"उसे ऐसा करना चाहिये" - यह अपेक्षा है। दूसरा जीव कोई कार्य करता है, और हम अपनी आसक्ति उसके कार्य से जोङ लेते हैं। सोचते हैं, कि वो मेरे अनुसार करे, या जो मेरे को ठीक लगता है ऐसा करे।
प्रश्न यह है कि वो ऐसा क्यों करेगा जैसा मैं चाहूंगा? उसे जैसा सही लगेगा वैसा सो करेगा, तो मैं उसके कार्य में आसक्ति क्यों रखूं।
शरीर में बिमारी होने पर जीव पुरूषार्थ करता है, और अगर स्वास्थ्य ठीक नहीं होता तो दुखी होता है। परिणाम पर इतनी आसक्ति क्यों, वो तो भाग्य और पुरूषार्थ पर निर्धारित है।
Thursday, May 15, 2014
डांट
डांट को कई लोग अच्छा नहीं मानते। कुछ तो लोग ऐसा सोचते हैं कि यह मात्र प्रताङना है जिसमें दूसरे को मात्र दुखी किया जा सकता है। डांटने की जगह हमें दूसरे को मात्र प्रेम से समझाना चाहिये।
वास्तव में देखा जाये तो समझाना और डांट दोनो ही जीवन में जरूरी हैं। दूसरे को पहले तो समझाया ही जाता है, मगर समझने की बावजूद भी जब वह पुराने संस्कारो की वजह से गलत कार्य नहीं छोङ पाता है, तो डांट अति उपयोगी सिद्ध होती है।
डांट तभी कारगार होती है जब डांट पङने वाले व्यक्ति को डांट सुनकर पछतावा हो, अगर पछतावे की जगह उसे डांटने वाले से द्वेष हो जाये तो वह व्यक्ति उस प्रकार की डांट का पात्र नहीं है।
छोटे बच्चे को सही रस्ते पर समझाना ही अच्छा है, मगर जब समझाने के बावजूद भी गलत कार्य करे तो डांट कार्यकर होती है। जैसे मानलो बच्चे का चरित्र खराब होना शुरू हो जाये, तो उसे प्रथम समझाना ही जरूरी है। अगर वो सुधर जाये तो ठीक, अगर नहीं तो फ़िर से समझाना चाहिये और यह नक्की करना चाहिये कि उसे सही बात समझ में आ गयी। समझ में आने के बावजूद भी नहीं माने तो डांट ही उपयोगी।
अध्यात्मिक क्षेत्र में एक उदाहरण लें: एक व्यक्ति को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया, मगर चारित्रमोह वश चारित्र धारण नहीं कर पा रहा। ऐसी अवस्था में गुरू के द्वारा डांट उसके जगे हुए पुरूषार्थ को जगा सकती है और उस पुरूषार्थ से वह व्यक्ति चारित्रमोह को पछाङकर चारित्र ग्रहण कर सकता है।
दूसरा उदाहरण लें: चारित्र धारण किये हुये जीव जब चारित्र से स्खलित हो जाये तो गुरू के द्वारा डांट बहुत कार्यकारी सिद्ध होती है।
ऐसे जीव धन्य हैं जिन्हे सच्चे गुरू से समझदारी की बाते और डांट दोनो प्राप्त होती हैं।
वास्तव में देखा जाये तो समझाना और डांट दोनो ही जीवन में जरूरी हैं। दूसरे को पहले तो समझाया ही जाता है, मगर समझने की बावजूद भी जब वह पुराने संस्कारो की वजह से गलत कार्य नहीं छोङ पाता है, तो डांट अति उपयोगी सिद्ध होती है।
डांट तभी कारगार होती है जब डांट पङने वाले व्यक्ति को डांट सुनकर पछतावा हो, अगर पछतावे की जगह उसे डांटने वाले से द्वेष हो जाये तो वह व्यक्ति उस प्रकार की डांट का पात्र नहीं है।
छोटे बच्चे को सही रस्ते पर समझाना ही अच्छा है, मगर जब समझाने के बावजूद भी गलत कार्य करे तो डांट कार्यकर होती है। जैसे मानलो बच्चे का चरित्र खराब होना शुरू हो जाये, तो उसे प्रथम समझाना ही जरूरी है। अगर वो सुधर जाये तो ठीक, अगर नहीं तो फ़िर से समझाना चाहिये और यह नक्की करना चाहिये कि उसे सही बात समझ में आ गयी। समझ में आने के बावजूद भी नहीं माने तो डांट ही उपयोगी।
अध्यात्मिक क्षेत्र में एक उदाहरण लें: एक व्यक्ति को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया, मगर चारित्रमोह वश चारित्र धारण नहीं कर पा रहा। ऐसी अवस्था में गुरू के द्वारा डांट उसके जगे हुए पुरूषार्थ को जगा सकती है और उस पुरूषार्थ से वह व्यक्ति चारित्रमोह को पछाङकर चारित्र ग्रहण कर सकता है।
दूसरा उदाहरण लें: चारित्र धारण किये हुये जीव जब चारित्र से स्खलित हो जाये तो गुरू के द्वारा डांट बहुत कार्यकारी सिद्ध होती है।
ऐसे जीव धन्य हैं जिन्हे सच्चे गुरू से समझदारी की बाते और डांट दोनो प्राप्त होती हैं।
Monday, February 3, 2014
दादी मां
हे दादी, तू चली गयी।
जिस परिवार को तूने पाला-पौसा, सींचा,
उसे छोङ के तू चली गयी।
जिस शरीर की तूनी जीवन भर सेवा की
जिसका साथ तेरे को हमेशा रहा
उसे भी छोङ के तू चली गयी
जिस घर में तू हमेशा रही
जिस घर के कण कण से तेरी पहचान थी
उसे तू छोङ के चली गयी।
हे परिवार वालो। जिस मां ने तुझे अपने खून से सींचा
क्या तेरे में इतनी नमक-हलाली नहीं थी, कि उसे तु जाने से रोक लेता?
हे शरीर। क्यों मृत सा पङा है तू
क्या तेरे परमाणुओं पर दादी का एहसान ना था, जिसनें तुझे पुष्ट किया
क्यों मौत के समय तू मूक होकर सब देखता रहा?
तू क्यों ना उसको जाने से रोक सका।
हे घर, हे समाज! क्या तुम सब मूक दृष्टा हो।
अगर हो, तो क्यों कहते हो कि ’कोई मेरा चला गया’
और दादी क्यों तुम सबको अपना कहती थी।
और क्या ये ’अपनापन’ सिर्फ़ ढ़ोंग था। वास्तव में क्या कोई किसी का ही ना था?
Friday, January 10, 2014
Advantages of studying 3 Loka
तीन लोक के अध्ययन से हमें फ़ायदे:
पूजन करते समय फ़ायदा:
१) अब हमें मालूम है कि ७२० तीर्थंकर या विदेह के २० तीर्थंकर भगवान के अर्घ हैं, तो कहां कहां वे तीर्थंकर होते हैं। और अर्घ्य चढ़ाते हुये हम अपने मन से वहां पहुंच सकते हैं।
२) समुच्चय महार्घ्य में तीन लोक के कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्याल्य में- पंच मेरू के चैत्यालय, नन्दीश्वर द्वीप के चैत्यालय, उर्ध्व, अधो, मध्य लोक के चैत्यालय कहां कहां है। ताकि हम अपना मन वहां ले जाकर उन्हे अर्घ्य दे सकें।
३) समुच्चय महार्ध्य में सब हम वर्तमान के अरहन्त, सिद्ध, साधु को अर्घ चढ़ाते हैं - तो हमे मालूम हो गया कि ढ़ाई द्वीप में अरहन्त कहां कहां होते हैं, सिद्ध कहां कहां होते हैं, साधू कहां कहां होते हैं।
४) जब हम कहते हैं- ’अरहंता लोगुत्त्मा’ अर्थात ’अरहंत तीन लोक में उत्तम है’ तो हमें तीन लोक के जीवो को समझने से यह स्पष्ट हो गया कि अरहंत ही तीन लोक में उत्तम कैसे हैं।
५) ऐसे ही अनेको फ़ायदे पूजन करते समय होंगे।
स्वाध्याय करते समय फ़ायदे:
१) प्रथमानुयोग पढ़ते समय जब अनेक भूमियों, समुन्द्रो, भोगभूमियों का वर्णन आयेगा, तो आपको पता होगा कि वे कहां है।
२) द्रव्यानुयोग, करणानुयोग पढ़ते वक्त जब आप तत्व पढेंगे, तो वो सारे तत्व सम्पूर्ण तीन लोक में सत्य है यह विशेष रूप से समझ में आयेगा।
तत्व चिन्तन/ध्यान करते समय फ़ायदे:
१) जब शास्त्र में बतायेंगे: ’सारे संयोग नश्वर हैं’- तो हम पूरे तीन लोक को दृष्टि में लेकर सोच सकेंगे और एक दम स्पष्ट समझ में आयेगा कि वास्तव में सारे संयोग नश्वर ही हैं।
२) जब शास्त्र में बतायेंगे: ’मेरा कोई नहीं’ - तो हम पूरे तीन लोक को दृष्टि में लेकर सोच सकेंगे कि वास्तव में मेरा तीन लोक में किसी स्थान विशेष में या काल विशेष में ना कोई मेरा था, है और होगा।
३) जब पूजा में हम पढते हैं ’शान्ति करो सब जगत में, चौबीसो भगवान’ - तो हमारी भावना अपने देश और पूरे तीन लोक के चारो गतियों के जीवो को समाहित कर लेगी।
३) ऐसी ही सारे तत्व की बाते(बारह भावना) तीनो लोको पर घटाने से विशेष विशुद्धि हमारी बनेगी।
वैराग्य की उत्पत्ति में फ़ायदा:
१) जब तक तीन लोक नहीं जाने तो यह भी कोई सोच सकता है ’क्या पता मोक्ष के अलावा भी कहीं शाश्वत सुख हो’ अथवा ’क्या पता कोई ऐसा विषय सुख होता हो जो हमेशा अपने साथ रहे’। यह संशय टूट जाते हैं, जब तीन लोको के बारे में स्पष्टिकरण हो जाता है।
२) सम्पूर्ण तीन लोक को जानने पर संसार से छुटने का मन, और मोक्ष प्राप्त करने का मन सहज होने लगता है।
मुनि महाराज जी भी संस्थान विचय में लोक का ध्यान, और बारह भावना की लोक भावना भाते हुये तीन लोक का चिन्तवन करते हुये अपनी आत्मा को पवित्र करते हैं।
ऐसे ही तीन लोक को जानने से मनन करने से हमारा दृष्टिकोण विकसित हुआ, और हमें अनेक जगह इसका लाभ होगा।
Sunday, December 15, 2013
Trip to Acharya VidyaSagar Ji 2013
जो गुण मेरे ह्रदय में बैठ सके,
उनको तो मैं स्याही से रच सकता।
मगर जो मेरे ह्रदय और बुद्धि से पार हैं,
उन्हे रचने का मैं ढोंग ही कर सकता॥
ऊंचे पर्वत पर पहुंच चुके वीर को देख,
उसका प्रशंसा करना आसान है।
मगर जो पहुंच चुके वहां, जहां नजरे पहुंच ना सके,
उनका गुणगान करना मेरी कलम से बाहर है।
जो धर्म में आगे बङे चुके हैं,
उनकी स्तुति तो मैं कर सकता हूं
मगर जो धर्म के सागर मुनिवर आचार्य हैं,
उनकी स्तुति का तो ढ़ोंग ही कर सकता हूं।
उनको तो मैं स्याही से रच सकता।
मगर जो मेरे ह्रदय और बुद्धि से पार हैं,
उन्हे रचने का मैं ढोंग ही कर सकता॥
ऊंचे पर्वत पर पहुंच चुके वीर को देख,
उसका प्रशंसा करना आसान है।
मगर जो पहुंच चुके वहां, जहां नजरे पहुंच ना सके,
उनका गुणगान करना मेरी कलम से बाहर है।
जो धर्म में आगे बङे चुके हैं,
उनकी स्तुति तो मैं कर सकता हूं
मगर जो धर्म के सागर मुनिवर आचार्य हैं,
उनकी स्तुति का तो ढ़ोंग ही कर सकता हूं।
कुछ अच्छे वाक्य:(जो संघ में सीखे)
- मन के गुलाम नहीं बनना, मन को अपना गुलाम बनाना है।
- बहुत नहीं, बहुत बार पढ़ो।
- दूसरो से अपेक्षा रखोगे तो दुख मिलेगा, अपने से अपेक्षा रखोगे तो प्रेरणा मिलेगी।
- कष्ट सहिष्णु बनो।
- जीवन को प्राकृतिक रखना चाहिये। जितना प्राकृतिक रखो, उतना स्वस्थ। A.C., heater का प्रयोग ना करने का अभ्यास करें।
- ’ऐसा करो’ ऐसा मत कहो। ’ये सही है, ये गलत है। तुम्हारा जैसा मन करे वैसा कर लो’ ऐसा कहो। अगर सामने वाला गलत ही करे, तो संक्लेष ना करो।
- समता विपत्ति का सबसे बढ़ा प्रतिकार है।
- अधिक से अधिक ३ समय शरीर से वियोग ना हो, इसलिये जीव अपने नीयम भी छोङ देता है।
- जिस प्रकार अंधकार में पदार्थ नहीं दिखता, वैसे अहंकार में यथार्थ नहीं दिखता।
- पति पत्नि को निर्णय मिलकर लेने चाहियें।
- मल, मूत्र से दूर ही रहना चाहिये, इससे अशुद्धता होती है।
- सम्यक्दर्शन के ८ अंग धारण करो।
- घर में सामूहिक स्वाध्याय करना चाहिये। इससे सामूहिक पूण्य का अर्जन होता है, इससे परिवार पर आने वाली समस्याओं से समाधान होता है।
- प्रभावना करने का उपाय internet पर धर्म का प्रचार प्रसार करना नहीं, वरन चारित्र धारण करना है।
- बिमारी हो तो उसे असाता का उदय मानकर हर्षित हो- कि पुराना हिसाब चुकता हो रहा है। ऐसे असाता जल्दी निकल जाता है।
- सहन करने में समाधान है। जवाब देने में संघर्ष।
कुछ प्रश्न उत्तर जो किये:
प्रश्न: स्वास्थ्य आदि की कारण रात्रि भोकन त्याग ना कर सकें तो क्या करें।
उत्तर: (गम्भीरता पूर्वक)चारित्र दुर्लभ है।
प्रश्न: कई बार देर से उठने की वजह से सुबह अभिषेक, पूजन छुट जाता है, क्या करूं।
उत्तर: अभिषेक पूजन का उत्साह रखो। फ़िर नहीं छुटेगा।
प्रश्न: मैं कौन से स्तुति, ग्रन्थ को याद करूं।
उत्तर: पहले भक्तामर, फ़िर इष्टोपदेश
(एक ब्रहम्चारी बहन से प्रश्न) प्रश्न: नीयम ले नहीं कुछ कारण वश तो क्या करें।
उत्तर: जो असली में कारण हैं, उनकी छूट रख लो। पूरा नहीं कर सको तो जितना कर सको उतना नीयम लो।
त्याग तपस्या:
- एक साधर्मी से सुना कि आचार्य जी ने केशलोंच के दिन चौबीस घण्टे खङे होकर तपस्या करी। (नेमावर में)
- एक भाई से सुना कि आचार्य श्री ने संघ के अन्य मुनियो के साथ पूरी रात शमशान घाट में कई बार कायोत्सर्ग कर रात गुजारी।
- आचार्य श्री ने कई बार छत्तीस घण्टे एक पैर पर खङे होकर तपस्या करी।
- संघ में कई महाराज जी का मीठे, नमक का त्याग है। अगर मुनक्के इत्यादि का पानी बनाया तो उसे लेने से भी मना कर दिया।
- ४५ महाराज जी संघ में थे। रोज १०-१५ के उपवास होते थे। ८-१० के अन्तराय हो जाते थे। २०-२५ के ही निरन्तराय आहार हो पाते थी।
- रात को कई मुनि सर्दियों की रात मे भी चटाई का प्रयोग नहीं करते।
- दंशमंशक परिषहजय करते हैं।
संस्मरण:
- एक ब्रहम्चारी भैया जी के बालतोङ हो गया। वो आचार्य श्री के पास समाधान के लिये गये। आचार्य श्री ने कहा कि दवाई से जल्दी ठीक हो जायेगा, मगर दवाई का प्रयोग ना करो तो कष्ट ज्यादा होगा, मगर निर्जरा भी ज्यादा होगी। भैया जी ने दवाई का प्रयोग नहीं किया और गम्भीर दर्द को सहन कर जीता।
- एक सप्तम प्रतिमा धारी व्यक्ति के रीढ़ की हड्डी में slip होने पर भी कोई surgery नहीं कराई। दो साल बिना painkillers के भीषण दर्द भेदविज्ञान के सहारे जीते।
- एक ब्रहम्चारी बहन के देव दर्शन का नीयम था, फ़िर भी उन्होने युक्ति पूर्वक छूट रखी- जैसे महाराज जी को विहार कराते समय मन्दिर सुलभ नहीं हो पाता। अगर महाराज जी के लिये चौका लगा रहे हों, तो समय नहीं मिल पाता।
- एक ब्रह्मचारी बहन को बताया कि मुझे जीवन में स्वाध्याय करने में बहुत कष्ट आये- तो उन्होने कहा ’जो ज्ञान कष्ट सहकर प्राप्त होता है, वो कष्ट आने पर नहीं जाता’।
- एक ब्रहमचारी बहन ने बताया कि कि किस प्रकार उनके पिताजी की हड्डी टूटी और पैसो के अभाव में वो उपचार नहीं कर पायी, फ़िर ८ दिन तक विधान, और कुछ मंत्रो के माध्यम से उपचार हो गया।
- मंत्र शक्ति से गला खराब आदि स्वास्थ्य में परेशानी दूर हुई।
Monday, December 9, 2013
मौन
- जिस पदार्थ को विषय बनाना होता है उस ओर उपयोग को intention पूर्वक ले जाना होता है, इसलिये मन में एक तनाव उत्पन्न होता है। इस प्रकार उपयोग को पदार्थ की ओर ले जाना ही अध्यात्मिक दृष्टि से बोलना है।
- मौन साधक ही हेय उपादेय पदार्थो के संबंध में निर्णय लेकर हेय को छोङ सकता है। अपने अंदर के दोषो को देखकर छोङ सकता है, दूसरों के गुणो को प्राप्त कर सत्य को उद्घाटित कर सकता है, पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर अपने में परिपूर्ण हो सकता है और फ़िर वही दूस्रो को सही मार्गदर्शन दे सकता है।
- बोलने से जो विद्ताव का अहंकार पैदा होता है उस अहंकार का विसर्जन मौन से हो जाता है।
- बोलना आत्म स्वभाव नहीं, बोलना आवश्यक भी नहीं है, बोलना प्रत्येक आदमी की अपनी कमजोरी है।
- मानव का यह भी सोच रहता है कि बोलने से बुद्धि का विकास होता है, लोगों में प्रतिष्ठा बङती है किन्तु यह सोच ठीक नहीं क्योंकि बोलने से नहीं किन्तु क्या, कैसा, कब, कितना बोलना और इसका परिणाम क्या होगा, इस ओर दृष्टि रखकर बोलने से प्रतिष्ठा और बुद्धि बढ़ती है।
- जब व्यक्ति किसी से बोलने लगता है तो वह अपने आपसे नहीं बोल पाता है।
- जो संयमी मौन साधक हैं वे दूसरों से नहीं बोलते, वें अपने आप से बोलते हैं।
- एक चुप सौ को हरवे।
- बच्चे अपनी सहज मुस्कान से बिना बोले ही बङो को जितना आकर्षित कर लेते हैं, उतना बोलने वाले नहीं कर पाते, अतः बोलने के अपेक्षा मौन श्रेष्ठ है।
- बोलना एक नशा भी हो सकता है। इस नशे को समाप्त करने का हल एक मात्र मौन ही है।
- बोलने से अहंकार का जन्म होता है और मौन से अहंकार का मरण होता है।
- जो व्यक्ति अपनी विद्वता व पांडित्यपना दिखाने के लिए बोलकर एक बङा अहंकार का प्रासाद खङा कर लेता है, वही मौन होते ही ढह जाता है।
Lines from पुस्तक ’मौन का वैज्ञानिक महत्व’ by मुनि उपाध्यायरत्न निर्भयसागर जी
Sunday, December 1, 2013
Some dialogues from movie 'Ek Cheez milegi wonderful'
- हर एक आदमी की अपनी limitations होती हैं, और कहीं ना कहीं वो अपनी मर्यादाओं को जानता भी है पर अगर वो उसे स्वीकारता है और अपनी मर्यादाओं की सीमा को पार करने की कोशिश करता है तो कभी ना कभी कामयाब जरूर होता है। पर अगर वो उसे जानने से इंकार कर देता है, जानबूझ कर अपने को भ्रम में रखने की कोशिश रखता है दिखावा करता है, तो पकङा जाता है। और फ़िर वो लोगो की हंसी का कारण बनता है।
- दूसरो की गल्तियां देखने में हम अक्सर अपनी गल्ती नहीं देखते हैं
- दूसरे की गल्ती देखूं, उससे अच्छा है कि मैं अपनी गल्ती देखूं और उसे सुधारूं।
- सुख: सुख वही है जिससे ऊब ना जाये, कभी जी ना भरे।
- शर्बत एक जैसा होने पर भी जिसको सुख का ज्यादा अनुभव करना है उसे पहले लम्बे समय तक प्यासा रहकर अपनी प्यास का दुख बढ़ाना पढ़ेगा।
- सुख की बुनियाद क्या है: शर्बत या प्यास का दुख। (प्यास ज्यादा हो तो शर्बत अच्छा लगता है, अगर पहले से ही तृप्त हो तो शर्बत पीने में दुख मिलेगा, सुख नहीं।)
- क्या शर्बत से हमेशा सुख का अनुभव ही होगा?: अगर तृप्त होगा तो नहीं, वह दुख देगा।
- जितना प्यास का दुख उतना सुख, उसके बाद उसी से उल्टा दुख।
- साधनो से सुख मिलता नहीं है, ऐसा नहीं कह रहा हूं। लेकिन सारे सुखो की बुनियाद दुख ही है।
- Pain relieve का process ही सुख बनके रह गया है। जिस चीज का pain होगा उसको relieve करने में ही उसे सुख मिलेगा। Every enjoyment process is a painkiller remedy.
- जैसे जैसे तृष्णा का दुख घटता गया, सुख भी घटता गया। और जैसे तृष्णा का दुख गायब, सुख भी गायब, उलटा दुखदायक बन गया।
- इससे सिद्ध हुआ कि सारे भौतिक सुख वस्तु आधारित या व्यक्ति आधारित नहीं बल्कि दुख आधारित होते हैं । अगर भौतिक सुख पाना है तो पहले दुख को जमा करना पङता है, प्यास और तृष्णा में झुलसना पङता है, तब कहीं जाकर उस दुख को हलका करने का process enjoyment बन पायेगा। ऐसे भ्रामक सुख के पीछे दौङते दौङते अपना सारा जीवन क्यों गवां देना।
- बचपन में खिलौनो से सुख मिलता है। बङे होकर यार, दोस्त, होटल, सिनेमा, प्यार में सच्चा सुख मानने लगते हैं। मगर maturity आते ही safe and secure भविष्य में सुख नजर आने लगता है। फ़िर degree, नौकरी, business, बीवी, बच्चे, परिवार य सब जमाने में ही सुख मिलता है। ये मिलता है तो अगली stage में best in business, best in society बनने की कोशिश रहती है। और जैसे तैसे ये सब पा ले तो उम्र निकल जाती है, और परिवार से सुख मिलेगा ऐसा सोचते। मगर तब तो उनके सुख पाने की यात्रा शुरू हो जाती है। उसमें चाहते हुये भी वो आपको कितना समय से पायेंगे। यहां क्या किसी भी वस्तु या व्यक्ति से ऐसा सुख मिलता है जिससे कभी ऊब ना जाये, कभी जी ना भरे? ऐसा सुख मिलता है? मिलता है, तो जिन्दगी के हर मोङ पर सुख के मायने क्यों बदल जाते हैं। क्यों उम्र बङते ही इच्छायें बङती जाती हैं। Problem यह कि हम सुख की भ्रमणा से प्रेरित होकर दौङते ही रहते हैं। और अन्त में अनन्त इच्छाओं से पैदा हुवे दुख के ढेर पर सुख की इन्तजार करते बैठे रहते हैं।
- इस भौतिक विश्व में किसी ने भी इन्द्रियों के भोगो के साधनो से कभी ऊब ना जायें ऐसा सुख पाया है। नहीं पाया है। ये possible ही नहीं है। क्योंकि सारे भौतिक सुख दुख से इतने गहरे जुङे है कि जैसे ही दुख गायब होता है सुख automatically दुख में convert हो जाता है, फ़िर कहां रहता है सुख। क्योंकि सुख की व्याख्या तो पहले ही तय कर चुके हैं कि जिससे कभी ऊब ना जायें बही सुख है।
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