Wednesday, February 15, 2012

Sutra # 10: जो होता है, उसे होने दो

सूत्र १०: जो होता है, उसे होने दो

क्योंकि जो होता है सो न्यायपूर्वक, जैसे सूत्र २ मे हम समझ आये हैं, इसलिये जो होता है उसे होने दो।

क्योंकि जीनें में इन्द्रिय से सुखी या दुखी होने का कोई कारण नहीं, इसलिये शान्तिपूर्वक समता से सुखी और प्रसन्न जीव को रहना चाहिये।

जीवन में कर्म के निमित्त से अनेक उतार चढाव आते हैं- वे पुराने किये हुये कार्यो के ही फ़ल हैं, इसीलिये न्यायपूर्वक(justified) हैं और इसीलिये उन्हे दूर भगाने या नजदीक ही रख लेने का कोई मतलब नहीं है। इसलिये सुखी रहो। कोई कारण नहीं कि हम आयी परिस्थिति से प्रेम करे या द्वेष करे।

सुखी प्रभु की हम उपासना करे। मन्दिर में जाते हुये प्रभु के दर्शन करें, तो उनके सुख का विचार करें- उनका सुख असीम है। उसकी तुलना समुन्द्र से नहीं कर सकते क्योंकि उसकी गहराई और विस्तार की तो सीमा है, मगर प्रभु का सुख तो सीमा से परे हैं। उसकी तुलना आसमान की ऊंचाई से भी नहीं कर सकते क्योंकि उसकी भी सीमायें हैं। ना ही उसकी तुलना चन्द्रमा को देखने से मिली शान्ति से कर सकते, क्योंकि वो तो कुछ पल के लिये, मगर प्रभु का सुख तो अनन्त सुख के लिये है। ऐसे अनन्तसुखी प्रभु के दर्शन करते ही चमत्कार होता है, हमारे अन्दर भी सच्चे सुख की छोटी लहर जन्म ले लेती है, और वो ही बढते बढते मुनी अवस्था मे महा समुन्द्र का रूप ले लेती है और मुक्त अवस्था में असीम हो जाती है।

सुखी मुनिजन की हम उपासना करें। जो हर परिस्थिती में समता सुख का पान करते हैं। आहार मिला तो सुखी, नहीं मिला तो सुखी। किसी ने गाली दी तो सुखी, प्रशंसा करी तो सुखी। रोग हुआ तो सुखी, निरोग रहें तो सुखी। विरोधी मिले तो सुखी, भक्त मिले तो सुखी। जीये तो सुखी, मरे तो सुखी। सर्व अवस्था में समता।

वैसे भी देखा जाये तो दुखी होने का कोई कारण नहीं। क्योंकि आत्मा तो सदा शाश्वत है और कभी अपने स्वभाव को छोङती नहीं, तो फ़िर इन्द्रियों में सुखी दुखी होने का क्या कारण? आत्मा से कोई कुछ छीन नहीं सकता और ना ही कुछ दे सकता, तो किस बात का राग या किस बात का द्वेष।

इसका मतलब ये ना समझना कि हम तो अब सुखी, अब भक्ति, दान, स्वाध्याय इत्यादि से क्या फ़ायदा। और आलोचना, प्रतिक्रमण से क्या फ़ायदा। ऐसा समझे तो अनर्थ हो जायेगा। मार्ग निश्चय-वयवहारात्मक है, निश्चय और व्यवहार दोनो का ही हम ध्यान रखें।

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