सूत्र ७: प्रसिद्धी की चाह विष है। बालक की तरह प्रसिद्धी की चाह से बचे।
हमारे जीने के मकसद की दिशा भी विचित्र तरीको से निर्धारित होती है। हम अपने जीवन में क्या करते हैं - इसमें अनेको कारण बनते हैं। इनमें से एक मुख्य कारण रहता है हमारी इच्छा कि हम दूसरो के सामने अच्छे दिखे।
लोक मे प्रसिद्धी की चाह एक विष के समान है जो अध्यात्मिक सन्त को मोक्षमार्ग से च्युत कर संसारमार्गी बना देती है। साधक साधना निज कल्याण के लिये करता है, और निजकल्याण के साथ-साथ पर कल्याण (ज्ञान दान) में भी जागरूक हो सकता है। परकल्याण करते हुये कई बार प्रसिद्धी का रस चखने के बाद, निजकल्याण से साधक च्युत हो जाता है। कई बार तो निजकल्याण करते हुये भी प्रसिद्धी की चाह अन्दर ही अन्दर पनपने लग जाती है।
सन्त का जीवन तो बालक की तरह है- जैसे बालक को मात्र अपनी इच्छा पूरी करनी होती है, उसे कोई परवाह नहीं कि लोग क्या कहते हैं। सन्त भी वीतरागता की इच्छा से साधना करता है, बिना किसी प्रसिद्धी की आकांक्षा के। और एकदम बालक की तरह सादा जीवन जीता है। यहां तक की वस्त्र भी नहीं पहनता, इससे सादा और क्या हो सकता है।
दूसरी तरीके से देखे - हमें क्या मतलब कि लोग हमारे बारे में अच्छा कहें या बुरा। लोग तो हमें अच्छा बुरा उनके विवेक के अनुसार कहेंगे। मगर वास्तविकता यह है कि मेरा अच्छा बुरा का मापदण्ड तो श्रीगुरू के द्वारा बताये गये सिद्धान्त के अनुसार ही हो सकता है। फ़िर मैं क्यों भागूं लोगो के मापदण्ड के आधार पर। मुझे तो अपना सही बुरे का मापदण्ड श्रीगुरू द्वारा बताये गये सिद्धान्त के अनुसार बना लेना है और उसी अनुसार कार्य करना है।
बाहर में जीव संसारी है, और मुख्यतः संसार मार्ग को ही अच्छा मानते हैं। अगर मैने उनके अनुसार कार्य करने शुरू कर दिये तो संसार में कल्याण होना असंभव ही है। अतः हम लोक में प्रसिद्धी की चाह से बचे।
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