कविता का शीर्षक: बनिये की कहानी
बनिया चाहे मुनाफ़ा, चाहें दिन हो या रात
जो दे दे परम सुख, वही बनिये का भगवान ।
कोई बन्ध मेरा नहीं, जाना नहीं ये राज
दूसरो को अपना मानकर, किया सत्यानाश ।
बाजार जाके कुछ रूपे देकर, ले आये सामान
उसे अपना मान ले, गया चित्त का आराम ।
जिस घर मे आया वो, माना अपना घर
अपने को भूल गया, हो गया जैसे जङ ।
बियाह के लाया किसी जीव को, लिये फ़ेरे सात
पण्डित बोले ये तेरी है, दे दी सत्य को मात ।
ज्ञाता से भोक्ता बना, झेले प्रेम प्रहार
ऐसा पङा बन्धन में, भूला आत्मज्ञान ।
बच्चे किये बङे फ़िर, लगी उनकी भरमार
ज्ञाता से कर्ता बना, कर्मो की हुई बोछार ।
बैठे दुकान पर सारा दिन, कमायें पैसे चार
’मेरा पैसा’ रटता रहे, कहां दिखे प्रभु द्वार ।
एक दुकान से दूसरी दुकान, एक भव से दूसरा
ठोकर खाये फ़िरता रहूं, यही वर्तान्त है मेरा ।
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