Tuesday, September 19, 2017

भगवान कैसा होना चाहिए?

लोग कहते हैं कि भगवान ये है, वो है, ऐसा है, वैसा है, आदि। आज हम सोचते हैं, कि भगवान आखिर होना कैसा चाहिये?

पहले ये देखते हैं कि भगवान का ज्ञान कैसा होगा? क्या वो दुनिया को पूरी तरीके से जानता होगा, या आधा अधूरा?

अगर वो आधा अधूरा जानता है, तो वो हमें सही रास्ता अपने सीमित ज्ञान से बतायेगा। और हो सकता है कि वो हमारे किये सबसे अच्छा रास्ता ना हो - क्योंकि ज्ञान सीमित है। अगर वो दुनिया को पूरी तरीके से जानता है, तो उसका बताया रास्ता हमारे लिये एक दम सटीक और सबसे बढिया होगा।

पूरी दुनिया को जानने का मतलब है, जो समस्त सिद्धान्तो और नियमो को जानता हो। सच्चा सुख कैसे मिलता होता है, दुख कैसे होता है। दुनिया के सारी वस्तुओं के अस्तित्व के बारे में। वो सब छोटी छोटी चीजे भी जो बङे- बङे माइक्रोस्कोप से ना देखी जा सके, और वो सब दूर रहने वाली चीजे, जो टेलीस्कोप से ना देखी जा सका। उस past के बारे में, जो किन्ही किताबो में ना हो, और उस present के बारे में जो पूरी तरीके से हम अपनी दोनो आंखो से देख नहीं सकते।

तभी तो भगवान हमारे लिये हमें सही रास्ता बता सकेगा। मतलब भगवान तो पूरी दुनिया को जानने वाला ही अपने को चलेगा। जो थोङा बहुत जाने, ऐसा अपने को नहीं चलेगा।

अब जो हमें सही रास्ता बतलाये, और पूरी दुनिया को जानने वाला हो- क्या वो पक्षपाती हो सकता है- कि किसी से प्रेम करे और किसी से नफ़रत। किसी को सही बताये और किसी को गलत। उसकी दृष्टी में तो सब कोई समान होने चाहिये। अगर समान नहीं है, तो उसमें और हममें क्या अन्तर रह गया?

और ऐसा भगवान मिल भी गया कि जो सब कुछ जानने वाला है, और सबको समान दृष्टि से देखता है, तो हमें उसका क्या फ़ायदा? हमें तो उसका तब फ़ायदा है जब वो हमें हमारे भले का उपदेश दे। एक चुप चाप बैठे भगवान से हमें क्या? तो भगवान उपदेश देने वाला भी होना चाहिये।

जो भगवान सब कुछ जानता है, और सबको समान देखता है, वो हमें सही उपदेश ही देगा। गलत उपदेश तो तब देगा, जब हमसे बैर रखता है। मगर वो तो मैत्री और बैर से परे है।

तो ऐसा भगवान मिल जाये, तो हम उसकी बात पूरी तरीके से मान सकते हैं, और सही मायने में उसे भगवान कह सकते हैं।

मतलब यह कि तीन चीजे तो हमारे भगवान में होनी चाहिये:
१) पूरी दुनिया को जानने वाला हो
२) जो ना किसी से प्रेम करे और ना किसी से नफ़रत। उसकी दृष्टी में सब समान हो।
३) सही रास्ता बतलाने वाला हो

अब समझदार लोग ढ़ूंढ़ सकते हैं, कि कहां मिलेगा ऐसा भगवान?

Sunday, September 10, 2017

बोराव का जैन समाज

सितम्बर २०१७ को मेरा ४-५ दिन को राजस्थान के बोराव गांव में जाने का सुयोग बना। मैं माता-पिता के साथ उदयपुर से टैक्सी में बोराव के लिये निकला। हमारे पास समान बहुत ज्यादा था भारी ६ नग थे, क्योंकि खाने का समान और बर्तन भी साथ में थे।

हम शाम को बोराव पहुंचे और सोचा यहां धर्मशाला में रूकेंगे। वहां पहुंचते ही वहां के ७-८ बुजुर्ग लोगो ने जय जिनेन्द्रकहकर कुशल पूछी, और हमें भोजन के लिये ले गये। हमें टैक्सी से एक भी नग उतारने नहीं दिया। उन्ही के बच्चो ने सारा समान उतारा, और जब मैने थोङा प्रतिरोध किया, तो कहा – ’ये बालक भी मेहमान की खातिर करना सीखेंगे। करने दो इन्हे।आकस्मिक मेरे को विचार आया कि मैं तो बचपन में ही होस्टल निकल गया था और वहां अतिथि सत्कार का पाठ तो मेरे पाठ्यक्रम में था ही नहीं।

वो हमें भोजन के लिये ले गये। भोजन में सारा समान उनके खेत का जैविक(ओर्गैनिक) था। लम्बी-मोटी ककङी, और स्वादिष्ट सब्जी। घर का ही घी था। वहां पर सब लोग बहुत की क्रियाशील थे। जिस परिवार में हम गये, वहां पर भाई करीब ६०-७० साल के थे। सबका अलग अलग घर और परिवार था। मैने एक से पूछा कि आपका घर कौन सा है। उन्होने कहा कि हमारे पैतिस जैन के घर हैं। लोग वहां इतने घुले मिले थे कि ४-५ वहां रहने के बावजूद भी पता नहीं पङा कि कौन सा घर किसका है।

इस परिवार के पास ३० -४० देसी गाय थी, और सारे बुजुर्ग भाई सुबह शाम खुद दूध निकालते थे। इनकी ५०० एकङ की खेती थी, और कई सारी दुकाने थी, और एक भी नौकर नहीं रखा था। महाराज जी के दर्शन करने कई यात्री आते थे, मगर ना तो कोई भोजन शाला थी और ना धर्मशाला। सारा समाज मिलकर अपने ही घर में रूकवाते थे, और खुद ही भोजन करवाते थे।

रात को उन्होने हमें अपने ही घर में रूकवाया। घर के बीच में बङा नीम का पेङ था, और साथ मे कमरा था जिसकी मोटी दिवारे और पत्थर की जमीन थी। उसमें रूककर अपने आप ही मन में सुकून मिलता था।

सुबह उठके धोती दुपट्टा पहने मैं मन्दिर पहुंचा। मैं किसी को नहीं जानता था, मगर सब कोई मेरे को जय जिनेन्द्र कहने लगे। वहां जाके देखा कि सारे बुजुर्ग पुरूष सामग्री को खुद अपने हाथो से शोधन करके थाली तौयार कर रहे थे। एक ने मेरे से पूछा कि शान्ति धारा करोगे? मैने कहा हां। और उन्होने मेरे को मुकुट पहनाकर शान्ति धारा करवाई और पूजा की थाली बना के दी। मैने तीन दिन अभिषेक किया, और तीनो दिन उन्होने मेरे से शान्ति धारा कराई, और पूजा की थाली बनाके दी। आखिरी दिन मैने आग्रह किया कि उनमे से कोई शान्ति धारा करे, तो उन्होने जवाब दिया – ’अतिथि देवो भवः

वें मेरे को ठीक से जानते भी नहीं थे, फ़िर भी इतना वातसल्य! उन्हे इससे मतलब नहीं था कि अतिथी कौन है, मगर उन्हे ज्यादा इससे मतलब थी कि उन्हे आगंतुक के लिये ह्रदय में असीम वात्सल्य रखना है। यहां पर लोग को अगर कोई व्यसन था, तो वो था दूसरो को सम्मान देना।

वहां के सारे लोगो का पहनावा भी एक दम साधारण सफ़ेद कुर्ता पजामा। जबकि उनके पास अपार धन सम्पत्ति थी। शरीर से एकदम क्रियाशील और मन से प्रसन्न ऐसा बस मैने अभी तक पुस्तको में ही पङा था। मुझे पण्डित बैनाडा जी का सूत्र ध्यान आया – ’मोटा पहनो, मोटा खाओ, खुश रहो।शायद शहरो में आधे से ज्यादा अनावश्यक विकल्प तो अपनी वेशभूषा, रहन सहन की वजह से ही होते है।

मेरी माता -पिता जी से बात हुई, तो उन्होने कहा कि अब से ३०-४० साल पाले उनके गांव में भी ऐसा ही वातावरण थी। शायद उनके गांव अलग दिशा में चले गये, मगर बोराव ने अपने को अभी भी अपनी आत्मा को जीवन्त रखा।
दिन में मुनी श्री विनीत सागर महाराज जी के दर्शन करने गया, तो उन्होने कहा- दुनिया में सारे कार्य आसान है- पैसा कमाना इत्यादि यहां तक की साधु वेष भी धारण करना। सबसे जटिल काम है अपनी आत्मा को मोक्षमार्ग में लगाना।

शाम को आरती हुई, तो उन्होने मेरे से कहा कि आप आरती गाने के लिये माइक लो। मैने कहा मेरा गला अच्छा नहीं है। माता जी ने वहां समाज में एक व्यक्ति से पूछा कि यहां कोई योगा क्लास होती है। तो उन्होने कहा कि सुबह होती है, और आप जाना वो योगा कराते हैं, और आपको कोई कमी लगें तो आप उन्हे सिखा देना।

अगले दिन महाराज जी का आहार हुआ तो बैण्ड बाजे के साथ महाराज जी को समाज मन्दिर में लेके आया। बैण्ड बजाने वाले लोग भी समाज के ही थे। उनसे बात करी तो कहते हैं – ’हम all-in-one हैं, सारे काम खुद से करते हैं।

आयुर्वेद का प्रयोग भी बहुत बढ़िया तरीके से करते हैं। वैसे तो सभी लोग स्वस्थ दिखाई पङे, फ़िर भी बिमारी हो जाये तो स्थानिय वनस्पतियों से अपना सटीक इलाज कैसे करना ये जानते हैं। ३५ घर की समाज ने एक शास्त्री विद्वान को भी रखा हुआ था, जो प्रतिदिन बच्चो और महिलाओं की पाठशाला लगाता है।

वहां से निकलने से एक दिन पहले पिता जी को खूब खांसी हो गयी। तो वहां के एक मेडीकल स्टॊर से दवाई लेने गये। उसके पास दो बार दवाई लेने जाना पङा। वो जैन समाज से ही था, और बहुत आग्रह करने पर भी उसने दवाई के पैसे नहीं लिये।

एक बात बहुत खास देखी। सारा काम वहां समय पर होता था। पूजा शुरू होने का समय, पूर्ण होने का समय, कोई नया प्रोग्राम हो, उसका समय सब सटीक। जैसा बता दिया, उसी समय पर। ऐसा अक्सर माना जाता है कि भारतीय लोग आयोजन में समय का अनुशासन नहीं रखते, मगर यहां पर बिल्कुल विपरीत दिखाई दिया।

बात करने की कला में भी निपुण हैं। कम बोलते हैं, सटीक बोलते हैं, और ऐसा बोलते हैं कि दूसरे को अच्छा लगे और उसके सम्मान की रक्षा रहे। आजकल ऐसा कहने में आता है कि भारतीय लोग स्पष्टवादी नहीं रहे और टीमवर्क में कमजोर रहते हैं, मगर यहां के लोग मुझे एक दम स्पष्टवादी और टीमवर्क में एकदम निपुण दिखाई दिये।

इतना प्रेम, सरलता और वात्सल्य मैने आज तक कहीं नहीं देखी था। लोगो ने बताया कि वहां पर बोली लगाने की परम्परा नहीं है। सब लोग प्रेम से खुद से ही सब व्यवस्था कर लेते हैं।

गांव में लगभग ६०० घर थे, और सबके घर में देसी गाय। सङक पर जाओ तो सारी जगह गाय घूमती दिखाई पङती थी।


शायद मैं प्राचीन भारतीय संस्कृति के दर्शन कर रहा था, जो पिछली १-२ पीढ़ी में पता नहीं कहां खो गयी थी, और मुझे किताबो में ही दिखाई देती थी, मगर बोराव में मुझे वो जीवन्त दिखाई दी।

प्रश्न: जब शरीर भी नहीं हूं, तो आत्मा साधना ही करूं, परिवार वालो के प्रति कर्तव्यो का निर्वाह क्यों करूं?

उत्तर : हमारे अन्दर कितनी विरक्ति होती है उसके अनुसार ही कार्य करने योग्य है। अगर जीव में पर्याप्त विरक्ति है, तो परिवार छोङकर सन्यास धारण क...