Wednesday, November 12, 2014

Trip to Acharya VidyaSagar 3 (2014)

बङे ही भाग्य वश सन्‌ २०१४ अक्टूबर माह में आचार्य श्री जी के संघ के दर्शन का शुभ विचार हुआ। इसलिये हम विदिशा पहुंच गये।

जाते जी देखा कि एक श्रावक जी की सल्लेखना चल रही है। वें इन्दौर के हैं और उनका नाम पटौदी जी पता पङा। जिस दिन हम पहुंचे तो एक कमरे में वें लेटे हुए थे, और बाहर board लगा था कि ’केवल ब्रहम्चारी भैया ही कमरे में प्रवेश करें’। अन्दर एक ब्रहम्चारी भैया वैयवृत्ति कर रहे थे। अगले दिन बता पङा कि रात्रि में सल्लेखना पूर्ण हो गयी। शाम को मुनि श्री संभवसागर महाराज जी के पास गये तो उन्होने बतलाया कि किस प्रकार से सल्लेखना हुई।

  • उन्होने सल्लेखना के अतिचारो के बारे में समझाया, और बतलाया कि जैसे अतिचार शास्त्रो में बतलाये गये हैं वैसे परिणामो के आने की सम्भावना रहती है और सच्ची सम्बोधन से श्रावक उसको सल्लेखना में जीत भी लेता है। जैसे - एक अतिचार है कि श्रावक को मरण की इच्छा होये कि सल्लेखना जल्दी से समाप्त हो जाये।
  • उन्होने बताया कि श्रावक को निर्जल उपवास के साथ एक समय पानी लेने वाले उपवास का भी अभ्यास होना चाहिये, वह अभ्यास सल्लेखना में काफ़ी उपयोगी रहता है।
  • गुरू के प्रति समर्पण और गुरू की आज्ञा का पूरा पालन बहुत जरूरी है।
  • सल्लेखना के लिये प्रतिमा होनी जरूरी है।
  • पटौदी जी आचार्य श्री जी से रोज आशिर्वाद लेने के बाद ही जल ग्रहण करते थे। मगर जल वाले उपवास का अभ्यास ना होने से वो ज्यादा जल नहीं ले पा रहे थी। महाराज जी ने कहा कि जल अच्छी मात्रा में जाये तो वो शरीर के लिये अच्छा रहता है।

कुछ बहनो के चोके में हम जुङ गये। एक महाराज जी का हमारे चौके में आहार हुआ। महाराज जी का नमक, चीनी और हरी का त्याग था। उन्होने रोटी, मूंग की दाल ली और सूखे चावल लिये। मुनियों के लिये तो रस परित्याग तप बहुत साधारण है, मगर मेरे लिये तो यह अद्भुत था। पंचम काल में यह दृश्य मिलने का सौभाग्य हुआ तो ऐसी लगा कि मुझे अपने पुण्य से ज्यादा ही मिल गया। उनके दर्शन करके लगा कि कहां वें तपस्या और त्याग की मूर्ति, और कहां मैं विषय-कषाय में लिप्त तुच्छ प्राणी।

आचार्य श्री जी के दर्शन करने का सौभाग्य मिला। उन्हे अपने बारे में बतलाया तो उन्होने प्रसंगवश भारत के इतिहास और संस्कृति को जानने के लिये मुझसे कहा। इसके लिये उन्होने दो पुस्तक अध्ययन करने का निर्देश दिया। आचार्य श्री जी के चरण स्पर्श करने और उनसे चर्चा करने का सौभाग्य मिला तो लगा जीवन धन्य हो गया।

आचार्य श्री जी के द्वारा ४ दिक्षायें देखने का अवसर मिला। जिस दिन दिक्षायें हुई, उस दिन सुबह हम आचार्य श्री जी जब आहार चर्या के लिये निकले, तब उनके पीछे पीछे चल पङे। ऋषि भैया जी ने आचार्य श्री जी को पङगाया और फ़िर लगभग तीन किलोमीटर दूर उनके घर तक चलते रहे। वहां आचार्य श्री के आहार शुरू होने पर हम वापस आये। वापस आने पर पता पङा कि ऋषि भैया ने आहार के बाद आचार्य श्री जी से दिक्षा के लिए बहुत निवेदन किया, और आचार्य श्री ने ऋषि भैया को दीक्षा देकर धन्य कर दिया। साथ में ३ और भैया जी की दीक्षायें हुई। ४ दीक्षार्थी में से ३ दीक्षार्थी तो बीस से तीस वर्ष उम्र के ही लग रहे थे। वस्त्र उतारते वक्त परिग्रह त्याग का जो आनन्द दीक्षार्थीयों के मुखमण्डल में दिखाई दिया, वैसा आनन्द शायद इस दुनिया में कहीं ओर ना दिखाई दे सके। ४ दीक्षार्थियों का मुनि बनकर जीवन धन्य हो गया, और हमारा उनकी दिक्षायें देखकर। अब दिक्षायें देख ली, तो ये भावना हुई कि कब मेरे ऊपर आचार्य परमेष्ठी की करूणा हो और मेरा उपादान बलवान हो, और मेरे को भी रत्नत्रय की प्राप्ति हो। दिक्षायें देखना दुर्लभ है। ना जाने कौन सा ऐसा पुण्य किया था कि मेरे को ये अवसर मिला।

विदिशा से खुरई गये और वहां आचार्य श्री जी के संघ के तीन महाराज जी: वीरसागर महाराज जी, विशाल सागर महाराज जी और धवल सागर महाराज जी: के दर्शन हुए। वहां पता पङा कि वीर सागर महाराज जी के १०२ बुखार था और उन्होने उसी में केश लौंच किया और उस दिन उपवास भी रखा। ऐसी त्याग तपस्या का जहां वातावरण हो, वह प्राप्त होने का सौभाग्य मिलना दुर्लभ है। रत्नत्रय को धारण करना तो अत्यन्त दुर्लभ है ही, मगर चलते फ़िरते रत्नत्रय धारियों के दर्शन करना भी महा दुर्लभ।

खुरई में एक घर ने हमें भोजन पर आमंत्रित किया। उनके चौके पर हम पहले पङगाहन के लिए खङे हुए, मगर आहार दान का सौभाग्य ना होने पर भोजन किया। परिवार की महिला की दो बहने आर्यिका हैं, और दो पुत्री हैं जिनमें से छोटी पुत्री के आर्यिका बनने की भावना है। ये भी आहार तैयार करके, सबको भोजन कराके फ़िर मन्दिर जाकर पूजन करके दिन के २ बजे ही भोजन करती हैं।  इस प्रकार के परिवारों से ही बुन्देलखण्ड की धरती पवित्र है।

खुरई से सागर गये और मुनि श्री क्षमासागर महाराज जी के दर्शन किये। उनका बिगङता स्वास्थ्य देखकर मन दहल गया। लगा कि कर्म भी कितने निर्दयी है कि एक महाव्रती को भी इन्होने नहीं छोङा। वें बोल नहीं पा रहे थे और ना ही slate इत्यादि का प्रयोग कर रहे थे। देखने में कमजोर लग रहे थे।

बुन्देलखण्ड और इस तरफ़ के लोगो में कई विशेष बात देखने को मिली। यहां के लोग कष्टसहिष्णु हैं। प्रसन्नतापूर्वक त्याग, तपस्या करते हैं, और व्रतियों के लिए समर्पित हैं। अन्य क्षेत्रो पर लोग आजकल सुख साधनो की ओर ज्यादा आकर्षित होकर त्याग, तपस्या से दूर होते जा रहे हैं, और अपनी इस प्रवृत्ति के कारण मुनियों की सेवा से भी वंचित हो जाते हैं। जो सुख सुविधा का आदि होगा, वह व्रतियों के लिये या धर्म पाने के लिए कष्ट नहीं सह पायेगा। और बिना कष्ट के उपलब्धियां सीमित ही रहती हैं।

हस्तिनापुर अतिशय क्षेत्र के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहां आचार्य भारत भूषण महाराज जी के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होने अपने ग्रहस्थ जीवन के ७ प्रतिमा वाली अवस्था का वर्णन किया कि किस प्रकार वो घर में रहकर और दिल्ली के सदर बाजार में नौकरी करते हुए भी ७ प्रतिमा का पालन करते थे। उनके बात को सुनकर बहुत प्रेरणा मिली। बाद में महाराज जी से समयसार जी के कुछ विषयों पर चर्चा हुई, और महाराज जी से बहुत कुछ सीखने को मिला।

Friday, October 10, 2014

सम्मान की इच्छा

ये जीव सम्मान की इच्छा क्यों करता है?

मान और लोभ कषाय वश जीव में सम्मान की इच्छा पायी जाती है। दुनिया में जहां जहां लोगो को सम्मान दिया जाता है, उन्हे देखके जीव के भी सम्मान की इच्छा प्रकट होती है।
जैसे:
  • धनवान लोगो का सम्मान देखता है, तो इसका भी धनी होने का मन करता है।
  • बुद्धिमान लोगो का सम्मान देखता है, तो इसका भी वैसा होने का मन करता है।
  • पढे लिखे लोगो का सम्मान देखता है, तो इसका भी वैसा होने का मन करता है।
  • सुन्दर और बलवान लोगो का सम्मान देखता है, तो इसका भी वैसा होने का मन करता है।
देखा जाये तो सम्मान की इच्छा की कोई आवश्यकता नहीं है। ज्ञाने विवेकी जन सम्मान की इच्छा को छोङ देते हैं।

सामान्यतः निम्न प्रकार से सम्मान (recognition) की इच्छा या प्रतिस्पर्धा के भाव रहते है:

  • बचपन में कक्षा में प्रथम आने की इच्छा होता है, उसमें सम्मान की इच्छा ही रहती है।
  • बचपन में खेल कूद में जीतने की भावना।
  • अपने मित्रो के Colleges से अच्छे College में दाखिला की इच्छा। (यहां competition की भावना है और जहां competition की भावना है वहां सम्मान की भी इच्छा है।)
  • अपनी नौकरी, अपने मित्रो से अच्छी लगे।
  • अपना व्यवसाय, दूसरो की अपेक्षा अच्छा हो।
  • अपना रूप दूसरो की अपेक्षा अच्छा हो।
  • अपना शारिरिक बल दूसरो की अपेक्षा अच्छा हो।
  • अपनी धन सम्पत्ति दूसरो की अपेक्षा अच्छा हो।
  • हम दूसरे की अपेक्षा ज्यादा धार्मिक हों।
  • अपने बच्चे दूसरो के बच्चो से अच्छे हो।
  • हम दूसरो के अपेक्षा ज्यादा दान दे, या परोपकार करें।
  • हमें समाज में पदो की प्राप्ति हो।

Understanding of body by two perspectives


Understanding of body by Agyaani and Gyaani:

अज्ञानीज्ञानी
शरीर से जीवो की हिंसा करता हैं।शरीर का प्रयोग जीवो की रक्षा के लिए करता है।
वाणी का प्रयोग दूसरे को दुख पहुंचाने में, अपने को ऊंचा दिखाने में करता है।वाणी का प्रयोग दूसरे के हित के लिए ही करता है।
शरीर का प्रयोग परिग्रह इकट्ठा करने में करता है।शरीर का प्रयोग मात्र धर्म के एक उपकरण की तरह करता है। उसे परिग्रह नहीं मानता।
शरीर को सुन्दर दिखाकर सम्मान प्राप्त करने की इच्छा रखता है।शरीर की सुन्दरता की इच्छा नहीं रखता।
बार बार शरीर को दर्पण में देखकर खुश होता है।अशुचि भावना भाकर शरीर से विरक्त रहता है।
शरीर को बलिष्ट बनाकर सम्मान प्राप्त करने की इच्छा रखता है।इस प्रकार की इच्छा नहीं रखता।
अगर शरीर सुन्दर, बलिष्ट ना दिखे तो चिन्तित होता है।इस प्रकार से चिन्तित नहीं होता।
आंख का प्रयोग आकर्षक वस्तुओं को देखने के लियेआंख का प्रयोग शास्त्र स्वाध्याय आदि के लिये करता है।
कान का प्रयोग संगीत के लिएशास्त्र सुनने के लिए
नाक का प्रयोग सुगंध सुनने के लिए
जीह्वा का प्रयोग स्वाद के लिएमात्र स्वास्थ्य के लिए भोजन सा स्वाद जानने के लिये कि वो प्रकृति अनुकूल हो।
स्पर्शन का प्रयोग विषयों के लिए।
मन का प्रयोग आर्त, रौद्र ध्यान के लिए करता है।मन का प्रयोग धर्मध्यान आदि के लिए करता है।

Monday, August 18, 2014

Worldly goals

अज्ञानी के संसारिक लक्ष्य
ज्ञानी की संसारिक लक्ष्य
* अज्ञानी यह आसक्ति करता, कि मुझे यह चाहिये
* जो चीजे उसकी पूर्ति में लाभ करती है, उससे राग करता है और जो नहीं करती उससे द्वेष करता है।
* ज्ञानी यह विचार करता है, कि यह स्थिति मेरे लिए अनुकूल है, और नहीं मिली तो प्रतिकूल।
ज्ञानी अनुकूल के लिए पुरूषार्थ करता है।
* अज्ञानी की लक्ष्य के प्रति आसक्ति बहुत है। अगर उसे नहीं मिलता तो खेद करता है। अगर मिलता है तो बहुत खुश होता है।
* ज्ञानी की लक्ष्य के प्रति राग है, मगर आसक्ति नहीं। मिले या ना मिले उसे स्वीकार करता है और उसमें राग-द्वेष नहीं करता।
* अज्ञानी कर्म और पुरूषार्थ के समन्वय को नहीं जानता
* ज्ञानी पुरूषार्थ करता है और परिणाम को ’कर्म और पुरूषार्थ’ पर छोङ देता है।

Friday, August 8, 2014

मैं राग क्यों करूं, मैं द्वेष क्यो करूं


जैसे बैंक के दो ATM हैं। एक खराब है एक सही। खराब वाला पैसे नहीं देता और account से पैसे काट भी लेता है। सही वाला सही काम करता है। तो हम खराब वाले के पास नहीं जाते और सही वाले के पास जाते हैं। ना खराब वाले से द्वेष करते हैं, और सही वाले से राग। मात्र उनके गुण दोष जानकर अपना काम चला लेते हैं।


ऐसे ही कोई व्यक्ति से सम्पर्क होने पर वो हमारे लिये हितकारी निमित्त बनाता है, और कोई व्यक्ति अहितकारी बनता है। तो हम गुण दोष जानकर सम्पर्क करें, राग-द्वेष ना करें। कभी हमें गुण-दोष नहीं पता होते और सम्पर्क करके भुगतते हैं, तो अपनी अज्ञानता पर पछतावा करो बजाय कि दूसरे से द्वेष करने के।


दूसरा हमारे लिये अहितकारी है, तो है - उससे द्वेष क्यों करे। कोई कारण नहीं कि हम उससे द्वेष करें।

दूसरा हमारे लिये हितकारी है, तो है - उससे राग क्यों करे। कोई कारण नहीं कि हम उससे राग करें।

Thursday, July 10, 2014

Acharya VidyaSagar Ji द्वारा हाइकु छन्द:

आचार्य विद्यासागर जी द्वारा हाइकु छन्द:
1. अपना मन अपने विषय में क्यों न सोचता।
अर्थ: मन अपना होते हुए भी हमेशा दूसरो के विषय में ही सोचता है अपने विषय में कभी भी नहीं।
2. जगत रहा पुण्य पाप का खेत बोया सो पाया
अर्थ: यह जगत पुण्य पाप के खेत की तरह है। इस खेत में जो जैसा बोता है वैसा ही काटता है।
3. गुरू की चर्या देख भावना होती हम भी पावें।
अर्थ: गुरू की श्रेष्ठ चर्या को देखकर हमें भी उनके जैसे बनने की प्रेरणा मिलती है।
4. मौन के बिना मुक्ति संभव नहीं मन बना ले।
अर्थ: मौन के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है इसलिये मौन धारण करने के बारे में सोचे।
5. डाट के बिना शिष्य और शीशी का भविष्य ही क्या।
अर्थ: शिष्य को यदि डाट न पङे और शीशी को यदि डाट न लगाया जाये तो दोनो का भविष्य खतरे में होता है।
6. गुरू ने मुझे क्या न दिया हाथ में दिया दे दिया।
अर्थ: गुरू ने हाथ में दीपक थमाकर मानों मुझे सब कुछ दे दिया।
7. जितना चाहा जो चाहा जब चाहा क्या कभी मिला।
अर्थ: इन्सान जितना चाहता है उतना, जो चाहता है वह, और जब चाहता है तब क्या उसे मिल पाता है? नहीं।
8. मन की बात नहीं सुनना होती मोक्षमार्ग में।
अर्थ: मोक्षमार्ग में मन की बात सुनना अहितकर हो सकता है।
9. असमर्थन विरोध सा लगता विरोध नहीं।
अर्थ: किसी बात का समर्थन न करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि उसका विरोध किया जा रहा है, परन्तु वह विरोध नहीं होता।
10. मोक्षमार्ग में समिति समतल गुप्ति सीढ़ियां।
अर्थ: मोक्षमार्ग में समितियां का पालन समतल पर चलने की तरह होता है जबकि गुप्तियों का पालन सीढियां चढ़ने की तरह।
11. स्वानुभूति ही श्रमण का लक्ष्य हो अन्यथा भूसा।
अर्थ: आत्मा की अनुभूति ही श्रमण का लक्ष्य होना चाहिए। ऐसा न होने पर सब कुछ व्यर्थ है।
12. प्रकृति में जो रहता है वह सदा स्वस्थ रहता।
अर्थ: प्रकृति में जीने वाला कभी अस्वस्थ नहीं होता।
13. तेरी दो आंखे तेरी ओर हजार सतर्क हो जा।
अर्थ: दूसरों को देखेने के लिये हमारे पास केवल दो आंखे हैं। लेकिन हमारी ओर उठने वाली आंख हजारों हैं इसलिये एक एक कदम फ़ूंक फ़ूंक कर रखना चाहिये।
14. पौंधे न रोपें और छाया चाहते पौरूष्य नहीं।
अर्थ: मानव वृक्षारोपण तो करता नहीं और छांव चाहता है। यह तो पौरूष नहीं।
15. मान शत्रु है कछुआ बनूं बचूं खरगोश से।
अर्थ: मान शत्रु है, कछुआ की तरह निरहंकारी बन अपने पथ पर चलता रहूं न कि अहंकारी खरगोश की तरह जीवन में पराजय को प्राप्त होऊं।
16. मैं क्या जानता क्या क्या न जानता सो गुरूजी जानें।
अर्थ: मैं क्या जानता हूं और क्या नहीं, यह तो गुरू ही जानें।
17. मान चाहूं न पै अपमान अभी सहा न जाता।
अर्थ: मान सबको अच्छा लगता है। अपमान कोई नहीं सह पाता।
18. बिना प्रमाद ’श्वसन क्रिया सम’पथ पे चलूं।
अर्थ: जैसे श्वास बिना रूके निरन्तर चलती रहती है उसी प्रकार मैं भी अपने पथ पर निरन्तर चलता रहूं।
19. जिन बोध में ’लोकालोक तैरते’उन्हे नमन।
अर्थ: जिनेन्द्र देव के ज्ञान में लोकलोक झलकते हैं उन्हे हमारा नमस्कार हो।
20. उजाले में हैं “उजाला करते हैं” गुरू को बन्दूं।
अर्थ: जो स्वयं प्रकाशित हैं और सबको प्रकाश दिखाते हैं ऐसे गुरू को वन्दन करते हैं।
21. साधना छोङ ’कायरत होना ही’ कायरता है।
अर्थ: साधना से विमुख होकर शरीर से ममत्व करना कायरता है।
22. बिना रस भी पेट भरता छोङो मन के लड्डू।
अर्थ: इन्द्रियों के वशीभूत होकर रसों का सेवन करना बंद करो क्योंकि पेट भरने के लिये नीरस भोजन भी पर्याप्त हैं।
23. संघर्ष में भी ’चंदन सम सदा’सुगन्धि बांटू।
अर्थ: भले ही मुझे कष्ट झेलने पङे परन्तु मैं चन्दन की तरह सबको खुशबू प्रदान करता रहूं।
24. पाषाण भीगे ’वर्षा में, हमारी भी’ यही दशा।
अर्थ: वर्षा में भीगे हुये पाषाण की तरह हमारी दशा है जिसका असर बहुत शीघ्र समाप्त हो जाता है।
25. आप में न हो ’तभी तो अस्वस्थ हो’ अब तो आओ।
अर्थ: अपने आप में नहीं रहने वाला अस्वस्थ रहता है। इसलिये अब अपने में आ जाओ।
26. घनी निशा में ’माथा भयभीत हो' आस्था आस्था है।
अर्थ: संकट के समय यदि घबरा गये तो समझो आस्था कमजोर है।
27. मलाई कहां अशांत दूध में सो प्रशांत बनो।
अर्थ: अशांत दूध में मलाई नहीं होती, इसलिये शान्त बनों।
28. खाल मिली थी यही मिट्टी में मिली खाली जाता हूं।
अर्थ: चर्म का यह तन मिला था यह भी अन्ततः मिट्टी में मिल गया। खाली हाथ जाना होगा।
29. आगे बनूंगा अभी प्रभु पदों में बैठ तो जाऊं
अर्थ: पहले भगवान के चरणों में बैठना होगा, तभी भगवान बनना सम्भव है।
30. अपने मन, को टटोले बिना ही सब व्यर्थ है।
अर्थ: अपने मन को टटोलते रहना चाहिये अन्यथा सब व्यर्थ है।
31. देखो ध्यान में कोलाहल मन का नींद ले रहा।
अर्थ: ध्यान में मन का शोर समाप्त हो जाता है।
32. द्वेष से राग, जहरीला है जैसे शूल से फ़ूल।
अर्थ: द्वेष की अपेक्षा राग ज्यादा हानिकारक है, जैसे फ़ूल की अपेक्षा कांटा ज्यादा खतरनाक होता है।
33. छाया सी लक्ष्मी, अनुचरा हो यदि उसे न देखो।
अर्थ: यदि लक्ष्मी की तरफ़ ध्यान न दो वह दासी की तरह साथ देती है।
34. कैदी हूं देह जेल में जेलर ना तो भी भागा ना।
अर्थ: देह रूपी जेल में आत्मा कैद है। उस जेल में जेलर नहीं है फ़िर भी इसने भागने की कोशिश नहीं की। कारण इसे उस कैद में ही रस आने लगा है।
35. निजी पराये, बच्चों को दुग्ध-पान कराती गौ मां।
अर्थ: अपने पराये का भेद भुलाकर गौ माता सबको दुग्धपान करती है।
36. ज्ञानी कहता, जब बोलूं अपना स्वाद टूटता।
अर्थ: ज्ञानी कहता है कि जब भी मैं बोलता हूं बाहर आ जाता हूं और आत्मा के सुख से वंचित रह जाता हूं।
37. समानान्तर, दो रेखाओं में मैत्री पल सकती।
अर्थ: मैत्री समान लोगों की ही होती है। जैसे कि दो समानान्तर रेखायें अन्त तक साथ चलती है।
38. वक्ता व श्रोता बने बिना गूंगा सा स्व का स्वाद ले।
अर्थ: आत्मा का रस लेने के लिये मूक बनना होगा। न वक्ता और न ही श्रोता।
39. परिचित भी, अपरिचित लगे स्वस्थ ज्ञान में।
अर्थ: आत्मस्थ दशा में परिचित व्यक्ति भी, वास्तविकता का बोध हो जाने से अपरिचित ही लगना चाहिये।
40. नौ मास उल्टा लटका आज तप कष्टकर क्यों।
अर्थ: नव मास तक मां के पेट में उल्टा लटकता रहा फ़िर भी आज तप करने से डरता है।
41. कहो न सहो सही परीक्षा यही आपे में रहो।
अर्थ: कहो मत बल्कि सहो। सही परीक्षा प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने आप में रहने पर होती है।

Thursday, May 15, 2014

अपेक्षायें

"उसे ऐसा करना चाहिये" - यह अपेक्षा है। दूसरा जीव कोई कार्य करता है, और हम अपनी आसक्ति उसके कार्य से जोङ लेते हैं। सोचते हैं, कि वो मेरे अनुसार करे, या जो मेरे को ठीक लगता है ऐसा करे।

प्रश्न यह है कि वो ऐसा क्यों करेगा जैसा मैं चाहूंगा? उसे जैसा सही लगेगा वैसा सो करेगा, तो मैं उसके कार्य में आसक्ति क्यों रखूं।

शरीर में बिमारी होने पर जीव पुरूषार्थ करता है, और अगर स्वास्थ्य ठीक नहीं होता तो दुखी होता है। परिणाम पर इतनी आसक्ति क्यों, वो तो भाग्य और पुरूषार्थ पर निर्धारित है।

डांट

डांट को कई लोग अच्छा नहीं मानते। कुछ तो लोग ऐसा सोचते हैं कि यह मात्र प्रताङना है जिसमें दूसरे को मात्र दुखी किया जा सकता है। डांटने की जगह हमें दूसरे को मात्र प्रेम से समझाना चाहिये।

वास्तव में देखा जाये तो समझाना और डांट दोनो ही जीवन में जरूरी हैं। दूसरे को पहले तो समझाया ही जाता है, मगर समझने की बावजूद भी जब वह पुराने संस्कारो की वजह से गलत कार्य नहीं छोङ पाता है, तो डांट अति उपयोगी सिद्ध होती है।

डांट तभी कारगार होती है जब डांट पङने वाले व्यक्ति को डांट सुनकर पछतावा हो, अगर पछतावे की जगह उसे डांटने वाले से द्वेष हो जाये तो वह व्यक्ति उस प्रकार की डांट का पात्र नहीं है।

छोटे बच्चे को सही रस्ते पर समझाना ही अच्छा है, मगर जब समझाने के बावजूद भी गलत कार्य करे तो डांट कार्यकर होती है। जैसे मानलो बच्चे का चरित्र खराब होना शुरू हो जाये, तो उसे प्रथम समझाना ही जरूरी है। अगर वो सुधर जाये तो ठीक, अगर नहीं तो फ़िर से समझाना चाहिये और यह नक्की करना चाहिये कि उसे सही बात समझ में आ गयी। समझ में आने के बावजूद भी नहीं माने तो डांट ही उपयोगी।

अध्यात्मिक क्षेत्र में एक उदाहरण लें: एक व्यक्ति को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया, मगर चारित्रमोह वश चारित्र धारण नहीं कर पा रहा। ऐसी अवस्था में गुरू के द्वारा डांट उसके जगे हुए पुरूषार्थ को जगा सकती है और उस पुरूषार्थ से वह व्यक्ति चारित्रमोह को पछाङकर चारित्र ग्रहण कर सकता है।

दूसरा उदाहरण लें: चारित्र धारण किये हुये जीव जब चारित्र से स्खलित हो जाये तो गुरू के द्वारा डांट बहुत कार्यकारी सिद्ध होती है।

ऐसे जीव धन्य हैं जिन्हे सच्चे गुरू से समझदारी की बाते और डांट दोनो प्राप्त होती हैं।

Monday, February 3, 2014

दादी मां


हे दादी, तू चली गयी।
जिस परिवार को तूने पाला-पौसा, सींचा,
उसे छोङ के तू चली गयी।

जिस शरीर की तूनी जीवन भर सेवा की
जिसका साथ तेरे को हमेशा रहा
उसे भी छोङ के तू चली गयी

जिस घर में तू हमेशा रही
जिस घर के कण कण से तेरी पहचान थी
उसे तू छोङ के चली गयी।

हे परिवार वालो। जिस मां ने तुझे अपने खून से सींचा
क्या तेरे में इतनी नमक-हलाली नहीं थी, कि उसे तु जाने से रोक लेता?

हे शरीर। क्यों मृत सा पङा है तू
क्या तेरे परमाणुओं पर दादी का एहसान ना था, जिसनें तुझे पुष्ट किया
क्यों मौत के समय तू मूक होकर सब देखता रहा? 
तू क्यों ना उसको जाने से रोक सका।

हे घर, हे समाज! क्या तुम सब मूक दृष्टा हो।
अगर हो, तो क्यों कहते हो कि ’कोई मेरा चला गया’
और दादी क्यों तुम सबको अपना कहती थी।

और क्या ये ’अपनापन’ सिर्फ़ ढ़ोंग था। वास्तव में क्या कोई किसी का ही ना था?

Friday, January 10, 2014

Advantages of studying 3 Loka

तीन लोक के अध्ययन से हमें फ़ायदे:

पूजन करते समय फ़ायदा: 
१) अब हमें मालूम है कि ७२० तीर्थंकर या विदेह के २० तीर्थंकर भगवान के अर्घ हैं, तो कहां कहां वे तीर्थंकर होते हैं। और अर्घ्य चढ़ाते हुये हम अपने मन से वहां पहुंच सकते हैं।
२) समुच्चय महार्घ्य में तीन लोक के कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्याल्य में- पंच मेरू के चैत्यालय, नन्दीश्वर द्वीप के चैत्यालय, उर्ध्व, अधो, मध्य लोक के चैत्यालय कहां कहां है। ताकि हम अपना मन वहां ले जाकर उन्हे अर्घ्य दे सकें।
३) समुच्चय महार्ध्य में सब हम वर्तमान के अरहन्त, सिद्ध, साधु को अर्घ चढ़ाते हैं - तो हमे मालूम हो गया कि ढ़ाई द्वीप में अरहन्त कहां कहां होते हैं, सिद्ध कहां कहां होते हैं, साधू कहां कहां होते हैं।
४) जब हम कहते हैं- ’अरहंता लोगुत्त्मा’ अर्थात ’अरहंत तीन लोक में उत्तम है’ तो हमें तीन लोक के जीवो को समझने से यह स्पष्ट हो गया कि अरहंत ही तीन लोक में उत्तम कैसे हैं।
५) ऐसे ही अनेको फ़ायदे पूजन करते समय होंगे।

स्वाध्याय करते समय फ़ायदे:
१) प्रथमानुयोग पढ़ते समय जब अनेक भूमियों, समुन्द्रो, भोगभूमियों का वर्णन आयेगा, तो आपको पता होगा कि वे कहां है।
२) द्रव्यानुयोग, करणानुयोग पढ़ते वक्त जब आप तत्व पढेंगे, तो वो सारे तत्व सम्पूर्ण तीन लोक में सत्य है यह विशेष रूप से समझ में आयेगा।

तत्व चिन्तन/ध्यान करते समय फ़ायदे:
१) जब शास्त्र में बतायेंगे: ’सारे संयोग नश्वर हैं’- तो हम पूरे तीन लोक को दृष्टि में लेकर सोच सकेंगे और एक दम स्पष्ट समझ में आयेगा कि वास्तव में सारे संयोग नश्वर ही हैं।
२) जब शास्त्र में बतायेंगे: ’मेरा कोई नहीं’ - तो हम पूरे तीन लोक को दृष्टि में लेकर सोच सकेंगे कि वास्तव में मेरा तीन लोक में किसी स्थान विशेष में या काल विशेष में ना कोई मेरा था, है और होगा।
३) जब पूजा में हम पढते हैं ’शान्ति करो सब जगत में, चौबीसो भगवान’ - तो हमारी भावना अपने देश और पूरे तीन लोक के चारो गतियों के जीवो को समाहित कर लेगी।
३) ऐसी ही सारे तत्व की बाते(बारह भावना) तीनो लोको पर घटाने से विशेष विशुद्धि हमारी बनेगी।

वैराग्य की उत्पत्ति में फ़ायदा:
१) जब तक तीन लोक नहीं जाने तो यह भी कोई सोच सकता है ’क्या पता मोक्ष के अलावा भी कहीं शाश्वत सुख हो’ अथवा ’क्या पता कोई ऐसा विषय सुख होता हो जो हमेशा अपने साथ रहे’। यह संशय टूट जाते हैं, जब तीन लोको के बारे में स्पष्टिकरण हो जाता है।
२) सम्पूर्ण तीन लोक को जानने पर संसार से छुटने का मन, और मोक्ष प्राप्त करने का मन सहज होने लगता है।

मुनि महाराज जी भी संस्थान विचय में लोक का ध्यान, और बारह भावना की लोक भावना भाते हुये तीन लोक का चिन्तवन करते हुये अपनी आत्मा को पवित्र करते हैं।

ऐसे ही तीन लोक को जानने से मनन करने से हमारा दृष्टिकोण विकसित हुआ, और हमें अनेक जगह इसका लाभ होगा।

मैं किसी को छूता ही नहीं

वास्तविक जगत और जो जगत हमें दिखाई देता है उसमें अन्तर है। जो हमें दिखता है, वो इन्द्रिय से दिखता है और इन्द्रियों की अपनी सीमितता है। और जो ...