Wednesday, April 29, 2020

तीन तरह के शत्रु


तीन तरह के शत्रु होते हैं
१. पहल वो जो छूरी लेके आता है, और तुम्हारे ऊपर घात करता है।
२. दूसरा वो छूरी बगल में लेके आता है, पहले आपसे अच्छी बाते करता है, ऐसी बाते करता है जिससे आपको लगे कि वो आपक हितैषी है और फ़िर मौका देखकर वार कर देता है। यह पहले वाले से खतरनाक है।
३. और तीसरा होता है। वो भी बगल में छूरी लेके आता है, आपसे अच्छी बाते करता है, विश्वास जीतता है, और मौका मिलने पर ऐसा वार करता है कि आपको घांव हो जाता है मगर आपको पता नहीं पङता कि किसने किया। और वो आपका विश्वासपात्र बना रहता है, और आपको घात भी करता रहता है। आप अज्ञानवश ऐसे शत्रु से बार बार पीङित होते रहते हो। और ठगाये जाते रहते हो। ये महाखतरनाक शत्रु है।

ये घर परिवार भी ऐसे ही शत्रु है। जिससे हम अनादि काल से राग करते हैं। जब पक्षी बनते हैं तो घोसला बनाके उससे राग करते हैं, जब सांप बनते हैं तो बिल से, जब शेर बनते हैं तो गुफ़ा से और जब मनुष्य बनते हैं तो मकान से, परिवार से। इस राग वश अनेको पाप करते हैं। उस घर के लिये भाई भाई से लङ जाता है, झूठ बोलता है, क्रोध करता है, मायाचारी करता है, अन्याय करता है। कितना दुर्ध्यान करता है और दुर्गति को जाता है, और अगली गति में जाकर भी यही करता है।

मगर यह घर परिवार का राग ऐसा ठगिया है जो मीठा तो लगता है मगर पीछे से भयंकर घांव करता रहता है। और हमारे दुखी होने का प्रबन्ध बनाये रखता है। और हम मुर्ख इस शत्रु से ठगाये जा रहे.. हर भव में ठगाये जा रहे हैं…। विचार करो - कि तुम मुर्ख हो या बुद्धिमान?

Monday, April 6, 2020

[नीती] ग्रहण और त्याग

जीवन में कुछ छोङना हो या ग्रहण करना हो तो उसके गुण और दोषो का, उससे होने वाले लाभ और अलाभ का सम्यक विचार करो। उसके ग्रहण या त्याग से मेरे को क्या सुख होगा, या क्या दुख होगा। इसका पूर्ण विचार करो, तभी उसके ग्रहण या त्याग में तीव्र अनुराग होगा और उसमें पुरूषार्थ भी सच्चा होगा।

त्याग या ग्रहण करने वाली चीजे छोटी भी हो सकती हैं या बढ़ी भी। छॊटी चीजे जैसे टीवी को देखना छोङ देना इत्यादि। बढ़ी चीजे जैसे साधु बन जाना या व्रत ले लेना।

जो वर्तमान में ग्रहण या त्याग किया है उस पर भी विचार करना चाहिये कि उसमें मेरे को फ़ायदा है या नुकसान। और विचार कर जो सम्यक लगे वैसा चारित्र में लेना चाहिये

अपना कल्याण पहले या दूसरो का?


अगर दूसरो का कल्याण में ही लग जाते हैं, तो अपना कल्याण गौण हो जाता है। दूसरे के कल्याण भी उतना ही हो पाता है जितना मेरा दानान्तराय का क्षयोपशम है और अन्य कर्मो की अनुकूलता है।

इसकी जगह अगर जीव विशुद्ध भावो से अपने कल्याण में ही लग जावे तो सातिशय पुण्य का बन्ध करता है और भविष्य में अपने आत्म उत्थान करने के बाद ज्यादा जीवो का कल्याण करता है।

अगर अपना कल्याण गौण करके दूसरो के कल्याण में ही लग जाता है तो अपना कल्याण भी विलम्ब को प्राप्त होता है और अपने वर्तमान में हीन कर्मो से उतना पर कल्याण भी नहीं कर पाता।

अतः अपना कल्याण मुख्य करे और अपने कल्याण में जब-जब स्थिरता ना बन पा रही हो तो थोङा समय पर कल्याण में देवें। एक सम्यक सन्तुलन बनाकर चले। मुख्यता स्व कल्याण की रहे।

मैं किसी को छूता ही नहीं

वास्तविक जगत और जो जगत हमें दिखाई देता है उसमें अन्तर है। जो हमें दिखता है, वो इन्द्रिय से दिखता है और इन्द्रियों की अपनी सीमितता है। और जो ...