Sunday, July 31, 2022

कितना सच कितना झूठ: (नय विवक्षा)

 

 

सच

झूठ

नय

ये मेरी माता है

जिस प्रकार के कर्म किये उसके अनुसार कोख मिली। जो जीवन में सुख दुख मां के निमित्त से मिले, वैसे ही कर्म मैने किये थे। इस प्रकार के सम्बन्ध को, जो उन विशेष कर्मो के फ़लीभूत होने में निमित्त हो, उस कहते हैं मां।

उस सम्बंध में कर्मो की समझ ना होने से, उस सम्बन्ध को अनित्य/अशरण रूप ना जानने से जो उसके प्रति एकान्त रूप (मात्र नित्यरूप और शरण रूप अनुभव करने) से मेरे पने का भाव हुआ। वह झूठ है। और यह दृष्टी मोह और राग मिश्रित है।

उपचरितअसद्भूत व्यवहार

ये मेरा बहन है

जिस प्रकार के मैने और बहन ने कर्म किये उसके अनुसार दोनो को एक ही कोख मिली। जो जीवन में सुख दुख बहन के निमित्त से मिले, वैसे ही कर्म मैने किये थे। इस प्रकार के सम्बन्ध को, जो उन विशेष कर्मो के फ़लीभूत होने में निमित्त हो, उस कहते हैं बहन।

उस सम्बंध में कर्मो की समझ ना होने से, उस सम्बन्ध को अनित्य/अशरण रूप ना जानने से जो उसके प्रति एकान्त रूप (मात्र नित्यरूप और शरण रूप अनुभव करने) से मेरे पने का भाव हुआ। वह झूठ है। और यह दृष्टी मोह और राग मिश्रित है।

उपचरितअसद्भूत व्यवहार

घर/धन आदि

जिस प्रकार के मैने कर्म किये उसके अनुसार धन/घर आदि की प्राप्ति हुई। जो जीवन में सुख दुख उनके निमित्त से मिले, वैसे ही कर्म मैने किये थे।

उस सम्बंध में कर्मो की समझ ना होने से, उस सम्बन्ध को अनित्य/अशरण रूप ना जानने से जो उसके प्रति एकान्त रूप (मात्र नित्यरूप और शरण रूप अनुभव करने) से मेरे पने का भाव हुआ। वह झूठ है। और यह दृष्टी मोह और राग मिश्रित है।

उपचरितअसद्भूत व्यवहार

वेदना

जिस प्रकार के मैने कर्म किये उसके अनुसार शारीरिक वेदना (दुखद, दुखद) की प्राप्ति हुई।

उस सम्बंध में कर्मो की समझ ना होने से, उस सम्बन्ध को अनित्य/अशरण रूप ना जानने से जो उसके प्रति एकान्त रूप (मात्र नित्यरूप और शरण रूप अनुभव करने) से मेरे पने का भाव हुआ। वह झूठ है। और यह दृष्टी मोह और राग मिश्रित है।

अशुद्ध निश्चय नय

राग-द्वेष

मेरे ज्ञान, श्रधान, चारित्र और कर्म के उदय से राग-द्वेष हुवे

इनको अपना ही स्वभाव मान लेना

अशुद्धन निश्चय नय

Tuesday, June 28, 2022

विषय, क्रोध, मान - सुभाषित रत्न सन्दोह जी से

 विषय

  • विषय शत्रु है। पापको संचित कराके अनेक जन्म-जन्मान्तरोंमें दुःख दिया करता है ।

  • जिन विषयों से चक्रवर्ती भी तृप्त नहीं प्राप्त होता उनसे भला साधारण मनुष्य कैसे हो सकता हैं 

  • तृष्णा रूपी ज्वालाओं को शान्ति इन्द्रिय विषयों से नहीं हो सकती है, बल्कि विषय उनको और अधिक बढ़ा देती हैं।

  • अपने कुटुम्बी जनों के लिये विषयो की प्राप्ति के लिये हिंसा करके तीव्र पाप करता हैं, मगर अकेला ही उन पाप के फ़लो को सहता है।

  • विषय अनित्य हैं।

क्रोध

  • क्रोधी का कोई आदर नहीं करता।

  • क्रोध संचित किये हुए पुण्यको क्षण भर में नष्ट कर देता है।

  • क्रोध धैर्य को नष्ट करता है, विवेक को नष्ट करता है, निन्द वचन बुलवाता है। 

  • क्रोध से मित्रता, दया, उपकारी जीवो के प्रति कृतज्ञता नष्ट हो जाती है।

  • ’मैने पूर्व में इसको दुख दिया है’ ऐसे कर्म सिद्धान्त को समझके क्रोध को शान्त करना चाहिये।

  • ’अच्छा हुआ! इससे मेरे कर्मो की निर्जरा हो रही है’।

  • यह बेचारा अज्ञानी प्राणी स्वयं ही पापका संचय कर रहा है। ऐसा विचार करके उसे क्षमा करें।

  • अगर कोई गाली दे, तो सोचो ’मारा तो नहीं’। अगर मार दे, तो सोचो ’धर्म तो नष्ट नहीं किया’ - ऐसे अपने क्रोध को शान्त करें।

  • अध्यात्म:

    • वस्तु स्वातंत्र्य का चिन्तन करके क्रोध शान्त करे

    • सबको ज्ञान स्वभावी आत्मा देखें

    • क्रोध को विभाव समझके उससे भेद विज्ञान करें

  • चिन्तन वाक्य:

    • मेरे से किसी के प्रति कटु वचन नहीं निकलें।

    • जीवन में एक साधना बनायें कि किसी भी स्थिति में मेरे को क्रोश उत्पन्न ना हो


मान

  • जो यह समझता है कि 'मैं ही सबकुछ है, मुझसे अधिक दूसरा कोई नहीं है।” वह अनेक भवों में नीच कुलको प्राप्त होता है।

  • अभिमान से विवेक नष्ट होता है, नम्रता समाप्त होती है, कीर्ति मलिन होती है।

  • अभिमान वश माननीय जनों का भी सन्मान नहीं करता है।

  • मान धर्मको नष्ट करता है, पापको संचित करता है, दुर्भाग्य को लाता है

  • अभिमान से माता, पिता, मित्र आदि सब प्रतिकूल हो जाते हैं। कोई प्रेम नहीं करता।

  • अभिमान से व्यक्ति नष्ट होता है, जबकि नम्रता से समृद्धिको प्राप्त होता है।

  • जहां मान है, वहां आत्म बोध नहीं। क्योंकि जिसको अपना समझके मैने मान किया है, वह मेरा आत्म स्वरूप नहीं।

  • मान में जीव अपने को दूसरो से ऊंचा समझता है। और पर सापेक्ष चिन्तन होने से आत्म चिन्तन अवरूद्ध हो जाता है। 

  • घर में, समाज में झगङे का मुख्य कारण मान कषाय ही है।

  • धर्म के प्रसंग में कोई उच्चता दिखाने का भाव रखता है तो वह है - अनन्तानुबन्धी मान।

  • चिन्तन वाक्य:

    • मुझे दुनिया जाने तो क्या, ना जाने तो क्या?

    • आत्महित चाहने वाले व्यक्ति को तो यह मान कषाय दूर ही कर देनी चाहिये।

    • नाम की इच्छा एक बहुत ही बुरी समस्या है।


मननीय बिन्दु

  • पर का आश्रय करके कोई शान्ति चाहे तो शान्ति मिलना असम्भव है।

  • अपना लक्ष्य शुद्ध हो तो सारे काम सही बनेंगे।


Wednesday, May 18, 2022

शरीर का प्रयोग

 शरीर संसार बढ़ाने के लिये:

- विषयों की पूर्ती के लिये (पांच इन्द्रिय)

- कषाय की पूर्ती के लिये (क्रोध, मान, लोभ आदि की पूर्ति के लिये)

- पांच पाप के लिये


शरीर संसार घटाने के लिये

- तप - निर्जरा के लिये

- समिति, वैयावृत्ति, स्वाध्याय, स्तुति आदि के लिये

Thursday, April 28, 2022

प्रशंसा

"जिस पर्याय की तुम प्रशंसा कर रहे हो, उसे तो त्यागने को मैं उद्यत हुआ" - ऐसा विचार करते हुवे मोक्षमार्गी को प्रशंसा में सुख अनुभूत नहीं होता। और ना ही प्रशंसा की इच्छा होती है।

Thursday, April 21, 2022

स्वार्थ के साथी

 कार्यार्थ भजते लोके न कश्चित् कस्यचित्प्रियः।

वत्सः क्षीरक्षयं दृष्ट्वा स्वयं त्यजति मातरम्।।सम्यक्त्व कौमुदी।।

 

श्लोकार्थ-

संसार में कार्य के लिए ही कोई किसी की सेवा करता है परमार्थ से कोई किसी का प्रिय नही है। दूध का क्षय देखकर बछढ़ा स्वयं ही माता को छोड़ देता है।।

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स्पष्टीकरण-

प्रत्येक जीव परमार्थ से अपनी मान्यता, अपने राग और अपने द्वेष से ही राग करता है। इसकी पूर्ति में चेतन अचेतन जो भी परद्रव्य सहयोगी स्वरूप बन जाए तो वह भी इनसे राग करता हुआ भासित होता है।

और जब इसकी पूर्ति रुक जाती है तब राग करना अपने आप रुक जाता है। इसी को कहते है "सब स्वार्थ के है भीरि"।

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सावधानी-

यहां आचार्य देव ने यह कथन शोक और भय में जाने के लिए नही किया हुआ है वरन शोक और भय से बचाने के लिए विपरीत मान्यता जन्य अतिरागादि से दूर रहने के लिए किया हुआ है। 

कारण कि जब रिश्तों का सम्यक् स्वरूप समझ में आता है तब रिश्तो के प्रति अति अपेक्षा और अति उपेक्षा से रहित अनासक्त भाव से जीने का लाभ प्राप्त होता है। जिससे हमारा जीवन दुर्ध्यान रहित धर्मध्यान सहित होकर मंगलमय बन जाया करता है। 

 

✍शैलेश जैन सोनागिर……


बारसाणुवेक्खा गाथा 21:  मादापिदरसहोदरपुत्तकलत्तादिबंधुसंदोहो। जीवस्स ण संबंधो णियकज्जवसेण वट्टंति ॥21॥

= माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, आदि बंधुजनों का समूह अपने कार्यके वश संबंध रखता है, परंतु यथार्थ में जीवका इनसे कोई संबंध नहीं है। अर्थात् ये सब जीवसे जुदे हैं।

Sunday, March 13, 2022

मुक्ति का लक्ष्य

 मुक्ति का लक्ष्य का मतलब है:

  • संसार को छोङने का लक्ष्य
  • घर, परिवार को छोङने का लक्ष्य
  • शरीर को छोङने का लक्ष्य
  • औदयिक, क्षायोपशमिक भाव को छोङने का लक्ष्य

 यह समझ में आ जाना कि:

  • संसार में शाश्वत सुख नहीं
  • घर, परिवार में सुख नहीं
  • शरीर में सुख नहीं
  • औदयिक, क्षायोपशमिक भाव में सुख नहीं
  • और इनसे रहित मेरी अवस्था ही सुखमयी अवस्था है। 

Sunday, February 27, 2022

सच्चा जीवन

 ऐसा जीवन.. जहां कोई इष्ट नहीं, अनिष्ट नहीं.. जो सभी निमित्तो को नोकर्म रूप देखता है.. अपने को स्वतन्त्र रूप जान लिया है.. 

जहां किसी पर क्रोध नहीं, आकांक्षा नहीं, भय नहीं.. 

जो जान चुका है.. कि मैं अकेला हूं, स्वतन्त्र हूं.. मेरा किसे से कोई लेन देन नहीं..

जिसका जीवन संसार से अछूता है..जिसने अपनी आत्मा को ही छू के सुखी रहना सीख लिया है.. जिसका लक्ष्य मात्र सुख और ज्ञान के विकास का ही रह गया है..

ऐसे जीवन को प्रणाम!

Saturday, February 26, 2022

कर्मो के नोकर्म

 

नोकर्म = जो द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव और भाव जिस प्रकृति के उदयस्वरूप फ़ल में कारणभूत हों वह द्रव्य-क्षेत्र आदि उन उन प्रकृति के नोकर्मद्रव्यकर्म समझना। (गो0क0 गाथा 68 आदिमति जी टीका)


विभिन्न कर्मो के नोकर्म:

ज्ञानावरणवस्तु के चारों तरफ़ लगा कनात का कपङा

दर्शनावरण – राजा के दर्शन न करने देने वाला द्वारपाल

वेदनीय – शहद लपेटी तलवार की धार

मोहनीय - मदिरा

आयु – अन्नादि आहार

नाम - शरीर

गोत्र – ऊंचा-नीचा शरीर

अंतराय – भंडारी

मतिज्ञानावरण – वस्तु को ढ़ंकने वाले वस्तादि पदार्थ

श्रुतज्ञानावरण – पंचेन्द्रिय के विषयादि

अवधिज्ञानावरण – संक्लेश परिणाम को करने वाली बाह्य वस्तु

मनःपर्याय ज्ञानावरण – संक्लेश परिणाम को करने वाली बाह्य वस्तु

केवलज्ञानावरण – कोई वस्तु नहीं

चक्षु दर्शनावरण – वस्तु

अचक्षु दर्शनावरण – वस्तु

आवधिदर्शनावरण – अवधिज्ञान के समान

केवलदर्शनावरण – केवलज्ञान के समान

5 निद्रायें – भैंस का दही, लहसुन, खली आदि पदार्थ

साता वेदनीय – इष्ट अन्नपानादि वस्तु

असाता वेदनीय – अनिष्ट अन्नपानादि वस्तु

सम्यक्त्व प्रकृति – 6 आयतन

मिथ्यात्व प्रकृति – 6 अनायतन

सम्यक्मिथ्यात्व प्रकृति – आयतन और अनायतन मिले हुवे

अनन्तानुबन्धी – 6 अनायतन आदि

अप्रत्याख्यानावरण आदि – घातक काव्य ग्रन्थ, नाटक ग्रन्थ, कोकादि ग्रन्थ अथवा पापी लोगो की संगति

स्त्रीवेद – स्त्री का शरीर

पुरूषवेद – पुरूष का शरीर

नपुंसकवेद -स्त्री, पुरूष और नपुंसक का शरीर

हास्यकर्म- विदूषक और बहरूपिया आदि

रतिकर्म – अच्छा गुणवान पुत्र

अरति कर्म – इष्ट वस्तु का वियोग होना, अनिष्ट का संयोग

शोक कर्म – स्त्री आदि का मरना

भयकर्म – सिंह आदि

जुगुप्सा कर्म – निंदित वस्तु

नरकायु – अनिष्ट आहार- नरक की विषरूप मिट्टी

तीर्यंच – इन्द्रियों को प्रिय लगे ऐसे अन्न-पानी आदि

गति नामकर्म – चार गतियों का क्षेत्र है।

एकेन्द्रिय आदि जातियां – अपनी अपनी द्रव्येन्द्रिय

शरीर नामकर्म – नमकर्म द्रव्य से उत्पन्न हुवे अपने शरीर के स्कंधरूप पुद्गल

औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस शरीर नामकर्म – अपने अपने उदय से प्राप्त हुई शरीर वर्गणा ।

कार्माण शरीर – विस्रसोपचय रूप परमाणु

बन्धन नामकर्म से लेकर जितनी पुद्गल विपाकी प्रकृतियां हैं उनका, और पहले कही हुई प्रकृतियों के सिवाय जीवविपाकी प्रकृतियों मे से बची प्रकृतियां – नोकर्म शरीर

क्षेत्र विपाकी अनुपूर्वी प्रकृतियां – अपना अपना क्षेत्र

स्थिर नामकर्म – अपने अपने ठिकाने पर रहने वाले रस-रक्त आदि

अस्थिर नामकर्म – अपने अपने ठिकाने से चलायमान रस-रक्त आदि

शुभ प्रकृति – नोकर्म द्रव्य शरीर के शुभ अवयव

अशुभ प्रकृति – नोकर्म द्रव्य शरीर के अशुभ अवयव

स्वर नामकर्म – सुस्वर रूप परिणमे पुद्गल परमाणु

दुःस्वर नामकर्म – दुःस्वर रूप परिणमे पुद्गल परमाणु

नीच गोत्र – लोकपूजित कुल में उत्पन्न हुआ शरीर

उच्च गोत्र – लोक निंदित कुल में उत्पन्न हुआ शरीर

दानादि अन्तराय – दानादि में विघ्न करने वाले पर्वत, नदी, पुरूष, स्त्री आदि

दीर्यान्तराय – रूखा आहार आदि बल के नाश करने वाले पदार्थ

 

Monday, February 21, 2022

द्वैत से अद्वैत की ओर

 द्वैत:
शत्रु - बन्धु 
सुख - दुख 
प्रशंसा - निन्दा 
सोना - कांच
जन्म - मरण 

अद्वैत:
सब पर!

Wednesday, February 16, 2022

आसक्ति

  • जब तक यह बुद्धि नहीं होगी कि यह परिवार छोङने लायक है। तब तक परिवार के कार्यो में आसक्ति ही रहेगी। 
  • जब तक यह बुद्धि नहीं होगी कि यह धन छोङने लायक है। तब तक धन कमाने में आसक्ति ही रहेगी।
  • जब तक मतिज्ञान श्रुतज्ञान पर्याय में हेय बुद्धि नहीं आयेगी, तब तक अपनी बुद्धि का मद छूटना मुश्किल है।

-  वर्तमान में आवश्यकता/मजबूरी वश कार्य करने पङ रहे है, मगर यह छोङ देने लायक है और मोक्ष पर्याय की प्रकटाने लायक है- जब तक यह बुद्धि नहीं होगी तब तक आसक्ति तीव्र रहेगी। क्योंकि एकान्त से उसे उपादेय माना है। और इससे दुखी भी होगा।

Thursday, February 10, 2022

षटकारक (षट्कारक)

 कारक – 

  • क्रिया के कर्त्ता को कारक कहते हैं। जिन शब्दों का क्रिया के साथ प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संबंध होता है उन्हें कारक कहा जाता है अर्थात क्रिया को करने वाला कारक कहलाता है।

  • क्रिया की सिद्धि में सहायक को कारक कहा जाता है। इस परिभाषा के अनुसार संबंध व संबोधन का क्रिया के साथ प्रत्यक्षतः कोई संबंध नहीं होता है, अतः ये कारक के अंतर्गत नहीं आते हैं किंतु इनका व्यवहार कारकों के समान ही होता है, इसीलिए इनकी गणना कारकों में की जाती है।


कारक के लक्षण:


कारक

लक्षण

कर्ता

क्रिया के करने वाला

कर्म

जब क्रिया का फल कर्त्ता पर न पड़कर, अन्य किसी संज्ञा या सर्वनाम पर पड़ता है, इसे कर्म कारक कहते हैं।

करण

क्रिया की सिद्धि (सफलता) में कर्त्ता कि जो सबसे अधिक सहायता करता है, उसे करण कारक कहते हैं। दूसरे शब्दों में जो क्रिया का साधन होता है, उसे करण कारक कहते हैं।

संप्रदान

सम्प्रदान का अर्थ है – देना। कर्त्ता जिसके लिए काम करता है या जिसे कुछ देता है, उसे संप्रदान कारक कहते हैं।

अपादान

संज्ञा या सर्वनाम के जिस रुप से अलग होने, तुलना करने, अतिरिक्त निकलने, डरने, लज्जित होने, दूरी होने आदि के भाव प्रकट हो, उसे अपादान कारक कहते हैं।

अधिकरण 

किसी वस्तु के रहने बैठने या ठहरने के आधार (Base) को अधिकरण कहते हैं। जिन संज्ञा शब्दों के द्वारा क्रिया के आधार का ज्ञान होता है वे अधिकरण कारक कहे जाते हैं।



व्यवहार षट्कारक

निश्चय षट्कारक

  • जिस जगह परके निमित्तसे कार्यकी सिद्धि कीजाय

  • उपचार असद्भूतनयकर सिद्धि किये जाते हैं, इस कारण असत्य हैं

  • जिस जगह अपने में ही अपनेको उपादान कारण कर अपने कार्यकी सिद्धि कीजावे,

  • अपनेमें ही जोड़े जाते हैं, इसलिये सत्य हैं। क्योंकि वास्तव में कोई द्रव्य किसी द्रव्यका कर्ता व हर्ता नहीं है, इसलिये व्यवहारकारक असत्य है, अपनेको आप ही करता है, इस कारण निश्चयकारक सत्य है । 




व्यवहार कारक झूठा क्यों?:


कारक

लक्षण

कर्ता

क्रिया के करने वाला

कर्म

जब क्रिया का फल कर्त्ता पर ही पङता है। अतः वह ही कर्म है। वह अन्य द्रव्य के लिये निमित्त बन जाता है। और उनके उपदान शक्ति से उनमें परिणमन होता है।

करण


संप्रदान


अपादान


अधिकरण 





कारक

व्यवहार

निश्चय

कर्ता

कुंभकार (कुम्हार ) कर्ता है

मृत्तिकाद्रव्य (मट्टी) करता है, 

कर्म

घड़ारूप कार्यको करता है, इससे घट कर्म है

अपने घट परिणाम कर्मको करता है, इसलिये आप ही कर्म है,

करण

दंड चक्र चीवर ( डोरा ) आदिकर यह घट कर्म सिद्ध होता है, इसलिये दंड' आदिक करण कारक हैं

आप ही अपने घट परिणामको सिद्ध करता है, इसलिये स्वयं ही करण है, 

संप्रदान

जल वगैरःके भरनेके लिये घट' दिया जाता है, इस लिए संप्रदानकारक है

अपने घट परिणामको करके अपनेको ही सौंप देता है, इस कारण आप ही संप्रदान है।

अपादान

मिट्टीकी पिंडरूपादि अवस्थाको छोड़ घट अवस्थाको प्राप्त होना अपादानकारक है

अपनी मृत्पिड अवस्थाको छोड़ अपनी घट अवस्थाको करता है, इसलिये आप ही अपादान है। 

अधिकरण 

भूमिके आधारसे घटकर्म किया जाता है, वनाया जाता है, इसलिये भूमि अधिकरणकारक समझना

अपनेमें ही अपने घटपरिणामको करता है, इसलिये आप ही अधिकरण है।


यह आत्मा संसार अवस्थामें जव शुद्धोपयोगभावरूप परिणमन करता है, उस समय किसी दूसरेकी सहायता (मदद) न लेकर अपनी ही अनंत शुद्धचैतन्यशक्तिकर आप ही छह कारकरूप होके केवलज्ञानको पाता है, इसी अवस्थामें 'स्वयंभू' कहा जाता है।

कारक

लक्षण

कर्ता

शुद्ध अनंतशक्ति तथा ज्ञायकस्वभाव होनेसे अपने आधीन होता हुआ यह आत्मा अपने शुद्ध ज्ञायकस्वभावको करता है, इसलिये आप ही कर्ता है

कर्म

जिस शुद्धज्ञायकस्वभावको करता है, वह आत्माका कर्म है, सो वह कर्म आप ही है, क्योंकि शुद्ध-अनंतशक्ति, ज्ञायक खभावकर अपने आपको ही प्राप्त होती है, वहाँ यह आत्मा ही 'कर्म' है

करण

अपने शुद्ध आत्मीक परिणामकर स्वरूपको साधन करता है, वहाँपर अपने अनंतज्ञानकर 'करणकारक' होता है

संप्रदान

यह आत्मा अपने शुद्धपरिणामोंको करता हुआ अपनेको ही देता है, उस अवस्थामें शुद्ध अनंतशक्ति ज्ञायकस्वभाव कर्मकर आपको ही स्वीकार करता हुआ 'संप्रदानकारक होता है

अपादान

यह आत्मा जव शुद्ध स्वरूपको प्राप्त होता है, उस समय इस आत्माके सांसारीक अशुद्ध-क्षायोपशमिक मति आदि ज्ञानका नाश होता है, उसी अवस्थामें अपने स्वाभाविक ज्ञानखभावकर स्थिरपनेको धारण करता है, तव 'अपादानकारक होता है।

अधिकरण 

यह आत्मा जव अपने शुद्धअनंतशक्ति ज्ञायकखभावक्य आधार है, उस दशामें 'अधिकरणकारक'को स्वीकार करता है। 


Jeev aur karma me shatkaarak - Panchastikaaya Gatha 61-62 se


कारक

जीव

कर्म

कर्ता

जीवमय कर्ता-रूप आत्मा भी

कर्ता-रूप कर्म-पुद्गल

कर्म

कर्मता को प्राप्त आत्मा को

कर्मता को प्राप्त कर्म पुद्गल को

करण

करण-भूत आत्मा द्वारा

करण-भूत कर्म-पुद्गल द्वारा

संप्रदान

निमित्त (सम्प्रदान) रूप आत्मा के लिए

निमित्त (सम्प्रदान) रूप कर्म पुद्गल के लिए

अपादान

अपादान-रूप आत्मा से

अपादान-रूप कर्म-पुद्गल से

अधिकरण 

अधिकरण-भूत आत्मा में करता है


अधिकरण-भूत कर्म-पुद्गल में


सुख के लिये क्या क्या करता है।

संसारी जीव:  सोचता है विषयो से सुख मिलेगा, तो उसके लिये धन कमाता है। विषयो को भोगता है। मगर मरण के साथ सब अलग हो जाता है। और पाप का बन्ध ओर ...