जैसे एक शराबी जीव नशे में द्युत हुआ वास्तविकता से परे कुछ का कुछ क्रियायें करता है। पागल जैसा हो जाता है। वैसी ही सारे संसारी जीव मोह शराब के नशे में द्युत हो उन्मुक्त हुवे अपने ही पैरो पर कुल्हाङी मार रहे हैं।
ऐसे संयोग जो अनित्य हैं, सार रहित हैं, और जो इसके कभी नहीं हुवे, उन शरीर, परिवार, घर को अपना मानकर, उनमें लीन होकर उनके संरक्षण, संवर्धन के लिये पांच पाप, चार कषाय करता हुआ गहरे पापो को बांधता जाता है। इन्द्रिय विषय को परम सुख समझकर व्याकुल हुआ पापो से लिप्त होता चला जाता है।
सारा संसार इस मोह से पीङित हो रहा है। नारकी क्रोध मोह से, तिर्यंच माया मोह से, देव लोभ मोह से और मनुष्य मान मोह से अपना ही घात कर रहे हैं।
ज्ञानी जीव संसारी जीवो पर करूणा करते हैं, मगर मोह से संसारी जीव इतना उन्मुक्त है कि ज्ञानी जीव को भी कहता है- तुम उन्मुक्त हो! जो आत्मा परमात्मा की बात करते हो - तुमने अभी विषयो को चखा कहां है - जरा आओ और तुम भी चखो। देखो कितना आनन्द हुआ।
और ऐसे पागलपन में अनन्त काल बिताता है।