Sunday, December 23, 2018

Awareness ज्ञान

जीव पदार्थ में ज्ञान गुण ही प्रमुख है, अन्य सब उसका विस्तार है। चेतना के सब गुण चेतन हैं अर्थात ज्ञानात्मक व अनुभवात्मक हैं। ज्ञान तो ज्ञान है ही श्रद्धा भी ज्ञानात्मक है। और चारित्र या प्रवृत्ति भी, क्योंकि ज्ञान के निःसंशय रूप को श्रद्धा कहते हैं और उसी के स्वभाव स्थित रूप को चारित्र कहते हैं। शांति भी ज्ञानात्मक है क्योंकि अनुभव करना ज्ञान का ही काम है। इसी कारण आत्म चित्पिण्ड कहा जाता है या यों कहिये कि ज्ञान मात्र ही जीव है। अतः ज्ञान के कार्यो को ही ज्ञान का विषय बनाना अभिष्ट है।
  - क्षुल्लक श्री जिनेन्द्र वर्णी जी (अध्यात्म लेखमाला)


एक दृष्टि से हम देखते हैं, तो समझ में आता है कि मैं मात्र ज्ञान हूं। ये ही मुख्य नहीं है कि ’मैं जानता हूं’ मगर यह भी विचारणीय है कि मैं क्या जानता हूं।

अगर मेरे सामने कोई वस्तु आई तो मैं उसे अनेक प्रकार से जान सकता हूं। अगर मैने उसे इस प्रकार जाना कि इससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, तो वह भी एक प्रकार का जानना ही है, और अगर मैने उसे इस प्रकार जाना कि यह तो मेरे लिये बहुत हितकारी है, तो वह भी एक प्रकार का जानना ही है। दोनो अवस्थाओं में मेरा काम जानना है।

दोनो ही जानने वाले काम है, मगर दोनो में अन्तर है। पहले वाले में जब हम जानते हैं, तो जानना पवित्र हैउसमें विकल्प नहीं है, मगर दूसरे में राग है। दूसरी अवस्था में, जैसे ही मैने जाना कि यह हितकारी है, तत्काल लोभ कषाय की उदय, उदीरणा से मैं रागमयी हो जाता हूं। अगर उसे मैं अपने लिये बहुत हितकारी जानता हूं, तो राग भी प्रबल होता है, और कम हितकारी जानता हूं, तो राग भी निर्बल होता है। इस दृष्टि से पर वस्तु को अच्छा-बुरा जानना ही वास्तविकता में ज्ञान का(मेरा) असंयम हैं।

और हम एक और तरह से विचार करें कि मेरा जानना किस प्रकार का है? अगर मैं एक दम निःसंशय होकर जान रहा हूंयही मेरी श्रद्धा है – वह सच्ची है, या झूठी - यह अलग बात है।

तो ज्ञान ही असंयम है और ज्ञान ही श्रद्धा है। इसी को शास्त्रीय भाषा में मिथ्याचारित्र, मिथ्यादर्शन कहते हैं।

अब अगर किसी पिता ने अपने बेटे को देखा, और यह सोचा मैने इसे पाला पोसा- इतना बङा किया। इसमें आत्मा को अपने को पिता जाना और बेटे के पालने पोसने का कर्ता जाना। यही जानना कर्ता बुद्धि है। दूसरी तरफ़, ज्ञानी जानता है कि वो मात्र ज्ञान है, और अज्ञानी अपने को पिता जानता है, और बेटे का एकान्त से कर्ता जानता है। इस कर्ता पने से ही राग उत्पन्न होता है। इसी प्रकार से भोक्ता पने पर भी समझना चाहिये।

जब ज्ञान पवित्र होता है, और अपने को निःसंशय से ज्ञान ही जानता है – वही सच्ची श्रद्धा है। और अपने को ज्ञान ही देखता है, तो राग भी उत्पन्न नहीं होता- वही सच्चा चारित्र है।
यहां ज्ञान ही श्रधा है, और ज्ञान ही चारित्र। इसी को शास्त्रिय भाषा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र कहते हैं।

Saturday, December 1, 2018

मैं आसमान हूं..


जब हम ऊपर आसमान को देखते हैं.. तो नजरे जाती हैं बादलो की तरफ़।

क्या हम कभी आसमान को देख पाते हैं? देखते हैं तो उसका नीला रंग। मगर आसमान – क्या उसे देख पाते हैं?

अन्दर दृष्टि डालते हैं तो दिखते हैं- क्रोध, मान, ईर्ष्या.. पल में उठने.. और पल में बिगङने वाले विचार। जैसे बादल नये नये बनते रहते हैं.. और टूटते रहते हैं..

मगर वो canvass जिस पर ये रंग बिरंगे भाव उठते हैं.. वो कहां है?

जहां वो बादल आते हैं, और जाते हैं, .. वो आसमान कहां है..


बो मैं हूं.. चेतन!

Friday, November 30, 2018

Changing your relationship with emotions and feelings


शरीर में १ साल से कैंसर था, और आज पता पङा कि चौथी स्टेज का है। आज तक मालूम ही ना था कि मेरे को कैंसर है। अभी तक वो कैंसर शरीर का अंग था.. ’मेरा अपना था’... और आज अचानक से ही विजातिय हो गया.. शत्रु हो गया.. कैसे बाहर निकले.. ऐसा हो गया। था पहले भी, और अभी भी है। पहले भी शरीर का अंश था, अभी भी शरीर का अंश है। पहले भी विकार था, अभी भी विकार है। मगर पहले मालूम नहीं था, और इसलिये मेरा अपना था.. और अब पराया है.. कैसे बाहर निकले.. ऐसा है।

ऐसे ही ये राग हैं.. विचार हैं.. ये अभी तक मेरे थे.. मेरे व्यक्तित्व के हिस्से थे। अनादि काल से। मगर अब समझ आया कि.. कि  ये ये विजातिय हैं.. विकार हैं.. विभाव हैं.. मल हैं.. अशुद्धि हैं।

...और मेरा इनसे सम्बन्ध बदल गया।

पहले ये मेरी शोभा थे.. अब ये मेरे अन्दर मैल।
पहले मैं इन्हे करता था.. अब लगता है.. क्यों मेरा इनसे सम्बन्ध है?
पहले ये बहुत करीब थे.. अब ये करीब होके भी बहुत दूर
पहले ये साधक थे.. अब बाधक हैं
पहले ये मेरे थे.. अब पराये हैं।

Saturday, March 17, 2018

My experiences about Team work

एक कमरे को साफ करना था| मेरे को झाड़ू देनी आती थी और मेरे मित्र को पोछा । मैंने कहा पहले मैं झाड़ू लेता हूं और फिर तुम पोछा लगा लेना। उसने कहा - नहीं, अच्छी सफाई करनी है तो पहले वो पोछा पहले लगायेगा और मैं झाड़ू बाद में। मुझे उसकी बात जमी नहीं। थोड़ी बहस हुई। मैंने सोचा एडजस्ट कर लेते है। मगर उसने एक शर्त रख दी कि जैसे ही मैं पोछा लगाऊं तुम्हें उसके तुरंत बाद झाड़ू लगानी होगी। मैंने कहा कि मेरी झाड़ू गीली हो जाएगी और खराब हो जाएगी ऐसा तो मैं नहीं कर सकता। ऐसी बात है तो फिर तुम ही लगा लो। अब क्या था.. उसने खुद ही अपने हिसाब से कमरे की सफाई करी।

 जब भी हम टीम वर्क करते हैं तो हमें अपने आग्रह को तिलांजलि देनी होती है. एडजस्ट करना होता है, दूसरे की बात को appreciate करना होता है। अगर ऐसा नहीं कर पाएंगे तो हम अकेले ही कार्य करेंगे और बड़ा कार्य नहीं कर पाएंगे। बड़ा कार्य करने के लिए बहुत लोगों की आवश्यकता होती है।

जिस प्रकार से एक बड़ा इंजन अनेक पुर्जो से मिलकर के चलता है और पुर्जो में तेल लगा होता है। जिससे वो मशीन ठीक से चल पाती है। ऐसे ही एक अच्छे कार्य में खूब सारे लोग जब कार्य करते हैं तो उनमें परस्पर में जब तक सम्मान की और प्रेम का तेल ना लगा हो तब तक वह परस्पर में काम नहीं कर सकते।

अगर पुर्जे में सूई लगी हो और उसके ऊपर रबङ की belt घूमती हो, तो वो उसे घुमाने की जगह काटना शुरु कर देगा। उसी प्रकार से अगर समुदाय ने एक व्यक्ति अहंकार सम्मान की इच्छा रखता हो या हठाग्रही हो, तो उसकी वजह से पूरी मशीन खतरे में आ जाती है।

“जो मैं कह रहा हूं वही सही है। मेरा अनुभव तुमसे ज्यादा है। अपने को prove करने की इच्छा रखना। दूसरा अगर कोई सुझाव दें तो उसे एकदम से रिजेक्ट कर देना” - यह ऐसी चीजें जो teamwork को आगे नहीं बढ़ने देती।

कई बार व्यक्ति कहता है कि मेरी इस व्यक्ति से बनती नहीं। इसके साथ मैं काम नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में मेरे ख्याल से उस व्यक्ति को स्वर्ग चले जाना चाहिए या ऐसी जगह जाना चाहिए जहां पर सब लोगों की बनती हो, और सब लोग एक ही सोच के हों। हम इस धरती पर रहते हैं और यहां पर हर प्रकार के लोग हैं- अलग अलग सोच है। अगर मुझे यहां रहना है तो मुझे बाकी लोगों से बनाकर रखना सीखना पड़ेगा।- This is a basic requirement. अगर मेरे को यह पसंद नहीं है, तो मेरे रहने का क्या मतलब है। अभी टिकट कटाओ .. और स्वर्ग जाओ या कहीं और जाओ।

कभी कभी गलत होते हुवे भी दूसरो के हिसाब से adjust करना होता है। Team work के लिये अपने obsessions को छोङना होता है। मान को, अपमान को पचाना सीखना पङता है, तभी कुछ कार्य हो पाता है।

मैं किसी को छूता ही नहीं

वास्तविक जगत और जो जगत हमें दिखाई देता है उसमें अन्तर है। जो हमें दिखता है, वो इन्द्रिय से दिखता है और इन्द्रियों की अपनी सीमितता है। और जो ...