सारे जीव जन्म मरण के दुख भोग रहे हैं। इसके पीछे एक ही मूल कारण है - अज्ञानता। यह अज्ञानता है - मैं कौन, मेरे को इष्ट क्या, अनिष्ट क्या। कर्म का भान ना होना।
लौकिक क्षेत्र में भी अज्ञानता से कैसे कैसे दुख भोगता है। जैसे:
- अज्ञान से मानव जाति प्रकृति से खिलवाङ कर रही है।
- कुछ लोगो को देखकर पूरे समुदाय को एक जैसा समझना।
- किसी व्यक्ति के 1-2 बार अनुभवो को देखकर उसे सर्वथा वैसा ही समझ लेना
- यह समझना कि हिंसा से समाधान निकल जायेग।
- यह समझना कि क्रोध से समाधान निकल जायेग। इत्यादि
ऐसे ही अपने इन्द्रिय ज्ञान को सम्यक मानते हुवे -
- शरीर, परिवार, धन आदि को अपना मानकर उसकी रक्षा करने और उसे बढ़ने के लिये कितने पाप करता है - हिंसा करता है।
- दूसरी चीजे अच्छी हैं बुरी हैं- ये विकल्प करके कितने पाप करता है।
- यह नहीं जानता कि इनमें से तेरा कुछ भी शाश्वत नहीं है।
- कर्म से ही सब कुछ मिला है - इसलिये ना कुछ तेरा, ना अच्छा और् ना बुरा। और तेरी इष्ट अनिष्ट बुद्धि से ही तुझे मानसिक सुख दुख मिलता है
- इन्द्रिय सुख से मानसिक सुख होना समझ बैठा है। और पर पदार्थो में हेर फ़ेर् करने में लगा है, जबकि सुख तो तुझे अपनी इष्ट अनिष्ट बुद्धि को तजने से आता है।
मनुष्य में ही कुछ समुदाय के लोग पर्याय बुद्धि वशात अपने को उस समुदाय से इतना जोङ लेते हैं- कि उनके जीवन का लक्ष्य दूसरो को नीचा दिखाना, अपने समुदाय के लिये विषयों की समस्त सामग्री इकट्ठा करना। यही लक्ष्य हो जाता है। अपने को आत्मा ना समझने से और कर्म का ज्ञान ना होने से आस्रव करते हैं, और दुखो को भोगते हैं।
कितने ही जानवर अपना पूरा जीवन पर्यायबुद्धि वश भय, परिग्रह संचय में, हिंसा आदि में व्यतीत करदेते हैं, और आस्रव होता रहता है। ऐसा ही कितने मनुष्यों के साथ होता है।
देवता लोग भी पर्यायमूढ़ होकर विषयों में ही आनन्द मानते हुवे, आस्रव करते हुवे पूरी जीवन व्यतीत करते हैं।
इस प्रकार अज्ञानता की अग्नि में कषायो से पूरा संसार जल रहा है। आस्रव कर रहा है। बन्ध के दुख भोग रहा है। और ऐसा करता ही जा रहा है।
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