सूत्र १: समस्या बाहर नहीं, अन्दर है
जीवन में देखो तो समस्यायें बहुत हैं। परिवार में कितनी परेशानियां, समाज में कितनी परेशानियां, भारत में कितनी परेशानियां है।
तो प्रश्न उठता है कि हम क्या करें? क्या जाग उठे, और मिटा दे इन सब समस्याओं को। एक कर्मठ व्यक्ति की तरह जुट जायें और जमे रहे जब तक ये विषमतायें ध्वंस नहीं हो जाती।
श्रीगुरू कहते है - नहीं। दो दृष्टियां हैं। दूसरे को सुधारना, उठाना तो लौकिक दृष्टि है। अपने को सुधारना, उठाना आध्यात्मिक दृष्टि है।
शिष्य प्रश्न करे ऐसा क्यों? श्रीगुरू करूणा पूर्वक समझाते हैं कि ये जो समस्या भिन्न भिन्न रूपों में बाहर में दिखाई देती हैं, ये वास्तव में बाहर नहीं तुम्हारे अन्दर हैं। जितनी दुनिया हमें दिखाई देती है, ऐसी अनगिनत दुनिया पूरे लोक के अन्दर हैं। तुम्हारी एक दुनिया है, जो चींटी हमारे घर की नाली की दिवारो पर रहती है, उसकी एक दम अलग दुनिया। उसकी समस्यायें भी एकदम अलग प्रकार की है। ऐसे ही एक मकङी की दुनिया है जो जाले पर झूलती रहती है, और नये जाले बुनती रहती है। इसी ही प्रकार मच्छरो, चमगादङ, छोटी मछली, बङी मछली की अपनी अपनी दुनिया है और उनकी अपनी अपनी समस्यायें हैं।
जानवरो की तो बात ही और, इन्सानो में भी तो अलग देश मे जन्मे लोगो की दुनिया अलग और समस्यायें अलग। अलग देश छोङो, एक ही देश में भिन्न भिन्न व्यक्तियों के अनुभव, ज्ञान और भावो के आधार पर उनकी दुनिया अलग और समस्यायें भी अलग।
जिस प्रकार के हमने कर्म किये उसी प्रकार की दुनिया में हम चले जाते हैं। इसलिये समस्यायें वास्तव मे दुनिया मे नहीं वरन अपने मे हैं। और इसका समाधान भी बाहर नहीं वरन अपने भीतर ही है। हम अन्दर की दुनियां सुधार लेंगे तो सहज ही बहिरंग दुनिया भी सर्व सुन्दर मिल जायेगी, और अगर बाहरी दुनिया में ही लगे रहे तो दुनिया से बन्धन कभी तोङ नहीं पायेंगे।
शिष्य प्रश्न करे- क्या लोक की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता? श्रीगुरू कहते हैं - अगर इनका समाधान हो सकता होता, तो अनादि काल से लोक की सत्ता है - इनका समाधान हो गया होता। इन समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। तुम्हारा इष्ट इसी में है कि तुम अपना समाधान कर लो।
शिष्य प्रश्न करे- तो क्या पर उपकार कदापि ना करे। तो श्रीगुरू कहते हैं- अपने को सुधारने के पथ पर अपने अन्तरंग को पवित्र करने के लिये और स्थूल पाप भाव से बचने के लिये पर उपकार में भी निमित्त बनो।
इस प्रकार हम बाहर में समस्यायें ना देखकर बाहर से राग-द्वेष ना करे। वरन उसका मूलकारण अपने अंतरंग को जानकर उसे परम पवित्र करें। जिससे परम पवित्र सिद्धलोक की केवलज्ञान रूपी दुनियां में हमारा वास होये।
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