Sunday, July 31, 2016

Praman Sagar Maharaj Ji Pravachan

Excerpts from the pravachan 2016-07-24 प्रवचन https://www.youtube.com/watch?v=wA6ZaxdFCH4

घटिया सोच वाले बढ़िया जीवन नहीं जी सकते। अगर बढ़िया जीवन जीना चाहते हो, अच्छी सोच रखो। अच्छी सोच, अच्छा दृष्टिकोण, हर चीज के प्रति आपका दृष्टिकोण बढ़िया होना चाहिये। और ये अगर जीवन में घटित हो गया, तो संसार में आपसे ज्यादा सुख, आपसे ज्यादा खुश इन्सान आपसे ज्यादा दूसरा नहीं हो सकता। वस्तुतः लोग कहते हैं कि हम दूसरो के कारण दुखी हैं। ये हमारे नकारात्मक दृष्टिकोण का प्रताप है। मनुष्य दूसरे के कारण कभी दुखी नहीं होता, उसके दुख का कारण उसके भीतर का अज्ञान है, जो उसके गलत नजरिये का परिणाम है। यदि हमारे पास दृष्टि हो, तो हम हर हाल में प्रसन्न होकर जी सकते हैं, हर हाल में सन्तुष्ट होकर जी सकते हैं। हमें वो देखने की कला होनी चाहिये। आज के दिन मैं आपके बेहतर जीवन का बेहतर नजरिया हम चार बिन्दुओं के बीच हम कहना चाहेंगे। आज की चार बाते हैं:

1. सकारात्मक दृष्टि रखें: 

अपनी दृष्टि को हमेशा सकारात्मक बनायें रखें। कोई भी कैसी भी परिस्थितियां बने, आप उसे सकारात्मकता से देखने की कोशिश करें। उसमें किसी भी प्रकार के नकारात्मक angle से मत देखिये। यदि आप चीजो को सकारात्मक दृष्टि से देखेंगे, तो कितनी भी बङी घटना घट जायेगी, आप उससे प्रभावित नहीं होंगे। कैसा भी प्रसंग बन जायेगा, आप पर उसक असर नहीं पङेगा। और असर पङेगा भी, तो positive असर पङेगा। साहू अशोक जी का कुछ लोगो ने विरोध किया - तो उन्होने कहा कि हमारे कर्मो की तो निर्जरा हो गयी। है तुम्हारे में ऐसी दृष्टि कि कोई तुम्हारी प्रखर आलोचना करे, और तुम उससे अप्रभावित रहो। अगर positive attitude होगा, तो तुम अपनी आलोचना को भी अपने जीवन के निखार का आधार बना लोगे। और तुम्हारा attitude negative होगा, तो तुम अपनी प्रशंसा में भी परेशान हो जाओगे, कि सामने वाले ने मेरी प्रशंसा तो की, मगर मेरी प्रशंसा में केवल चार विशेषण लगाये। पद से मनुष्य बङा और छोटा नहीं होता,  सोच से मनुष्य बङा और छोटा होता है। सकारात्मक सोचिये। हर स्थिति में उसी तरीके से देखने से देखने की कोशिश कीजिये। अपना attitude सदैव positive बनाकर चलियेगा, तो चाहे घर परिवार हो, चाहें व्यापार कारोबार हो या समाज व्यवहार हो, कहीं भी तुम कभी उलझन में नहीं फ़सोगे। और यदि ऐसा positive दृष्टिकोण नहीं है, तो कहीं भी सुखी नहीं रह सकते। सारी समस्याओं का निवारण अपनी सकारात्मका के बल से किया जा सकता है। बङे-बङे झगङे और फ़साद भी सकारात्मकता के बल से समाप्त किये जा सकते हैं। ध्यान रखना - जहां सकारात्मकता है, वहां समाधान है। और जहां नकारात्मकता है, वहां समस्या है।

पिता पुत्र दोनो साथ खाय करते थे., एक दफ़ह पुत्र पिता से नाराज हो गया और नाराज होकर उसने कहा और कहा- "पापा, कल हम आपके साथ नहीं खायेंगे।" पिता ने कहा - "कोई बात नहीं बेटा, तू मेरा साथ नहीं खाना चाहता तो कोई बात नहीं, मैं तेरे साथ खा लूंगा।" ये है सकारात्मकता। ये दृष्टिकोण तुम्हारे अन्दर होना चाहिये।

मैं सम्मेद शिखर जी की परिक्रमा कर रहा था। हजारो लोग हमारे साथ थे। अशोक पाटनी भी थे} अशोक ज्की ने कहा- महाराज! आपकी चाल तेज होगी, हम कैसे चल पायेंगे। मैने कहा - आप चिन्ता मत करो। आप हमारे साथ नहीं चल पाओ तो कोई बात नहीं। हम आपके साथ चल लेंगे।

जीवन में सूत्र अपनाओ। कोई आपका अनुगामी तो बहुत अच्छी बात है, और यदि नहीं बन सके तो तुम उसके अनुगामी बन जाओ। क्योंकि जितनी उसको तुम्हारी आवश्यकता है, उतनी ही तुमको उसकी आवश्यकता है। और यही आपकी जीवन को पूर्णता प्रदान करने वाले हैं।

2. प्राप्त को पर्याप्त समझिये:

आपको लगता है कि जो प्राप्त है, वो पर्याप्त है।किसी के लिये प्राप्त, अपर्याप्त की परिभाषा पूछो तो क्या है?
जो मुझे प्राप्त हुआ बस उसे देखिये। जिस मनुष्य की दृष्टि में प्राप्त पर्याप्त होता है वो कभी दुखी नहीं होता, और जिसके लिये प्राप्त अपर्याप्त दिखता है, वो कभी सुखी नहीं होता। एक बात ध्यान रखो जो तुम्हारे पास है, वही तुम्हारे काम का है। जो दूसरो का है, दूसरो के पास है वो तुम्हारे काम का नहीं हो सकता। इसलिये जो तुम्हारा है, तुम उसका उपयोग करो, तुम उसका उपभोग करो, तुम उसका रस लो, तुम उसका आनन्द लो, तुम उसका लुत्फ़ उठाओ - बाकी से क्या प्रयोजन है। प्राप्त के प्रति अपनी दृष्टि होनी चाहिये। पर मनुष्य की बहुत बङी कमजोरी है, वो कितना भी पा ले, उसे सन्तोष नहीं होता। कभी सन्तोष नहीं होता। कितना पा ले? कहते हैं जितना होना, उतना रोना । बस पाते जाओ, तो रोते जाओ। सारी जिन्दगी भागते रहोगे, कहीं ठहर नहीं पाओगे। जीवन को सुखी बनाना चाहते हो, तो एक बहुत बङा सूत्र है - प्राप्त को पर्याप्त मानने का। जो आज है पर्याप्त है। मैं यह नहीं कहता कि आगे बङने का प्रयास मत करो, और कुछ पाने की कोशिश मत करो। लेकिन ध्यान रखो। पाने के लिये प्रयास करना अलग बात है, और पाने के परेशान होना अलग बात है। पाओ, परेशान मत होओ। जो मेरे पास है वो मेरे लिये sufficient है। किसी आदमी के पास लाख रूपया हो, वो उसके जीवन के निर्वाह के लिये पर्याप्त है। लेकिन जब वो किसी करोङपति को देखता है, और उसके जीवनस्तर से अपने जीवनस्तर से तुलना करता है, तो उसके लिये वह लाख रूपया अपर्याप्त प्रतीत होने लगता है। अरे मेरी lifestyle क्या है, lifestyle तो उसकी तरह होनी चाहिये। और कहीं भागदौङ, मशक्कत करके लखपति से करोङपति बन भी जाये। और अपनी lifestyle में बदलाव भी ले आये, तो अपने से ओर ऊपर वाले को देखता है और सोचता है कि मेरे पास तो एक साधारण सी गाङी है - सामने वाला तो audi और bmw में घूमता है - यदि मैं वो ना पाऊं तो फ़िर मजा क्या? और आगे बङ जाये तो अगले ने हेलीकोप्टर ले रखा है। चाहें जहां चाहें जब आ सकता है, जा सकता है। जब तक मेरे पास वो ना हो तो फ़िर मजा क्या? है ना ये भागदौङ। ये भागदौङ ये आपा धापी कब तक चलेगी? एक बात मैं कहता हूं - तुम्हारे पास जो है यदि तुम उससे सन्तुष्ट नहीं हो, तो उस चीज से भी कभी सन्तुष्ट नहीं हो सकते जिसे कि तुम चाहते हो, और वो मिल जाये । जो मिला है, उससे भी सन्तोष नहीं, तो ये भी मानना कि जो मिलेगा उससे भी सन्तोष नहीं होने वाला। क्योंकि जब तक वो मिलेगा, तब तक तुम्हारे चाहत कुछ ओर हो जायेगी। कहते हैं - The more they get, the more they want. जितना पाते हैं, उतनी चाहत बढ़ती जाती है। नहीं, प्राप्त को पर्याप्त समझने की कोशिश कीजिये। जितना है वो sufficient है, मेरे लिये वो पर्याप्त है। बन्धुओं , अगर प्राप्त को पर्याप्त मानो तो सब ठीक, वरना सब गङबङ। जीवन में कई चीजे ऐसी आती हैं कि लोग अपनी ही कारण अपने जीवन को दुखी बना लेते हैं। अपनी स्थिति से असन्तुष्ट रहने के कारण ।

३. दुख में सुख खोजे:

मनुष्य अपने दुखो से दुखी होता है। आपके दुखो को दूर करने की एरे पास कोई व्यवस्था नहीं है, और मेरे पास क्या भगवान के पास भी नहीं है। भगवान भी तुम्हारे दुखो को दूर करने में समर्थ नहीं हैं, ऐसा भगवान ने ही बताया है। हमारे गुरू ने ऐसा मार्ग हमें बताया कि जिसे तुम अपना लो तो दुख में भी सुख खोज सकते हो। खोजो गहराई में जाके खोजो, अपने दुख में सुख खोजो। कैसे? आप सङक पर चल रहे हो, नंगे पाव चलना पङ रहा है। निश्चित नंगे पाव चलना कष्टकर होता है। पर मैं आपसे कहूंगा, जब भी सङक पर चलो, नंगे पाव चलने की नौबत हो। तो नंगे पांव चलने का दुख महसूस करने की जगह, अपने पांव से चलने का सुख अनुभव करो और भगवान को धन्यावाद दो - हे प्रभु! मेरे पास जूते नहीं है तो क्या हुआ पांव तो है। दुनिया में ऐसे बहुत लोग हैं जिनके पास पांव भी नहीं हैं। मैं कितना भाग्यशाली हूं। है यह कला तुम्हारे अन्दर?
.. दुख में सुख खोजो। जीवन में जो भी प्रसंग आये, अगर उसमें दुख में सुख खोजोगे, तो कभी दुखी नहीं हो सकोगे। मेरे सम्पर्क में एक जज साहब हैं। उनकी इकलौती बेटी है जन्म से विकलांग। उनकी सारी क्रियायें उन्ही करानी पङती हैं। बेटी बङी हो गयी, उसका वजन बङ गया, अब उठाने में उनकी slip disc हो गयी। लेकिन उठाना पङता। एक दिन मेरे सामने किसी ने कहा कि महाराज जी इनका जीवन बहुत दुखी है। एक ही बेटी है और ऐसी है। उन्होने उसकी बात को वहीं पर काटते हुये वहीं पर कहा - महाराज, मेरी बेटी विकलांग है मुझी इस बात का दुख नहीं है, मुझे इस बात की खुशी है कि कम से कम वो पागल तो नहीं है। चिल्लाती और काटती तो नहीं है। इसकी सेवा तो मैं जितनी कर सकता हूं, कर लेता हूं। वहीं शहर में दूसरी लङकी थी, वह विकलांग होने के साथ साथ जो मिल जाये उसे काटती थी, चिल्लाती थी। यदि वो ऐसी होती तो हमारा रात का सोना भी मुश्किल होता। जीना भी हराम हो जाता। मैं अपने आप को भाग्यशाली मानता हूं - मैने आपसे यही सीखा है कि जो अपने नसीब में लिखा है उसे भोगना ही पङेगा। हंसकर भोगो तो, रोकर भोगो तो - तो हम क्यों ना हंसकर भोगे। यह है positive attitude. तुम ऐसा कर सकते हो। विचार करो। तुम लोगो की स्थिति तो ऐसी है कि सुख में भी दुख खोजते हो। इसलिये सारी जिन्दगी दुखी होते हो। ध्यान रखना - संसार में एक भी ऐसा प्राणी नहीं है जिसको सब सुख मिल जाये। चक्रवर्तियो को भी सब सुख नहीं मिला। कोई ना कोई कमी तो संसार में सब के साथ बनी ही रहती है। और यदि तुम अपने जीवन के दुखो को देखोगे, तो कभी सुखी नहीं हो सकती है। मैं आपसे कहता हूं कि आपके जीवन में कोई विपत्ति आये और मन विचलित हो , तो उस विपत्ति को देखकर सोचो कि चलो विपत्ति तो आयी है पर उसमें भी positive सोचो और ये सोचो - अरे ये विपत्ती थी- बङी विपत्ति छोटे में टल गयी। मैं भाग्यशाली हूं। अगर ओर बङी विपत्ती आयी होती तो मैं कहां का होता। अभी एक व्यक्ति के घर में आग लगी - कल ही मुझसे बताया । तीन मंजिल का घर राख हो गया । भारी विपत्ति थी। जब उन्होने मुझे बताया, तो एक बात सुनकर बहुत अच्छा लगा - महाराज आपके प्रवचन सुनकर हमने एक बात सीखी - कि चलो आग लगी, घर जला, भस्म हो गया - हम इस बात को लेकर खुश है जनहानि नहीं हुई। पैसे हम दुबारा कमा लेंगे, जन दोबारा नहीं कमा सकते। दुख में सुख खोजने की यह एक दृष्टि है। विपत्ति को तुम टाल नहीं सकते, लेकिन अपनी सोच को बदलकर विपत्ति में अपने को सम्भाल जरूर सकते हो। बिमारी हो। कई लोग थोङी थोङी बिमारी में depression के शिकार बन जाते हैं। और तन की बिमारी से खतरनाक मन की बिमारी होती है। लेकिन अपने तन की बिमारी को मन पर हावी मत होने दो। यदि बिमार हो तो यह सोचो - मैं बिमार कहां हूं - बिमार तो वो है जो हस्पताल में पङा है। बिमार तो वो है जो ICU में है। बिमार तो वो है जिसके नाक और मूंह में नलिया लगी हैं। बिमार तो वो है जो paralyse होकर  पङा है। बिमार तो वो है जो comma में पङा है। मैं कहां बिमार हूं, चल रहा हूं, फ़िर रहा हूं, बोल रहा हूं, अपना काम कर रहा हूं - फ़िर बिमार कहां हूं। सोच सकते हो?
तुम लोग पल में मायूस हो जाते हो - हे भगवान अब क्या होगा? ये मायूसी, ये नकारात्मकता तुम्हे दुखी बनाती है। दुख में सुख खोजने की कला अपनाइये। जहां भी जो भी हो उसको देखो । व्यापार में नुकसान हो रहा है - चलो ठीक है, नुकसान तो हो गया। ये सोचो कि बङा नुकसान नहीं हुआ। ये सोचो मैं time पर सम्भल गया। अगर अभी नहीं देखा होता, तो और ज्यादा नुकसान हो जाता।

देखो, आदमी की सोच जिनकी व्यापक होती है। बुराई में अच्छाई देखो। आप अच्छाई में बुरा देखते हो। अगर देखने की दृष्टि हो तो बन्द घङी भी दिन में दो बार सही समय दिखाती है।

Sunday, July 24, 2016

Praman Sagar Maharaj - गुण ग्राहक बनो।

video: https://www.youtube.com/watch?v=pYqJKoKRGrY
फ़ूलों को चुनो, बुराइयों के कांटॊ और सङे गले पत्तो को देखकर अनदेखा करने की कोशिश करो। फ़ूल चुनना तुम्हारे ऊपर निर्भर है, तुम्हारे दृष्टि के ऊपर निर्भर है। तुम किस तरीके से आगे चलते हो, ये सोचना चाहिये। अच्छाई और बुराई दोनो संसार में हैं। अब ये हमारे ऊपर है कि हम उसमें से अच्छाई को ग्रहण करते हैं या बुराई को। जिस मनुष्य के ह्रदय में अच्छाई भरी होती है वो सदैव अच्छाईयां देखता है, अच्छाइयों को ग्रहण करता है। और जिसके मन में बुराइयां भरी होती हैं, उसे सब बुरा बुरा नजर आता है। कहा जाता है आंख में आप जैसा चश्मा लगा लो सारी दुनिया वैसी दिखने लगती है। काला चश्मा लगाने पर दुनिया काली, और हरा चश्मा लगा लेने पर सब हरा हरा दिखता है, ये तुम्हारे ऊपर है कि तुम किस दृष्टि से देखते हो।

जो तुम्हारे से गुणों में ज्येष्ठ हैं, श्रेष्ठ हैं उनका सत्कार करो। अपने मन से पूछो कि तुम्हारे नजर में सबसे पहले क्या आता है अच्छाई या बिराई। किसी भी व्यक्ति से तुम्हारा सम्पर्क होता है तो तुम उसमें सबसे पहले उसमें क्या देखते हो- उसकी खूबी या खामी। दूसरो की खूबी देखना सबसे बङी खूबी है, दूसरो की खामी देखना सबसे बङी खामी है। गुणोको देखोगे, गुणात्मक विकास होगा। दोषो को देखोगे तुम्हारा जीवन दूषित होगा। तुम्हे तय करना है तुम्हे क्या करना है। वस्तुतः ये सब मनुशःय के नजरिये पर निर्भर करता है। जिस मनुष्य की सोच ऊंची होती है जिसका चिन्तन उदार होता है हिसका ह्रदय विशाल होता है, वह व्यक्ति दोष में भी गुण देखता है और जिस व्यक्ति की सोच ओछी होती है चिन्तन संकीर्ण होता है चित्त अनुदार होता है और ह्रदय छोटा होता है वह व्यक्ति गुणों में भी दोष देखता है। हमें देखना है कि हम क्या करते हैं। देखने वाले की दृष्टि पर निर्भर करता है सब कुछ।

आज के लिये चार बाते:
१) गुण ग्राहक बनें
२) गुण गायक बनें
३) गुण वाहक बनें
४) गुण धारक बनें

1. गुण ग्राहक- 

सबसे पहले आपकी दृष्टि गुणो को ग्रहण करने की होनी चाहिये। मनुष्य की दुर्बलता है कि उसकी दृष्टि में गुण कम आते हैं, दोष जल्दी दिखते हैं। इस दुर्बलता को दूर करों। आज तक मैने जो किया सो किया - अब मैं गुणों को देखूंगा, दोषो को नहीं देखूंगा, क्योंकि दोष को देखने से कुछ नहीं मिलता, गुण को देखने से मिलेगा। दोष देखूंगा- पर के नहीं, निज के।  अपने दोष देखो, पर के गुणों को देखो। तुम औरो के दोष देखते हो, और अपने गुण देखते हो। सन्त कहते हैं, दूसरो के दोषो के देखने से क्या होगा - अपने दोषो को देखोगे तो तुम्हारा जीवन सुधरेगा। गुरूदेव हमेशा कहा करते हैं - दूसरो के घर में झाङू लगाने से अपने घर का कचरा साफ़ नहीं होगा। इसलिये बुहारी लगानी है तो अपने घर में लगाओ। ऐसा दुनिया में कोई व्यक्ति जिसमें कोई दोष नहीं, और ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं जिसमें कोई गुण नहीं। संसार के हर प्राणी में किसी ना किसी प्रकार का दोष है। तुम उसको देखोगे तो सब दुषित दिखेंगे। उसे मत देखो। गुण ग्राहक बनो- उन दोषो में से भी गुणों का अन्वेषण करना सीखो। कहीं ना कहीं कोई ना कोई गुण है। श्रीकृष्ण की उस बात को देखो - कि सबको मरा हुआ कुत्ता दिखा - उसकी सङी गली काया दिखी, और श्रीकृष्ण ने देखा - अरे इस कुत्ते की दन्त पंक्ति कितनी व्यवस्थित है। ये दृष्टीकोण का उदाहरण है। क्या देखते हो? दोष नहीं देखना, गुण देखना है। हम दोष देखें तो खुद के देखें, और औरो के लिये जब भी देखने की बात आये गुण देखें जहां भी कोई भी गुण हो उसका सत्कार करें। सन्त कहते हैं कि कुटिया हो या महल उसमें कम से कम एक प्रवेश द्वार होगा। कोई कितना भी महान व्यक्ति हो या पतित व्यक्ति हो, उसमें कोई ना कोई एक अच्छाई जरूरो होगी। किसके माध्यम से उसमें प्रवेश करो। कोई कितना भी बुरा है उसे बुरा कहने के बजाय उसकी बुराई में अच्छाई देखें। संसार में निर्दोष कोई नहीं, निर्दोष केवल भगवान हैं। संसार में जो हैं सबमें दोष हैं, जहां भी अच्छाई हो उसे देखो। बुराई में अच्छाई खोजने वाला मनुष्य कभी दुखी नहीं होता। जो अच्छाई में भी बुराई देखता है, उसकी जिन्दगी ऐसे ही खत्म हो जाती है। आप क्या देखते हैं - घर परिवार से चलिये। आपका बेटा है - हो सकता है उसमे कोई कमजोरी हो, बुराई हो। मेरे पास जितने भी परिवार अपने बच्चो को लेके आते हैं, उनका परिचय positive नहीं करते बल्कि negative ही करते हैं। कहते हैं कि महाराज - इसकी यह आदत खराब है, इसे सुधारिये। ये यह बात नहीं मानता इसे सुधारिये। ये गुटखा खाता है, इसे सुधारिये। ये वो करता है- इसे सुधारिये। वो कभी यह नहीं कहते कि मेरा बेटा बङा आज्ञाकारी है। मेरा बेटा मेरी किसी बात को उठाता नहीं, मेरा बेटा बङा धार्मिक है - कभी नहीं। किस से शुरूआत करते हैं- आलोचना से। और मैने देखा कि इसका ब्ङा विपरीत असर पङता है। बच्चो में झेंप आती है, संकोच पैदा होता है। फ़िर वो आने में भी संकुचाने लगते हैं। क्योंकि आपने जो पहले संपर्क कराया वो negative था। बुराई है, बुराइयो का पोषण मत कीजिये। लेकिन अच्छाइयों को highlight किजीये। उसकी अच्छाईयों को उभार दीजिये} जब मनुष्य की अच्छाईयां उभरेंगी, बुराई अपने आप दब जायेंगी। आप लोग उलटा करते हैं- बुराई को राई का पहाङ बना देते हैं। जबकि होना चाहिये अच्छाई को पहाङ बनाये। बुराई को उभारने का क्या? अच्छाई को उभारो। शराब की क्या प्रशंसा करनी, दूध की प्रशंसा करो। सामने वाला दूध के प्रति आकर्षित हो जायेगा। कहीं भी, कभी भी किसी की निन्दा मत करो। बुराई करने से प्रेम छुटता है, प्रशंसा करने से आत्मियता बङती है। क्या चाहिये? आत्मियता प्रेम, या बैर- वैमनस्य। अपने मन से पूछो - कोई चार आदमियों के बीच तुम्हारी आलोचना करे, क्या तुम्हारा मन प्रसन्न होगा उसके प्रति। उसके प्रति लगाव बङेगा या द्वेष की गांठ बंधेगी। कोई परोक्ष में तुम्हारी प्रशंसा करे, उसके प्रति तुम्हारी क्या धारणा होगी? सीधा सीधा सूत्र है - अपने दायित्व ऐसे manage करो- मैं सबके गुणो को देखूंगा। कर सकते हैं। चलो इतना नहीं कर सकते तो एक कदम आगे चलो। चलो किसी के दोष देखने की कोशिश नहीं करूंगा। कदाचित किसी के दोष दिख जाये, उसे दूसरो को नहीं बताऊंगा। इतना कर सकते हो। दोष दिख जायें, किसी को बताऊंगा नहीं। कर सकते हो। रोज भगवान से प्रार्थना करते हो - "दोष ढ़ाकू सभे का.." भगवान से जो भी प्रार्थना करते हो, किसको सुनाते हो? भगवान से वायदा कुछ करते हो, भगवान से कामना कुछ करते हो। वायदा कुछ और करते हो, वयवहार में कुछ ओर करते हो। कितनी दुर्बलता है, जीवन में सुख कैसे आयेगा।

अपने जीवन को सुखी बनाना चाहते हो, हमें अपनी approach ko change करना होगा। हमें गुण ग्राहक बनना है। कोई भी हो, हम उसके गुणों को उभारने की कोशिश करें। अच्छाईयों को उभारें, बुराइयां दबेंगी। वाक कला में एक कला है- कभी बात की शुरूआत आहिस्ता से मत करो। भोजन की शुरूआत खटाई या मिर्ची से मत करो। कैसे करते हो। सबसे पहले चटनी खाते हो या मीठा खाते हो।

2. गुण गायक बनें:

गुणग्राहक बनिय, गुणगायक बनिये। पहले तो गुण को ग्रहण करेंगे, आपका गुणात्मक विकास होगा। जब कभी आप किसी की अच्छाई को देखो, प्रशंसा करने में कसर मत छोङो। गुणगायक बनो। आप औरो का गुणगाण ही करते हो या निन्दा। गुणगान करो। प्रशंसा, प्रेरणा और प्रोत्साहन वह खुराक है, जो मरणासन्न में भी प्राण फ़ूंक देते हैं। घर परिवार से शुरूआत करो। अगर परिवार के किसी भी सदस्य में कोई भी गुण हो, तो उससे कुछ सीख लो - और जब भी मौका आये तो उसकी प्रशंसा में चूक मत करो। उसकी प्रशंसा करो। गुणगायक बनो। गुणगान करो।
 आप लोग गुणगायक तो हो - मगर अपने, पर के नहीं। अपने मूंह मिया मिट्ठू। आत्मप्रशंसा तीव्र कषाय का लक्षण है। आत्म प्रशंसा ये हमारे आचार्यो ने तीव्र कषाय का लक्षण बतया है। अपनी प्रशंसा नहीं, औरो की प्रशंसा- जो गुणी है जिसमें जो गुण है, उसकी प्रशंसा करो। ओरो को बतलाओ ये कितना अच्छा है। बहुत अच्छा लगेगा। अवगुण दबेंगे, गुण बङेंगे। सामने वाले का आपके प्रति झुकाव बङेगा, लगाव बङेगा, प्रेम और आत्मियता बङेगी। और यही घर परिवार के प्रेम, शान्ति की एक मूल वृत्ति,उस तरीके से देखने की कोशिश करें। किसी के भी कोई भी अच्छा कार्य करे आप उसकी प्रशंसा करिये, पीठ थपथपाइये। कर पाते हैं? आपके घर के नौकर ने कुछ अच्छा कार्य किया, तो आपने उसकी कभी प्रशंसा की। रोज यहां पर तो driver time पर ले आता है, आपके लिये time पर आता है, time पर पहुंचा देता है। आप आनन्द से प्रवचन सुनके चले जाते हो - कभी driver की प्रशंसा करने की इच्छा हुई। अरे तुम बहुत बढ़िया गाङी drive करते हो - time पर हमें पहुंचा दिये - कभी ऐसा भाव आपके अन्दर आता है। एक-आध दिन प्रशंसा करके देखो। उसको धन्यवाद करके देखो। है driver तो क्या हुआ। उसके बिना तो तुम्हारे गाङी तो अटक जायेगी। तुम्हारे लिये कितने useful है। परिवार में तुम्हारे बेटा ने, बेटी ने, तुम्हारे भाई ने, तुम्हारे बहन नें, तुम्हारी दौरानी ने, तुम्हारी जेठानी ने अगर कुछ किया, प्रशंसा करना सीखिये। गुण गाइये। appreciation करिये। दोष तो बोलूंगा नहीं, और कहीं किसी के गुणगान का मौका आयेगा, तो चुकूंगा नहीं। कर सकते हैं, ऐसा? अगर आपको यहां मंच पर बुलाकर कङा किया जाये कि धर्म प्रभावना समीति बहुत अच्छा काम कर रही है, थोङी सी प्रशंसा में दो शब्द बोलिये। तो क्या होगा? आप सोच में पङ जाओगे कि मैं क्या बोलूं। कौन से शब्द बोलूं- हकीकत है ना? अगर आप से कह दिया जाय - धर्म प्रभावना समिति की क्या क्या कमियां हैं बताओ? तो क्या हो गया? अरे वो तो जुबान पर है!
ये मनुष्य की दुर्बलता है कि अच्छाइयों का वह अन्वेषण नहीं कर पाता। बुराइयां दिल में बैठ जाती हैं। खामियां निकालने वाले भरे हैं। गुणगायक बनिये। कोई भी हो उसकी  हम आलोचना नहीं करेंगे, प्रशंसा करेंगे।

मैं आपको इतना ही कहता हूं कि दस गल्ती होने पर सामने वाले को एक बार टोको, एक गल्ती होने पर दस बार टोकने की कोशिश कभी मत करना। दस गल्ती हो एक बार टोकोगे, तुम्हारी बात का प्रभाव पङेगा, सामने वाले में सुधार होगा। और एक गल्ती पर दस बार टोकोगे, सामने वाला कहेगा ये तो ऐसे ही बकबक करते रहते हैं।

कमी खामी को निकालने का भी एक तरीका होता है। अन्दर हाथ सम्हार के, बाहर मारे चोट। सामने वाले को सुधारो। देखो ताला बन्द हो और ताला को खोलने का दो तरीका है। एक तरीका तो चाबी उसमें घुसाओ ताला खुल जायेगा, और दूसरा तरीका है हथोङी लाकर के ताले को पीटॊ और ताला खुल जायेगा। कौन सा तरीका अपनाना पसन्द करते हो। चाबी घुमाना, या हथौङी मारना। सामने वाले को ठीक तरीके से समझाने का मतलब है चाबी घुमाके उसके ह्रदय का ताला खोलना। और सामने वाले को उसकी कमियों पर डपट देने का मतलब है एक दम हथौङी ठोक करके उसे तोङने की कोशिश करना। ताला खुल तो जायेगा, मगर किसी काम का नहीं रहेगा। इसलिये हथौङी पीटने की आदत से बाज आइये। समझ में आ रही है बात?

गुणग्राहक बनिय, गुण गायक बनिये, गुण वाहक बनिये।
गुण वाहक बनने का मतलब - गुणों को फ़ैलाइये, दोषो को  वहीं रोकिये। जितना बन सके स्व उन गुणों को पुष्ट किजीये और दूसरो के बीच उन गुणों का प्रसार करना शुरू कीजिये। जिस व्यक्ति को जो चाहिये होता है, वो उसी पर ध्यान केन्द्रित करता है। आप गुणों के इच्छुक होंगे, आपका ध्यान उसी तरफ़ जायेगा। Market में आप निकल रहे हो, jewellery खरीदनी है तो आप कौन सी दुकान की तरफ़ देखेंगे - crockey, grocery की, या jewellery की। और jewellery की दुकान पर भी चले गये, और आपको diamond या सोने की jewellery लेनी है तो क्या चांदी वालो के यहां जाओगे? वहां भी आपको अंगुठी लेनी है, तो आप अंगुठी की और देखोगे,  या हार की तरफ़? निष्कर्ष क्या निकला? मनुष्य का चित्त उसी तरफ़ दौङता है, जो उसे चाहिये। तो मैं आपसे यही कहता हूं, कि अगर आपको गुण चाहिये तो अपने चित्त को केवल गुणों के साथ जोङ लो। और गुणो के साथ दौङना शुरू कर दो, तो गुण ही गुण प्रकट होते रहेंगे।

3. गुणवाहक बनिये। 

देखिये दो प्राणी हैं- एक भौंरा और दूसरा  मक्खी। भौंरे को भी आपने देखा, और मक्खी को भी देखा है। दोनो की वृत्ति में बहुत बङा अन्तर है। भौंरा हमेशा फ़ूल पर बैठता है। उसके पराग को चूसता है, उसके पराग को चूसकर जब वो दूसरे फ़ूल पर पहुंचता है तो उसके गुणो का कुछ अंश दूसरे फ़ूल पर छोङ देता है। उसी के कारण से पुष्पो में परागण की क्रिया होती है। तब उसमें फ़ल होता है, फ़ल में बीज होता है। बीज से फ़िर पौधा बनता है, और पौधा बनने के बाद बहुत सारे फ़ूल और फ़ा आ जाते हैं। ये भंवरे का काम। जो एक फ़ूल पर बैठा और दूसरे फ़ूल पर ले गया। तो इसका कुछ गुण कुछ वहां ले गया, तो गुणवाहक बना। यानि कहीं भी गया, तो वहां की बुराई को नहीं देखा, वहां की अच्छाई को अपने साथ लेकर के गया और उस अच्छाई को फ़ैलाया तो अच्छे से अच्छा, अच्छे से अच्छा, अच्छे से अच्छा फ़ैलता गया। वो सदैव अच्छाई पर ही बैठता है, वो ऐसी वैसी चीज पर नहीं बैठता। आपने मक्खी को देखा? मक्खी के एक तरफ़ मिष्ठान्न की थाली हो, और दूसरी तरफ़ विष्ठा पङा हो। मक्खी मिष्ठान्न की थाली की उपेक्षा करके विष्ठा पर बैठना ज्यादा पसन्द करती है। आपने देखा है? और वो क्या करती है? Infection फ़ैलाते है, और क्या करती है? मक्खी जिस चीज पर बैठ जायेगी, वो चीज शुद्ध नहीं रहेगी। आपके स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। क्यों? क्योंकि मक्खी दोषवाहक है, भवंरा गुणवाहक है। समझ में आ रही है बात? बस अपने मन को टटोल कर देखो। तुम्हारा जीवन भवंरे की भांति है या मक्खी की भांति। तुम सद्गुणो के मिष्ठान्न या फ़ूलो पर बैठना पसन्द करते हो या बुराइयो की विष्ठा या गन्दगी पर बैठना पसन्द करते हो। तुम्हे तय करना है। तुम अपने मन से पूछो क्या मेरे भीतर किसी गुणवाहक व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है या नहीं। अपने भीतर झांक कर देखो।

Thursday, June 30, 2016

A yogi: some lines

A yogi is,
Who is same in pain and pleasure
Who is safe in the cave of pure awareness which is untouched and steady

A yogi is,
Whose mind obeys his orders
Who senses are in his command

A yogi is,
Who has nowhere to run to
Who is in still and in bliss

A yogi is,
Who is beyond past, present and future
Who has one eye for all odds and evens

A yogi is,
Who is not identified with anything non-soul
Who has no home

He is
bliss,
pure awareness,
Desireless,
Painless,
Most natural,
most beautiful,

the best.

Wednesday, June 22, 2016

NeeyamSagar Maharaj Ji ke liye- unko aahaar daan ke saubhagya me:

आज मेरे घर कोई आया,
नाम मालूम नहीं,
कोई ज्ञानी कहता है, कोई अहिंसा, कोई समता।

मेरे पास दो आंखे हैं,
एक अच्छा देखती है, और एक बुरा
मगर उसकी तो एक ही आंख थी - समता।

मैंने सुरक्षा के लिये घर लिया, मगर मैं तो घर के बन्धन में ही पङ गया।
और वो घर को ही छोङ दिया।

इस दुनिया में सबसे सुलभ है- राग।
हम सब जैसे Fevicol से हो गये हैं. जो मिला उससे चिपक गये।
मगर वो, सबसे अलग - अचिपक।

हम जोङ लेते हैं, अपने को बहुतो से
शरीर से, परिवार से, समाज से, धन से, देश से,
मगर वो अजोङ, और इसलिये बेजोङ।

जब चले तो जीव रक्षा,
जब ठहरे तो ऐसा ठहरे
कि मन भी ठहर जाये।

जब हम इच्छा करते हैं, तो उसकी जो मेरा शाश्वत कभी हो नहीं पाया।
तब वो इच्छा करते हैं, उस अनिच्छा की- जो कभी मुझे समझ नहीं आया।

वो वीर मैं कायर।
वो दीपक मैं अन्धकार
वो क्षमा, मैं गुस्सा
वो मृदु, मैं कठोर
वो सरल, मैं टेढ़ा
वो सन्तोष, मैं लालच
वो दया, मैं दानव
वो अपने में रमने वाले राम, मैं विषयों में रचा-पचा रावण
वो शुक्ल, मैं कृष्ण
वो पवित्र, मैं कीचङ
वो गुरू, मैं शिष्य भी नहीं।
वो लोकोत्तम, मैं अधम
वो मंगल, मैं रहा संसार में गल।
वो सब कुछ, मैं कुछ भी नहीं।

Sunday, February 21, 2016

Satisfaction

"In this world everybody has some kind of suffering or the other. If you think you are suffering because you lack one thing, then you should look around and you would not find anybody with everything. One can have lot of things but not everything. There is difference in having lot of things than everything.
We can spend our whole life to fill those gaps - but not able to finish all those gaps. Therefore we should not get affected with gaps rather we should accept what we have.
Those who understand the reality of world, they are able to win over their expectations. All these expectations are meaningless. Expectations from others only bring suffering. We think once we fill those gaps we will be happy, but in reality we will never be happy. One who is not satisfied with his present, how can he be satisfied with his future.
We should accept what we have. Suffering is an essential element in this world ( Samsara). It depends on us whether we suffer it by crying or by becoming unaffected." - translated from discourses by Muni Shri Praman Sagar Ji

Friday, February 19, 2016

About Greed

मैं गुजरात में तारंगा नाम के स्थान में गया। वहां एक पुरूष के एक रोटी लंगूर को खाने को दी। लंगूर ने रोटी को मूंह में डाला, और जब वह रोटी आधी उसके मूंह में और आधी बाहर थी, तभी एक दूसरा लंगूर आया और उस रोटी को अपने हाथ से छीनकर भागता चला। मुझे देखके ऐसा लगा कि देखो इन लंगूरो में नैतिकता का इतना अभाव है कि दूसरे के मूंह से रोटी तक ये छीन लेते हैं।

कुछ दिनो बाद मैं अपने शहर सहारनपुर आया और वहां भी एक घटना देखी। एक वुढ़िया रोटी दूध में डालकर एक कमजोर कुत्ते के लिये लायी। और उसने दूध में डूबी रोटी नीचे फ़र्श पर कुत्ते के लिये डाली। और तभी एक दूसरा ताकतवर कुत्ता दूर से भौंकते और गुर्राते हुवे आया, और उससे डरके कमजोर कूत्ता दूर भागने लगा। ताकतवर कुत्ता आके वह रोटी खाने लगा। बुढिया ने ताकतवर कुत्ते को धमकाया, मगर उसे इसका कोई असर नहीं पढ़ा। वो पूरी रोटी खा गया, और बुढ़िया दुखी होकर चली गयी। अब मैने समझा कि नैतिकता की कमी मात्र लंगूरो में ही नहीं बाकी जानवरो में भी है।

कुछ दिनो बाद और विचार आये तो ऐसा लगा कि यह अनैतिकता और भी जगह है - मात्र जानवरों में ही नहीं मनुष्यों में भी है। समाज में कोई अध्यक्ष की पदवी हो तो उसमें भी एक व्यक्ति दूसरे को हटाने के लिये और कुर्सी पाने के लिये अनेक दुष्कर्म करता है।

दुनिया में वस्तुयें तो सीमित हैं, और लोगो  की इच्छायें असीम हैं, अतः  यह समस्या सारी जगह है।

एक ही वस्तु  की इच्छा जब दो या दो से अधिक लोग कर लेते हैं, तो समस्या हो जाती है। उसमें उन लोगो में संघर्ष शुरु हो जाता है क्योंकि वस्तु तो एक को ही मिल सकती है।

यह समस्या अनेक रूपों में हमे दिखाई देती है। जैसे
- प्रधानमंत्री की गद्दी एक है, और उसे चाहने वाले अनेक प्रत्याशी है।
- पाकिस्तान एक है। अमेरिका की पाकिस्तान से अपने कुछ अपेक्षायें है, चीन के कुछ ओर, भारत की कुछ ओर, तालिबान की कुछ ओर, और पाकिस्तान के खुद भी कुछ इच्छायें हैं।
- पारिवारिक स्तर पर भी बेटे से मां और बाप की अपेक्षाओं में मतभेद हो जाता है। बाप चाहता है कि बेटा इंजीनोयर बने, और बेटा डाक्टर बनना चाहे।
- अयोध्या एक है, और उस पर हक जमाने वाले अनेक समुदाय हैं।
- मैं चाहता हूं कि शरीर स्वस्थ रहे, और शरीर स्वास्थ ना होने की अपस्था में है।
- कम्पनियों में किस प्रकार से आमदनी ज्यादा हो इस बारे में मलिकों की विचारधाराओं में संघर्ष हो सकता है।

हम विचार करें तो देखेंगे यह एक मूलभूत समस्या है इस दुनिया में। एक ही वस्तु पर लोगो की नाना प्रकार की अपेक्षायें हो सकती हैं, और इसका देखो तो मूलतः कोई समाधान नहीं है - क्योंकि सबकी अपेक्षायें अलग अलग दिशाओं में है।



अतः यह निष्कर्ष निकला : जहां जहां लोभ है, इच्छा है, अपेक्षायें हैं, वहां वहां लङाई है, झगङा है।

एक सीधा समाधान तो यह है कि जिस चीज के बिना हमारा काम चल सकता है, उसकी इच्छा को हम छोङ सकते है - तो ये झगङा खतम। और हम इसी में खुशी मानले कि हमारी इच्छा के त्याग से दूसरे को तो खुशी मिल गयी। शायद ऐसा करने से आधे से ज्यादा झगङे समाप्त हो जाये। हम संसारी लोगो के लिये तो ऐसा कर ही सकते हैं।

अगले स्तर पर साधू होते हैं जो सारी ही इच्छाओं को जीत लेते हैं, और सारे झगङो से दूर हो जाते हैं।

Monday, February 1, 2016

अनुकूलता और प्रतिकूलता

एक कहानी:

मैने मन्दिर में एक ताई जी से सौ रूपये उधार लिये, और कहा कि एक हफ़्ते बाद लौटा दूंगा। १-२ दिन बाद मन में हुआ कि लौटाना ना पङे तो ज्यादा अच्छा। मन्दिर तो रोज जाता था और ताई जी मिलती थी। अब रूपये लौटाने का मन नहीं था तो मैने आंखे बचाना शुरू कर दी। जब भी ताई जी को देखता तो इधर उधर हो लेता। और मन में ही डर और थोङी चिन्ता भी शुरू हो गयी- अगर ताई जी ने मुझे देख लिये और पैसे मांगे तो क्या जवाब दूंगा? अगर ताई जी ने किसी और को ये बात बता दी तो क्या होगा?

मेरा एक दूसरा मित्र भी था, उसने भी ताई जी से पैसे उधार लिये और एक हफ़्ते का वायदा किया और २ दिन में ही लौटा दिया।

अब ये ही बात जीवन में लागू होती है। हम दूसरो को दुख देते हैं, और जब उसका फ़ल हमें मिलता है तो उससे डरते हैं, और चिन्तित होते हैं। जबकि ज्ञानी लोग फ़ल को सहर्ष रूप से स्वीकार करने को तैयार रहते हैं, जैसा कि मेरे मित्र ने किया।

होना तो यह चाहिये कि हम प्रतिकूलताओं को आने दें क्योंकि वे हमारे पुराने कर्मो के आधार पर ही आ रहें है, जबकि हम उनसे चिन्तित हो जाते हैं, और डरने लगते हैं।

दुनिया में उसे बहादुर कहते हैं जो प्रतिकूलताओं से लङकर उन्हे अनुकूलता में बदल दे, मगर वास्तविकता में तो बहादुर वह है जो प्रतिकूलता होने पर भी अपने मन को सम्भाल ले।

इसलिये कहते हैं:
जब किसी से पैसे लिये है तो वापस करने पङेंगे - ऐसे ही जब किसी को दुख दिया तो दुख झेलना भी पङेगा।
प्रतिकूलता को समता से सहे बगैर परमात्मा के शासन में जाना संभव नहीं।
कष्टसहिष्णु बनो।

Are we drawing lines in water?

Insightful story:
A baby is born - he studies and gets the job and works hard for the rest of his life sincerely. He get married and have kids. He loves his wife and kids and takes care of them with utmost sincerity.
Now he is on his death bed and can leave anytime. He asks the Mother Nature - "I am going to die soon. I have worked with honesty and sincerity my whole life. I love my children and I nurtured them with my best efforts. Now I am going to leave. Is this not your injustice that you do not allow me to take my wealth, wife and children along with me in my next birth?"
The Mother Nature replies - "If you draw lines in water to make a beautiful picture, you will fail. This is not the nature of water to hold your drawings. Similarly the transient nature of life does not let any associations’ lasts forever in the cycle of birth and death. Your desire to let them be permanent is because of your ignorance."
Therefore we need to think - Are we drawing lines in water?

मैं किसी को छूता ही नहीं

वास्तविक जगत और जो जगत हमें दिखाई देता है उसमें अन्तर है। जो हमें दिखता है, वो इन्द्रिय से दिखता है और इन्द्रियों की अपनी सीमितता है। और जो ...