Wednesday, February 10, 2010

Quotes from JInendra Varni Ji books

From Jinendra Varni Ji's pravachan:


"गाय, मनुष्य, घट, पट आदि को अलग-अलग क्यों देखते हो? इनके भी अन्दर उतर जाइये। गाय व मनुष्य में चित्‌ मात्र को देखने पर गाय व मनुष्य का यह द्वैत कैसे ठहर सकता है, क्योंकि वह भी सच्चित्‌ और वह भी सच्चित्‌।  गोत्व (गायपना) व मनुष्यत्व (मनुष्यपना) तो उस सच्चित्‌ के विकार मात्र से उत्पन्न होने वाले नाम और रूप हैं। इनकी क्या सत्ता है? इन सबमें जो व्याप कर रहता है उस सच्चित्‌ मात्र तत्व को देखिये, जो त्रिकाल एक है। अखण्ड है तथा नाम रूप कर्मो से अतीत है। ऐसी समष्टि में सच्चित्‌ तथा सत्‌ के अतिरिक्त यहां दिखाई ही क्या देता है? सच्चित्‌ व सत्‌ ऐसा द्वैत भी क्यों रहा है? सामान्य व अखण्ड रूप समष्टि में द्वैत को अवकाश कहां? कहा जा सकता है कि जो कुछ भी दृष्ट है वह सब नित्य, एक व अखण्ड सच्चित्‌ के अवयव हैं, उसके स्फ़ुलिंग हैं। वास्तव में सच्चित्‌ ही एक परमार्थ तत्व है। इसके भी अतिरिक्त जीवन्मुक्त व नित्यमुक्त जीवो में क्या दिखाई देता है -- सत्‌, चित्‌ व आनन्द। सत्‌, चित्त व आनन्द के अतिरिक्त उन मुक्त जीवो की पृथक, सत्ता समष्टि में कैसे दिखाई दे सकती है। पहले देखा था मात्र सत्‌ चित्‌ अब उसमें आनन्द और मिल गया। सत्‌ चित्‌ व आनन्द में सब कुछ समा गया। घट पट आदि सत्‌ मात्र है। मनुष्य आदि सत्‌ व चित्‌ हैं और मुक्त जीव सत्‌ चित्‌ व आनन्द हैं।" (Adhyatma Lekhmala - अध्याय अद्वैत ब्रह्म)
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धर्म कृत्रिमताओं में नहीं बल्कि स्वभाव में छिपा है जो प्राणी उसे अपने स्वभाव में डुबकी लगाकर खोज निकालता है अर्थात आत्म साक्षात्कार के द्वारा ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेता है उसका जीवन पलट जाता है। सर्व लौकिक कर्तव्य उसके लिये अकर्तव्य हो जाते हैं। लौकिक पुरूषार्थ उसके लिए हेय बन जाता है। इन्द्रियों द्वारा दीखने वाले सर्व चेतन व अचेतन पदार्थ उसकी दृष्टी में निस्सार भासने लगते हैं, उनमें होने वाले अच्छे-बुरे व मेरे-तेरे आदि के विकल्प शांत होते चले जाते हैं। फ़लस्वरूप उसकी नित्य की करने-धरने , बनाने-बिगाङने , मिलाने व पृथक्‌ करने आदि के विकल्पों में रंगी हुई जीवन की भाग-दौङ विराम पाने लगती है। चिन्तायें दबती चली जाती हैं। जीवन का भार हल्का प्रतीत होता है। एक आलौकिक शान्ति का स्वाद आने लगता है जो उसे कृतकृत्यवत्‌ कर देता है। (अध्यात्म लेख माला - अध्याय शांति मार्ग)

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अनेकान्तवाद:

  • यदि दूसरों की बात को सुनने व समझने के प्रति उल्लास नहीं है, उसके अभिप्राय को जानने का प्रयत्न किये बिना उसके शब्दों को ही पकङकर उसे वादित्व कला द्वारा नीचा दिखाने में ही अपना गौरव समझता है, अपने पक्ष की क्षति को सहन नहीं कर सकता तो समझिये कि वहां हजरत पक्षपात अवश्य बैठे हुये हैं।
  • ज्ञान की महिमा दूसरे की अवहेलना करने में नहीं, बल्कि उसकी बात को ठीक-ठीक उसके ही दृष्टिकोण से समझने में है। यदि ऐसा करे तो आश्चर्य होगा यह जानकर कि जो कुछ भी कोई कर रहा है इसमें कुछ न कुछ सार अवश्य है। सर्व ही सत्यों का निषेद्य करने की बजाए उनका संग्रह करने की आदत डाले।
  • दूसरे के लिये हुए प्रश्न में उसके अभिप्राय को पढ़कर उसकी काट करने की बजाए समन्वय करने में ही अनेकान्त का सार छिपा है। ( अध्यात्म लेख माला - अनेकान्तवाद)
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जो प्राणी आत्मसाक्षात्कार के द्वारा ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेता है उसका जीवन पलट जाता है। सर्व लौकिक कर्तव्य उसके लिए अकर्तव्य हो जाते हैं। लौकिक पुरूषार्थ उसके लिए हेय बन जाते हैं। इन्द्रियों द्वारा दिखने वाले सर्व चेतन व अचेतन पदार्थ उसकी दृष्टि में निस्सार भासने लगते हैं, उनमें होने वाले अच्छे-बुरे व मेरे-तेरे आदि के विकल्प शांत होते चले जाते हैं। फ़लस्वरूप उसकी नित्य की करने-धरने , बनाने-बिगाङने, मिलाने व पृथक करने आदि के विकल्पों में रंगी हुई जीवन की भाद-दौङ विराम पाने लगती है। चिंतायें दबती चली जाती हैं। जीवन का भार हल्का प्रतीत होता है। एक अलौकिक शान्ति का स्वाद आने लगता है जो उसे कृतकृत्यवत्‌ कर देता है।

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उपदेश देने की प्रवृत्ति किसलिये है? क्या दूसरो को समझाने के लिए या अपनी विद्वता का प्रदर्शन करके लोगों की प्रशंसा प्राप्त करने के लिए? अरे भगवन्‌! क्या ही अच्छा होता यदि दूसरो को समझाने से पहिले स्वयं को समझा लेता। परोपकार के बहाने अपनी लोकेषणा की पुष्टि करना ही यदि इसका प्रयोजन है तब तो शास्त्र ज्ञान ही अहित के लिए हुआ। ऐसे शास्त्र ज्ञान से क्या लाभ? ..  अध्यात्म लेखमाला- अध्याय १
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Krodhi ko sabhee krodhi dikhe hain.
Maani ko sabhee maani dikhte hain
Maya ko sabhee mayavi dikhte hain
Lobhi ko sabhi lobhi dikhte hain

matlab hamare ko agar dosh doosre me dikhte hain, tau wo dosh hamare me hain

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