सूत्र ३०: शरीर की गुलामी छोङे
इस संसार में हम हर वस्तु से कोई ना कोई काम ले लेते हैं। हर प्रक्रिया का कोई ना कोई sideproduct भी निकल आता है। पर यह शरीर ऐसा है कि इससे जो भी निकलता है वो नाली में ही डालना पङता है।
शरीर में सांस निकलती है तो वो ऐसी कि उसे निकालने वाला ही सूंघना नहीं चाहता। मल इत्यादि एक बार शरीर से छूट जाने पर उसे देखना नहीं चाहता।
शरीर पर powder लगा लो, दांतो के लिये मंजन लगा लो- कोई भी ऐसी चीज नहीं जो लगाने पर भी स्वच्छ रहे - जो भी शरीर के संयोग में आता है वो खुद ही अपवित्र हो जाता है।
शरीर के साथ कुछ ना करो फ़िर भी अपने आप ही रोज गन्दा हो जाता है, कि साबुन से मल मल के इसे साफ़ करना पङता है।
रोज ही इसे सुबह शाम खिलाना पङता है। फ़िर भी यह ऐसा दगाबाज है, कि किसी दिन खाने को ना दो तो काम करने से मना कर देता है। इतनी देखभाल करने पर भी एक दिन हमें छोङ देता है।
यह जीव सदा से ही शरीर का गुलाम रहा है। जैसा शरीर कहता है वैसा करता है। शरीर में थोङी कमी हो तो इसे खाना खिलाता है, उसे खूब सुगंधित मिष्ठान खिलाता है। और शरीर उस सुगन्धित भोजन को विघटित कर मल में परिवर्तित कर देता है। शरीर काम करना चाहता है तो काम कराता है। शरीर थक जाता है तो उसे आराम देता है। शरीर को सजाने के लिये नाना कपङे, इत्र इसे लगाता है। विचार करें- क्या हम शरीर के गुलाम नहीं?
वास्तव में यह आत्मा शरीर का गुलाम नहीं, शरीर आत्मा का गुलाम है। मगर अज्ञान से यह अपने को शरीर का गुलाम बना बैठा है। आत्मा की कषायों से ही कर्म बन्धा और कर्म से ही शरीर मिला। कर्म ही शरीर की अच्छी बुरी अवस्था में निमित्त हुआ- इसलिये शरीर आत्मा का गुलाम हुआ। मगर अपने को शरीर समझ जाने पर आत्मा ने अपने को शरीर का गुलाम बना लिया।
आत्मा ने अपने को शरीर का गुलाम मानकर अपनी बहुत हानि करी। अपने को गुलाम मान लिया तो उससे ऐसे कर्म बान्धे कि फ़िर गुलाम ही बना रहे। और ये चक्र चलता रहा।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा से शरीर के बारे में कुछ गाथाओं के सारांश:
- इस शरीर को अपवित्र द्रव्यों से बना हुआ जानो। क्योंकि यह शरीर समस्त बुरी वस्तुओं से बना हुआ समूह है। उदर में उत्पन्न होने वाली लट, जूं तथा निगोदिया जीवो से भरा हुआ है, अत्यन्त दुर्गन्धमयी है, तथा मल और मूत्र का घर है।
- जो द्रव्य अत्यन्त पवित्र, अपूर्व रस और गन्ध से युक्त, तथा चित्त को हरने वाले हैं, वे द्रव्य भी देह में लगने पर अति घिनावने तथा दुर्गन्धयुक्त हो जाते हैं।
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I wrote or extracted above explanations based on my knowledge from Spiritual Text and Saints, and knowledgeable people correct for me for any mistakes. Micchami Dukkadam, Shrish
3 comments:
Hello,
I do understand your point,that one must not be slave of this body but i am feeling like you are taking it to extreme. If this is not the case, then please do not read further and this comment is instant reaction, so please take it accordingly.
I think one must not be slave, but i don not agree that this is body is of no use. It gives us a platform.
Also what one must do , when he/she falls sick. There is extreme pain. I know we must not pay much attention to it, but is it practically possible. Is it not like if proper care of body is taken , one can make more use of time he has got at hand as a human being?
Yeah in fact I did not mean it to take to extreme. I agree with you
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