सूत्र ६: मेरा मरण नहीं
मात्र शरीर का मरण होता है, आत्मा का नहीं। इस सूत्र को बार बार भावना करने से शरीर के जन्म, मरण, रोग से भय शोक समाप्त हो जाते हैं, और जीव सुखी हो जाता है।
आत्मा किस प्रकार से शारीर में है, इसे समझते हैं। जिस प्रकार से दूध में कोई मणि हो और उसका प्रकाश पूरे दूध में फ़ैला हो, उसी प्रकार से आत्मा पूरे शरीर में फ़ैली हुई है।
अगर हम उस दूध को उबाल दे तो उफ़नते हुये दूध में भी प्रकाश पूरा फ़ैला रहता है, और उस दूध को अलग आकृति वाले बर्तन में डाल दे तो मणि का प्रकाश भी उसी आकार का हो जाता है। एकदम उसी प्रकार आत्मा भी जैसा शरीर हो वैसा ही आकार ले लेती है। छोटी चींटी में जाये तो उसका छोटा आकार ले लेता है, बढे हाथी में जाये तो वैसा आकार ले लेती है। वो प्रकाश दूध के हर प्रदेश में है; दूसरे शब्दो में दूध में ऐसा कोना नहीं जहां प्रकाश ना हो, ठीक उसी प्रकार आत्मा भी सम्पूर्ण शरीर में फ़ैली है।
जिस प्रकार से हम प्रकाश को दूध से भिन्न मानते हैं जबकि वो दोनो एक साथ है, उसी प्रकार जानने वाली आत्मा शरीर से भिन्न है। शरीर आंखो से दिखाई देता है, किसी ना किसी रंग को धारण किये होता है, मगर आत्मा बिना किसी रंग, गंध की है। जिस प्रकार से दूध में प्रकाश को हम उसकी रोशनी से दूध से भिन्न जानते हैं, उसी प्रकार आत्मा अपने ’जानने वाले गुण’ से ही शरीर से भिन्न जाना जाता है। आत्मा हमें अलग से आंखो से दिखाई दे जाये, ऐसा नहीं है। वरन आत्मा को हम उसके जानने के गुण से शरीर से भिन्न अनुभव कर पाते हैं। आत्मा के बारे हम कल्पना करे कि वो श्वेत रंग की है, अमूक आकार ही है- ऐसा भी नहीं। आत्मा के समझ तो उसके जानने के गुण से ही हो पाती है।
एक और उदाहरण लें - जैसे बल्ब में चमक होती है, वो उसके अन्दर बिजली के प्रवाह से होती है। अगर बिजली बल्ब में प्रवाहित ना हो तो चमक भी समाप्त हो जायेगी। उसी प्रकार से आत्मा शरीर में है, और मरण पर आत्मा के शरीर से निकल जाने पर शरीर कोई काम का नहीं रहता।
इस प्रकार आत्मा को शरीर से भिन्न जानने पर व्यक्ति का दृष्टिकोण ही बदल जाता है। जैसे कोई व्यक्ति लाल चश्मा लगाये तो समस्त दुनिया अब अलग प्रकार से दिखती है, उसी प्रकार जब शरीर से भिन्न आत्मा को जानता है तो पूरी दुनिया को देखने का नजरिया ही बदल जाता है। अपना शरीर जिसे ’मेरा’ कहता था, अब पराया लगने लगता था। शरीर रूपी घर में अपने को मेहमान समझने लगता है। पहले शरीर के जन्म के साथ अपना जन्म और मरण के साथ अपना विनाश मानता था, अब अपने को अविनाशी मानने लगता है। मरने का अब उसे भय नहीं लगता। पहले बिमारी होने पर सोचता था ’हाय मरा’, अब बिमारी होने पर उसे पङोसी बीमार हुआ ऐसा लगता है। पहले जीवन के निर्णय अपने 70-80 साल की जिन्दगी की आधार पर लिया करता था, अब निर्णय भव-भवान्तर को सोच कर लेता है। पहले शारीरिक गुणों के आधार पर अपने को अच्छा - बुरा, बङा-छोटा समझता था, अब आत्मिक गुणों के आधार पर अपना मापदण्ड करता है। पहले भाई, बन्धु, माता, पिता स्त्री को अपना सब कुछ मानता था। अब उन्हे ऐसा मानता है - जैसे कि हम लोगो से ट्रेन के सफ़र में कुछ समय के लिये मिलते हैं और फ़िर सदा के लिये छोङ देते हैं, उसी प्रकार इन सम्बन्धीयों को भी सदा के छोङ देना है इसीलिये ये सम्बन्धी किस बात के । इस प्रकार से आगे बढते बढते शरीर से भी समस्त प्रकार के राग द्वेष को जीत लेता है, और परम निर्मल पवित्र सिद्ध दशा को प्राप्त करता है।
इसी से सम्बन्धित और सूत्र भी समझने हैं: मेरा जन्म नहीं, मेरे को रोग नहीं, मैं काला-गोरा नहीं इत्यादि
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