Friday, June 22, 2007

Compassion-helping others

Helping others:

Guidleline for compassion:
1. If it helps himself in his own path, by helping others, he does.
2. without disrupting his own path, if he is able to help someone, then he does. (in Hindi: Apni sadhna bhanga na hote hue kisi ki madad ho sake tau kar deta hai")

From Guideline No 1:
Compassion helps keep ahimsa vow stabilized. If one has compassion, he will do less killing from word, body and mind. This is given in Tatvartha sutra chapter 7.
There would be some other advatnages, which I thought about, and found some from scriptures:


For householder: [/b][/i]

Householders have to do ashubha bhaav the whole day because of their job, family, food etc. Therefore they may develop a feeling of "do not care" while they do hinsa. Hinsa can not be avoided as a householder, and over the time hinsa becomes a habit and they develop a feeling of "do not care" which is hinsa. Actually householders should try to minimize hinsa, and whatever hinsa they do, they should have feeling "self-critization, or repentation" in their heart. Therefore, it is recommended for them involve in activities which retain compassion in their heart- helping others help them retain compassion which keeps motivating them to minimize hinsa.

When he preaches others, he gets benifits of same kind as saints get, which are descripbed below. When he serves old people, his detachment feeling from the world increases, which motivates him to make efforts for liberation and hence helps in his sadhana. When he serves people who are suffering, it increases his emotions of compassion, which helps him win ahimsa.

[i][b]For saint: [/b][/i]

When a saint preach others- his belief himself gets strenghtened, and he himself gets encouraged to proceed further. Also preaching others washes his papa karma and build punya karma which helps him in this birth and next births for favourable conditions to liberation.

A saint has less attachment and less ashubha bhaava than a householder, therefore he does not have to go out and help others to retain his compassion. Mostly preaching is recommended for him. In both case of householder and saint, balance is needed for helping others. Not only just for compassion, but also for reading scriptures, thinking, tapa, daan, meditating and all activities there is a balance.
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Householder are fo two types: One who try to meditate as saint does. And others who just follow somewhat religion. So how much they should help and have compassion, it depends on where they lie- towards the saint, or towards someone who just follow religion.

[b]From Guideline No 2:
[i]For Householder: [/i][/b]

He helps by preaching the right things, helping poor, helps by serving old people. However when he is onto meditaion and tide of detachment feelings are high, same thing applies to him as to a saint.

[i][b]For saint: [/i][/b]

He is saint with the objective to be in shudha bhaava. However when he see people suffering in cycles of birth and death form ignorance- he preaches them. However if he has detaichment feelings taking tide he does not, as I talked about oin last post. And if he is full of compassion, he does.
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I also would like to know if one should continue helping others even if he/she is more advanced in the path. For example, it is good for a muni continue to making efforts to help others – through social activities, voluntary work, for example – or just be engaged in meditations? My opinion is if he/she is overcoming attachments there will be no harm to help others because attachment is in the mind, not in the objects of the senses. But will such efforts really help others?
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No it is not recommended for them to do social activities. Only mediation, and other things. Actually there is a relation between "objects of the senses" and "attachement in mind". "Objects of the senses" definitley affect the attachement in mind, and hence it not recommended as a regular practice. This duty fall under the bucket of householders, as per digamber jain scriptures.

Tuesday, June 5, 2007

Neetis

Neeti = Rule of thumbs in society, or in religion, in general

Some Neetis:
1. ध्यान एक मे होता है, चर्चा 2 मे होती है, यात्रा 4 मे होती है.
२. गांव के भले के लिये एक को छोङो, देस्ग के भले के लिये गांव को छोङ दो, और अपने भले के लिये देश को छोङ दो। (इस प्रकार नीति मे जो आत्मा के भले के लिये दुनिया को छोङने की कही, यह धर्म से मिलती है।)
3. पाप से घृणा करो पापी से नहीं ।
4. शुभस्य शीघ्रम: जो अच्छा काम उसे जल्दी से कर लो, और जो पाप काम हो उसे स्थगित करते रहो
5. राग को तोङना हो तो इष्ट का वियोग करते रहना, द्वेष को तोङना हो तो अनिष्ट का संयोग करते रहना
6. मूर्खो की बातो को सुना नहीं जाता।
7. व्यक्ति अज्ञान में प्रतिकूलता मे तो कर्मो को दोषी ठहराता है, और अनुकूलता में अपने पुरूषार्थ को सराहना देता है।
8. हजारो मूर्खो की प्रशंसा से एक बुद्धिमान व्यक्ति का तमाचा खाना अच्छा है।

ब्रहंचर्य:


  • Apart from your woman, considering all other women to be your mother, sister or daugther is Brahamcharya.

दान:



  1. जो मूर्ख मनुष्य कुटुम्ब को पीङा पहुँचाकर शक्ति से बाहर दान देता है उसे धर्म नहीं कहा जाता किंतु वह पाप है, क्योन्कि उससे दान करने वालि को देश छोरना पङता है।

  2. जिन मत मे श्रधा करने वाला मनुष्या, कर्मो का नाश करने के उद्देश्या से दान करता है. (पेज 19, नीति वाक्यामृटुम)

  3. अभायदान: अभायदान से शून्य व्यक्ति परलोक मे कल्याण की कामना से कितनी भी शुभ क्रियाएँ(जप, तप इत्यादि) क्यों ना करे, वे सब निष्फल ही होती हैं.

  4. इस लोक और परलोक संबंधी सूखो की प्राप्ति के लिए पात्रो को धन इत्यादि देना त्याग धर्म है.

अचौर्य:


  1. A person who has earned money, but he has a doubt whether it is his money or someone else's- then it should be considered as others.
तप:


  1. जो मनुष्य अपने शरीर को कष्ट पहुँचाकर व्रतो का पालन करता है, उसकी आत्मा संतुष्ट नहीं होती, इसलिए उसे आत्मा संतोष के अनुकूल तप करना चाहिए
दान vs दया:



  1. एक पुरुष सुमेरू पर्वत जितनी स्वर्ण राशि का दान कर देता है परंतु यदि कोई दूसरा व्यक्ति एक प्राणी के जीवन की रक्षा करता है तो इस जीव की रक्षा के सामने उस महादान की तुलना नहीं हो सकती. सन्क्षेप मे- अभयदान वाले को विशेष फल मिलेगा.
सम्यक ग्यान:



  1. If one's mind is not polluted by jealousy, attainment of tatvagyan is not tough. - Neeti Vakyamritam page 5
काय क्लेश


  1. काय क्लेश के बिना आत्मा मे विशुढ़ि नहीं होती. (प्रष्ठ 13, नीति वाक्याम्रतमं)
पारिग्रह:



  1. People who inspire their minds in earning more money, their expections do not bring fruits. Because applying mind in useless things does not fulfill desires. (page 11, Neeti Vakyamritum)
अहिंसा:



  1. विवेकी पुरुषो को जू, ख़टमल, डांस, मच्छर आदि जीवो की भी बच्चो की तरह रक्षा करनी चाहिए; क्योंकि प्राणिओ की रक्षा सर्वश्रेष्ठ है, इसका त्याग करने से वैर भाव का संचार होता है.
सम्मान:


  1. अधर्मी लोगो के सम्मान आदि से श्रावक का सम्यक दर्शन दूषित होता है; जिस प्रकार स्वछ पानी भी विषैले बर्तन मे प्राप्त होने से विषैला हो जाता ह
कृपण:


  1. जिस धन के द्वारा शरण मे आए हुए आश्रितो का भरण पोषण नहीं किया जाता वहा कृपण का धन व्यर्थ है.

  2. जिस प्रकार तलवार घातक है उसी प्रकार लोभी का धन भी धार्मिक कार्यो मे ना लगने से उसका घातक है; क्योंकि उससे उसे सुख नहीं मिलते उल्टे दुर्गति के दुख होते हैं.
ध्यान:



  1. जो व्यक्ति इंद्रियों को वश मे किया बीने शुभ ध्यान करने की लालसा रखते हैं, वहा मूर्ख अग्नि के बिना जलाए ही रसोई बनाना चाहता है.
पाप:



  1. बुढ़िमानो को अपने प्राणो के त्याग का अवसर आने पर भी पाप कर्म नहीं करना चाहिए.
काम, अर्थ और धर्म:


  1. काम और अर्थ छोङकर केवल धर्म सेवन ग्रहस्थ के लिए विशेष लाभदयक नहीं (प्रष्ठ 37, सूत्र 46- नीति वाक्यामृटुम)
ईर्ष्या


  1. इर्ष्या के विचारो को अपने मन मे ना आने दे, क्योंकि इससे रहित होना धर्मचरण का अंग है.
पुरुषार्थ:



  1. "यहा काम अशक्य है", - ऐसा केहकर किसी भी काम से पीछे मत हटो, क्योंकि पुरुषार्थ प्रत्येक काम मे सिद्धी देने की शक्ति है.
धैर्य :


  1. जब तुम पर कोई आपदा आ पङे , तो तुम हँसते हुए उसका सामना करो; क्योंकि मनुष्य की आपति का सामना करने के लिए मुस्कान से बङकर अन्य कोई वस्तु सहायक नहीं है.

  2. चंचल मॅन वाला मनुष्य भी मॅन को एकग्रा कारकर जब सामना करने को ख़रा होता है, तो आपत्तियों का लहरता हुआ सागर भी शांत हो बैठता है.

  3. लोगो का अधीरता दोष समस्त कार्यो की सिधी मे बाधक है.


मधुर भाषण:



  • नम्रता और प्रिय संभाषण- बस ये ही मनुष्य के आभूषण हैं, अन्य नहीं.

  • मीठे शब्दो के रहते हुए भी जो मनुष्या करवे शब्दो का प्रयोग करता है, वह मानो पक्के फलो को छोरकर कच्चे फल ख़ाता है.

क्रतग्यता:



  • उपकार को भूल जाना नीचता है; लेकिन यदि कोई भलाई के बदले बुराई करे, तो उसे भुला देना बड़रपपन का चिन्ह है.
गुरु:


  • गुरु के दोषो का परिषह करो
  • चाहे शिष्य गुरू से भी ज्यादा ज्ञानी हो जाये, फ़िर भी वह गुरू की विनय करता है- क्योंकि गुरू इसलिये ज्यादा महान है, क्योंकि उनका ज्ञानदान का उपकार है।
Daily activities of householder:


  • One should wake up in Brahma muhurta

  • Exercising(Vyayaam) in the morning is benificial like anything.

  • Vyayaam = danda, baithak, drill etc, shastra sanchalan etc

  • One who does not do Vyayaam, he has problems with Jatharagni, energy in body and strength in body

  • If one touches a दुष्ट, he should take bathe.

  • जो व्यक्ति देव,शास्त्र, गुरु की उपासना के उद्दश्य से स्नान नहीं करता, उसका स्नान पशु के स्नान के समान निरर्थक है.

  • भूखे और प्यासे मनुष्य को माली के बाद स्नान करना चाहिए.

  • गरम शरीर के बाद स्नान नहीं करना चाहिए.

  • The time to eat is when you get hungry. One should not eat if he is not hungry.

  • शीतल, मंद, सुगंध वायु मे संचार करने से मनुष्य का शरीर निरोगी तथा बलीष्ट हो जाता है.

  • निरंतर बैठे रेहने से मनुष्य की जटराग्नि मंद, स्थूल शरीर , आवाज़ मोटी और मान्सिक शक्ति दुर्बल हो जाती है ।

  • अत्यंत शोक करने से जवानी मे भी मनुष्या का शरीनिर्बल हो जाता है, इसलिए शोक करना उचित नहीं है.

  • नैतिक पुरुष दूसरी स्त्री के साथ एकांत भी मे ना बैठे, चाहे वह उसकी माता भी क्यों हो. क्योंकि इंद्रियों को काबू मे रखना निश्चित नहीं है, इसलिए वो विद्वान को भी अनीति के मार्ग की और आकर्षित कर देती है.

  • मनुष्या को अत्यंत क्रोधित होने पेर भी अपने माता-पिता आदि हितैषी पुरुषो के साथ अशिष्ट व्यवहार और निरादर नहीं करना चाहिए.
सदाचार:


  • धैर्य को छोङ्कर रोग-पीङित मनुष्य की दूसरी कोई उत्तम औषधि नहीं

  • मनुष्यों को भय के स्थानो मे घबङाना नहीं चाहिए, किंतु धैर्य धारण करना ही उपकराक है.

  • The archer is criticisable who is not able to concentrate on his arrow in the war-field. Similarly, a tapasvi is criticizable who does not engage himself in aatma darshan, dhravan, manan, etc- but get engaged in his body, health, and sensual comforts(bhog).

  • चिरकाल पर्यन्त शोक करने वाला व्यक्ति अपने धर्म, अर्थ और काम पुरुषार् को नष्ट कर देता है, इसलिये व्यक्ति को इष्ट वस्तु के वियोग मे शोक नही करना चहिये ।

  • अपनी रक्षा करने के लिए शरण मे आए हुए शरणार्थी पुरुषो की परीक्षा करना व्यर्थ है. मतलब, की उनकी परिक्षा के प्रपंच मे ना पङकर सहार्दयता से उनकी सेवा करनी चाहिए.

  • राजस्वला स्त्री को सेवन करने वाला चन्डाल से भी अधिक नीच है.
Vyavhaar Sammuddesh:


  • पुरुषो को स्त्री रूप बंधन सांकलो का ना होकर के भी उससे कहीं अधिक मज़बूत है क्योंकि स्त्री के प्रेम पाश मे फँसे हुए मनुष्य का उससे छुटकारा पाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है और इसी कारण वह आत्मकल्याण के उपयोगी नैतिक धार्मिक सतकार्यो से विमुख रहता है

  • तीर्थस्थनो पर रहने वाले मनुष्यो की प्रकृति अधार्मिक, निर्दयी और छल कपटपूर्ण होती है.

  • पतीव्रता स्त्री को पति के सुख दुख मे उसके साथ एक जैसा प्रेमपूर्ण वर्ताव करना चाहिए

  • उस मनुष्य का ज्ञान निंढ़ है जिसकी चित्वृत्ति विधा के गर्व से दूषित हो चुकी है

  • अपनी विधामन संपत्ति से संतुष्ट ना रहने वाले शिष्ट पुरुषो की संपत्ति निंढ़ है, क्योंकि वे लोग त्रिष्नावश दुःखी रहते हैं; अतः संतोष धारण करना चाहिए

  • सतपुरुष दूसरे की बुराई सुनकर ऐसे अनसुने बन जाते है मानो कि वे बहरे ही हो।

  • ’दूसरो के दोष न सुनना’ महापुरुषो का कर्तव्य है।

  • वादिभसिन्ह सूरि ने अपने दोषो पर द्रष्टी रखने वाले को मोक्षमार्गी बताया है।

  • बुधीमान को अपने ग्रह मे पदार्पण किये हुए शत्रु का भी सम्मान करना चहीये। फ़िर क्य महापुरुष का नही करना चहीये।

  • नीतिवाक्यम्रतम प्रष्ठ ३५१: विवेकी मनुष्य को ग्रह के मध्य मे रक्खे हुए उत्तह्म धन के समान अपना धर्म प्रकाशित नही करना चहीये।

  • गर्व, काम, क्रोध कषाय वश होने वाले दोषो की शुधी के लिये निम्न तीन उपाय है:-


    • अपने दोषो को गुरुजनो के समक्ष प्रकट करना

    • किये हुए दोषो पर पश्चाताप करना

    • प्रायशचित करना

  • जबकि साधु पुरुष भी धनाढय पुरुष की प्रशन्सा करते है फ़िर साधारण लोगो का तो कहना ही क्या है? वे तो उसकी प्रशन्सा करते ही है।

  • पर्व बनाने की सर्थकता तभी है, जबकि इस अवसर पर अतिथीयो और कुटुम्बीजनो को दान-सम्मान द्वारा अत्यन्त सन्तुष्ट किया जावे।

  • दूसरे से प्रीति उत्पन्न करके उससे अपना प्रयोजन सिद्ध करना ’चातुर्य’ नामक सद्गुण कहा है।

  • शुक्र ने भी सामनीति द्वारा अपना प्रयोजन सिद्ध करने वाले को चतुर और दन्ड-भेद-आदि द्वारा अपना प्रयोजन सिद्ध करने वाले को मूर्ख कहा है।
मित्रता:


  • मित्र उसे बनाया जाता है जिसमे कम दोष हो गुण ज़्यादा हो. जो व्यक्ति केवल गुणो वाले व्यक्ति को मित्र बनाना चाहता है, उसके मित्र नहीं होते.

  • हन्सी-मसखरी करने वाले गोष्ठी का नाम मित्रता नही है, मित्रता तो वसतव मे वह प्रेम है, जो ह्रदय को आहलादित करत है।

  • जो पुरुष सम्पत्तिकाल की तरह विपत्तिकाल मे भी स्नेह करता है, उसे मित्र कह्ते है।

  • जो मनुष्य तुम्हे बुराई से बचाता है, सुमार्ग पर चलाता है और जो तुम्हे सन्कट मे साथ दे, बस वही मित्र है।

  • सच्ची मित्रता वही है, जिसमे मित्र आपस मे स्वतन्त्र रहे और एक दूसरे पर दबाव ना दाले। विग्यजन ऐसी मित्रता का कभी विरोध नही करते।
आलस्य-उत्साही:


  • आलस्य सभी आपत्तियो क द्वार है - आलसी समस्त प्रकार के कष्ट भोगता है।

  • उत्साही पुरुष मे शूरता, दूसरे व्यक्तियो के द्वारा अनिष्ट किये जाने पर क्रुद्ध होना, कर्तव्य शीघ्रता, व प्रशस्त कार्य चतुराई से करना ये गुण होते है।
एकान्तपना:


  • एकान्त हट छोङकर परीक्षा ना करोगे तो विवेक नही होगा और विवेक ना होने से ग्यान मे यथार्थता न आवेगी और यथार्थ ग्यान के बिना स्वभाव प्रकट नही होगा।(अध्यात्म सूत्र, प्रष्ठ ४०)
वैराग्य:


  • पुत्र दुष्ट है, ऐसा विचार मत करो किन्तु वह हमारे लिये दुख का कैसा निमित्त है सो विचारो।

  • भावना होनी चहिये कि सन्योग ना मिले

  • मुमुक्षु को ग्रहस्थी मे रहना पङे तो सन्योगो को स्वपनवत देखो।

  • शुद्ध भाव को करने वाला भाग्य की इच्छा नही करता। भाग्य की इच्छा करने का मतलब हुआ उपाधी की इच्छा करना, सन्योग की इच्छा करना और दुख की इच्छा करना।

  • दूसरे से ग्लानी करने की आवश्यकता नही। ग्लानी करो तो अपनी कषायो से करो जो स्वयं दुखरूप और दुख का कारण है, सन्सार मे परिभ्रमण कराती है।

  • यह सोचना झूठ है कि अमूक हमारा कहना मानता है निभाता है। अरे वह तो अपनी कषाय के अनुकूल परिणमन होता है। और स्नेह भी कौन किससे करता है, कौन किसकी आज्ञा मानता है, सब अपने अपने कषायो की पूर्ति करते रहते हैं।

  • मोह से पति पत्‍नि पति होते हैं, वह गया सारा संसार सामान्य मे लीन हो जाता है।

  • (imp) स्वाश्रित कार्य ही ठीक और पराश्रित विडम्बना रूप होते हैं। नौकर आराम से रखते परन्तु उससे उतना सुख नहीं मिलता जितना कि उसकी चिन्ता देखभाल डांट डपट आदि मे दुख होता है

  • कसौटी: निर्ग्रन्थ पथ का उत्साह होना चाहिये, जबरदस्ती का उत्साह कोई कार्यकारी नही। इस पथ मे सुख होने का भावभासन होना चहिये।
  • कषाय का जो आदर भाव जीव के ह्रदय मे बैठा हुआ है और उसी तरह की जो परिणति चलती है, वह उसके दुःख का कारण है ।
  • कषाय क जो आदर भाव जो जीव के ह्रदय मे बैठा हुआ है और उसी तरह की जो परिणति चलती है, वह उसके दुःख क कारण है।
  • सम्यग्ज्ञानरूपी दीपक को प्रकाशित किया जाये तब उसके प्रकाश मे राग द्वेषादि चोरो का ठहरना कठिन हो जाता है, और वे पलायमान होने लगते हैं।
  • निर्ग्रन्थ पथ का उत्साह होना चाहिये, जबरदस्ती का उत्साह कोई कार्यकारी नही। इस पथ मे सुख होने का भावभासन होना चहिये।
  • सम्बन्ध को सम्बन्ध मानें, सम्बन्ध अर्थात अच्छी तरह से बांधने वाले जकङने वाले समझे।


अध्यात्म:

  • अरहन्त आत्मा का अवलम्बन लेने से परमशुद्धनिश्चयनय मे जाने के लिये सरलता होती है। (अध्यात्म सूत्र पृष्ठ ७३)

  • अशुद्धनिश्चयनय के अवलम्बन के पश्चात भी हम परमशुद्धनिश्चयनय मे पहुंच सकते हैं किन्तु अशुद्ध पर्याय स्वभाव के अनुरूप नहीं है अतः अशुद्धनिश्चयनय के पश्चात परमशुद्धनिश्चयनय मे पहुंचन कुछ कठिन है तथा प्रतिकूलता के कारण धर्मानुराग भी नहीं है।

  • भक्ति दो तरह की होती है: १) अरहन्त, सिद्ध की २) अपनी
  • निमित्त ने कुछ किया इस बुद्धि का परिहार करना चाहिये। नहीं तो परिणाम क्या होगा? जो हो रहा है, सो आगे भी होगा हमारी परेशानी का अंत नहीं होगा। दुःखी के दुःखी बने रहेंगे। भैया यदि दुःख मेटना है तो निमित्त की दृष्टी हटाओ।

  • परमशुद्धनिश्चयनय:
    • सम्यग्ज्ञानी इसका अभ्यासी हो जाता है, उसको पदार्थ की बाहिरी पर्याय दिखते हुए भी वह उसे नहीं देखता, उसकी द्रव्यता पर ही उसका ध्यान जाता है।
    • यह आकार नष्ट हो जात है लेकिन ग्रहण करने वाल नष्ट नहीं होता। क्योंकि ज्ञान ग्रहण अध्रुव है और ग्रहण करने वाला ध्रुव है। इस पर दृष्टी दे तो वह परमशुद्धनिशचयनय होगा।
    • एकत्व भावना: एकत्व भावना में अन्य द्रव्य या उनकी पर्याय तथा आत्मद्रव्य की पर्याय पर द्रष्टी ना रहकर आत्मा के एकत्व स्वरूप की भावना रहती है। उसमें केवल ध्रुव अपने को देखना होता है। इस तरह बारह भावनओ मे एकत्व भावना अपना विशेष स्थान रखती है।
    • कर्मरूपी मैल को हटाने के लिये जो प्रयत्न जो आचरण होते हैं, उनमें भी मैं पृथक हूं, और उन प्रयत्न के फ़ल से भी मैं पृथक हूं, मैं कर्म की निमित्त्ता से रहित अहेतुक द्रव्य हूं, इस तरह आत्मा के स्वभाव की और दृष्टी देना धर्म या मोक्ष क पहिला कदम है। इसके होने पर ही संवर, निर्जरा होती है।
    • राग-द्वेष कहां करता? अपने मे, लेकिन व्यवहार मे यही कहा जाता है कि अमुक अमुक पर राग करता और अमुक पर द्वेष आदि, राग- द्वेष आदि का निमित्त कुछ भी मिलो लेकिन उसकी क्रिया बाह्य मे नहीं अपने मे होती है। यदि इसका ज्ञान ना हो तो प्राणी दुःखी होता है। क्योंकि भीतर की चीज को बाहिर माना, निमित्त को उपादान माना, अपने को पर माना, पर को अपना माना तो फ़िर निमित्तो को बनाने, बिगाङने और सुधारने मे वह पुरुषार्थ किया करता है, लेकिन जहां से दुःख पैदा होता है उसकी तरफ़ लक्ष्य ना करने से वह कैसे छूटेगा, जहां की चीज हो वहां ही उसे देखना चहिये।
    • जाव क व्यवहार से लक्षण उपयोग। निश्चय से जीव का लक्षण उपयोग है।
    • जब निश्चय के द्वारा पदार्थ को जान रहे हो उस समय व्यवहार के छुट जाने का भय मत करो। उस समय विचारो कि अभी हम निश्चय की दृष्टी से विचार कर रहे हैं। और जब व्यवहार की दृष्टी से विचार कर रहे हों तो सोचो कि निश्चय क्या कहता है इसको पीछे विचारेंगे अभी इस दृष्टीकोण से पदार्थ कैसा है इसे विचार ले।
    • षटकारकत्व: (पृष्ठ १५८) इस तरह सुख दुःखादि का भी कर्ता कर्म आदि षटकारकत्व अपने मे ही घटता है, अतः वह ही उनका उपादान है। तो जो कुच देखो अपने मे देखो। जब भीतर देखने क अभ्यास हो जायेगा, तो फ़िर इन अशुद्ध पर्यायो से परे शुद्धद्रव्य अवलोकन मे कठिनता न रहेगी।
निमित्त:
  • सारा जगत निमित्त और उपादान मे उलझा हुआ है, इसके भ्रम को समझ जावे तो सुखी होवे।
  • निमित्त की दृष्टी हटाओ, निर्मलता अपने आप बङेगी।
  • जिस निमित्त से निर्मलता में पूरक पङता हो उसके छोङने मे विलम्ब मत करो।
  • बाह्य दृष्टी रखने पर हम अपना सब खो देते हैं, और अन्तर्दृष्टी रखने से अपना सब कुछ प्राप्त होता है।
  • पर पदार्थ जो हमसे अत्यन्त भिन्न है हमारा कुछ भी करने मे समर्थ नहीं है फ़िर भी उनको निमित्त बनाकर हम स्वयं रागी द्वेषी और कामीक्रोधी होते रहते हैं।
  • संसार के पदार्थ जो भाग रहे हैं, वे स्पष्ट कह रहे हैं कि हम तेरे नहीं हैं फ़िर भी तु कहता है ये मेरे हैं और उसके पीछे दौङ रहा है। तो दुःखी कौन होगा? गति किसकी बिगङेगी?

पंडिताई पल्ले पङी, पूर्व जन्म को पाप।
औरन को उपदेश दे, कोरे रह गये आप॥

ज्यों तिल में तेल है, ज्यों चकमक मे आग।
तेरा साई तुझ मे, जाग सके तो जाग॥

मैं किसी को छूता ही नहीं

वास्तविक जगत और जो जगत हमें दिखाई देता है उसमें अन्तर है। जो हमें दिखता है, वो इन्द्रिय से दिखता है और इन्द्रियों की अपनी सीमितता है। और जो ...