Wednesday, December 2, 2009

Poem: Story of 'Baniya'

कविता का शीर्षक: बनिये की कहानी

बनिया चाहे मुनाफ़ा, चाहें दिन हो या रात
जो दे दे परम सुख, वही बनिये का भगवान ।

कोई बन्ध मेरा नहीं, जाना नहीं ये राज
दूसरो को अपना मानकर, किया सत्यानाश ।

बाजार जाके कुछ रूपे देकर, ले आये सामान
उसे अपना मान ले, गया चित्त का आराम ।

जिस घर मे आया वो, माना अपना घर
अपने को भूल गया, हो गया जैसे जङ ।

बियाह के लाया किसी जीव को, लिये फ़ेरे सात
पण्डित बोले ये तेरी है, दे दी सत्य को मात ।

ज्ञाता से भोक्ता बना, झेले प्रेम प्रहार
ऐसा पङा बन्धन में, भूला आत्मज्ञान ।

बच्चे किये बङे फ़िर, लगी उनकी भरमार
ज्ञाता से कर्ता बना, कर्मो की हुई बोछार ।

बैठे दुकान पर सारा दिन, कमायें पैसे चार
’मेरा पैसा’ रटता रहे, कहां दिखे प्रभु द्वार ।

एक दुकान से दूसरी दुकान, एक भव से दूसरा
ठोकर खाये फ़िरता रहूं, यही वर्तान्त है मेरा ।

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