(Objects interact with each other. Nobody owns nobody.)
ये सूत्र बहुत ही महान सूत्र है, ये जगत की वास्तविकता का सच्चा बोध कराने वाला है। जगत के मध्य रहते हुये भी जगत के राग से हमें छुटाने वाला है। यह परम सत्य है, और पूर्ण सुख का कारण है। अनगिनत मुनियों ने इस सुत्र का ध्यान कर वीतरागता को अपनाया है, और सब भव्य जनो का यह सूत्र भला करने वाला है।
पहले हम ये समझते है कि वास्तव में हम किसे अपना समझते हैं। स्थूल रूप से - देश मेरा, समाज मेरा है। और कम स्थूल पर जायें तो परिवार, कुटुम्ब, मित्र मेरे हैं। और सूक्ष्म पर जायें तो शरीर मेरा है। और अध्यत्मिकता की सूक्ष्मता में जाये तो राग द्वेष अज्ञानता मेरी है, विकल्प मेरे हैं। इस प्रकार का मेरा-पना हमारे अन्दर बसा हुआ है। वास्तविकता में देखा जाये तो इनमें से हमारा कोई भी नहीं।
इनमें एक उदाहरण देखे- मानो हमारा एक मित्र को जो कर्तव्य निभाने वाला और सही दिशा दिखाने वाला हो, और एक आदर्श मित्र के सर्व गुणो से युक्त हो। तो वास्तव में क्या वह व्यक्ति हमारा मित्र है? तो इसमें पहली बात तो हमारे भाग्य अनुसार ही हमें मित्र मिला है। और जो वो हमारा अच्छा बुरा करता है वो भी कर्मानुसार करता है। हमारा पुण्य अच्छा है तो वो हमारी इच्छा के अनुसार की कार्य करता है, और हम मान बैठते हैं कि ये तो मेरा भला करने वाला है- इसलिये मित्र है। अभी ही पाप उदय आये और वो ही मित्र प्रतिकूल हो जाये तो हम कहेंगे कि ये ’मेरा शत्रु’ है। वास्तव में तो ना मित्र था और ना ही शत्रु है- मात्र भाग्य उदयानुसार निमित्त था जैसे कि Caishier होता है, जो बैंक में जाने पर हमारे ही पैसे हमे देने मे सहयोगी बनता है- उसे हम यह तो नहीं कह सकता है कि वो Caishier हमें महीने के खर्च के पैसे देने वाला है।
वास्तव मे जब हम कहते हैं कि यह मित्र मेरा है, तो हम समझते है कि वो हमारा साथ निभायेगा और हमारी उम्मीदो के अनुसार परिणमन करेगा। और वास्तव मे ऐसा कई बार देखने में भी आता है, मगर ऐसा नियम नहीं है। और इस प्रकार के अनुकूल परिणमन में मूल कारण वो मित्र नहीं वरन हमारा भाग्य है। तो हम अपने भाग्य को तो अपना मित्र या शत्रु कह सकते हैं, उस मित्र को नहीं। यहां शास्त्रीय भाषा में भाग्य(कर्म) को अन्तरंग निमित्त और उस मित्र को बहिरंग निमित्त कहते हैं।
इसी प्रकार से ये देश मेरा नहीं। ये समाज मेरा नहीं। ये परिवार मेरा नहीं। ये स्त्री, पुत्र मेरे नहीं। यहां तक कि शरीर भी मेरा नहीं, क्योंकि जिस प्रकार से सम्बन्ध मित्र से हम उपर समझ आयें हैं वैसा ही सम्बन्ध शरीर के साथ बनता है। और सूक्ष्म में जाये तो एक दृष्टी से राग द्वेष भी मेरे नहीं, और वही दष्टी सुखदायिनी है और ग्रहण करने योग्य है। ऐसा समझने से और आस्था करने से भव्य जन आत्मिक सुख शान्ति को प्राप्त करते हैं। ऐसा विश्व में सत्य को उद्घोषित करते हुये अनन्तकाल से जिनेन्द्र भगवन्त कहते आये हैं, और भविक जन इस वस्तु स्वरूप को जानकर चरितार्थ करते हुये इच्छाओं से रहित, अनन्त सौख्य सहित मोक्ष अवस्था को प्राप्त करते आयें हैं। हम भी इस सूत्र को सदा के लिये अपना लें।
इस सूत्र के साथ और भी सूत्र हमें अपनाने हैं: घर मेरा नहीं। स्त्री मेरी नहीं। धन मेरा नहीं। समाज मेरा नहीं। शरीर मेरा नहीं। सूक्ष्म दृष्टी में राग-द्वेष मेरे नहीं।
पहले हम ये समझते है कि वास्तव में हम किसे अपना समझते हैं। स्थूल रूप से - देश मेरा, समाज मेरा है। और कम स्थूल पर जायें तो परिवार, कुटुम्ब, मित्र मेरे हैं। और सूक्ष्म पर जायें तो शरीर मेरा है। और अध्यत्मिकता की सूक्ष्मता में जाये तो राग द्वेष अज्ञानता मेरी है, विकल्प मेरे हैं। इस प्रकार का मेरा-पना हमारे अन्दर बसा हुआ है। वास्तविकता में देखा जाये तो इनमें से हमारा कोई भी नहीं।
इनमें एक उदाहरण देखे- मानो हमारा एक मित्र को जो कर्तव्य निभाने वाला और सही दिशा दिखाने वाला हो, और एक आदर्श मित्र के सर्व गुणो से युक्त हो। तो वास्तव में क्या वह व्यक्ति हमारा मित्र है? तो इसमें पहली बात तो हमारे भाग्य अनुसार ही हमें मित्र मिला है। और जो वो हमारा अच्छा बुरा करता है वो भी कर्मानुसार करता है। हमारा पुण्य अच्छा है तो वो हमारी इच्छा के अनुसार की कार्य करता है, और हम मान बैठते हैं कि ये तो मेरा भला करने वाला है- इसलिये मित्र है। अभी ही पाप उदय आये और वो ही मित्र प्रतिकूल हो जाये तो हम कहेंगे कि ये ’मेरा शत्रु’ है। वास्तव में तो ना मित्र था और ना ही शत्रु है- मात्र भाग्य उदयानुसार निमित्त था जैसे कि Caishier होता है, जो बैंक में जाने पर हमारे ही पैसे हमे देने मे सहयोगी बनता है- उसे हम यह तो नहीं कह सकता है कि वो Caishier हमें महीने के खर्च के पैसे देने वाला है।
वास्तव मे जब हम कहते हैं कि यह मित्र मेरा है, तो हम समझते है कि वो हमारा साथ निभायेगा और हमारी उम्मीदो के अनुसार परिणमन करेगा। और वास्तव मे ऐसा कई बार देखने में भी आता है, मगर ऐसा नियम नहीं है। और इस प्रकार के अनुकूल परिणमन में मूल कारण वो मित्र नहीं वरन हमारा भाग्य है। तो हम अपने भाग्य को तो अपना मित्र या शत्रु कह सकते हैं, उस मित्र को नहीं। यहां शास्त्रीय भाषा में भाग्य(कर्म) को अन्तरंग निमित्त और उस मित्र को बहिरंग निमित्त कहते हैं।
इसी प्रकार से ये देश मेरा नहीं। ये समाज मेरा नहीं। ये परिवार मेरा नहीं। ये स्त्री, पुत्र मेरे नहीं। यहां तक कि शरीर भी मेरा नहीं, क्योंकि जिस प्रकार से सम्बन्ध मित्र से हम उपर समझ आयें हैं वैसा ही सम्बन्ध शरीर के साथ बनता है। और सूक्ष्म में जाये तो एक दृष्टी से राग द्वेष भी मेरे नहीं, और वही दष्टी सुखदायिनी है और ग्रहण करने योग्य है। ऐसा समझने से और आस्था करने से भव्य जन आत्मिक सुख शान्ति को प्राप्त करते हैं। ऐसा विश्व में सत्य को उद्घोषित करते हुये अनन्तकाल से जिनेन्द्र भगवन्त कहते आये हैं, और भविक जन इस वस्तु स्वरूप को जानकर चरितार्थ करते हुये इच्छाओं से रहित, अनन्त सौख्य सहित मोक्ष अवस्था को प्राप्त करते आयें हैं। हम भी इस सूत्र को सदा के लिये अपना लें।
इस सूत्र के साथ और भी सूत्र हमें अपनाने हैं: घर मेरा नहीं। स्त्री मेरी नहीं। धन मेरा नहीं। समाज मेरा नहीं। शरीर मेरा नहीं। सूक्ष्म दृष्टी में राग-द्वेष मेरे नहीं।
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