Wednesday, June 6, 2012

Poem: NeeyamSagar Ji


नियमसागर महाराज जी

शील, गुण, व्रत के नियम लिये, निकले नियम के सागर
विद्या के सागर में मिलने, बन गये नियमसागर

प्रतिमा पदो को पार किये थे, बने थे वे ऐल्लक
सारा परिग्रह छोङ दिये थे, एक लंगोटी में दिखायी झलक

आत्म आत्म की रट है लगाई, तू पुद्गल मैं आतम
सब और से राग को समेटा, मिटा दिया मोह तम

विषय-विषय विष की धारा, जो बही थी अनादि से
दी पछाङ उस राग को, जोङा धागा आतम से

हिंसा हिंसा सदा रही, रही ना कभी शान्ति
अब अहिंसा ही जीवन तुम्हारा, मिटा दी सारी भ्रान्ति

तुम चरण जब जब चले, जी मेरा मचलाये
कोई तो जाके तुम चरणो की धूल तो ले लाये

हे चन्द्र! ईर्ष्या है मुझे तुझसे, क्योंकि तू हर रात्रि दर्शन करता मुनिवर के
मुझे भी कभी झलक दिखादे, कुछ प्रसंग सुना दे, उस तपस्वी मुनिवर के

पांच महाव्रत, पांच समिति ही तुम्हारा है आचरण
स्वाधीन सुख है लक्ष्य तुम्हारा, वही पथ उसी में रमण

मैं प्यासा तुम सागर हो, मिटादो सुख की प्यास
गागर में सागर भर दो, यही बस अन्तिम आस

Wednesday, May 23, 2012

Jeevan ke Sutra - 30


सूत्र ३०: शरीर की गुलामी छोङे

इस संसार में हम हर वस्तु से कोई ना कोई काम ले लेते हैं। हर प्रक्रिया का कोई ना कोई sideproduct भी निकल आता है। पर यह शरीर ऐसा है कि इससे जो भी निकलता है वो नाली में ही डालना पङता है।

शरीर में सांस निकलती है तो वो ऐसी कि उसे निकालने वाला ही सूंघना नहीं चाहता। मल इत्यादि एक बार शरीर से छूट जाने पर उसे देखना नहीं चाहता।

शरीर पर powder लगा लो, दांतो के लिये मंजन लगा लो- कोई भी ऐसी चीज नहीं जो लगाने पर भी स्वच्छ रहे - जो भी शरीर के संयोग में आता है वो खुद ही अपवित्र हो जाता है।

शरीर के साथ कुछ ना करो फ़िर भी अपने आप ही रोज गन्दा हो जाता है, कि साबुन से मल मल के इसे साफ़ करना पङता है।

रोज ही इसे सुबह शाम खिलाना पङता है। फ़िर भी यह ऐसा दगाबाज है, कि किसी दिन खाने को ना दो तो काम करने से मना कर देता है। इतनी देखभाल करने पर भी एक दिन हमें छोङ देता है।

यह जीव सदा से ही शरीर का गुलाम रहा है। जैसा शरीर कहता है वैसा करता है। शरीर में थोङी कमी हो तो इसे खाना खिलाता है, उसे खूब सुगंधित मिष्ठान खिलाता है। और शरीर उस सुगन्धित भोजन को विघटित कर मल में परिवर्तित कर देता है। शरीर काम करना चाहता है तो काम कराता है। शरीर थक जाता है तो उसे आराम देता है। शरीर को सजाने के लिये नाना कपङे, इत्र इसे लगाता है। विचार करें- क्या हम शरीर के गुलाम नहीं?

वास्तव में यह आत्मा शरीर का गुलाम नहीं, शरीर आत्मा का गुलाम है। मगर अज्ञान से यह अपने को शरीर का गुलाम बना बैठा है। आत्मा की कषायों से ही कर्म बन्धा और कर्म से ही शरीर मिला। कर्म ही शरीर की अच्छी बुरी अवस्था में निमित्त हुआ- इसलिये शरीर आत्मा का गुलाम हुआ। मगर अपने को शरीर समझ जाने पर आत्मा ने अपने को शरीर का गुलाम बना लिया।

आत्मा ने अपने को शरीर का गुलाम मानकर अपनी बहुत हानि करी। अपने को गुलाम मान लिया तो उससे ऐसे कर्म बान्धे कि फ़िर गुलाम ही बना रहे। और ये चक्र चलता रहा।

कार्तिकेयानुप्रेक्षा से शरीर के बारे में कुछ गाथाओं के सारांश:
  • इस शरीर को अपवित्र द्रव्यों से बना हुआ जानो। क्योंकि यह शरीर समस्त बुरी वस्तुओं से बना हुआ समूह है। उदर में उत्पन्न होने वाली लट, जूं तथा निगोदिया जीवो से भरा हुआ है, अत्यन्त दुर्गन्धमयी है, तथा मल और मूत्र का घर है।
  • जो द्रव्य अत्यन्त पवित्र, अपूर्व रस और गन्ध से युक्त, तथा चित्त को हरने वाले हैं, वे द्रव्य भी देह में लगने पर अति घिनावने तथा दुर्गन्धयुक्त हो जाते हैं।



I wrote or extracted above explanations based on my knowledge from Spiritual Text and Saints, and knowledgeable people correct for me for any mistakes. Micchami Dukkadam, Shrish

Thursday, April 19, 2012

How to win arrogance (मद)


Based on Ratan Karand Shravakachara Shloka 27


  1. कुल मद: अगर मेरे पास रत्नत्रय है, तो मुझे अच्छे कुल से क्या लाभ। क्योंकि उससे श्रेष्ठ सम्पत्ति रत्नत्रय मेरे पास है। इसके विपरीत अगर मिथ्यात्व, अविरति आदि आस्रव हैं तो कुल से क्या प्रयोजन - क्योंकि इस आस्रव से दुर्गतिगमन तो अवश्यवमेव होगा।
  2. जाति मद: अगर मेरे पास रत्नत्रय है, तो मुझे अच्छे जाति से क्या लाभ। क्योंकि उससे श्रेष्ठ सम्पत्ति रत्नत्रय मेरे पास है। इसके विपरीत अगर मिथ्यात्व, अविरति आदि आस्रव हैं तो जाति से क्या प्रयोजन - क्योंकि इस आस्रव से दुर्गतिगमन तो अवश्यवमेव होगा।
  3. रूप मद: अगर मेरे पास रत्नत्रय है, तो मुझे अच्छे रूप से क्या लाभ। क्योंकि उससे श्रेष्ठ सम्पत्ति रत्नत्रय मेरे पास है। इसके विपरीत अगर मिथ्यात्व, अविरति आदि आस्रव हैं तो रूप से क्या प्रयोजन - क्योंकि इस आस्रव से दुर्गतिगमन तो अवश्यवमेव होगा।
  4. ज्ञान मद: अगर मेरे पास रत्नत्रय है, तो मुझे अच्छे ज्ञान से क्या लाभ। क्योंकि उससे श्रेष्ठ सम्पत्ति रत्नत्रय मेरे पास है। इसके विपरीत अगर मिथ्यात्व, अविरति आदि आस्रव हैं तो ज्ञान से क्या प्रयोजन - क्योंकि इस आस्रव से दुर्गतिगमन तो अवश्यवमेव होगा।
  5. धन मद: अगर मेरे पास रत्नत्रय है, तो मुझे अच्छे धन से क्या लाभ। क्योंकि उससे श्रेष्ठ सम्पत्ति रत्नत्रय मेरे पास है। इसके विपरीत अगर मिथ्यात्व, अविरति आदि आस्रव हैं तो धन से क्या प्रयोजन - क्योंकि इस आस्रव से दुर्गतिगमन तो अवश्यवमेव होगा।
  6. बल मद: अगर मेरे पास रत्नत्रय है, तो मुझे अच्छे बल से क्या लाभ। क्योंकि उससे श्रेष्ठ सम्पत्ति रत्नत्रय मेरे पास है। इसके विपरीत अगर मिथ्यात्व, अविरति आदि आस्रव हैं तो बल से क्या प्रयोजन - क्योंकि इस आस्रव से दुर्गतिगमन तो अवश्यवमेव होगा।
  7. तप मद: अगर मेरे पास रत्नत्रय है, तो मुझे अच्छे तप से क्या लाभ। क्योंकि उससे श्रेष्ठ सम्पत्ति रत्नत्रय मेरे पास है। इसके विपरीत अगर मिथ्यात्व, अविरति आदि आस्रव हैं तो तप से क्या प्रयोजन - क्योंकि इस आस्रव से दुर्गतिगमन तो अवश्यवमेव होगा।
  8. प्रभुता मद: अगर मेरे पास रत्नत्रय है, तो मुझे अच्छे प्रभुता से क्या लाभ। क्योंकि उससे श्रेष्ठ सम्पत्ति रत्नत्रय मेरे पास है। इसके विपरीत अगर मिथ्यात्व, अविरति आदि आस्रव हैं तो प्रभुता से क्या प्रयोजन - क्योंकि इस आस्रव से दुर्गतिगमन तो अवश्यवमेव होगा।


अर्थात केवल यही प्रयोजनीय है कि मेरे को रत्नत्रय है या मिथ्यात्व, अविरति आस्रव है। बाकी कुछ भी प्रयोजनीय नहीं। जिस प्रकार बनिया देखता है कितना मुनफ़ा हुआ, बस वही प्रयोजनीय है- इस बात से कोई मतलब नहीं कि जो ग्राहक आया वो कौन से गांव से आया कौन से कुल का था। उसे प्रकार अपने को यही प्रयोजनीय है कि अपना श्रद्दान, ज्ञान, चारित्र सम्यक है कि मिथ्या। बाकी कुल, जाति, प्रभाव, नाम आदि कुछ प्रयोजनीय नहीं।

Wednesday, April 18, 2012

11 Pratima of Jain householder

Below is description of 11 Pratima of Shravak.


1. दर्शन प्रतिमा 
* पच्चीस दोषो से रहित  
     ८ मद [कुल, जाति, रूप, ज्ञान, धन, बल, तप, प्रभुता(आज्ञा, मान्यता)] 
     ३ मूढता [देव, गुरू, लोक]  
     ६ अनायतन [कुगुरू, कुदेव, कुधर्म, कुगुरू सेवक, कुदेव सेवक, कुधर्म सेवक]  
     ८ दोष [शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़दृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य, अप्रभावना] 
* संसार, शरीरे, इन्द्रिय भोग से विरक्त हो 
* पंच परमेष्ठी ही जिसको शरणभूत हों 
* जीवादि तत्वो का श्रद्धान करने वाला हो। 
* आठ मूलगुणो को जो धारण करता है। 
* तीन शल्यों का अभाव नहीं 
है। 
* अणुव्रतो में कदाचित अतिचार लगते हैं 

2. व्रती 
* पांच अणुव्रत 
      आहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, अपरिग्रहाणुव्रत 
* तीन गुणव्रत 
      दिगव्रत, अनर्थदंडव्रत, भोगोपभोगपरिमाणव्रत 
* चार शिक्षाव्रत 
      देशावकाशिक(देशव्रत), सामायिक, प्रोषोधोपवास, वैयावृत्य(अतिथिसंविभाग) 
उपर्युक्त व्रतो को माया-मिथ्या-निदान शल्यो से रहित होकर पालन करता हो। 
* तीन शल्य छूट जाते हैं। 
* अणुव्रतो का निरतिचार पालन होता है। 
* तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत में कदाचित  
अतिचार लगते हैं। 
3. सामायिक 
३ समय सामायिक करता है (प्रातःकाल, मध्यान्ह काल, सांयकाल) 

4. प्रौषध 
अष्टमी, चतुर्दशी पर प्रौषध करता है 
शक्ति अनुसार करने को कहा गया है।  
वृद्धावस्था या बिमारी आदि के कारण यदि  
उपवास की शक्ति क्षीण हो गयी है  
तो अनुपवास या एकासन भी कर सकता है। 
5. सचित्त त्याग 
दया की मूर्ति होता हुआ मूल, फ़ल, पत्र, डाली आदि बिना अग्नि से पकाये हों, कच्चे हों उन्हे भक्षण नहीं करता। 

6. रात्रि भुक्ति विरत 
दयालु होता हुआ रात में कुछ नहीं खाता पीता 
पहली प्रतिमा में रात्रि भोजन त्याग कृत अपेक्षा होता है। 
इस प्रतिमा में ९ कोटि (मन, वचन काय और  
कृत, कारित अनुमोदना) से त्याग होता है। 
7. ब्रहमचारी 
शरीर के प्रति अशुचि भाव रखता हुआ अपनी स्त्री के साथ शयन त्याग देता है 
राग उत्पन्न करने वाले वस्त्राभरण नहीं पहनता, 
शृंगारकथा, हास्यकथा, काव्य नाटकादि का  
पठन श्रवण यानि रागवर्धक सभी वस्तुओं का  
त्याग कर देता है। 
8. आरंभ त्याग 
प्राणघात के कारण नौकरी, कृषि, असि, लेखन आदि छोङ देता है 
* अभिषेक, दान, पूजन आदि का आरम्भ कर सकता है। 
* जिस वाणिज्य आदि में प्राणिहिंसा नहीं होती उसमें बाधा नहीं। 
* आरम्भ का त्याग कृत, कारित से होता है, अनुमोदना से नहीं। 
पुत्रों आदि को आरम्भ की अनुमति दे सकता है। 
* कपङे धोना, जलादि भरना आदि कार्य  
स्वयं अपने हाथ से कर सकता है। 
* धनोपार्जन के लिये पापारम्भ का त्याग करे और स्त्री  
पुत्रादि था धनादि समस्त परिग्रह का विभाग करके  
अल्प धन स्वयं रखे। उसे अपने शरीर के साधन,  
भोजन, औषधि आदिअ में लगावे, दान पूजा करे।  
स्वयं भोजन बनाकर खा भी सकते हैं। 
9. परिग्रह त्याग 
दस बाह्य वस्तुओं में ममता का त्याग करता है, आत्मा में लीन रहके सन्तोषी होता है।      
* दस प्रकार का परिग्रह: क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद(दासादि), 
चतुष्पद(गायादि), शयन, यान (पालकी), कृप्य(रेशमी-सूती  
कोशादि के वस्त्र), भाण्ड (चन्दन, कांसा आदि के बर्तन) 
* वस्त्र, मकान आदि परिग्रह को छोङकर शेष सब परिग्रह छोङ देता है। 
*  ममत्वभाव होने से आरम्भ आदि में पुत्र को अनुमति देता है। 
10. अनुमति त्याग 
आरंभ की कार्यो में अनुमोदना/अनुमति नहीं करता/देता 
* आरम्भ-परिग्रह और विवाह आदि ऐहिक कार्यों में जिसकी
 अनुमति नहीं है। स्वजनो और परजनो के पूछने पर भी गृह 
सम्बन्धी कार्यो में अनुमति नहीं देता। 
*  धार्मिक कार्यो में अनुमति दे सकता है। 
*  घर से निकलने की इच्छा हो जाने पर गुरूजन, बन्धु-बान्धव 
और पुत्रादि से यथायोग्य पूछे। 
11. उद्दिष्टत्याग 
घर छोङकर मुनि संघ में रहता है। भिक्षा द्वारा भोजन ग्रहण करता है। एक खंड वस्त्र को घारण करता है। 
क्षुल्ल्क: 
* खण्ड वस्त्र पहनते हैं: जिससे मस्तक ढ़के तो पैर न ढ़के, पैर 
ढ़के तो मस्तक न ढ़के। 
*  दाढ़ी, मूंछ और सिर के बालो को कैंची से कटावे। 
*  पिच्छी से उपकरण को मार्जन करके उठावे, रखे 
*  बैठकर पात्र में भोजन करे। हाथ में पात्र लिये 
हुए  श्रावक के घर जाकर उसके 
आंगन में खङे होकर ’धर्मलाभ’ कहकर भिक्षा 

की प्रार्थना करे।  इस प्रकार घर-घर भिक्षा 
मांगना ना रूचे तो एक घर में ही मुनियों 
के पश्चात दाता के घर जाकर भोजन करे। 
*  अन्तराय आने पर भोजन पान का त्याग करे। 

ऐलक: 
*  लंगोट रखते हैं 
*  दाढ़ी मूछ के बालो को हाथ से उखाङते हैं। 

एषणा के दोषो से रहित करपात्र में ही भोजन 
करते हैं। 
*  ये सभी परस्पर ’इच्छामि’ उच्चारण द्वारा 
विनय व्यवहार करते हैं। 
* दोनो ही क्षुल्लक ऐल्लक रेल, मोटर आदि वाहन 
में बैठकर यात्रा नहीं करते, पैदल विहार करते हैं। 

क्षुल्लिका: 
*  सोलह हाथ की सफ़ेद साङी और चद्दर रखती है। 
*  क्षुल्लिका की सारी क्रियाएं क्षुल्लक के समान है। 

आर्यिका: 
*  सोलह हाथ की फ़ेद साङी रखती है। 
*  उपचार से महाव्रती कहा है। 
 

Monday, April 2, 2012

Visit to India to Jain Saints - March 2012


हस्तिनापुर में महाराज जी के दर्शन

मैंने मुनिमहाराज जी के हस्तिनपुर में दर्शन किये। उनका नाम तो भूल गया- मगर इतना धयान है कि वें आचार्य धर्मभूषण महाराज जी के शिष्य थे। उनको मैने सुबह आहार दिया और मेरा दुर्भाग्य कि रबङी लेते वक्त उसमें बाल निकल जाने से उनका अन्तराय हो गया।

उन्होने बतलाया कि ’कोई तुम्हारे दस हजार रूपये लूटे - तो उससे द्वेष ना करो क्योंकि वो तो पुराने कर्मो का कर्जा था जो तुमने वापस किया। उसके पास जाओ और कहो दस-बीस रूपये और लेले- अगर कुछ पुराने लेन देन का ब्याज बचा रह गया हो।’ बाद में वो व्यक्ति कभी मिले तो कहना- ’जय जिनेन्द्र।’ और मन से आशीष देना ’खुश रहो’।

उन्होने कहा कि अगर श्रावक जबरदस्ती मुनिमहाराज को गरिष्ट भोजन खिलाये तो इसमें मुनि महाराज जी अपना दोष समझे। उन्होने बतलाया कि एक बार एक मुनिमहाराज जी ने एक आचार्य जी से कहा कि श्रावक बहुत जबरदस्ती करते हैं, और ना चाहते हुये भी बहुत गरिष्ट भोजन खिला देते हैं। तो आचार्य जी ने कहा कि अगर कोई रोटी के दो ग्रास तुम्हारी अंजली में रखे और उसके ऊपर स्टील की कटोरी रख दे, तो क्या तुम स्टील की कटोरी खा लोगे या अन्तराय करोगे? उनका कहने का मतलब यह समझ में आया। श्रावक लोग कैसा भी करे, मुनि महाराज जी अपने को दृढ़ रहना चाहिये।

एक बार एक मुनिमहाराज दिल्ली में गये और आंकङी ली कि ब्रहमचारी से ही आहार लूंगा। उन्हे एक गरीब ब्रहम्चारिणि मिली और उन्होने आहार किया। उन्हे आहार में खिचङी इत्यादि ही मिली। जब महाराज जी जाने लगे तो एक सेठ ने ब्रहम्चारिणी को उलाहना दी कि तूने महाराज जी को खिचङी खिला कर ही भेज दिया। इस बात पर महाराज जी ने कहा- ’अब हमारा नीयम है कि अगले ३० दिन तक हम केवल खिचङी, दूध और पानी ही आहार में लेंगे और गरीब के घर ही आहार लेंगे जिसके घर आहार सामान्यतया नहीं होता।’

मेरे को महाराज जी की बातो का निष्कर्ष निकला कि अपने को सुधारो दूसरो को नहीं।

हस्तिनापुर में भरत भूषण महाराज जी के दर्शन

मैने भरत भूषण महराज जी के दर्शन किये। उनके शरीर पर काली मैल की परत जमी हुई, पसीने से शरीर लथपथ देखा। बाद में पिताजी ने बतलाया कि वे काय को बिल्कुल नहीं साफ़ करते और कोई श्रावक साफ़ करने की चेष्टा करे तो उसे डांट देते  है। मुझे उनके शरीर के प्रति वीतरागता देख काफ़ी प्रेरणा मिली।

उनसे बात करने पर उन्होने बतलाया कि एक बार कुछ मुसलमानो ने उन्हे कहा- ’देखो आ गये नंगे बाबा’। इस पर उनके साथ चलने वाले श्रावको ने प्रतिरोध करने की कोशिश की तो महराज जी ने मना कर दिया। उन्होने कहा- कि सही तो कह रहे हैं- शरीर तो है ही नंगा, आत्मा भी नंगी है- उसमें कोई विकार नहीं। हमारी तो आत्मा भी नंगी, इसलिये कहने दो।

महाराज जी सदा प्रसन्न दिखते हैं। मानो उनके अन्दर कोई विकार ही ना हो। चर्या कठोर पालन करते हैं और आदर्शो को पालन करते में रत रहते हैं।

सोनागिरी जी में उत्तम सागर महराज जी के दर्शन

सोनागिरी जी में उत्तम सागर महराज जी से दर्शन हुवे। महाराज जी ने समझाया- ’जब तुम camera से फ़ोटो खींचते हो तो रील पर प्रकाश आता है और कैमरे की खिङकी फ़ोटॊ खींचते ही एक दम बन्द हो जाता है। उसी प्रकार जब भगवान के दर्शन करो तो भगवान को देखो और फ़िर आंखे बन्द कर लो। एक दम बन्द कर लो। उनके फ़ोटो अन्दर खींच लो और देखो ’यही तो मैं हूं’। मैं ही तो परमात्मा हूं। यही तो मेरा स्वरूप है।’ महाराज जी ने रात भार इसका चिन्तन करने को कहा।

मैने इसके बारे में रात भर सोचा। अगले दिन सुबह उठके उन्हे आहार दिया। उन्होने पूछा ’तुम्हारी गाङी garage की है कि showroom की?’ मैने कहा- ’समझ नहीं आया’। महाराज जी ने पूछा- ’शादी हुई की नहीं?’ मैने कहा- ’जी। मेरी गाङी तो garage की है’ महाराज जी ने अफ़सोस जाहिर किया, मगर कहा अगले भव में ध्यान रखना।


सोनागिरी जी में अमित सागर महराज जी के दर्शन

सोनागिरी जी में अमित सागर महाराज जी से चर्चा हुई: उन्होने कहा नमोकार मंत्र की जाप इस प्रकार करे: पहले आती जाती श्वास को देखें। जब श्वास सामान्य हो जाये और आने वाले और जाने वाली श्वास में लगभग समान समय लगे तब नमोकार मंत्र की जाप शुरू कर दे। सांस लेते हुये णमो अरिहंताणं, सांस छोङते हुये णमो सिद्धाणं, सांस लेते हुये णमो आइरियाणं, सांस छोङते हुये णमो उवज्झायाणं, सांस लेते हुये णमो लोए, सांस छोङते हुये सव्वसाहूणं का उच्चारण करें।’ मैने पूछा कि इसमें तो १०८ बार की जाप करने में बहुत समय लग जायेगा। उन्होने समझाया कि ज्यादा समय लगे तो थोङे समय के लिये ही करो- जितने हो जाये उतने ही बढिया। उन्होने भक्तामर स्त्रोत्र के भी उच्चारण के नये तरीके बतलाये।

उन्होने बतलाया- क्रमबद्धपर्याय सही concept नहीं। हिन्दुओं ने बोला कि भगवान ही कर्ता धर्ता है इसलिये तुम कुछ मत करो। और क्रमबद्धपर्याय वाले कहते हैं कि भगवान ने जो देख लिया वैसा ही होगा, इसलिये तुम कुछ मत करो। दोनो ही concepts पुरूषार्थ का लोप करते हैं।

उन्होने यह भी बतलाया कि आजकल जैन श्रावको को पूजा का फ़ल इसलिये कम मिलता है क्योंकि वें अर्घ चढाने में लापरवाही करते हैं। भगवान को अर्घ में मूल्यवान वस्तुयें चढायें। जैसे भिन्न भिन्न प्रकार के फ़ल बदल बदल के चढावें। कभी बादाम, कभी किशमिश, कभी अखरोट इत्यादि। दीप पर पीले चावलों की जगह थोङा सा कपूर जला ले और घर पर बनी धूप को उस पर खे देवें। भगवान का अभिषेक सामन्य पानी की जगह उसमें थोङा कपूर मिला लेवें।

मैने पूछा- ’महाराज जी ठण्ड गर्मी में परिषह कैसे सहते हैं?’ महाराज जी ने बताया- ’ज्ञान का अमृत पीकर’। मैने पूछा - ’महाराज जी आपका आत्मा का ध्यान होता है?’। महाराज जी ने कहा  ’अगर इतना नहीं होता तो यहां नहीं होते। हमने बाहर का नहीं अन्दर का पाया है।’

महाराज जी ने तत्वार्थ सूत्र के शुरू के ७-८ सूत्र समझाये और बतलाया कि मेरे को भी उसे रीति से दूसरो को समझाना चाहिये।

महावीर जी, राजस्थान, में मुनि प्रार्थना सागर महाराज जी के दर्शन

महावीर जी, राजस्थान, में मेरी मुनि प्रार्थना सागर महाराज जी से चर्चा हुई। मैने उन्हे jcnc मन्दिर में होने वाली अभिषेक पद्ध्ति के बारे में बतलाया और बताया कि हम जल प्रासुक नहीं करते, क्योंकि हमारे पास सुबह समय नहीं होता - तो उन्होने कहा कि एक हीटर ले ले - 200 W - 500 W का- उससे जल को २-३ मिनट में प्रासुक कर लें।

महाराज जी ने एक नीती की पुस्तक दी - वो नीति की पुस्तक मुझे बहुत ही बढिया लगी। उसकी pdf शायद उनकी website पर उपलब्ध हो।

ऋषभांचल जी में कौशल माता जी के दर्शन

ऋषभांचल जी में कौशल माता जी से चर्चा हुई। उन्होने ज्ञान और दर्शन के बीच में अन्तर बतलाया। ज्ञान पर को जानता है और दर्शन स्व को। उन्होने यह भी बतलाया - दर्शन स्व को जानते हुये भी स्वानुभव से भिन्न है। क्योंकि मिथ्यादृष्टि के दर्शन में मोहनीय का स्वाद आता है और स्वानुभवी को उसका स्वाद नहीं आता।

Wednesday, February 15, 2012

Sutra # 10: जो होता है, उसे होने दो

सूत्र १०: जो होता है, उसे होने दो

क्योंकि जो होता है सो न्यायपूर्वक, जैसे सूत्र २ मे हम समझ आये हैं, इसलिये जो होता है उसे होने दो।

क्योंकि जीनें में इन्द्रिय से सुखी या दुखी होने का कोई कारण नहीं, इसलिये शान्तिपूर्वक समता से सुखी और प्रसन्न जीव को रहना चाहिये।

जीवन में कर्म के निमित्त से अनेक उतार चढाव आते हैं- वे पुराने किये हुये कार्यो के ही फ़ल हैं, इसीलिये न्यायपूर्वक(justified) हैं और इसीलिये उन्हे दूर भगाने या नजदीक ही रख लेने का कोई मतलब नहीं है। इसलिये सुखी रहो। कोई कारण नहीं कि हम आयी परिस्थिति से प्रेम करे या द्वेष करे।

सुखी प्रभु की हम उपासना करे। मन्दिर में जाते हुये प्रभु के दर्शन करें, तो उनके सुख का विचार करें- उनका सुख असीम है। उसकी तुलना समुन्द्र से नहीं कर सकते क्योंकि उसकी गहराई और विस्तार की तो सीमा है, मगर प्रभु का सुख तो सीमा से परे हैं। उसकी तुलना आसमान की ऊंचाई से भी नहीं कर सकते क्योंकि उसकी भी सीमायें हैं। ना ही उसकी तुलना चन्द्रमा को देखने से मिली शान्ति से कर सकते, क्योंकि वो तो कुछ पल के लिये, मगर प्रभु का सुख तो अनन्त सुख के लिये है। ऐसे अनन्तसुखी प्रभु के दर्शन करते ही चमत्कार होता है, हमारे अन्दर भी सच्चे सुख की छोटी लहर जन्म ले लेती है, और वो ही बढते बढते मुनी अवस्था मे महा समुन्द्र का रूप ले लेती है और मुक्त अवस्था में असीम हो जाती है।

सुखी मुनिजन की हम उपासना करें। जो हर परिस्थिती में समता सुख का पान करते हैं। आहार मिला तो सुखी, नहीं मिला तो सुखी। किसी ने गाली दी तो सुखी, प्रशंसा करी तो सुखी। रोग हुआ तो सुखी, निरोग रहें तो सुखी। विरोधी मिले तो सुखी, भक्त मिले तो सुखी। जीये तो सुखी, मरे तो सुखी। सर्व अवस्था में समता।

वैसे भी देखा जाये तो दुखी होने का कोई कारण नहीं। क्योंकि आत्मा तो सदा शाश्वत है और कभी अपने स्वभाव को छोङती नहीं, तो फ़िर इन्द्रियों में सुखी दुखी होने का क्या कारण? आत्मा से कोई कुछ छीन नहीं सकता और ना ही कुछ दे सकता, तो किस बात का राग या किस बात का द्वेष।

इसका मतलब ये ना समझना कि हम तो अब सुखी, अब भक्ति, दान, स्वाध्याय इत्यादि से क्या फ़ायदा। और आलोचना, प्रतिक्रमण से क्या फ़ायदा। ऐसा समझे तो अनर्थ हो जायेगा। मार्ग निश्चय-वयवहारात्मक है, निश्चय और व्यवहार दोनो का ही हम ध्यान रखें।

Sutra # 8: Nobody is mine

सूत्र ८: कोई मेरा नहीं

(Objects interact with each other. Nobody owns nobody.)
ये सूत्र बहुत ही महान सूत्र है, ये जगत की वास्तविकता का सच्चा बोध कराने वाला है। जगत के मध्य रहते हुये भी जगत के राग से हमें छुटाने वाला है। यह परम सत्य है, और पूर्ण सुख का कारण है। अनगिनत मुनियों ने इस सुत्र का ध्यान कर वीतरागता को अपनाया है, और सब भव्य जनो का यह सूत्र भला करने वाला है।

पहले हम ये समझते है कि वास्तव में हम किसे अपना समझते हैं। स्थूल रूप से - देश मेरा, समाज मेरा है। और कम स्थूल पर जायें तो परिवार, कुटुम्ब, मित्र मेरे हैं। और सूक्ष्म पर जायें तो शरीर मेरा है। और अध्यत्मिकता की सूक्ष्मता में जाये तो राग द्वेष अज्ञानता मेरी है, विकल्प मेरे हैं। इस प्रकार का मेरा-पना हमारे अन्दर बसा हुआ है। वास्तविकता में देखा जाये तो इनमें से हमारा कोई भी नहीं।

इनमें एक उदाहरण देखे- मानो हमारा एक मित्र को जो कर्तव्य निभाने वाला और सही दिशा दिखाने वाला हो, और एक आदर्श मित्र के सर्व गुणो से युक्त हो। तो वास्तव में क्या वह व्यक्ति हमारा मित्र है? तो इसमें पहली बात तो हमारे भाग्य अनुसार ही हमें मित्र मिला है। और जो वो हमारा अच्छा बुरा करता है वो भी कर्मानुसार करता है। हमारा पुण्य अच्छा है तो वो हमारी इच्छा के अनुसार की कार्य करता है, और हम मान बैठते हैं कि ये तो मेरा भला करने वाला है- इसलिये मित्र है। अभी ही पाप उदय आये और वो ही मित्र प्रतिकूल हो जाये तो हम कहेंगे कि ये ’मेरा शत्रु’ है। वास्तव में तो ना मित्र था और ना ही शत्रु है- मात्र भाग्य उदयानुसार निमित्त था जैसे कि Caishier होता है, जो बैंक में जाने पर हमारे ही पैसे हमे देने मे सहयोगी बनता है- उसे हम यह तो नहीं कह सकता है कि वो Caishier हमें महीने के खर्च के पैसे देने वाला है।

वास्तव मे जब हम कहते हैं कि यह मित्र मेरा है, तो हम समझते है कि वो हमारा साथ निभायेगा और हमारी उम्मीदो के अनुसार परिणमन करेगा। और वास्तव मे ऐसा कई बार देखने में भी आता है, मगर ऐसा नियम नहीं है। और इस प्रकार के अनुकूल परिणमन में मूल कारण वो मित्र नहीं वरन हमारा भाग्य है। तो हम अपने भाग्य को तो अपना मित्र या शत्रु कह सकते हैं, उस मित्र को नहीं। यहां शास्त्रीय भाषा में भाग्य(कर्म) को अन्तरंग निमित्त और उस मित्र को बहिरंग निमित्त कहते हैं।

इसी प्रकार से ये देश मेरा नहीं। ये समाज मेरा नहीं। ये परिवार मेरा नहीं। ये स्त्री, पुत्र मेरे नहीं। यहां तक कि शरीर भी मेरा नहीं, क्योंकि जिस प्रकार से सम्बन्ध मित्र से हम उपर समझ आयें हैं वैसा ही सम्बन्ध शरीर के साथ बनता है। और सूक्ष्म में जाये तो एक दृष्टी से राग द्वेष भी मेरे नहीं, और वही दष्टी सुखदायिनी है और ग्रहण करने योग्य है। ऐसा समझने से और आस्था करने से भव्य जन आत्मिक सुख शान्ति को प्राप्त करते हैं। ऐसा विश्व में सत्य को उद्घोषित करते हुये अनन्तकाल से जिनेन्द्र भगवन्त कहते आये हैं, और भविक जन इस वस्तु स्वरूप को जानकर चरितार्थ करते हुये इच्छाओं से रहित, अनन्त सौख्य सहित मोक्ष अवस्था को प्राप्त करते आयें हैं। हम भी इस सूत्र को सदा के लिये अपना लें।

इस सूत्र के साथ और भी सूत्र हमें अपनाने हैं: घर मेरा नहीं। स्त्री मेरी नहीं। धन मेरा नहीं। समाज मेरा नहीं। शरीर मेरा नहीं। सूक्ष्म दृष्टी में राग-द्वेष मेरे नहीं।

प्रश्न: जब शरीर भी नहीं हूं, तो आत्मा साधना ही करूं, परिवार वालो के प्रति कर्तव्यो का निर्वाह क्यों करूं?

उत्तर : हमारे अन्दर कितनी विरक्ति होती है उसके अनुसार ही कार्य करने योग्य है। अगर जीव में पर्याप्त विरक्ति है, तो परिवार छोङकर सन्यास धारण क...