- जिस पदार्थ को विषय बनाना होता है उस ओर उपयोग को intention पूर्वक ले जाना होता है, इसलिये मन में एक तनाव उत्पन्न होता है। इस प्रकार उपयोग को पदार्थ की ओर ले जाना ही अध्यात्मिक दृष्टि से बोलना है।
- मौन साधक ही हेय उपादेय पदार्थो के संबंध में निर्णय लेकर हेय को छोङ सकता है। अपने अंदर के दोषो को देखकर छोङ सकता है, दूसरों के गुणो को प्राप्त कर सत्य को उद्घाटित कर सकता है, पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर अपने में परिपूर्ण हो सकता है और फ़िर वही दूस्रो को सही मार्गदर्शन दे सकता है।
- बोलने से जो विद्ताव का अहंकार पैदा होता है उस अहंकार का विसर्जन मौन से हो जाता है।
- बोलना आत्म स्वभाव नहीं, बोलना आवश्यक भी नहीं है, बोलना प्रत्येक आदमी की अपनी कमजोरी है।
- मानव का यह भी सोच रहता है कि बोलने से बुद्धि का विकास होता है, लोगों में प्रतिष्ठा बङती है किन्तु यह सोच ठीक नहीं क्योंकि बोलने से नहीं किन्तु क्या, कैसा, कब, कितना बोलना और इसका परिणाम क्या होगा, इस ओर दृष्टि रखकर बोलने से प्रतिष्ठा और बुद्धि बढ़ती है।
- जब व्यक्ति किसी से बोलने लगता है तो वह अपने आपसे नहीं बोल पाता है।
- जो संयमी मौन साधक हैं वे दूसरों से नहीं बोलते, वें अपने आप से बोलते हैं।
- एक चुप सौ को हरवे।
- बच्चे अपनी सहज मुस्कान से बिना बोले ही बङो को जितना आकर्षित कर लेते हैं, उतना बोलने वाले नहीं कर पाते, अतः बोलने के अपेक्षा मौन श्रेष्ठ है।
- बोलना एक नशा भी हो सकता है। इस नशे को समाप्त करने का हल एक मात्र मौन ही है।
- बोलने से अहंकार का जन्म होता है और मौन से अहंकार का मरण होता है।
- जो व्यक्ति अपनी विद्वता व पांडित्यपना दिखाने के लिए बोलकर एक बङा अहंकार का प्रासाद खङा कर लेता है, वही मौन होते ही ढह जाता है।
Lines from पुस्तक ’मौन का वैज्ञानिक महत्व’ by मुनि उपाध्यायरत्न निर्भयसागर जी
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