Monday, May 5, 2025

जीव का आकार क्या?

 जीवको दु.ख-सुख का वेदन समस्त शरीर मे ही होता है, किसी मस्तिष्क आदि नियत अणुमात्र स्थानमे नही । यदि शरीर के अन्य भागोमे जीव नही है,

तो सुख-दुःखको वहाँ कौन महसूस करता है ? वहाँ सुख-दुख होना ही नही चाहिए । यदि कहा जाये कि नाडियोंके द्वारा उस दु.ख-सुखका वेदन मस्तिष्क तक पहुँच जाता है और वहाँ बैठा हुआ वह अणुमात्र जीव उसका वेदन कर लेता है, जिस प्रकार टेलीफोनद्वारा आपकी बातको दूरस्थ व्यक्ति भो सुन लेता है । सो भो ठोक नही है, क्योकि इस प्रकार तो दुख सुखकी प्रतीति सब जीवो को केवल मस्तिष्क मे हो हुआ करती । पाँव मे फोडा होता और पीडा मस्तिष्कमे होती । क्योकि टेलीफोन द्वारा सुननेवाला आपकी बात सुनता तो अवश्य है, परन्तु उसे अपने पास मे ही सुनता है, आपके पास मे नही । परन्तु ऐसा यहाँ नही है। शरीरके जिस भाग में पोडा होती है उसो भागमे वह महसूस होती है।


यदि इस दोष को दूर करने के लिए यह कहा जाये कि पूरे शरीर मे व्याप्त वह प्रकाश ही महसूस कर लेता है, तब पूछना यह है कि वह प्रकाश जड है कि चेतन। यदि वह जड है तो महसूस नही कर सकता, यदि चेतन है तो वह जीव पदार्थ हो हुआ । और इस प्रकार जीवको सारे शरीर मे व्याप्त स्वीकार कर लिया गया।


यदि इस दोषको दूर करनेके लिए यह कहा जाये कि प्रकाश तो ज्ञानरूप है, जीव-पदाथ रूप नही। जिस प्रकार आप अपने स्थान- पर बैठे बैठे अपने ज्ञान द्वारा दूर-देशस्थ वस्तुको भी जान जाते हैं और उन्हे वहाँ-वहाँ रखी हुई ही जानते हैं, इसके लिए आपको फैलकर वहाँ जाना नही पडता, इसी प्रकार अपने स्थानपर बैठे बैठे ही अणुमात्र जीव अपने ज्ञान-प्रकाश द्वारा वहाँ-वहाँ को पीडाका अनुभव कर लेता है, और वह वेदन उसे वहाँ-वहाँ ही प्रतीत होता है जहाँ-जहाँ कि वह है। यह भी ठीक नही है : ज्ञान द्वारा जाननेका दृष्टान्त यहाँ लागू नही होता क्योकि जानने व महसूस करनेमे बहुत अन्तर है । आप दूसरो को तडफता हुआ देखकर ज्ञान द्वारा महसूस नही कर सकते । महसूस तो अपने शरीरकी पोडा ही होती है।

अत सिद्ध हुआ कि जीव अणुमात्र नही बल्कि असख्य-प्रदेशी है और छोटे व बडे शरीरोमे स्वय सिकुडकर, या फैलकर या व्याप कर रहता है ।

अन्य दर्शनकार उसे सर्व-व्यापक ही मानते हैं । उनका कहना है कि अखण्डित नित्य तथा सत् पदार्थ दो ही हो सकते हैं-अणु-रूप या सर्वव्यापक, जैसे कि परमाणु तथा आकाश । परन्तु उनका यह कहना भी कुछ अधिक विद्वत्तापूर्ण प्रतीत नहीं होता । मूल पदार्थ को अणु तथा सर्वव्यापक सिद्ध करनेके लिए अखण्डत्व, नित्यत्व तथा सत्त्वका हेतु देना दोषपूर्ण है, क्योकि ऐसा नियम नहीं देखा जाता । सभी जीव पृथक्-पृथक् अपने-अपने सकल्प-विकल्पों के तथा ज्ञान आदिके कर्ता हैं और अपने-अपने दुख-सुखके भोक्ता हैं। अपने-अपने ही कर्ता हैं ओर अपने-अपने ही कर्मफल अर्थात् पुण्य-पाप आदि के भोक्ता है। इस दोषको दूर करने के लिए वे हेतु देते है कि वास्तव मे आत्मा तो एक तथा सर्व-व्यापक ही है, परन्तु प्रत्येक शरीरके अन्त करणमे उसका प्रतिबिम्ब

पृथक् पृथक् रूपसे पड़ रहा है इसलिए सब पृथक् पृथक् प्रतिभासित होते है, सो भी बात युक्तिकी कसौटीपर ठीक नही बैठतो । क्योकि ऐसा हुआ होता तो एक साथ ही सब जीवोको क्रोध, दु.ख व सुख, निद्रा व जागृति आदि होनी चाहिए थी, जैसे कि एक ही व्यक्तिके अनेको दर्पणोमे पडे हुए सर्व प्रतिबिम्ब, उस व्यक्ति के हिलने-डुलने पर एक साथ ही हिलते-डुलते प्रतिभासित होते हैं । जीवोकी पृथक् पृथक् क्रियाओ पर-से, उनके पृथक् पृथक् स्वभावो पर-से तथा पृथक् पृथक् भोगो पर-से अथवा सुख-दुखपर-से यही बात सिद्ध होती है कि जितने कुछ भी कीडेसे मनुष्य पर्यन्त छोटे-वडे प्राणी दृष्टिगत होते हैं, उन सबके शरीरोमे भिन्न-भिन्न जीव हैं|

Reference: पदार्थ विज्ञान/अध्याय ४/ बिन्दु १० - जिनेन्द्र वर्णी जी। https://shorturl.at/1XwRU



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