जन्म लिया स्त्री कोख से, सोचा कितना दर्द सहा उसने मेरे कारण
सुख मिला मुझे उसकी सेवा से, सोचा कितना सुख मिला उसके कारण
निर्भयता मिलि, सोचा कितना सुख मिला पिता के कारण
डांट पङी, सोचा कितना दुख मिला पिता के कारण
स्कूल के विद्यार्थीयों में, मैं जब हिलने डुलने लगा
कैसे संगी से सुख दुख मिलता, यह सब सीखने लगा
माता पिता अरू गुरूऒं ने, बार बार ये समझाया
आसपास के मासूम जीवो को, अच्छा बुरा देखना बतलाया
सिद्धहस्त करने चले थे, हम स्कूल में जीने की कला को
मगर अच्छे बुरे का बोझ, वहीं से सीखता चला आया
विद्या सीखी और कला, कैसे अच्छे बुरे को पहचानू
अच्छे से प्रेम करू, और बुरे को अपना ना मानू
तोङ दिया अखण्ड दुनिया को, दो भागो मे इस तरह
एक को नाम दिया अच्छा, दूसरे को बुरा समझ दुतकार दिया
जब सिद्धहस्त हुआ इस हुनर में, फ़िर नयी कलाओ का समय आया
बुरे और अच्छे के, नयें नयें प्रयोगो में चित्त लगाया
धर्म, जाति, मित्र, व्यक्ति, शहर, देश, भोजन और काल
मकान, दुकान, मन्दिर, मस्जिद, सबको दो भागो में चीर डाला
अच्छे का अच्छा करता रहा, बुरे से मैं दूर रहा
अगर बुरा मिल जाये तो, उससे इर्ष्या, क्रोध खूब करा
व्यक्ति को उसके रूप रंग से, अच्छे बुरे में तोल डाला
थोङा धर्म पङ लिया तो, उसमें भी अच्छा बुरा ढूंढ डाला
ना कोई अच्छा ना कोई बुरा, सब अन्दर का मैल था
अन्दर तो धोया नही, कल्पनाओं में सारा जगत धो डाला
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