नियमसागर महाराज जी
शील, गुण, व्रत के नियम लिये, निकले नियम के सागर
विद्या के सागर में मिलने, बन गये नियमसागर
प्रतिमा पदो को पार किये थे, बने थे वे ऐल्लक
सारा परिग्रह छोङ दिये थे, एक लंगोटी में दिखायी झलक
आत्म आत्म की रट है लगाई, तू पुद्गल मैं आतम
सब और से राग को समेटा, मिटा दिया मोह तम
विषय-विषय विष की धारा, जो बही थी अनादि से
दी पछाङ उस राग को, जोङा धागा आतम से
हिंसा हिंसा सदा रही, रही ना कभी शान्ति
अब अहिंसा ही जीवन तुम्हारा, मिटा दी सारी भ्रान्ति
तुम चरण जब जब चले, जी मेरा मचलाये
कोई तो जाके तुम चरणो की धूल तो ले लाये
हे चन्द्र! ईर्ष्या है मुझे तुझसे, क्योंकि तू हर रात्रि दर्शन करता मुनिवर के
मुझे भी कभी झलक दिखादे, कुछ प्रसंग सुना दे, उस तपस्वी मुनिवर के
पांच महाव्रत, पांच समिति ही तुम्हारा है आचरण
स्वाधीन सुख है लक्ष्य तुम्हारा, वही पथ उसी में रमण
मैं प्यासा तुम सागर हो, मिटादो सुख की प्यास
गागर में सागर भर दो, यही बस अन्तिम आस
No comments:
Post a Comment