Wednesday, May 7, 2025

प्रश्न: जब शरीर भी नहीं हूं, तो आत्मा साधना ही करूं, परिवार वालो के प्रति कर्तव्यो का निर्वाह क्यों करूं?

उत्तर: हमारे अन्दर कितनी विरक्ति होती है उसके अनुसार ही कार्य करने योग्य है। अगर जीव में पर्याप्त विरक्ति है, तो परिवार छोङकर सन्यास धारण करना ही युक्त है। तब विपदायें आने पर भी वो अपनी विरक्ति के बल पर आर्त-रौद्र ध्यान रूप परिणत ना होकर धर्मध्यान करके अपनी आत्मा का उत्थन ही करेगा। 

    जिस जीव में इतनी विरक्ति नहीं है, और वो सन्यास ले ले तो वहां अनेक प्रसंग पर पर्याप्त विरक्ति ना होने से आर्त-रौद्र ध्यान ही करेगा। जब तक उसे पर्याप्त विरक्ति ना हो जाये, तब तक घर में रहकर जितना धर्म ध्यान उसके लिये सम्भव है वो करना चाहिये। और घर में रहकर अपना पारिवारिक कर्तव्यो को ना करे तो आर्त-रौद्र ध्यान होयेगा। इसलिये उन कर्तव्यो का निर्वाह कर कम से कम आर्त-रौद्र ध्यान करते हुवे, और अपने धर्मध्यान को बढ़ाने का पुरूषार्थ करे। परिपक्व होने पर अपने योग्य धर्म की अगली सीढ़ी पर चढ़ जाये।

Monday, May 5, 2025

जीव का आकार क्या?

 जीवको दु.ख-सुख का वेदन समस्त शरीर मे ही होता है, किसी मस्तिष्क आदि नियत अणुमात्र स्थानमे नही । यदि शरीर के अन्य भागोमे जीव नही है,

तो सुख-दुःखको वहाँ कौन महसूस करता है ? वहाँ सुख-दुख होना ही नही चाहिए । यदि कहा जाये कि नाडियोंके द्वारा उस दु.ख-सुखका वेदन मस्तिष्क तक पहुँच जाता है और वहाँ बैठा हुआ वह अणुमात्र जीव उसका वेदन कर लेता है, जिस प्रकार टेलीफोनद्वारा आपकी बातको दूरस्थ व्यक्ति भो सुन लेता है । सो भो ठोक नही है, क्योकि इस प्रकार तो दुख सुखकी प्रतीति सब जीवो को केवल मस्तिष्क मे हो हुआ करती । पाँव मे फोडा होता और पीडा मस्तिष्कमे होती । क्योकि टेलीफोन द्वारा सुननेवाला आपकी बात सुनता तो अवश्य है, परन्तु उसे अपने पास मे ही सुनता है, आपके पास मे नही । परन्तु ऐसा यहाँ नही है। शरीरके जिस भाग में पोडा होती है उसो भागमे वह महसूस होती है।


यदि इस दोष को दूर करने के लिए यह कहा जाये कि पूरे शरीर मे व्याप्त वह प्रकाश ही महसूस कर लेता है, तब पूछना यह है कि वह प्रकाश जड है कि चेतन। यदि वह जड है तो महसूस नही कर सकता, यदि चेतन है तो वह जीव पदार्थ हो हुआ । और इस प्रकार जीवको सारे शरीर मे व्याप्त स्वीकार कर लिया गया।


यदि इस दोषको दूर करनेके लिए यह कहा जाये कि प्रकाश तो ज्ञानरूप है, जीव-पदाथ रूप नही। जिस प्रकार आप अपने स्थान- पर बैठे बैठे अपने ज्ञान द्वारा दूर-देशस्थ वस्तुको भी जान जाते हैं और उन्हे वहाँ-वहाँ रखी हुई ही जानते हैं, इसके लिए आपको फैलकर वहाँ जाना नही पडता, इसी प्रकार अपने स्थानपर बैठे बैठे ही अणुमात्र जीव अपने ज्ञान-प्रकाश द्वारा वहाँ-वहाँ को पीडाका अनुभव कर लेता है, और वह वेदन उसे वहाँ-वहाँ ही प्रतीत होता है जहाँ-जहाँ कि वह है। यह भी ठीक नही है : ज्ञान द्वारा जाननेका दृष्टान्त यहाँ लागू नही होता क्योकि जानने व महसूस करनेमे बहुत अन्तर है । आप दूसरो को तडफता हुआ देखकर ज्ञान द्वारा महसूस नही कर सकते । महसूस तो अपने शरीरकी पोडा ही होती है।

अत सिद्ध हुआ कि जीव अणुमात्र नही बल्कि असख्य-प्रदेशी है और छोटे व बडे शरीरोमे स्वय सिकुडकर, या फैलकर या व्याप कर रहता है ।

अन्य दर्शनकार उसे सर्व-व्यापक ही मानते हैं । उनका कहना है कि अखण्डित नित्य तथा सत् पदार्थ दो ही हो सकते हैं-अणु-रूप या सर्वव्यापक, जैसे कि परमाणु तथा आकाश । परन्तु उनका यह कहना भी कुछ अधिक विद्वत्तापूर्ण प्रतीत नहीं होता । मूल पदार्थ को अणु तथा सर्वव्यापक सिद्ध करनेके लिए अखण्डत्व, नित्यत्व तथा सत्त्वका हेतु देना दोषपूर्ण है, क्योकि ऐसा नियम नहीं देखा जाता । सभी जीव पृथक्-पृथक् अपने-अपने सकल्प-विकल्पों के तथा ज्ञान आदिके कर्ता हैं और अपने-अपने दुख-सुखके भोक्ता हैं। अपने-अपने ही कर्ता हैं ओर अपने-अपने ही कर्मफल अर्थात् पुण्य-पाप आदि के भोक्ता है। इस दोषको दूर करने के लिए वे हेतु देते है कि वास्तव मे आत्मा तो एक तथा सर्व-व्यापक ही है, परन्तु प्रत्येक शरीरके अन्त करणमे उसका प्रतिबिम्ब

पृथक् पृथक् रूपसे पड़ रहा है इसलिए सब पृथक् पृथक् प्रतिभासित होते है, सो भी बात युक्तिकी कसौटीपर ठीक नही बैठतो । क्योकि ऐसा हुआ होता तो एक साथ ही सब जीवोको क्रोध, दु.ख व सुख, निद्रा व जागृति आदि होनी चाहिए थी, जैसे कि एक ही व्यक्तिके अनेको दर्पणोमे पडे हुए सर्व प्रतिबिम्ब, उस व्यक्ति के हिलने-डुलने पर एक साथ ही हिलते-डुलते प्रतिभासित होते हैं । जीवोकी पृथक् पृथक् क्रियाओ पर-से, उनके पृथक् पृथक् स्वभावो पर-से तथा पृथक् पृथक् भोगो पर-से अथवा सुख-दुखपर-से यही बात सिद्ध होती है कि जितने कुछ भी कीडेसे मनुष्य पर्यन्त छोटे-वडे प्राणी दृष्टिगत होते हैं, उन सबके शरीरोमे भिन्न-भिन्न जीव हैं|

Reference: पदार्थ विज्ञान/अध्याय ४/ बिन्दु १० - जिनेन्द्र वर्णी जी। https://shorturl.at/1XwRU



Sunday, May 4, 2025

क्या पुद्गल में ज्ञान है?

अगर पुद्गल में ज्ञान हो तो हर परमाणु अलग अलग है, तो हर परमाणु में स्पर्श, रस आदि के साथ ज्ञान भी होगा। और अब प्रश्न है कि उसमें वेदना होगी कि नहीं। और वो मुक्त होगा कि संसारी। अब जैसे जीव जन्म लेता और वॄद्ध होता है और फ़िर देह परिवर्तन करता है, ऐसा तो कोई परिणमन पुद्गल परमाणु में दिखाई नहीं देता। 

पुनर्जन्म में आत्मा शरीर को छोङकर दूसरे शरीर में जाती है। मगर यहा तो पुद्गल में ज्ञान भी है और स्पर्श आदि भी। वो खुद में ही शरीर है और खुद में ही आत्मा। तो यहां तो छॊङने का सवाल ही नहीं उठता।

इसलिये पुद्गल संसारी तो नहीं हो सकता - क्योंकि वहां जन्म मरण का चक्र न्याय संगत नहीं है। इसलिये मुक्त होना चाहिये।

अगर मुक्त है। तो मानलो एक लकङी है, और उसे जला दिया और पुद्गल का परिणमन हो गया। ऐसे में उसे वेदना नहीं होनी चाहिये क्योंकि वह मुक्त है। ऐसा लगता है कि उसमें वेदना नाम का गुण, या सुख और दुख का अनुभवन ही नहीं है।

और अगर ऐसा नहीं तो मात्र ज्ञान ही होना चाहिये। मगर ज्ञान ही होना चाहिये। मगर ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं जो ये सिद्ध करे कि पुद्गल में ज्ञान की शक्ति है। तो उसे ज्ञानवान बनने का कोई औचित्य (न्यायसंगतता) ही नहीं बैठता।


Thursday, May 16, 2024

सुख के लिये क्या क्या करता है।

संसारी जीव: 



  • सोचता है विषयो से सुख मिलेगा, तो उसके लिये धन कमाता है। विषयो को भोगता है। मगर मरण के साथ सब अलग हो जाता है। और पाप का बन्ध ओर हो जाता है।
  • सोचता है सत्ता से सुख मिलेगा, तो सत्ता प्राप्त करने को पुरूषार्थ करता है। मगर मरण के साथ वो भी चली जाती है। और पाप का बन्ध और हो जाता है।
  • सोचता है अच्छे रूप, बलिष्ट शरीर मेरे लिये अच्छा रहेगा। उसके लिये प्रयास करता है।
  • सोचता है कि मेरा समाज अच्छा रहेगा तो बढिया होगा। समाज सेवा करता है।
  • सोचता कि मेरा यश होगा तो सुख मिलेगा। तो उसके लिये पुरूषार्थ करता है|
  • इसी प्रकार परिवार, धन आदि में जहां जहां उसे लगता है कि मेरे लिये हितकारी है, वहां वहां पुरूषार्थ करता है।


मगर ये सब क्षणिक हैं। और इनके प्रति पुरूषार्थ पाप कर्मो का ही संचय कराती है।


Monday, January 9, 2023

मैं किसी को छूता ही नहीं

वास्तविक जगत और जो जगत हमें दिखाई देता है उसमें अन्तर है। जो हमें दिखता है, वो इन्द्रिय से दिखता है और इन्द्रियों की अपनी सीमितता है। और जो वास्तविक जगत है, वो अलग है।

इंद्रिय जगत में ’स्पर्श’: जहां एक हाथ दूसरे के माथे को स्पर्श करता है। और हाथ की गर्मी दूसरे के सर पर आती है, और उसे सुकून महसूस होता है। जहां पर एक चन्दन लगी अंगुली को दूसरे के सर पर लगाते हैं, और उसके माथे पर तिलक बन जाता है। इस दुनिया में अधिकांश एक जगह पर एक वस्तु ही रहती है। दूसरी आती है, तो पहली वाली को हटना होता है। यहां की भाषा भी ऐसी ही होती है - ’मैंने उसे सुकून दिया, उसने मुझे मेरी जगह से हटा दिया, या तो वो रहेगा या मैं, मैंने उसे पाला, यह वस्तु दूसरी वस्तु से छू गयी- टकरा गयी’

वास्तविक दुनिया में स्पर्श: मगर वास्तविक दुनिया अलग है। जहां एक जगह पर अनन्त द्रव्य एक साथ रहते हैं, और अपनी सत्ता को कायम रखते हैं। उनमें कुछ द्रव्यों में बीच में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बनता भी हैं, और कुछ में नहीं भी। और जिनमें बनता है, इसमें मात्र निमित-नैमित्तिक सम्बन्ध ही बनता है - कोई गुण या पर्याय एक से दूसरे में प्रवेश नहीं करती - जिस प्रकार की पुद्गल की दुनिया में दिखाई देता था। यहां स्पर्श या टकराने का कोई मतलब नहीं। यहां मात्र निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बनता है। स्पर्श तो ’पुद्गल की दुनिया’ में ही होता है या जिसे  इन्द्रिय जगत कहते है।

इस वास्तविक दुनिया की दृष्टि में मैं किसी को छूता नहीं।

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इन्द्रिय जगत में कर्ता: अग्नि ने पानी को गर्म कर दिया। इसमें ऐसा लगता है जैसे अग्नि की गर्मी पानी में प्रवेश कर गयी हो। पानी के गर्म होने में पानी की उपादान शक्ति भी है, मगर वो हमेशा ही है इसलिये उसकी मुख्यता समझ में नहीं आती। अग्नि एक ऐसा निमित्त है जो मिला तो काम हो गया, इसलिये वो ही प्रधान कारण दिखाई देता है। क्योंकि जल की उपदान शक्ति हमेशा ही है गर्म होने की, इसलिये वो हमें प्रधान कारण नहीं दिखाई देता।

Sunday, July 31, 2022

कितना सच कितना झूठ: (नय विवक्षा)

 

 

सच

झूठ

नय

ये मेरी माता है

जिस प्रकार के कर्म किये उसके अनुसार कोख मिली। जो जीवन में सुख दुख मां के निमित्त से मिले, वैसे ही कर्म मैने किये थे। इस प्रकार के सम्बन्ध को, जो उन विशेष कर्मो के फ़लीभूत होने में निमित्त हो, उस कहते हैं मां।

उस सम्बंध में कर्मो की समझ ना होने से, उस सम्बन्ध को अनित्य/अशरण रूप ना जानने से जो उसके प्रति एकान्त रूप (मात्र नित्यरूप और शरण रूप अनुभव करने) से मेरे पने का भाव हुआ। वह झूठ है। और यह दृष्टी मोह और राग मिश्रित है।

उपचरितअसद्भूत व्यवहार

ये मेरा बहन है

जिस प्रकार के मैने और बहन ने कर्म किये उसके अनुसार दोनो को एक ही कोख मिली। जो जीवन में सुख दुख बहन के निमित्त से मिले, वैसे ही कर्म मैने किये थे। इस प्रकार के सम्बन्ध को, जो उन विशेष कर्मो के फ़लीभूत होने में निमित्त हो, उस कहते हैं बहन।

उस सम्बंध में कर्मो की समझ ना होने से, उस सम्बन्ध को अनित्य/अशरण रूप ना जानने से जो उसके प्रति एकान्त रूप (मात्र नित्यरूप और शरण रूप अनुभव करने) से मेरे पने का भाव हुआ। वह झूठ है। और यह दृष्टी मोह और राग मिश्रित है।

उपचरितअसद्भूत व्यवहार

घर/धन आदि

जिस प्रकार के मैने कर्म किये उसके अनुसार धन/घर आदि की प्राप्ति हुई। जो जीवन में सुख दुख उनके निमित्त से मिले, वैसे ही कर्म मैने किये थे।

उस सम्बंध में कर्मो की समझ ना होने से, उस सम्बन्ध को अनित्य/अशरण रूप ना जानने से जो उसके प्रति एकान्त रूप (मात्र नित्यरूप और शरण रूप अनुभव करने) से मेरे पने का भाव हुआ। वह झूठ है। और यह दृष्टी मोह और राग मिश्रित है।

उपचरितअसद्भूत व्यवहार

वेदना

जिस प्रकार के मैने कर्म किये उसके अनुसार शारीरिक वेदना (दुखद, दुखद) की प्राप्ति हुई।

उस सम्बंध में कर्मो की समझ ना होने से, उस सम्बन्ध को अनित्य/अशरण रूप ना जानने से जो उसके प्रति एकान्त रूप (मात्र नित्यरूप और शरण रूप अनुभव करने) से मेरे पने का भाव हुआ। वह झूठ है। और यह दृष्टी मोह और राग मिश्रित है।

अशुद्ध निश्चय नय

राग-द्वेष

मेरे ज्ञान, श्रधान, चारित्र और कर्म के उदय से राग-द्वेष हुवे

इनको अपना ही स्वभाव मान लेना

अशुद्धन निश्चय नय

Tuesday, June 28, 2022

विषय, क्रोध, मान - सुभाषित रत्न सन्दोह जी से

 विषय

  • विषय शत्रु है। पापको संचित कराके अनेक जन्म-जन्मान्तरोंमें दुःख दिया करता है ।

  • जिन विषयों से चक्रवर्ती भी तृप्त नहीं प्राप्त होता उनसे भला साधारण मनुष्य कैसे हो सकता हैं 

  • तृष्णा रूपी ज्वालाओं को शान्ति इन्द्रिय विषयों से नहीं हो सकती है, बल्कि विषय उनको और अधिक बढ़ा देती हैं।

  • अपने कुटुम्बी जनों के लिये विषयो की प्राप्ति के लिये हिंसा करके तीव्र पाप करता हैं, मगर अकेला ही उन पाप के फ़लो को सहता है।

  • विषय अनित्य हैं।

क्रोध

  • क्रोधी का कोई आदर नहीं करता।

  • क्रोध संचित किये हुए पुण्यको क्षण भर में नष्ट कर देता है।

  • क्रोध धैर्य को नष्ट करता है, विवेक को नष्ट करता है, निन्द वचन बुलवाता है। 

  • क्रोध से मित्रता, दया, उपकारी जीवो के प्रति कृतज्ञता नष्ट हो जाती है।

  • ’मैने पूर्व में इसको दुख दिया है’ ऐसे कर्म सिद्धान्त को समझके क्रोध को शान्त करना चाहिये।

  • ’अच्छा हुआ! इससे मेरे कर्मो की निर्जरा हो रही है’।

  • यह बेचारा अज्ञानी प्राणी स्वयं ही पापका संचय कर रहा है। ऐसा विचार करके उसे क्षमा करें।

  • अगर कोई गाली दे, तो सोचो ’मारा तो नहीं’। अगर मार दे, तो सोचो ’धर्म तो नष्ट नहीं किया’ - ऐसे अपने क्रोध को शान्त करें।

  • अध्यात्म:

    • वस्तु स्वातंत्र्य का चिन्तन करके क्रोध शान्त करे

    • सबको ज्ञान स्वभावी आत्मा देखें

    • क्रोध को विभाव समझके उससे भेद विज्ञान करें

  • चिन्तन वाक्य:

    • मेरे से किसी के प्रति कटु वचन नहीं निकलें।

    • जीवन में एक साधना बनायें कि किसी भी स्थिति में मेरे को क्रोश उत्पन्न ना हो


मान

  • जो यह समझता है कि 'मैं ही सबकुछ है, मुझसे अधिक दूसरा कोई नहीं है।” वह अनेक भवों में नीच कुलको प्राप्त होता है।

  • अभिमान से विवेक नष्ट होता है, नम्रता समाप्त होती है, कीर्ति मलिन होती है।

  • अभिमान वश माननीय जनों का भी सन्मान नहीं करता है।

  • मान धर्मको नष्ट करता है, पापको संचित करता है, दुर्भाग्य को लाता है

  • अभिमान से माता, पिता, मित्र आदि सब प्रतिकूल हो जाते हैं। कोई प्रेम नहीं करता।

  • अभिमान से व्यक्ति नष्ट होता है, जबकि नम्रता से समृद्धिको प्राप्त होता है।

  • जहां मान है, वहां आत्म बोध नहीं। क्योंकि जिसको अपना समझके मैने मान किया है, वह मेरा आत्म स्वरूप नहीं।

  • मान में जीव अपने को दूसरो से ऊंचा समझता है। और पर सापेक्ष चिन्तन होने से आत्म चिन्तन अवरूद्ध हो जाता है। 

  • घर में, समाज में झगङे का मुख्य कारण मान कषाय ही है।

  • धर्म के प्रसंग में कोई उच्चता दिखाने का भाव रखता है तो वह है - अनन्तानुबन्धी मान।

  • चिन्तन वाक्य:

    • मुझे दुनिया जाने तो क्या, ना जाने तो क्या?

    • आत्महित चाहने वाले व्यक्ति को तो यह मान कषाय दूर ही कर देनी चाहिये।

    • नाम की इच्छा एक बहुत ही बुरी समस्या है।


मननीय बिन्दु

  • पर का आश्रय करके कोई शान्ति चाहे तो शान्ति मिलना असम्भव है।

  • अपना लक्ष्य शुद्ध हो तो सारे काम सही बनेंगे।


प्रश्न: जब शरीर भी नहीं हूं, तो आत्मा साधना ही करूं, परिवार वालो के प्रति कर्तव्यो का निर्वाह क्यों करूं?

उत्तर : हमारे अन्दर कितनी विरक्ति होती है उसके अनुसार ही कार्य करने योग्य है। अगर जीव में पर्याप्त विरक्ति है, तो परिवार छोङकर सन्यास धारण क...