- Do not run away from anything.
- Do not want to change anything
- Do not want to achieve anything.
- Be at ease with everything. Accept it.
- Do not label things as right or wrong.
- Change your 'some relationship' to 'no relationship' with everything around
Monday, June 8, 2020
6 Mantras for a solid meditation
Thursday, June 4, 2020
कैसी भक्ति है मेरी?
दो कैदी थे। २५ साल की सजा थी। जेलर आया और उसने उनके हाल चाल पूछे। पहले कैदी ने कहा कि सब बढिया है बस पानी थोङा खराब है और उसके लिये अच्छे पानी की व्यवस्था कर दी जाये। दूसरे कैदी ने कहा कि उसे जेल में नहीं रहना। और पूछा कि मुझे तरीका बताओ कि मैं कैसे अपनी सजा को कम कर सकता हूं। अब आप ही सोचिये कि कौन सा कैदी जल्दी से जेल से मुक्त होगा?
ऐसी ही भक्त भी दो प्रकार के होते हैं। एक को कुछ कष्ट परेशान करते रहते हैं, और प्रभु के पास जाकर भी वो ही ध्यान आता है। कहता है कि - हे प्रभु मेरे को ये समस्या खत्म हो जाय, और वो चीज मिल जाये। सही बात है - जो दिमाग में चलता है वही भगवान के पास भी ध्यान आ ही जाता है।
मगर एक दूसरा भक्त है - उसकी समझ विस्तृत है। उसे अपनी अवस्था अनादि से संसार में भटकता हुई समझ में आ चुकी है। द्रव्यकर्म और भावकर्म का चक्र उसे एक चक्रवात के तूफ़ान की तरह दिखाई दे रहा है। आठ कर्म और विषयों की इच्छा उसे भयंकर रोग दिखाई दे रही है। और पूरी दुनिया में एक मोक्ष अवस्था ही सुखदायी दिखाई देती है। अब बताइये ऐसा भक्त जब प्रभु का नाम लेगा तो उसके परिणाम में गजब की शुद्धता क्यों नहीं बनेगी। अब उसकी प्रार्थना का फ़ल चमत्कारिक क्यों नहीं होगा?
संसार से भय होना, मोक्ष की रूचि होना बहुत दुर्लभ है। और वह सच्ची भक्ति का कारण है। इसलिये सच्ची भक्ति भी बहुत दुर्लभ है।
ऐसी ही भक्त भी दो प्रकार के होते हैं। एक को कुछ कष्ट परेशान करते रहते हैं, और प्रभु के पास जाकर भी वो ही ध्यान आता है। कहता है कि - हे प्रभु मेरे को ये समस्या खत्म हो जाय, और वो चीज मिल जाये। सही बात है - जो दिमाग में चलता है वही भगवान के पास भी ध्यान आ ही जाता है।
मगर एक दूसरा भक्त है - उसकी समझ विस्तृत है। उसे अपनी अवस्था अनादि से संसार में भटकता हुई समझ में आ चुकी है। द्रव्यकर्म और भावकर्म का चक्र उसे एक चक्रवात के तूफ़ान की तरह दिखाई दे रहा है। आठ कर्म और विषयों की इच्छा उसे भयंकर रोग दिखाई दे रही है। और पूरी दुनिया में एक मोक्ष अवस्था ही सुखदायी दिखाई देती है। अब बताइये ऐसा भक्त जब प्रभु का नाम लेगा तो उसके परिणाम में गजब की शुद्धता क्यों नहीं बनेगी। अब उसकी प्रार्थना का फ़ल चमत्कारिक क्यों नहीं होगा?
संसार से भय होना, मोक्ष की रूचि होना बहुत दुर्लभ है। और वह सच्ची भक्ति का कारण है। इसलिये सच्ची भक्ति भी बहुत दुर्लभ है।
Wednesday, June 3, 2020
हे प्रभु! क्या मुझे मोक्ष प्राप्त हो पायेगा?
अनादि से कर्म बन्धन में हूं। ऐसा कर्म बन्धन जिसमें अनन्त काल बीत गया। ऐसा अनन्त जिसकी कोई सीमा नहीं, जिसे किसी संख्या में ना बांधा जा सके। क्या ऐसे कर्म बन्धन का मैं नाश कर पाऊंगा? क्या इस मोहनीय को मैं जीत पाऊंगा?
द्रव्यकर्म और भावकर्म के चक्रवात में अनादि से घूमता हुआ, क्या मैं विश्राम प्राप्त कर पाऊंगा? जो अनादि से नहीं कर पाया, वो क्या अब कर पाऊंगा? जिस मोहनीय ने मेरी बुद्धि ही भ्रष्ट कर दी है, क्या उसे जीत पाऊंगा?
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हे कर्मो, जब तुम्हे अपनी स्थिति आने पर छुट ही जाना है, तो तुम मेरे से बन्धते ही क्यों हो? हे परिवार जनो जब तुम्हे एक दिन मुझे अलविदा ही कहना है, तो मुझे तुम अपना बनाते ही क्यों हो?
द्रव्यकर्म और भावकर्म के चक्रवात में अनादि से घूमता हुआ, क्या मैं विश्राम प्राप्त कर पाऊंगा? जो अनादि से नहीं कर पाया, वो क्या अब कर पाऊंगा? जिस मोहनीय ने मेरी बुद्धि ही भ्रष्ट कर दी है, क्या उसे जीत पाऊंगा?
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हे कर्मो, जब तुम्हे अपनी स्थिति आने पर छुट ही जाना है, तो तुम मेरे से बन्धते ही क्यों हो? हे परिवार जनो जब तुम्हे एक दिन मुझे अलविदा ही कहना है, तो मुझे तुम अपना बनाते ही क्यों हो?
Friday, May 22, 2020
संसारी जीव उन्मुक्त (पागल) है
जैसे एक शराबी जीव नशे में द्युत हुआ वास्तविकता से परे कुछ का कुछ क्रियायें करता है। पागल जैसा हो जाता है। वैसी ही सारे संसारी जीव मोह शराब के नशे में द्युत हो उन्मुक्त हुवे अपने ही पैरो पर कुल्हाङी मार रहे हैं।
ऐसे संयोग जो अनित्य हैं, सार रहित हैं, और जो इसके कभी नहीं हुवे, उन शरीर, परिवार, घर को अपना मानकर, उनमें लीन होकर उनके संरक्षण, संवर्धन के लिये पांच पाप, चार कषाय करता हुआ गहरे पापो को बांधता जाता है। इन्द्रिय विषय को परम सुख समझकर व्याकुल हुआ पापो से लिप्त होता चला जाता है।
सारा संसार इस मोह से पीङित हो रहा है। नारकी क्रोध मोह से, तिर्यंच माया मोह से, देव लोभ मोह से और मनुष्य मान मोह से अपना ही घात कर रहे हैं।
ज्ञानी जीव संसारी जीवो पर करूणा करते हैं, मगर मोह से संसारी जीव इतना उन्मुक्त है कि ज्ञानी जीव को भी कहता है- तुम उन्मुक्त हो! जो आत्मा परमात्मा की बात करते हो - तुमने अभी विषयो को चखा कहां है - जरा आओ और तुम भी चखो। देखो कितना आनन्द हुआ।
और ऐसे पागलपन में अनन्त काल बिताता है।
Friday, May 15, 2020
इन्द्रिय भोग एक trap है
तीन लोक के बारे में सोचे। सारे जीव निरन्तर ही भव भ्रमण कर रहे हैं। उन्हे हमेशा इन्द्रिय सुख की इच्छा रहती है। मगर इन्द्रिय सुख शाश्वत नहीं। इन्द्रिय सुख प्राप्त करने जाते हैं.. आनन्द आता है .. मगर कुछ क्षण बाद उससे ऊब जाते हैं। और उसे बाद किसी और इन्द्रिय विषय के बारे में इच्छा लेके बैठ जाते हैं। मगर यह नहीं सोच पाते कि इस इन्द्रिय सुख में विश्राम नहीं है। ऐसी अवस्था नहीं है जहां पर जीव इन्द्रिय सुख प्राप्त करता हुआ एक ही अवस्था में स्थिर हो जाये। अगर एक अवस्था में स्थिर ना हो पाये और एक विषय से दूसरे विषय में भी गमन करता रहे, तो वो अव्स्था भी स्थिर नहीं। जैसे भोगभूमि, स्वर्ग में एक से दूसरे विषय भोगो को भोगता ही रहता है। मगर वो भी आयु पूरी होने पर समाप्त हो जाती है, और जीव संचित पाप से दुर्गति में प्रवेश कर जाता है। इस विस्तृत दृष्टि को ना देखते हुवे, जीव अपनी संकुचित दॄष्टि से विषय भोग को ही उपादेय मानता हुआ मॄग की भांति दौङता रहता है। विषयों की प्राप्ति में अनेको पाप करता है - हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, परिग्रह करता है, अब्रहम सेवन करता है, सब प्रकार की कषाय करता है। और अनेक पापो का संचय कर दुर्गति प्राप्त करता है।
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Notes:
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Notes:
इन्द्रिय सुख:
१. पराधीन है: पांचो इन्द्रियों और पर द्रव्यो के द्वारा प्राप्त होता है।
२. बाधा सहित (भोजन, पानी, मैथुन आदि की तृष्णाओं से युक्त)
३. विच्छिन्न: असाता वेदनीय का उदय इसे च्युत कर देता है।
४. कर्म बंध का कारण
५. विषम: विशेष वृद्धि और विशेष हानि में परिणत होने के कारण अत्यन्त अस्थिरता वाला है। उपशम या शान्तभाव से रहित है। जबकि तोन्द्रियसुख परम तृप्तिकारी और हानि बृद्धि से रहित है।
Sunday, May 10, 2020
मोक्ष को कैसे समझे?
हम आस पास जी जितनी भी चीजे देखते हैं, वो अन्य अनेक वस्तुओं से मिलकर बनी हैं। टेलीविजन है, वो अनेक प्रमाणुओं से मिलकर बना है। देखने में तो टेलीविजन एक वस्तु लगता है, मगर वास्तव में वो अनगनित परमाणुओं से मिलकर बनी है। वो सब परमाणु अलग अलग भी हो सकते हैं, और फ़िर दुबार मिलकर कोई नयी चीज भी बना सकते हैं - जैसे शीशम का पेङ। और चाहे वो स्वतन्त्र रूप में भी वो अनगनित परमाणु रह सकते हैं।
अब देखते हैं इन्सान को। वो भी अनगनित परमाणु और एक आत्मा से मिलकर बना है। शरीर तो आता जाता रहता है। मरते ही पूरा का पूरा शरीर एक ही झटके में अलग हो जाता है, फ़िर नया मिल जाता है। मतलब नया शरीर मिलता रहता है और पुराना बिछुङता रहता है। और ये शरीर के साथ ही नहीं - बल्कि राग-द्वेष के साथ भी है। क्रोध खत्म होता है तो लोभ आ जाता है। मान जाता है भय आ जाता है। जैसी टेलीविजन में हमने सारे परमाणुओं के अलग होने की कल्पना करी, ऐसी कल्पना अगर हम एक क्षण के लिये उस इन्सान के लिये करें।
उसका पूरा शरीर उससे अलग हो जाय। क्रोध, मान वगैरह जो आते जाते रहते हैं, ये भी उससे अलग हो जाये, तो क्या बचेगा? क्या सोचा है कभी आपने? कैसी अवस्था होगी वो?
वो है मोक्ष! जहां मात्र ज्ञान है और आनन्द।
अब देखते हैं इन्सान को। वो भी अनगनित परमाणु और एक आत्मा से मिलकर बना है। शरीर तो आता जाता रहता है। मरते ही पूरा का पूरा शरीर एक ही झटके में अलग हो जाता है, फ़िर नया मिल जाता है। मतलब नया शरीर मिलता रहता है और पुराना बिछुङता रहता है। और ये शरीर के साथ ही नहीं - बल्कि राग-द्वेष के साथ भी है। क्रोध खत्म होता है तो लोभ आ जाता है। मान जाता है भय आ जाता है। जैसी टेलीविजन में हमने सारे परमाणुओं के अलग होने की कल्पना करी, ऐसी कल्पना अगर हम एक क्षण के लिये उस इन्सान के लिये करें।
उसका पूरा शरीर उससे अलग हो जाय। क्रोध, मान वगैरह जो आते जाते रहते हैं, ये भी उससे अलग हो जाये, तो क्या बचेगा? क्या सोचा है कभी आपने? कैसी अवस्था होगी वो?
वो है मोक्ष! जहां मात्र ज्ञान है और आनन्द।
Saturday, May 2, 2020
मिथ्यात्व से संसार में जीव क्यों भटकता है?
मिथ्यात्व से शरीर को अपना मानता है, और उसके संरक्षन, संवर्धन के लिये परिग्रह जुटाता है, घर बनाता है, वुद्धावस्था से भय करता है, उसकी वॄद्धि ह्रास में क्रोध, मान, लोभ करता है, उसे अपना मानकर भोगो में प्रवृत्त रहता है, शरीर से सम्बन्धित पारिवारिक सम्बन्धियों को अपना मानके - इन सबके लिये पांचो पाप, चार कषाय, ५ इन्द्रिय भोग में प्रवृत्त रहता है। और संसार भ्रमण पुष्ट करता है।
राग-द्वेष (आस्रव) को अपना स्वभाव मानकर उन्हे जीतने के बजाय उनके अनुसार परिणमन करता है। राग-द्वेष को दुखदायक मानने के बजाय जिनपर राग-द्वेष होता है उन्हे इष्ट अनिष्ट मानकर महापाप करता है। राग-द्वेष से कर्मास्रव होकर जो दुखो से भरे फ़ल आते हैं, उन्हे ना जानकर, रागद्वेष को अपना स्वभाव मानकर उसी में लीन रहता है।
आठ कर्मो के बन्ध से जो अवस्थायें होती हैं, उन्हे कर्म बन्ध से हुई ना जानकर, इनके परिणमन में या तो खुद को या दूसरे को कर्ता जानकर भयंकर पाप करता है।
राग-द्वेष को अपना शत्रु जाने बिना, बन्ध को अपना शत्रु जाने बिना उनके संवर, निर्जरा के प्रति श्रधान हो नहीं पाता, और पता ना होने से कर्म काटने की बजाय जो बाहर में निमित्त को व्यवस्थित करने का पुरूषार्थ करता है। और संसार पुष्ट होता रहता है।
कर्मोजनित अवस्था को रोग नहीं मानता, तो कर्म से रहित मोक्ष को लक्ष्य कैसे बनाये? ये तो कर्म जनित लौकिक उपाधियों को ही लक्ष्य बनाकर भटकता रहता है। धन प्राप्ति, परिवार पुष्टि, भोग प्राप्ति, यश कामना को ही लक्ष्य बनाकर महापापों में लीन रहता है।
और इस प्रकार मिथ्यात्व के कारण पांच पाप रूपी सर्पो से दुख पाता हुआ चारो गतियों में भटकता रहता है।
राग-द्वेष (आस्रव) को अपना स्वभाव मानकर उन्हे जीतने के बजाय उनके अनुसार परिणमन करता है। राग-द्वेष को दुखदायक मानने के बजाय जिनपर राग-द्वेष होता है उन्हे इष्ट अनिष्ट मानकर महापाप करता है। राग-द्वेष से कर्मास्रव होकर जो दुखो से भरे फ़ल आते हैं, उन्हे ना जानकर, रागद्वेष को अपना स्वभाव मानकर उसी में लीन रहता है।
आठ कर्मो के बन्ध से जो अवस्थायें होती हैं, उन्हे कर्म बन्ध से हुई ना जानकर, इनके परिणमन में या तो खुद को या दूसरे को कर्ता जानकर भयंकर पाप करता है।
राग-द्वेष को अपना शत्रु जाने बिना, बन्ध को अपना शत्रु जाने बिना उनके संवर, निर्जरा के प्रति श्रधान हो नहीं पाता, और पता ना होने से कर्म काटने की बजाय जो बाहर में निमित्त को व्यवस्थित करने का पुरूषार्थ करता है। और संसार पुष्ट होता रहता है।
कर्मोजनित अवस्था को रोग नहीं मानता, तो कर्म से रहित मोक्ष को लक्ष्य कैसे बनाये? ये तो कर्म जनित लौकिक उपाधियों को ही लक्ष्य बनाकर भटकता रहता है। धन प्राप्ति, परिवार पुष्टि, भोग प्राप्ति, यश कामना को ही लक्ष्य बनाकर महापापों में लीन रहता है।
और इस प्रकार मिथ्यात्व के कारण पांच पाप रूपी सर्पो से दुख पाता हुआ चारो गतियों में भटकता रहता है।
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उत्तर : हमारे अन्दर कितनी विरक्ति होती है उसके अनुसार ही कार्य करने योग्य है। अगर जीव में पर्याप्त विरक्ति है, तो परिवार छोङकर सन्यास धारण क...
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The overview of 8 anga is at: http://www.jainpushp.org /munishriji/ss-3-samyagsarshan .htm What is Nishchaya Anga, and what is vyavhaar: whi...