"जिस पर्याय की तुम प्रशंसा कर रहे हो, उसे तो त्यागने को मैं उद्यत हुआ" - ऐसा विचार करते हुवे मोक्षमार्गी को प्रशंसा में सुख अनुभूत नहीं होता। और ना ही प्रशंसा की इच्छा होती है।
Thursday, April 28, 2022
Thursday, April 21, 2022
स्वार्थ के साथी
कार्यार्थ भजते लोके न कश्चित् कस्यचित्प्रियः।
वत्सः क्षीरक्षयं दृष्ट्वा स्वयं त्यजति मातरम्।।सम्यक्त्व कौमुदी।।
श्लोकार्थ-
संसार में कार्य के लिए ही कोई किसी की सेवा करता है परमार्थ से कोई किसी का प्रिय नही है। दूध का क्षय देखकर बछढ़ा स्वयं ही माता को छोड़ देता है।।
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स्पष्टीकरण-
प्रत्येक जीव परमार्थ से अपनी मान्यता, अपने राग और अपने द्वेष से ही राग करता है। इसकी पूर्ति में चेतन अचेतन जो भी परद्रव्य सहयोगी स्वरूप बन जाए तो वह भी इनसे राग करता हुआ भासित होता है।
और जब इसकी पूर्ति रुक जाती है तब राग करना अपने आप रुक जाता है। इसी को कहते है "सब स्वार्थ के है भीरि"।
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सावधानी-
यहां आचार्य देव ने यह कथन शोक और भय में जाने के लिए नही किया हुआ है वरन शोक और भय से बचाने के लिए विपरीत मान्यता जन्य अतिरागादि से दूर रहने के लिए किया हुआ है।
कारण कि जब रिश्तों का सम्यक् स्वरूप समझ में आता है तब रिश्तो के प्रति अति अपेक्षा और अति उपेक्षा से रहित अनासक्त भाव से जीने का लाभ प्राप्त होता है। जिससे हमारा जीवन दुर्ध्यान रहित धर्मध्यान सहित होकर मंगलमय बन जाया करता है।
✍शैलेश जैन सोनागिर……
बारसाणुवेक्खा गाथा 21: मादापिदरसहोदरपुत्तकलत्तादिबंधुसंदोहो। जीवस्स ण संबंधो णियकज्जवसेण वट्टंति ॥21॥
= माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, आदि बंधुजनों का समूह अपने कार्यके वश संबंध रखता है, परंतु यथार्थ में जीवका इनसे कोई संबंध नहीं है। अर्थात् ये सब जीवसे जुदे हैं।
मैं किसी को छूता ही नहीं
वास्तविक जगत और जो जगत हमें दिखाई देता है उसमें अन्तर है। जो हमें दिखता है, वो इन्द्रिय से दिखता है और इन्द्रियों की अपनी सीमितता है। और जो ...
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