Friday, October 28, 2011

Poem: kshamaSagar Ji क्षमासागर जी

जैसे बङा है क्षीरसागर, जिसका कोई अन्त नहीं
ऐसी भरी है तुममे क्षमा, जिसकी कोई सीमा नहीं

करूणा सागर, दया सागर, कितने ही तेरे नाम धरूं
शब्द पढ़ जायें सीमित, कैसे इनमें भक्ति भरूं

वाणी कोमल, कठिन चर्या, कर्म परिक्षा ले रहे
ज्ञान खङग लेके सजग तुम, इसमें सफ़ल हो रहे।

जिनवाणी माता के दुलारे, तुम उसके प्यारे पुत्र हो
तुमको दिलाये ऐसे गुरूवर, जिनकी विद्या असीम हो

इन्द्र, नरेन्द्र तुम नाम लेकर, सदा धन्य हो जाते हैं
तुम्ही उत्तम, तुम्ही मंगल, तुम्हारे गुणो को वें गाते हैं

तुम आत्मा में सजग रहकर, सदा समता रखते हो
सब मित्र और शत्रु से, एक ही मैत्री रखते हो

बन जाऊं तुम जैसा, कैसा वो दिन होगा
निज आत्मा में रच पच जाऊं, तभी असली सुख होगा

करूणा, मैत्री, वात्सल्य भावो से, भिगा दूं इस तन मन को
क्रोध, भय थर थर कांपे, जगा दू मैं दस धर्मों को ।

पंचमकाल में करो साधना, तुम्ही मेरे गुरूवर हो
मुझको भी तुम दे दो दीक्षा, धन्य तभी यह जीवन हो

मैं किसी को छूता ही नहीं

वास्तविक जगत और जो जगत हमें दिखाई देता है उसमें अन्तर है। जो हमें दिखता है, वो इन्द्रिय से दिखता है और इन्द्रियों की अपनी सीमितता है। और जो ...