Friday, December 10, 2010

12 Bhavana

अनित्य भावनाः
राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार ।
मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार ॥

अशरण भावनाः
दल बल देवी देवता, माता-पिता परिवार ।
मरती विरियाँ जीव को, कोइ न राखनहार ॥

संसार भावनाः
दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णा-वश धनवान ।
कहूं न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ॥

एकत्व भावनाः
आप अकेलो अवतरैं मरै अकेलो होय ।
यूं कबहूँ इस जीव को, साथी सगा न कोय ॥

अन्यत्व भावनाः
जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपनो कोय ।
घर सम्पति पर प्रकट ये, पर हैं परिजन लोय ॥

अशुचि भावनाः
दिपै चाम-चादर मढ़ी, हाड़ पींजरा देह ।
भीतर या सम जगत मैं, और नहीं धन-गेह ॥

आस्रव भावनाः
मोह-नींद के जोर, जगवाही घूमे सदा ।
कर्म – चोर चहूं ओर, सरवस लूंटे सुध नहीं ॥

संवर भावनाः
सतगुरू देय जगाय, मोह-नींद जब उपशमै ।
तब कछु बनै उपाय, कर्म-चोर आवत रुकै॥

निर्जरा भावनाः
ज्ञान-दीप तप-तैल भर, घर शौधे भ्रम छोर,
या विध बिन निकसै नहीं, बैठे पूरब चोर ॥
पंच महाव्रत संचरण समिति पंच परकार,
प्रबल पंच इन्द्रिय विजय धार निर्जरा सार ॥

लोक भावनाः
चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुर-संठान ।
तामैं जीव अनादि तैं, भरमत हैं बिन ज्ञान ॥

बोधि-दुर्लभ भावनाः
धन-कन कंचन राज-सुख, सबहि सुलभ करि जान ।
दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान ॥

धर्म भावनाः
जाँचे सुर-तरु देय सुख, चिंतत चिंता रैन ।
बिन जाँचे बिन चिंतये, धर्म सकल सुख दैन ॥

मैं किसी को छूता ही नहीं

वास्तविक जगत और जो जगत हमें दिखाई देता है उसमें अन्तर है। जो हमें दिखता है, वो इन्द्रिय से दिखता है और इन्द्रियों की अपनी सीमितता है। और जो ...