Wednesday, February 15, 2012

Sutra # 4: प्रभु की प्रतिमा साक्षात प्रभु ही हैं

सूत्र ४: प्रभु की प्रतिमा साक्षात प्रभु ही हैं

हम रोज मन्दिर जाते हैं, और प्रभु प्रतिमा के दर्शन करते हैं। उसका सच्चा फ़ल तभी है जब हम ये समझे कि यह प्रतिमा नहीं साक्षात प्रभु हैं।

इस बात को एक उदाहरण से समझते हैं। जैसे कि हम video game खेले और उसमे कम्प्यूटर के साथ tennis खेल रहे हों, तो उसमें मजा तभी है जब हम ऐस माने कि हम वास्तव मे tennis खेल रहे हैं। इसी प्रकार से जब हम किसी movie देखने जायें और movie देखते वक्त ये मान ले कि ये ही विचार करते रहे कि ये तो सब अभिनेता इत्यादि ने घन कमाने हेतु किया है, वास्तव में ऐसी कोई घटना घटी नहीं जैसी movie में दिखाई है, तो हम क्या movie का मजा ले पायेंगे, और क्या उस सन्देश को समझ पायेंगे जो movie देना चाह रही है? इसका मतलब जिस चीज का जो प्रयोजन हो हम उसे उसी अनुसार माने तो ही कार्य बन सकता है।

उसी प्रकार हम जब मन्दिर में जायें तो यह समझ ले कि हम साक्षात प्रभु के दर्शन करने जा रहे हैं, उसी में हमारा कल्याण है। साक्षात अनन्त सुखी, सम्पूर्ण विश्व को जानने वाले प्रभु को दर्शन करे। मन्दिर जाते वक्त, पूजा करते वक्त, प्रक्रिमा लेते वक्त, नमस्कार करते वक्त, अर्घ्य चढाते वक्त इसी बात का ध्यान रखे।

Sutra # 3: Others can not cause me happiness or sorrow

सूत्र ३: पर वस्तु से सुख दुख नहीं होता।
हमारी लोक में यह धारणा रहती है कि अमूक व्यक्ति ने हमें सुख दिया या दुख दिया। सामने वाले व्यक्ति ने कुछ उपकार कर दिया, तो हम कहते हैं कि हमें सुख दिया। कोई अच्छा TV serial देख लिया तो हमने कहा कि इसने कितना सुख दिया। ऐसा ही दुख में भी होता है। घर पर किसी से ना बने तो कहते हैं कि हमारी सास ने तो हमे बङा ही परेशान किया है।

वास्तव में क्या कोई हमें सुखी दुखी कर सकता है? इसमें विचार २ तरीके से करते है।
१. पहली बात तो यह- कि हमें निमित्त अपने कर्मानुसार मिले। अच्छे कर्म थे तो किसी निमित्त ने आकर हमरा भला कर दिया। बुरे थे तो बुरा कर दिया। तो हम दूसरे को सुखी दुखी करने का जिम्मेदार किस प्रकार ठहरा सकते हैं? यही बात सूत्र ’जो हुआ सो न्याय’ में भी समझी थी।
२. अब दूसरी बात यह है कि जो सुख दुख हुआ वो अपने कषाय के अनुसार हुआ। जब हम कहते हैं कि दूसरे व्यक्ति या वस्तु ने हमे अच्छा या बुरा किया तो हमे जो दुख हुआ वो अपनी कषाय के अनुसार हुआ। अच्छा निमित्त मिलने पर हम रति या लोभ कषाय से ग्रसित हुये तो हमने कहा कि आपने तो मजा दिला दिया। वास्तव में हम खुद ही सुखी दुखी हुवे या दूसरे ने हमें सुखी दुखी कराया, इसके समझने के लिये निमित्तों से सम्बन्ध समझते हैं। ये दो प्रकार के हैं-
  २ क) निमित्त driven: अग्नि और पानी का सम्बन्ध: ये ऐसा सम्बन्ध है कि अगर अग्नि और पानी का संयोग हो तो पानी गर्म होगा ही होगा। ऐसा नहीं हो सकता कि अग्नि का संयोग तो हो मगर पानी गर्म ना हो। एक और उदाहरण लें तो जैसे थाली पर चम्मच मारे तो थाली पर कम्पन्न होगा ही होगा।
  २ ख) उपादान driven: मछली और पानी का सम्बन्ध: मछली और पानी के बीच मे सम्बन्ध अलग प्रकार का है। जब मछ्ली गमन करती है तो पानी सहायक होता है, मगर पानी मछली को गमन कराता नहीं है। मछली चाहें तो पानी का सहयोग लेकर गमन करे चाहें तो स्थिर रहे। एक और उदाहरण लें - जैसे जमीन और हमारा उस पर चलना। जमीन हमें चलाती नहीं है, मगर हमारे चलाने में सहायक बनती हैं।

उपर्युक्त दो प्रकार के सम्बन्धो में ये विशेष बात देखने में आती है कि पहले वाले सम्बन्ध में निमित्त contribute कर रहा है कार्य होने में, जबकि दूसरे प्रकार के सम्बन्ध में उपादान निमित्त का आश्रय ले रहा है। या दूसरे शब्दो में कहे कि पहला सम्बन्ध निमित्त driven है और दूसरा सम्बन्ध उपादान  driven है। पहले सम्बन्ध में निमित्त की मर्जी कि वो कार्य को drive करे या ना करे। और दूसरे सम्बन्ध में उपादान की मर्जी की वो कार्य drive करे या ना करे। अब हम दुबारा से उपर के उदाहरणो (२क, २ ख) को पढे तो ये बात एकदम स्पष्ट हो जायेगी।

जो हमें व्यक्तियों और पर वस्तुओं से सुख दुख होता है उसमे दूसरी प्रकार का सम्बन्ध बनता है। अर्थात उन सम्बन्धो मे दुख या दुख हमारे द्वारा driven है। हमारी मर्जी कि हम उस निमित्त का आश्रय लेकर सुखी हों या दुखे हो। हमारी खुशी/दुख दूसरी वस्तु drive नहीं करती वरन हम drive करते हैं। और खास बात यह है कि हम चाहें जैसे drive कर लें। चाहें तो उस निमित्त पर सुखी हो जाये और चाहे दुखी और चाहे तो एक सन्त की भांति वीतरागी। I am the driver whether I want to have pain, pleasure or equanimity.
जैसे कि एक horror movie को देखके कुछ लोग भयभीत हो जाते हैं और कुछ मस्त लोग उस पर ठहाके मार के हंसते हैं। बिल्कुल उसी तरह जिस तरह मछली होती है- चाहें तो वो पानी मे रहकार उत्तर दिशा की और दौङ लगा ले और चाहें तो दक्षिण की ओर, और चाहें तो निराकुल अपने स्थान पर ही बैठी रहे। एकदम उसी प्रकार यहां पर भी बात लागू होती है। सो सार यह है कि हम पर वस्तु से नहीं अपनी ही राग द्वेष से दुखी होते हैं। और ऐसा श्रधान करने से हम पर-वस्तु पर होने वाले राग द्वेष को जीत निरकुल सुखी ओर शान्त हो सकते हैं।

Sutra # 2: Whatever happens is justice

सूत्र २: जो हुआ सो न्याय

दूसरो को देखकर जो प्रकार के विकल्प होते है उसका समाधान है प्रभु द्वारा बताया गया सत्य - ’जो हुआ सो न्याय’

(क) दुनिया में हमें लगता कि इसने हमारे साथ बङा ही अच्छा किया, या बहुत ही बुरा किया।
इस पर विचार करे कि वास्तव में ऐसा है क्या? वास्तव में कोई हमारा अच्छा या बुरा नहीं करता। दुनिया में जीव की यात्रा बहुत बङी है। अनादि अनन्त काल की है। इस प्रकार की यात्रा विश्व में समस्त जीवो की है। सब जीवो की एक ही कहानी है- चाहे हम माने या ना माने। इस यात्रा में सब कोई जीव अपना किया करा ही भोगते हैं। कोई किसी को सुखी या दुखी नहीं कर सकता है। कोई किसी को सुखी या दुखी कर सके तो यह तो प्रकृति का अन्याय होगा। जिसने जितने गलत काम किये उसे या तो उसे भोगने होंगे या तप के द्वारा भस्म करने होंगे- उसके बिना किसी के द्वारा वो समाप्त कर दियी जायें, तो यह तो प्रकृति का अन्याय होगा, और यह प्रकृति को स्वीकार नहीं। प्रकृति की न्याय का तराजू एकदम सटीक न्याय अनादि काल से करता आ रहा है, और करता रहेगा।

इसके लिये एक उदाहरण लेते हैं- जैसे हमने खूब पैसा कमाया और निकट के बैंक में जमा करा दिया। जब बैंक में पैसा जमा करने गये तब किसी कैशियर ने बैक में हमारा पैसा जमा करवा दिया। अब १० साल बाद हम जब बैंक में गये तो पाया कि कैशियर बदल गया। मगर इस कैशियर ने मेरा पैसा मुझे दे दिया क्योंकि जमा पैसा मेरा था। इसी प्रकार जब हमने भूतकाल में अच्छे-बुरे भाव किये तो भविष्य में किसी निमित्त से अपने को अच्छी बुरी परिस्थितियां बनी। तो उस निमित्त ने मेरे को सुख-दुख नहीं दिया। ये तो उसने मेरा किया कराया ही मुझे दिया। तो जो हुआ सो न्याय ही हुआ। दूसरा व्यक्ति तो मात्र दुख सुख देने का निमित्त बना जैसे कि कैशियर हमें पैसा देने का।

इस बात से हमें ये समझ में आ गया कि कोई भी व्यक्ति या वस्तु मेरे लिये बुरी अच्छी नहीं है। चाहें वो मेरा घर, पति, पत्नि, सास, ससुर, भाई, बहन, दोस्त इत्यादि भी क्यों ना हो। इसलिये, इस बात को गांठ बांध लें - जो हुआ सो न्याय।

(ख) दूसरे की गलत चेष्टाओं को देखके ऐसा लगना कि कितना गन्दा व्यक्ति है।

एक उदाहरण लें- मान लो कि हमने देखा कि समाज की एक बङे बुजुर्ग ने कहा - ’अच्छा हुआ यहां मन्दिर का निर्माण नहीं हुआ’। उसे सुनते ही हमारे मन में उठा कि देखो कैसे अन्यायपूर्ण बात करते हैं। मन्दिर से तो कितनी प्रभावना होती है, कितने लोगो को सुख की प्रप्ति होती है। इनका यह कहना तो एकदम अन्याय पूर्ण है, और मन ही मन में थोङा गुस्सा भी आया कि इतने बुजूर्ग होते हुये भी ऐसी अनुचित बात इन्होने कही। बाद में पता पङा कि ये व्यक्ति तो दिमाग के मरीज है, और बङी ही करूणाजनक अवस्था में हैं। ऐसा सुनते ही पता नहीं गुस्सा तो कहां चला गया, और मन में उनके प्रति करूणा भी आ गयी।

इस उदाहरण से एक बात तो समझने में आयी कि जब हमें कोई चीज न्यायपूर्ण लगती है, तो हमें उसके प्रति दुर्भावनायें नहीं रहती। वास्तव में देखा जायें तो जब हमें घटना न्याय पूर्वक लगती है तो अन्ततया हमें कोई भावनायें ही नहीं रहती, हम मध्यस्थ हो जाते हैं। अन्यायपूर्ण बात पर दुर्भावनायें रखना और बिना उम्मीद के कोई अच्छी घटना के होने पर सुखद भवनायें रखना ही लोक में दिखाई देता है।

अब हम एक उदाहरण और लेते हैं, और उसका तात्विक दृष्टि से विशलेषण करते हैं: एक व्यक्ति हमारे गांव में आया। पता पङा पहुंचे हुवे सन्त हैं। जाकर मिले तो पता पङा कि बाहर से सन्त हैं और अन्दर से पाखण्डी। ऐसा पता पङते ही मन में द्वेष की नाना प्रकार की तरंगे नृत्य करने लगी। लौकिक ज्ञान से तो ये ही पता पङता है कि ये व्यक्ति बहुत गन्दा है। मगर तात्विक दृष्टि से देखा तो पता पङा कि उसका पाखण्ड का कारण तो उसका अज्ञान और कषाय हैं। और ये अज्ञान, कषाय का कारण तो पूर्वजन्म में किये गये भाव हैं। अब समझ में आया जैसा सन्त की अज्ञान, कषाय की अवस्था है, तो उसी के हिसाब से तो कर रहा है, इसीलिये न्यायपूर्ण है। द्वेष करूं तो किस पर करू? उस सन्त की अज्ञान और कषाय पर? मगर उस पर भी कैसे करू, उसका मूल कारण तो भूतकाल में किया गया वो भाव है जिससे इस प्रकार का अज्ञान, कषाय सन्त मे अभी दिखाई पङ रहे है। तो भूतकाल के भाव पर करूं? उस पर भी कैसे करू उसका भी तो कारण उसके भूतकाल में कुछ है। तो मतलब कषाय ही ना करूं। हां! बस यही इष्ट है!

मगर जो कर रहा है, उसके फ़ल में इसे भविष्य में दुख होगा, इसीलिये मन में करूणा भी है। मगर जो कर रहा है, वो अब अन्याय नहीं दिखेगा। इस प्रकार से सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड में समस्त जीवो की नाना प्रकार की अवस्थायें न्यायपूर्ण दिखाई पङती है। चाहें वो भ्रष्ट नेता, आतंकवादी, पाखण्डी सन्त इत्यादि क्यों ना हो। जगत मे अन्याय नाम की कोई चीज नहीं। जो गलत कार्य करता है, उसे भविष्य में उससे दुख ना हो इसीलिये उसे सम्बोधा जाता है। यह बात समझके अपने को सब व्यक्ति के प्रति- यह अच्छा है, यह बुरा है- इस प्रकार की भवनाओं का अन्त हो जाता है।

ऐसी दृष्टी बनने से ना तो हम राग करते हैं और ना द्वेष और शान्ति को प्राप्त करते हैं। अगर बाहर कमीयां दिखे तो उसे न्यायपूर्ण देखे, अगर अच्छाईयां दिखे तो उसे न्यायपूर्ण देखें, इस प्रकार से बाहर में अच्छे बुरे के भेद करने की दृष्टी समाप्त हो जाती है, और समता दृष्टी पैदा होती है।

Sutra#1: The problem is not out there, the problem is in here

सूत्र १: समस्या बाहर नहीं, अन्दर है

जीवन में देखो तो समस्यायें बहुत हैं। परिवार में कितनी परेशानियां, समाज में कितनी परेशानियां, भारत में कितनी परेशानियां है।

तो प्रश्न उठता है कि हम क्या करें? क्या जाग उठे, और मिटा दे इन सब समस्याओं को। एक कर्मठ व्यक्ति की तरह जुट जायें और जमे रहे जब तक ये विषमतायें ध्वंस नहीं हो जाती।

श्रीगुरू कहते है - नहीं। दो दृष्टियां हैं। दूसरे को सुधारना, उठाना तो लौकिक दृष्टि है। अपने को सुधारना, उठाना आध्यात्मिक दृष्टि है।

शिष्य प्रश्न करे ऐसा क्यों? श्रीगुरू करूणा पूर्वक समझाते हैं कि ये जो समस्या भिन्न भिन्न रूपों में बाहर में दिखाई देती हैं, ये वास्तव में बाहर नहीं तुम्हारे अन्दर हैं। जितनी दुनिया हमें दिखाई देती है, ऐसी अनगिनत दुनिया  पूरे लोक के अन्दर हैं। तुम्हारी एक दुनिया है, जो चींटी हमारे घर की नाली की दिवारो पर रहती है, उसकी एक दम अलग दुनिया। उसकी समस्यायें भी एकदम अलग प्रकार की है। ऐसे ही एक मकङी की दुनिया है जो जाले पर झूलती रहती है, और नये जाले बुनती रहती है। इसी ही प्रकार मच्छरो, चमगादङ, छोटी मछली, बङी मछली की अपनी अपनी दुनिया है और उनकी अपनी अपनी समस्यायें हैं।

जानवरो की तो बात ही और, इन्सानो में भी तो अलग देश मे जन्मे लोगो की दुनिया अलग और समस्यायें अलग। अलग देश छोङो, एक ही देश में भिन्न भिन्न व्यक्तियों के अनुभव, ज्ञान और भावो के आधार पर उनकी दुनिया अलग और समस्यायें भी अलग।

जिस प्रकार के हमने कर्म किये उसी प्रकार की दुनिया में हम चले जाते हैं। इसलिये समस्यायें वास्तव मे दुनिया मे नहीं वरन अपने मे हैं। और इसका समाधान भी बाहर नहीं वरन अपने भीतर ही है। हम अन्दर की दुनियां सुधार लेंगे तो सहज ही बहिरंग दुनिया भी सर्व सुन्दर मिल जायेगी, और अगर बाहरी दुनिया में ही लगे रहे तो दुनिया से बन्धन कभी तोङ नहीं पायेंगे।

शिष्य प्रश्न करे- क्या लोक की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता? श्रीगुरू कहते हैं - अगर इनका समाधान हो सकता होता, तो अनादि काल से लोक की सत्ता है - इनका समाधान हो गया होता। इन समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। तुम्हारा इष्ट इसी में है कि तुम अपना समाधान कर लो।

शिष्य प्रश्न करे- तो क्या पर उपकार कदापि ना करे। तो श्रीगुरू कहते हैं- अपने को सुधारने के पथ पर अपने अन्तरंग को पवित्र करने के लिये और स्थूल पाप भाव से बचने के लिये पर उपकार में भी निमित्त बनो।

इस प्रकार हम बाहर में समस्यायें ना देखकर बाहर से राग-द्वेष ना करे। वरन उसका मूलकारण अपने अंतरंग को जानकर उसे परम पवित्र करें। जिससे परम पवित्र सिद्धलोक की केवलज्ञान रूपी दुनियां में हमारा वास होये।

Friday, October 28, 2011

Poem: kshamaSagar Ji क्षमासागर जी

जैसे बङा है क्षीरसागर, जिसका कोई अन्त नहीं
ऐसी भरी है तुममे क्षमा, जिसकी कोई सीमा नहीं

करूणा सागर, दया सागर, कितने ही तेरे नाम धरूं
शब्द पढ़ जायें सीमित, कैसे इनमें भक्ति भरूं

वाणी कोमल, कठिन चर्या, कर्म परिक्षा ले रहे
ज्ञान खङग लेके सजग तुम, इसमें सफ़ल हो रहे।

जिनवाणी माता के दुलारे, तुम उसके प्यारे पुत्र हो
तुमको दिलाये ऐसे गुरूवर, जिनकी विद्या असीम हो

इन्द्र, नरेन्द्र तुम नाम लेकर, सदा धन्य हो जाते हैं
तुम्ही उत्तम, तुम्ही मंगल, तुम्हारे गुणो को वें गाते हैं

तुम आत्मा में सजग रहकर, सदा समता रखते हो
सब मित्र और शत्रु से, एक ही मैत्री रखते हो

बन जाऊं तुम जैसा, कैसा वो दिन होगा
निज आत्मा में रच पच जाऊं, तभी असली सुख होगा

करूणा, मैत्री, वात्सल्य भावो से, भिगा दूं इस तन मन को
क्रोध, भय थर थर कांपे, जगा दू मैं दस धर्मों को ।

पंचमकाल में करो साधना, तुम्ही मेरे गुरूवर हो
मुझको भी तुम दे दो दीक्षा, धन्य तभी यह जीवन हो

Saturday, April 16, 2011

Dhoti is very environment friendly


We have multiple options to wear - jeans, pants, Pajama, Dhoti. Out of these I have found Dhoti to be most environment friendly. Below are the reasons:

  • With Jeans if waist size increases/decreases we have to find another Jeans. But Dhoti it is not a problem, one can keep the same Dhoti because one can tie the knot according to the waist size.
  • With Jeans/Pajama if height increases, we have to find another Jeans/Pajama. But Dhoti again the height is something which can be changed.
  • Dhoti is just a piece of cloth, so manufacturing a Dhoti has least number of steps and less machines are needed. While for jeans/pajama when one sew it- more machines are needed and there is waste of cloth also.
For above reasons, one can keep the Dhoti till it is worn out and also can give to others without thinking the waist size or height of others.

Therefore, lets switch to Dhotis :)




Thursday, April 7, 2011

Poem2: Sahajanand Varni Ji

लुट लुट जाऊं तुम चरणॊं में, कब दिन ऐसा आयेगा
मिट मिट जाऊं तुम चरणो में, तब गजब हो जायेगा

मैने तुमको पूजा हमेशा, क्योंकि तुम ज्ञानी विरागी हो
तुमने दिखाया मैं भी विरागी, अब कैसे ये राग रह पायेगा

जाननहार अस्तित्व मेरा, कभी समझ ना पाया था
कोई ना मेरा, कोई ना किसी का, यह राज ना जान पाया था

सब द्रव्य से निराला था मैं , ऐसा कभी ना माना था
खुद को रूपी, रागी मानकर, अनन्त काल बिताया था

अब तो नाम लिया है तेरा, वीरागी बनना मेरा निश्चित है
निश्चित है मुक्ति, निश्चित है मोक्ष, अनन्त सुख भी निश्चित है

धुन लगाऊं तेरे गुण की, तो कैसे ना मुक्ति पाऊंगा
समस्त पुदगल, समस्त राग, छोङकर निज पद जाऊंगा

राह दिखाई तुने ऐसी, जिसमें कोई कंकङ ना हो
सुख सागर में डुबकि लगाने, कि अब कोई कसर ना हो

मिटा दूंगा सारा अज्ञान मैं, अब नाम लिया मैने तेरा
राग को छोङू, द्वेष को तोङूं, निजधाम है बस मेरा

तात्विक जगत का नक्शा दिखाया, ऐसा तेरा ज्ञान महान
बलि बलि जाऊं तुझ चरणों पर, मिल जाये मुझे निजधाम

प्रश्न: जब शरीर भी नहीं हूं, तो आत्मा साधना ही करूं, परिवार वालो के प्रति कर्तव्यो का निर्वाह क्यों करूं?

उत्तर : हमारे अन्दर कितनी विरक्ति होती है उसके अनुसार ही कार्य करने योग्य है। अगर जीव में पर्याप्त विरक्ति है, तो परिवार छोङकर सन्यास धारण क...