Wednesday, August 4, 2021

What happens when you realize that you are Godlike!

 We have been obsessed with our current state (Paryaya) so much that we have always ignored our true nature. This has limited our thinking and the way to look at life. We have never realized our true potential. We have created boundaries for ourselves which actually never existed.


But when we realize that I am limitless, Here is what happens -


1. You stop seeking approval from others

2. You can take bigger decisions in life

3. You enjoy being in your own company

4. You do not have limits at all

5. You stop seeking happiness in things around. You are happy within.

6. Judgement stops!

7. Anxiety and fears are gone.


and.. finally you become GOD!

Wednesday, July 14, 2021

संसार का स्वरूप

 सारे जीव जन्म मरण के दुख भोग रहे हैं। इसके पीछे एक ही मूल कारण है - अज्ञानता। यह अज्ञानता है - मैं कौन, मेरे को इष्ट क्या, अनिष्ट क्या। कर्म का भान ना होना। 

लौकिक क्षेत्र में भी अज्ञानता से कैसे कैसे दुख भोगता है। जैसे:

  • अज्ञान से मानव जाति प्रकृति से खिलवाङ कर रही है।
  • कुछ लोगो को देखकर पूरे समुदाय को एक जैसा समझना। 
  • किसी व्यक्ति के 1-2 बार अनुभवो को देखकर उसे सर्वथा वैसा ही समझ लेना
  • यह समझना कि हिंसा से समाधान निकल जायेग। 
  • यह समझना कि क्रोध से समाधान निकल जायेग। इत्यादि

ऐसे ही अपने इन्द्रिय ज्ञान को सम्यक मानते हुवे - 

  • शरीर, परिवार, धन आदि को अपना मानकर उसकी रक्षा करने और उसे बढ़ने के लिये कितने पाप करता है - हिंसा करता है। 
  • दूसरी चीजे अच्छी हैं बुरी हैं-  ये विकल्प करके कितने पाप करता है। 
  • यह नहीं जानता कि इनमें से तेरा कुछ भी शाश्वत नहीं है। 
  • कर्म से ही सब कुछ मिला है - इसलिये ना कुछ तेरा, ना अच्छा और् ना बुरा। और तेरी इष्ट अनिष्ट बुद्धि से ही तुझे मानसिक सुख दुख मिलता है
  • इन्द्रिय सुख से मानसिक सुख होना समझ बैठा है। और पर पदार्थो में हेर फ़ेर् करने में लगा है, जबकि सुख तो तुझे अपनी इष्ट अनिष्ट बुद्धि को तजने से आता है। 

मनुष्य में ही कुछ समुदाय के लोग पर्याय बुद्धि वशात अपने को उस समुदाय से इतना जोङ लेते हैं- कि उनके जीवन का लक्ष्य दूसरो को नीचा दिखाना, अपने समुदाय के लिये विषयों की समस्त सामग्री इकट्ठा करना। यही लक्ष्य हो जाता है। अपने को आत्मा ना समझने से और कर्म का ज्ञान ना होने से आस्रव करते हैं, और दुखो को भोगते हैं।

कितने ही जानवर अपना पूरा जीवन पर्यायबुद्धि वश भय, परिग्रह संचय में, हिंसा आदि में व्यतीत करदेते हैं, और आस्रव होता रहता है। ऐसा ही कितने मनुष्यों के साथ होता है।

देवता लोग भी पर्यायमूढ़ होकर विषयों में ही आनन्द मानते हुवे, आस्रव करते हुवे पूरी जीवन व्यतीत करते हैं।

इस प्रकार अज्ञानता की अग्नि में कषायो से पूरा संसार जल रहा है। आस्रव कर रहा है। बन्ध के दुख भोग रहा है। और ऐसा करता ही जा रहा है।

Sunday, July 11, 2021

संसार में लोग क्यों भाग रहे हैं? - Part 2

ऐसा समझ में आता है कि संसारी जीव को ये चीजे चाहिये

▪️इन्द्रिय सुख  

▪️मानसिक सुख 

▪️अपने मान और अन्य कषायो की पूर्ती

▪️अच्छा मकान, व्यवसाय, धन, परिग्रह

▪️अच्छा शरीर, परिवार आदि


*अब देखते हैं कि ये चीजे क्यों चाहियें?*


बिना ज्ञान के कोई डायबीटीज का मरीज चीनी खाता रहता है, उसे उसमें रस लेकर आनन्द मानता है, मगर यह नहीं जानता कि वो अपने पैरो पर कुल्हाङी मार रहा है। ऐसे ही हम संसारी जीव अनादि से कर रहे हैं। 


▪️*इन्द्रिय सुख*: वो इसको नित्य बनाने का प्रयास करता रहता है, जबकि वो अनित्य है। "इससे कर्म बन्ध होता है इसलिये ये मेरे दुख का कारण है, यह नहीं समझता", बल्कि उसे मित्र समझकर प्राप्त करने का प्रयास करता है। उसे यह नहीं समझ में आता कि इन्द्रिय सुख केवल हमें इन्द्रिय सुख दे सकता है, मानसिक सुख नहीं।   इस प्रकार गलत समझ से वो इसी के पीछे भागता रहता है, और उसमें अनेक पाप करते हुवे बहुत पाप कर्मो का संचय करता है। 

▪️*मानसिक सुख*: अपने थोङे से मानसिक सुख के लिये या तनाव मुक्त होने के लिये ही अधिकतर धर्म या अध्यात्म करता है, मगर शाश्वत सुख को नहीं जानता। मानसिक सुख इष्ट अनिष्ट, ममत्व, कर्तत्व, भोक्तृत्व आदि की वजह से होती है। मगर उसे अपने मानसिक सुख के कारण बाहर ही दिखाई देते हैं, और बाहर में चीजे इकट्ठी करता है, और अपने अन्दर की इष्ट अनिष्ट आदि बुद्धि को सही करने का प्रयास नहीं करता।

▪️*मान की पुष्टी* के लिये प्रसिद्धि, धन आदि चाहता है। उन्हे इस प्रकार इकट्ठा करताहै , जैसे वो हमेशा इसके पास रहने वाले हों। उन्हे और अपने शरीर को अपना मानता है। उन्हे सुख का कारण मानता है, जबकि वो उसके कर्म बन्धन में ही कारण बनते हैं।

▪️*हिंसा* करके सुख मानता है। कषाय को अपना स्वभाव मानता है। और उन्ही में लगा रहता है।

▪️*सच्चे सुख का ज्ञान नहीं*: उसे सच्चे सुख और ज्ञान का भान नहीं। इसलिये इन्द्रिय सुख और इन्द्रिय ज्ञान के पीछे ही भागता रहता है।

Sunday, July 4, 2021

संसार में लोग क्यों भटक रहे हैं?

संसार में लोग क्यों भटक रहे हैं:


अज्ञानता वश भटक रहे हैं और दुख भोग रहे है। 


  • (आस्रव तत्त्व) हिंसा में आनन्द मान रहे हैं, जबकि कर्म का आस्रव हो रहा है।
  • (आस्रव तत्त्व) परिग्रह में सुख मान रहें हैं, जबकि वो छुटने वाला है।
  • (आस्रव तत्त्व) धन इकट्ठा होकर मानी हो रहे हैं, जबकि उसका राग तेरा पतन कर रहा है।
  • (बन्ध तत्त्व) दूसरे को सुख दुख का कारण समझकर उसे हटाने या जुगाङने की कोशिश में लगा है, जबकि मूल कारण कर्म के लिये कुछ नहीं कर रहा।
  • (आस्रव तत्त्व) मानसिक दुखी तीव्र कषायो से होता है| उसके लिये दूसरो को दोष दे रहा है। जबकि इसकी कषायो की जिमीदारे को इसकी खुद की है।
  • (आस्रव तत्त्व) इन्द्रिय सुख के पीछे भाग रहा है, जबकि उससे दुख ही मिलता है। अतिन्द्रिय सुख को जानता ही नहीं।
  • (मोक्ष तत्त्व) इन्दिय ज्ञान को बढ़ाने में लगा है, जबकि अतिन्द्रिय ज्ञान के बारे में पता हीन हीं
  • (मोक्ष तत्त्व) संयोगो में सुख समझ रखा है, जबकि सुख सबके वियोग में है।
  • (आस्रव तत्त्व) कषायों को बिमारी नहीं समझता।
  • (मोक्ष तत्त्व) मुक्ति सुखको  ना जानता है, और ना ही उसके लिये कार्य करता है।
  • (जीव अजीव तत्त्व) पर्यायबुद्धि होकर दुखी हो रहा है। शरीर और कषाय को अपना मान बैठा है। बिमारी को अपना स्वभाव मान बैठा है।
  • (संवर निर्जरा तत्त्व) तप, ज्ञान, ध्यान को उपयोगी नहीं मानता।

Friday, May 28, 2021

हे राम।

 हे राम।

जो सीता तुम्हारे साथ वनवास में चल पङी। जो सीता के विरह होने पर तुम वॄक्षो से उनके बारे में पूछ रहे थे। जिसके दीक्षा लेने पर तुम्हे अपार दुख हुआ था। अब वो तुम्हे बोला रही है। - हे नाथ आओ। और मेरे साथ कुछ समय देवलोक में व्यतीत करो। मगर लगता है, तुम तो भेद विज्ञान की गहराइयों में डूबे हुवे हो।

जो भाई तुम्हारे साथ वन में चल दिया। रावण को मारा। तुम्हारा सदा प्रहरी बनकर रहा। तुम्हारी सेवा करी। तुम्हारा अनिष्ट सुनकर जिसकी ह्रदय की धङकन तक रूक गयी। उसके प्रति तुमने राग को कैसे छोङ दिया। कैसे तुमने उससे मूंह मोङ लिया। लगता है, तुम्हे संसार में अब कोई इष्ट अनिष्ट नहीं दिखाई देता।

तुम्हे सबके प्रति साम्यभाव कैसे प्राप्त हो गया। तुमने कर्म कालिमा को कैसे धो डाला। कैसे तुम अपने राज्य से, भाइयों से प्रेम किया करते थे। उस सारे प्रेम को कैसे तुमने हेय मान लिया। सारी प्रजा तुमसे प्रेम करती था। तुम सबके ह्रदय में बसते हो। हम सबके प्रति तुम कैसे विरक्त हो गये।

सम्भवतः इसीलिये क्योंकि तुम राम हो!

Monday, May 10, 2021

चेतन और अचेतन

 जो दिखाई देता है, वो अचेतन

जो छूने में आता है, वो अचेतन

जो सुनाई देता है, वो अचेतन

और तू चेतन।

अपनी बिरादरी से अलग, दूसरो के पास जाने से तुझे आज तक क्या मिला?

कौन अचेतन तेरा मित्र बन पाया, और कौन तेरा दोस्त

किसने वादा करके पूरा निभाया

....

तेरी पूर्णता चेतनपने में ही है

प्राणी और इन्द्रिय संयम करके.. अपने चेतनमय हो जाने में ही है

वहीं तेरी पूर्णता है, वहीं तेरी सम्पत्ति है

तो क्यों नहीं चल देता उस पथ पर, जहां से लोटना ना हो..

जहां अचेतन ना हो..

केवल चेतन, केवल चेतन!

Saturday, March 13, 2021

Virodhi Hinsa

 जब दूसरे को क्रोध या कषाय पूर्वक दुख पहुंचाने के भाव हैं तो वो संकल्पी हिंसा है। और जब अपने को बचाने के लिये दूसरे का घात होता है, उसमें दूसरे को दुख पहुंचाने का क्रोध पूर्वक भाव नहीं है- वरन अपने को बचाने का भाव है.. वह विरोधी हिंसा है।

प्रश्न: जब शरीर भी नहीं हूं, तो आत्मा साधना ही करूं, परिवार वालो के प्रति कर्तव्यो का निर्वाह क्यों करूं?

उत्तर : हमारे अन्दर कितनी विरक्ति होती है उसके अनुसार ही कार्य करने योग्य है। अगर जीव में पर्याप्त विरक्ति है, तो परिवार छोङकर सन्यास धारण क...