एक साथ है, उसी प्रकार जानने वाली आत्मा शरीर से भिन्न है। शरीर आंखो से दिखाई देता है, किसी ना किसी रंग को धारण किये होता है, मगर आत्मा बिना किसी रंग, गंध की है। जिस प्रकार से दूध में प्रकाश को हम उसकी रोशनी से दूध से भिन्न जानते हैं, उसी प्रकार आत्मा अपने ’जानने वाले गुण’ से ही शरीर से भिन्न जाना जाता है। आत्मा हमें अलग से आंखो से दिखाई दे जाये, ऐसा नहीं है। वरन आत्मा को हम उसके जानने के गुण से शरीर से भिन्न अनुभव कर पाते हैं। आत्मा के बारे हम कल्पना करे कि वो श्वेत रंग की है, अमूक आकार ही है- ऐसा भी नहीं। आत्मा के समझ तो उसके जानने के गुण से ही हो पाती है।

एक और उदाहरण लें - जैसे बल्ब में चमक होती है, वो उसके अन्दर बिजली के प्रवाह से होती है। अगर बिजली बल्ब में प्रवाहित ना हो तो चमक भी समाप्त हो जायेगी। उसी प्रकार से आत्मा शरीर में है, और मरण पर आत्मा के शरीर से निकल जाने पर शरीर कोई काम का नहीं रहता।

इस प्रकार आत्मा को शरीर से भिन्न जानने पर व्यक्ति का दृष्टिकोण ही बदल जाता है। जैसे कोई व्यक्ति लाल चश्मा लगाये तो समस्त दुनिया अब अलग प्रकार से दिखती है, उसी प्रकार जब शरीर से भिन्न आत्मा को जानता है तो पूरी दुनिया को देखने का नजरिया ही बदल जाता है। अपना शरीर जिसे ’मेरा’ कहता था, अब पराया लगने लगता था। शरीर रूपी घर में अपने को मेहमान समझने लगता है। पहले शरीर के जन्म के साथ अपना जन्म और मरण के साथ अपना विनाश मानता था, अब अपने को अविनाशी मानने लगता है। मरने का अब उसे भय नहीं लगता। पहले बिमारी होने पर सोचता था ’हाय मरा’, अब बिमारी होने पर उसे पङोसी बीमार हुआ ऐसा लगता है। पहले जीवन के निर्णय अपने 70-80 साल की जिन्दगी की आधार पर लिया करता था, अब निर्णय भव-भवान्तर को सोच कर लेता है। पहले शारीरिक गुणों के आधार पर अपने को अच्छा - बुरा, बङा-छोटा समझता था, अब आत्मिक गुणों के आधार पर अपना मापदण्ड करता है। पहले भाई, बन्धु, माता, पिता स्त्री को अपना सब कुछ मानता था। अब उन्हे ऐसा मानता है - जैसे कि हम लोगो से ट्रेन के सफ़र में कुछ समय के लिये मिलते हैं और फ़िर सदा के लिये छोङ देते हैं, उसी प्रकार इन सम्बन्धीयों को भी सदा के छोङ देना है इसीलिये ये सम्बन्धी किस बात के । इस प्रकार से आगे बढते बढते शरीर से भी समस्त प्रकार के राग द्वेष को जीत लेता है, और परम निर्मल पवित्र सिद्ध दशा को प्राप्त करता है।

इसी से सम्बन्धित और सूत्र भी समझने हैं: मेरा जन्म नहीं, मेरे को रोग नहीं, मैं काला-गोरा नहीं इत्यादि

Sutra # 5 : अपने अन्दर शक्ति रूप प्रभु का ध्यान करें।

सूत्र ५: अपने अन्दर शक्ति रूप प्रभु का ध्यान करें।

ध्यान मे बढी ताकत है। यह गलत दिशा में हो तो जीव को खूंखर दरिंदा बना देता है, और सही दिशा में हो तो तीर्थंकर बना देता है, सिद्ध बना देता है। इसी ध्यान के परिणाम स्वरूप ही जीव के विभिन्न चित्र-विचित्र इस ३ लोक के Canvass पर दिखाई पङते हैं। विज्ञान के जगत में जिस प्रकार मात्र ३ मौलिक कणो (प्रोटान, न्यूट्रान, इलेक्ट्रान) से ही सम्पूण जगत के अनगिनत पुद्गल दिखाई पङती हैं- जैसे लकङी, अनेक प्रकार की धातुयें, प्लास्टिक इत्यादि। उसी प्रकार से मात्र १४८ प्रकृतियों के कर्मो के संयोग से अनेको प्रकार के अवस्थायें जीव में पायी जाती हैं जैसे मच्छर, बैक्टीरिया, देव, नारक, नर, सीप इत्यादि

इन सब अवस्थाओं से विलक्षण, सर्वत्र सुन्दर, अनुपम, तीन लोक में पूज्य जीव की स्वतन्त्र अवस्था है। जिसमें कर्मो या किसी भी अन्य द्रव्य का कोई हस्तक्षेप नहीं और जब कोई जीव समस्त कर्मो से मुक्त होता है तो ऐसी अवस्था प्राप्त करता है। दूसरे शब्दो में सभी संसारी जीवो में सम्पूर्ण स्वतन्त्र होने की शक्ति है। इसी शक्ति का ध्यान करने को आचार्यो ने शास्त्रो में बताया है।

पहले समझते हैं शक्ति का मतलब क्या? जैसे एक पहलवान को जंजीरो मे जकङा हुआ है, और वह अब कुछ भी करने मे समर्थ नहीं। जैसे ही जंजीरे खुलती हैं तो वह अकेले २-३ पहलवानो को चित करने में समर्थ हो। तो हम कहेंगे कि जंजीरो में बंधे हुये पहलवान के दूसरे पहल्वानो को चित्त करने की शक्ति है मगर अभी व्यक्त रूप में नहीं है, एक बार जंजीर खोल के देखो तो सारी शक्ति समझ में आयेगी। उसी प्रकार कर्मो के बन्धन में आत्मा का ज्ञान, वीर्य, सुख संकुचित है, मगर है उसमे शक्ति अनन्त ज्ञान, वीर्य और सुख की। जो एक बार कर्म नष्ट हो जाते तो एकदम प्रकट हो समझ मे आती हैं जैसे पहलवान के उदाहरण मे हमने समझा।

लोक में भी शक्तिओं का ध्यान करके ही कार्य बनता है। अगर एक राजा दूसरे राजा से युद्ध करे, और उसकी सेना को अपने जीतने की शक्ति पर विश्वास ही ना हो तो क्या राजा जीत सकता है? इसी प्रकार हमारे मन के विकार जीतने हो और अपने अन्दर वीतराग शक्ति का ध्यान ना हो, तो विकार भी जीता नहीं जा सकता।

जैसे हमें क्रोध जीतना हो तो हम ध्यान करें कि हमारे अन्दर शक्ति है कि हम विपरीत अवस्थाओं में शान्त रह सकूं। हमें लोभ जीतना है तो हम ध्यान करें कि हमारे अन्दर शक्ति है कि हम समस्त लोभ रहित हो सकते हैं। बाहर में विषय को देखकर चित्त डगमगा जाये, तो ध्यान करें कि हम विषयों को जीतने की शक्ति से युक्त हैं। दसलक्षण के अवसर पर हमारे अन्दर धर्म रूप परिणत होने की शक्ति का ध्यान करें। अरहंत भगवान की भक्ति करें तो साथ में अपने अन्दर अरहंत होने की शाक्ति का भी ध्यान करें। साधू सन्तो के दर्शन करें तो हमरे अन्दर तप, परिषह में वीतरागता धारण करने की शक्ति का ध्यान करें। इस प्रकार का ध्यान करें कि हमारे अन्दर शक्ति है कि उनोदर करें और फ़िर भी वीतरागे रह सके, क्षुधा आदि परिषह हो तो फ़िर भी वीतरागी रह सके। हम सब जीवो के अन्दर ये शक्तियां समान रूप से विद्यमान हैं। इस प्रकार हम विभिन्न शक्तियों का ध्यान चलते फ़िरते कर सकते हैं। या फ़िर बैठकर कर सकते हैं, अगर मन ना लगे तो मंत्र ध्यान के साथ भी कर सकते हैं। ऐसा practical हम खुद अपने पर करे।

इस प्रकार उस शक्ति का ध्यान करने से चमत्कार हो जाता है। कर्मो की अवस्था पर परिवर्तन होने लगता है। समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अनुकूल हो जाते हैं। और शीघ्र ही वो शक्तियां व्यक्त होने लग जाती है।

Sutra # 4: प्रभु की प्रतिमा साक्षात प्रभु ही हैं

सूत्र ४: प्रभु की प्रतिमा साक्षात प्रभु ही हैं

हम रोज मन्दिर जाते हैं, और प्रभु प्रतिमा के दर्शन करते हैं। उसका सच्चा फ़ल तभी है जब हम ये समझे कि यह प्रतिमा नहीं साक्षात प्रभु हैं।

इस बात को एक उदाहरण से समझते हैं। जैसे कि हम video game खेले और उसमे कम्प्यूटर के साथ tennis खेल रहे हों, तो उसमें मजा तभी है जब हम ऐस माने कि हम वास्तव मे tennis खेल रहे हैं। इसी प्रकार से जब हम किसी movie देखने जायें और movie देखते वक्त ये मान ले कि ये ही विचार करते रहे कि ये तो सब अभिनेता इत्यादि ने घन कमाने हेतु किया है, वास्तव में ऐसी कोई घटना घटी नहीं जैसी movie में दिखाई है, तो हम क्या movie का मजा ले पायेंगे, और क्या उस सन्देश को समझ पायेंगे जो movie देना चाह रही है? इसका मतलब जिस चीज का जो प्रयोजन हो हम उसे उसी अनुसार माने तो ही कार्य बन सकता है।

उसी प्रकार हम जब मन्दिर में जायें तो यह समझ ले कि हम साक्षात प्रभु के दर्शन करने जा रहे हैं, उसी में हमारा कल्याण है। साक्षात अनन्त सुखी, सम्पूर्ण विश्व को जानने वाले प्रभु को दर्शन करे। मन्दिर जाते वक्त, पूजा करते वक्त, प्रक्रिमा लेते वक्त, नमस्कार करते वक्त, अर्घ्य चढाते वक्त इसी बात का ध्यान रखे।

Sutra # 3: Others can not cause me happiness or sorrow

सूत्र ३: पर वस्तु से सुख दुख नहीं होता।
हमारी लोक में यह धारणा रहती है कि अमूक व्यक्ति ने हमें सुख दिया या दुख दिया। सामने वाले व्यक्ति ने कुछ उपकार कर दिया, तो हम कहते हैं कि हमें सुख दिया। कोई अच्छा TV serial देख लिया तो हमने कहा कि इसने कितना सुख दिया। ऐसा ही दुख में भी होता है। घर पर किसी से ना बने तो कहते हैं कि हमारी सास ने तो हमे बङा ही परेशान किया है।

वास्तव में क्या कोई हमें सुखी दुखी कर सकता है? इसमें विचार २ तरीके से करते है।
१. पहली बात तो यह- कि हमें निमित्त अपने कर्मानुसार मिले। अच्छे कर्म थे तो किसी निमित्त ने आकर हमरा भला कर दिया। बुरे थे तो बुरा कर दिया। तो हम दूसरे को सुखी दुखी करने का जिम्मेदार किस प्रकार ठहरा सकते हैं? यही बात सूत्र ’जो हुआ सो न्याय’ में भी समझी थी।
२. अब दूसरी बात यह है कि जो सुख दुख हुआ वो अपने कषाय के अनुसार हुआ। जब हम कहते हैं कि दूसरे व्यक्ति या वस्तु ने हमे अच्छा या बुरा किया तो हमे जो दुख हुआ वो अपनी कषाय के अनुसार हुआ। अच्छा निमित्त मिलने पर हम रति या लोभ कषाय से ग्रसित हुये तो हमने कहा कि आपने तो मजा दिला दिया। वास्तव में हम खुद ही सुखी दुखी हुवे या दूसरे ने हमें सुखी दुखी कराया, इसके समझने के लिये निमित्तों से सम्बन्ध समझते हैं। ये दो प्रकार के हैं-
  २ क) निमित्त driven: अग्नि और पानी का सम्बन्ध: ये ऐसा सम्बन्ध है कि अगर अग्नि और पानी का संयोग हो तो पानी गर्म होगा ही होगा। ऐसा नहीं हो सकता कि अग्नि का संयोग तो हो मगर पानी गर्म ना हो। एक और उदाहरण लें तो जैसे थाली पर चम्मच मारे तो थाली पर कम्पन्न होगा ही होगा।
  २ ख) उपादान driven: मछली और पानी का सम्बन्ध: मछली और पानी के बीच मे सम्बन्ध अलग प्रकार का है। जब मछ्ली गमन करती है तो पानी सहायक होता है, मगर पानी मछली को गमन कराता नहीं है। मछली चाहें तो पानी का सहयोग लेकर गमन करे चाहें तो स्थिर रहे। एक और उदाहरण लें - जैसे जमीन और हमारा उस पर चलना। जमीन हमें चलाती नहीं है, मगर हमारे चलाने में सहायक बनती हैं।

उपर्युक्त दो प्रकार के सम्बन्धो में ये विशेष बात देखने में आती है कि पहले वाले सम्बन्ध में निमित्त contribute कर रहा है कार्य होने में, जबकि दूसरे प्रकार के सम्बन्ध में उपादान निमित्त का आश्रय ले रहा है। या दूसरे शब्दो में कहे कि पहला सम्बन्ध निमित्त driven है और दूसरा सम्बन्ध उपादान  driven है। पहले सम्बन्ध में निमित्त की मर्जी कि वो कार्य को drive करे या ना करे। और दूसरे सम्बन्ध में उपादान की मर्जी की वो कार्य drive करे या ना करे। अब हम दुबारा से उपर के उदाहरणो (२क, २ ख) को पढे तो ये बात एकदम स्पष्ट हो जायेगी।

जो हमें व्यक्तियों और पर वस्तुओं से सुख दुख होता है उसमे दूसरी प्रकार का सम्बन्ध बनता है। अर्थात उन सम्बन्धो मे दुख या दुख हमारे द्वारा driven है। हमारी मर्जी कि हम उस निमित्त का आश्रय लेकर सुखी हों या दुखे हो। हमारी खुशी/दुख दूसरी वस्तु drive नहीं करती वरन हम drive करते हैं। और खास बात यह है कि हम चाहें जैसे drive कर लें। चाहें तो उस निमित्त पर सुखी हो जाये और चाहे दुखी और चाहे तो एक सन्त की भांति वीतरागी। I am the driver whether I want to have pain, pleasure or equanimity.
जैसे कि एक horror movie को देखके कुछ लोग भयभीत हो जाते हैं और कुछ मस्त लोग उस पर ठहाके मार के हंसते हैं। बिल्कुल उसी तरह जिस तरह मछली होती है- चाहें तो वो पानी मे रहकार उत्तर दिशा की और दौङ लगा ले और चाहें तो दक्षिण की ओर, और चाहें तो निराकुल अपने स्थान पर ही बैठी रहे। एकदम उसी प्रकार यहां पर भी बात लागू होती है। सो सार यह है कि हम पर वस्तु से नहीं अपनी ही राग द्वेष से दुखी होते हैं। और ऐसा श्रधान करने से हम पर-वस्तु पर होने वाले राग द्वेष को जीत निरकुल सुखी ओर शान्त हो सकते हैं।

Sutra # 2: Whatever happens is justice

सूत्र २: जो हुआ सो न्याय

दूसरो को देखकर जो प्रकार के विकल्प होते है उसका समाधान है प्रभु द्वारा बताया गया सत्य - ’जो हुआ सो न्याय’

(क) दुनिया में हमें लगता कि इसने हमारे साथ बङा ही अच्छा किया, या बहुत ही बुरा किया।
इस पर विचार करे कि वास्तव में ऐसा है क्या? वास्तव में कोई हमारा अच्छा या बुरा नहीं करता। दुनिया में जीव की यात्रा बहुत बङी है। अनादि अनन्त काल की है। इस प्रकार की यात्रा विश्व में समस्त जीवो की है। सब जीवो की एक ही कहानी है- चाहे हम माने या ना माने। इस यात्रा में सब कोई जीव अपना किया करा ही भोगते हैं। कोई किसी को सुखी या दुखी नहीं कर सकता है। कोई किसी को सुखी या दुखी कर सके तो यह तो प्रकृति का अन्याय होगा। जिसने जितने गलत काम किये उसे या तो उसे भोगने होंगे या तप के द्वारा भस्म करने होंगे- उसके बिना किसी के द्वारा वो समाप्त कर दियी जायें, तो यह तो प्रकृति का अन्याय होगा, और यह प्रकृति को स्वीकार नहीं। प्रकृति की न्याय का तराजू एकदम सटीक न्याय अनादि काल से करता आ रहा है, और करता रहेगा।

इसके लिये एक उदाहरण लेते हैं- जैसे हमने खूब पैसा कमाया और निकट के बैंक में जमा करा दिया। जब बैंक में पैसा जमा करने गये तब किसी कैशियर ने बैक में हमारा पैसा जमा करवा दिया। अब १० साल बाद हम जब बैंक में गये तो पाया कि कैशियर बदल गया। मगर इस कैशियर ने मेरा पैसा मुझे दे दिया क्योंकि जमा पैसा मेरा था। इसी प्रकार जब हमने भूतकाल में अच्छे-बुरे भाव किये तो भविष्य में किसी निमित्त से अपने को अच्छी बुरी परिस्थितियां बनी। तो उस निमित्त ने मेरे को सुख-दुख नहीं दिया। ये तो उसने मेरा किया कराया ही मुझे दिया। तो जो हुआ सो न्याय ही हुआ। दूसरा व्यक्ति तो मात्र दुख सुख देने का निमित्त बना जैसे कि कैशियर हमें पैसा देने का।

इस बात से हमें ये समझ में आ गया कि कोई भी व्यक्ति या वस्तु मेरे लिये बुरी अच्छी नहीं है। चाहें वो मेरा घर, पति, पत्नि, सास, ससुर, भाई, बहन, दोस्त इत्यादि भी क्यों ना हो। इसलिये, इस बात को गांठ बांध लें - जो हुआ सो न्याय।

(ख) दूसरे की गलत चेष्टाओं को देखके ऐसा लगना कि कितना गन्दा व्यक्ति है।

एक उदाहरण लें- मान लो कि हमने देखा कि समाज की एक बङे बुजुर्ग ने कहा - ’अच्छा हुआ यहां मन्दिर का निर्माण नहीं हुआ’। उसे सुनते ही हमारे मन में उठा कि देखो कैसे अन्यायपूर्ण बात करते हैं। मन्दिर से तो कितनी प्रभावना होती है, कितने लोगो को सुख की प्रप्ति होती है। इनका यह कहना तो एकदम अन्याय पूर्ण है, और मन ही मन में थोङा गुस्सा भी आया कि इतने बुजूर्ग होते हुये भी ऐसी अनुचित बात इन्होने कही। बाद में पता पङा कि ये व्यक्ति तो दिमाग के मरीज है, और बङी ही करूणाजनक अवस्था में हैं। ऐसा सुनते ही पता नहीं गुस्सा तो कहां चला गया, और मन में उनके प्रति करूणा भी आ गयी।

इस उदाहरण से एक बात तो समझने में आयी कि जब हमें कोई चीज न्यायपूर्ण लगती है, तो हमें उसके प्रति दुर्भावनायें नहीं रहती। वास्तव में देखा जायें तो जब हमें घटना न्याय पूर्वक लगती है तो अन्ततया हमें कोई भावनायें ही नहीं रहती, हम मध्यस्थ हो जाते हैं। अन्यायपूर्ण बात पर दुर्भावनायें रखना और बिना उम्मीद के कोई अच्छी घटना के होने पर सुखद भवनायें रखना ही लोक में दिखाई देता है।

अब हम एक उदाहरण और लेते हैं, और उसका तात्विक दृष्टि से विशलेषण करते हैं: एक व्यक्ति हमारे गांव में आया। पता पङा पहुंचे हुवे सन्त हैं। जाकर मिले तो पता पङा कि बाहर से सन्त हैं और अन्दर से पाखण्डी। ऐसा पता पङते ही मन में द्वेष की नाना प्रकार की तरंगे नृत्य करने लगी। लौकिक ज्ञान से तो ये ही पता पङता है कि ये व्यक्ति बहुत गन्दा है। मगर तात्विक दृष्टि से देखा तो पता पङा कि उसका पाखण्ड का कारण तो उसका अज्ञान और कषाय हैं। और ये अज्ञान, कषाय का कारण तो पूर्वजन्म में किये गये भाव हैं। अब समझ में आया जैसा सन्त की अज्ञान, कषाय की अवस्था है, तो उसी के हिसाब से तो कर रहा है, इसीलिये न्यायपूर्ण है। द्वेष करूं तो किस पर करू? उस सन्त की अज्ञान और कषाय पर? मगर उस पर भी कैसे करू, उसका मूल कारण तो भूतकाल में किया गया वो भाव है जिससे इस प्रकार का अज्ञान, कषाय सन्त मे अभी दिखाई पङ रहे है। तो भूतकाल के भाव पर करूं? उस पर भी कैसे करू उसका भी तो कारण उसके भूतकाल में कुछ है। तो मतलब कषाय ही ना करूं। हां! बस यही इष्ट है!

मगर जो कर रहा है, उसके फ़ल में इसे भविष्य में दुख होगा, इसीलिये मन में करूणा भी है। मगर जो कर रहा है, वो अब अन्याय नहीं दिखेगा। इस प्रकार से सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड में समस्त जीवो की नाना प्रकार की अवस्थायें न्यायपूर्ण दिखाई पङती है। चाहें वो भ्रष्ट नेता, आतंकवादी, पाखण्डी सन्त इत्यादि क्यों ना हो। जगत मे अन्याय नाम की कोई चीज नहीं। जो गलत कार्य करता है, उसे भविष्य में उससे दुख ना हो इसीलिये उसे सम्बोधा जाता है। यह बात समझके अपने को सब व्यक्ति के प्रति- यह अच्छा है, यह बुरा है- इस प्रकार की भवनाओं का अन्त हो जाता है।

ऐसी दृष्टी बनने से ना तो हम राग करते हैं और ना द्वेष और शान्ति को प्राप्त करते हैं। अगर बाहर कमीयां दिखे तो उसे न्यायपूर्ण देखे, अगर अच्छाईयां दिखे तो उसे न्यायपूर्ण देखें, इस प्रकार से बाहर में अच्छे बुरे के भेद करने की दृष्टी समाप्त हो जाती है, और समता दृष्टी पैदा होती है।

Sutra#1: The problem is not out there, the problem is in here

सूत्र १: समस्या बाहर नहीं, अन्दर है

जीवन में देखो तो समस्यायें बहुत हैं। परिवार में कितनी परेशानियां, समाज में कितनी परेशानियां, भारत में कितनी परेशानियां है।

तो प्रश्न उठता है कि हम क्या करें? क्या जाग उठे, और मिटा दे इन सब समस्याओं को। एक कर्मठ व्यक्ति की तरह जुट जायें और जमे रहे जब तक ये विषमतायें ध्वंस नहीं हो जाती।

श्रीगुरू कहते है - नहीं। दो दृष्टियां हैं। दूसरे को सुधारना, उठाना तो लौकिक दृष्टि है। अपने को सुधारना, उठाना आध्यात्मिक दृष्टि है।

शिष्य प्रश्न करे ऐसा क्यों? श्रीगुरू करूणा पूर्वक समझाते हैं कि ये जो समस्या भिन्न भिन्न रूपों में बाहर में दिखाई देती हैं, ये वास्तव में बाहर नहीं तुम्हारे अन्दर हैं। जितनी दुनिया हमें दिखाई देती है, ऐसी अनगिनत दुनिया  पूरे लोक के अन्दर हैं। तुम्हारी एक दुनिया है, जो चींटी हमारे घर की नाली की दिवारो पर रहती है, उसकी एक दम अलग दुनिया। उसकी समस्यायें भी एकदम अलग प्रकार की है। ऐसे ही एक मकङी की दुनिया है जो जाले पर झूलती रहती है, और नये जाले बुनती रहती है। इसी ही प्रकार मच्छरो, चमगादङ, छोटी मछली, बङी मछली की अपनी अपनी दुनिया है और उनकी अपनी अपनी समस्यायें हैं।

जानवरो की तो बात ही और, इन्सानो में भी तो अलग देश मे जन्मे लोगो की दुनिया अलग और समस्यायें अलग। अलग देश छोङो, एक ही देश में भिन्न भिन्न व्यक्तियों के अनुभव, ज्ञान और भावो के आधार पर उनकी दुनिया अलग और समस्यायें भी अलग।

जिस प्रकार के हमने कर्म किये उसी प्रकार की दुनिया में हम चले जाते हैं। इसलिये समस्यायें वास्तव मे दुनिया मे नहीं वरन अपने मे हैं। और इसका समाधान भी बाहर नहीं वरन अपने भीतर ही है। हम अन्दर की दुनियां सुधार लेंगे तो सहज ही बहिरंग दुनिया भी सर्व सुन्दर मिल जायेगी, और अगर बाहरी दुनिया में ही लगे रहे तो दुनिया से बन्धन कभी तोङ नहीं पायेंगे।

शिष्य प्रश्न करे- क्या लोक की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता? श्रीगुरू कहते हैं - अगर इनका समाधान हो सकता होता, तो अनादि काल से लोक की सत्ता है - इनका समाधान हो गया होता। इन समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। तुम्हारा इष्ट इसी में है कि तुम अपना समाधान कर लो।

शिष्य प्रश्न करे- तो क्या पर उपकार कदापि ना करे। तो श्रीगुरू कहते हैं- अपने को सुधारने के पथ पर अपने अन्तरंग को पवित्र करने के लिये और स्थूल पाप भाव से बचने के लिये पर उपकार में भी निमित्त बनो।

इस प्रकार हम बाहर में समस्यायें ना देखकर बाहर से राग-द्वेष ना करे। वरन उसका मूलकारण अपने अंतरंग को जानकर उसे परम पवित्र करें। जिससे परम पवित्र सिद्धलोक की केवलज्ञान रूपी दुनियां में हमारा वास होये।

मैं किसी को छूता ही नहीं

वास्तविक जगत और जो जगत हमें दिखाई देता है उसमें अन्तर है। जो हमें दिखता है, वो इन्द्रिय से दिखता है और इन्द्रियों की अपनी सीमितता है। और जो ...