आचार्य विद्यासागर जी द्वारा हाइकु छन्द:
1. अपना मन अपने विषय में क्यों न सोचता।
अर्थ: मन अपना होते हुए भी हमेशा दूसरो के विषय में ही सोचता है अपने विषय में कभी भी नहीं।
2. जगत रहा पुण्य पाप का खेत बोया सो पाया
अर्थ: यह जगत पुण्य पाप के खेत की तरह है। इस खेत में जो जैसा बोता है वैसा ही काटता है।
3. गुरू की चर्या देख भावना होती हम भी पावें।
अर्थ: गुरू की श्रेष्ठ चर्या को देखकर हमें भी उनके जैसे बनने की प्रेरणा मिलती है।
4. मौन के बिना मुक्ति संभव नहीं मन बना ले।
अर्थ: मौन के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है इसलिये मौन धारण करने के बारे में सोचे।
5. डाट के बिना शिष्य और शीशी का भविष्य ही क्या।
अर्थ: शिष्य को यदि डाट न पङे और शीशी को यदि डाट न लगाया जाये तो दोनो का भविष्य खतरे में होता है।
6. गुरू ने मुझे क्या न दिया हाथ में दिया दे दिया।
अर्थ: गुरू ने हाथ में दीपक थमाकर मानों मुझे सब कुछ दे दिया।
7. जितना चाहा जो चाहा जब चाहा क्या कभी मिला।
अर्थ: इन्सान जितना चाहता है उतना, जो चाहता है वह, और जब चाहता है तब क्या उसे मिल पाता है? नहीं।
8. मन की बात नहीं सुनना होती मोक्षमार्ग में।
अर्थ: मोक्षमार्ग में मन की बात सुनना अहितकर हो सकता है।
9. असमर्थन विरोध सा लगता विरोध नहीं।
अर्थ: किसी बात का समर्थन न करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि उसका विरोध किया जा रहा है, परन्तु वह विरोध नहीं होता।
10. मोक्षमार्ग में समिति समतल गुप्ति सीढ़ियां।
अर्थ: मोक्षमार्ग में समितियां का पालन समतल पर चलने की तरह होता है जबकि गुप्तियों का पालन सीढियां चढ़ने की तरह।
11. स्वानुभूति ही श्रमण का लक्ष्य हो अन्यथा भूसा।
अर्थ: आत्मा की अनुभूति ही श्रमण का लक्ष्य होना चाहिए। ऐसा न होने पर सब कुछ व्यर्थ है।
12. प्रकृति में जो रहता है वह सदा स्वस्थ रहता।
अर्थ: प्रकृति में जीने वाला कभी अस्वस्थ नहीं होता।
13. तेरी दो आंखे तेरी ओर हजार सतर्क हो जा।
अर्थ: दूसरों को देखेने के लिये हमारे पास केवल दो आंखे हैं। लेकिन हमारी ओर उठने वाली आंख हजारों हैं इसलिये एक एक कदम फ़ूंक फ़ूंक कर रखना चाहिये।
14. पौंधे न रोपें और छाया चाहते पौरूष्य नहीं।
अर्थ: मानव वृक्षारोपण तो करता नहीं और छांव चाहता है। यह तो पौरूष नहीं।
15. मान शत्रु है कछुआ बनूं बचूं खरगोश से।
अर्थ: मान शत्रु है, कछुआ की तरह निरहंकारी बन अपने पथ पर चलता रहूं न कि अहंकारी खरगोश की तरह जीवन में पराजय को प्राप्त होऊं।
16. मैं क्या जानता क्या क्या न जानता सो गुरूजी जानें।
अर्थ: मैं क्या जानता हूं और क्या नहीं, यह तो गुरू ही जानें।
17. मान चाहूं न पै अपमान अभी सहा न जाता।
अर्थ: मान सबको अच्छा लगता है। अपमान कोई नहीं सह पाता।
18. बिना प्रमाद ’श्वसन क्रिया सम’पथ पे चलूं।
अर्थ: जैसे श्वास बिना रूके निरन्तर चलती रहती है उसी प्रकार मैं भी अपने पथ पर निरन्तर चलता रहूं।
19. जिन बोध में ’लोकालोक तैरते’उन्हे नमन।
अर्थ: जिनेन्द्र देव के ज्ञान में लोकलोक झलकते हैं उन्हे हमारा नमस्कार हो।
20. उजाले में हैं “उजाला करते हैं” गुरू को बन्दूं।
अर्थ: जो स्वयं प्रकाशित हैं और सबको प्रकाश दिखाते हैं ऐसे गुरू को वन्दन करते हैं।
21. साधना छोङ ’कायरत होना ही’ कायरता है।
अर्थ: साधना से विमुख होकर शरीर से ममत्व करना कायरता है।
22. बिना रस भी पेट भरता छोङो मन के लड्डू।
अर्थ: इन्द्रियों के वशीभूत होकर रसों का सेवन करना बंद करो क्योंकि पेट भरने के लिये नीरस भोजन भी पर्याप्त हैं।
23. संघर्ष में भी ’चंदन सम सदा’सुगन्धि बांटू।
अर्थ: भले ही मुझे कष्ट झेलने पङे परन्तु मैं चन्दन की तरह सबको खुशबू प्रदान करता रहूं।
24. पाषाण भीगे ’वर्षा में, हमारी भी’ यही दशा।
अर्थ: वर्षा में भीगे हुये पाषाण की तरह हमारी दशा है जिसका असर बहुत शीघ्र समाप्त हो जाता है।
25. आप में न हो ’तभी तो अस्वस्थ हो’ अब तो आओ।
अर्थ: अपने आप में नहीं रहने वाला अस्वस्थ रहता है। इसलिये अब अपने में आ जाओ।
26. घनी निशा में ’माथा भयभीत हो' आस्था आस्था है।
अर्थ: संकट के समय यदि घबरा गये तो समझो आस्था कमजोर है।
27. मलाई कहां अशांत दूध में सो प्रशांत बनो।
अर्थ: अशांत दूध में मलाई नहीं होती, इसलिये शान्त बनों।
28. खाल मिली थी यही मिट्टी में मिली खाली जाता हूं।
अर्थ: चर्म का यह तन मिला था यह भी अन्ततः मिट्टी में मिल गया। खाली हाथ जाना होगा।
29. आगे बनूंगा अभी प्रभु पदों में बैठ तो जाऊं
अर्थ: पहले भगवान के चरणों में बैठना होगा, तभी भगवान बनना सम्भव है।
30. अपने मन, को टटोले बिना ही सब व्यर्थ है।
अर्थ: अपने मन को टटोलते रहना चाहिये अन्यथा सब व्यर्थ है।
31. देखो ध्यान में कोलाहल मन का नींद ले रहा।
अर्थ: ध्यान में मन का शोर समाप्त हो जाता है।
32. द्वेष से राग, जहरीला है जैसे शूल से फ़ूल।
अर्थ: द्वेष की अपेक्षा राग ज्यादा हानिकारक है, जैसे फ़ूल की अपेक्षा कांटा ज्यादा खतरनाक होता है।
33. छाया सी लक्ष्मी, अनुचरा हो यदि उसे न देखो।
अर्थ: यदि लक्ष्मी की तरफ़ ध्यान न दो वह दासी की तरह साथ देती है।
34. कैदी हूं देह जेल में जेलर ना तो भी भागा ना।
अर्थ: देह रूपी जेल में आत्मा कैद है। उस जेल में जेलर नहीं है फ़िर भी इसने भागने की कोशिश नहीं की। कारण इसे उस कैद में ही रस आने लगा है।
35. निजी पराये, बच्चों को दुग्ध-पान कराती गौ मां।
अर्थ: अपने पराये का भेद भुलाकर गौ माता सबको दुग्धपान करती है।
36. ज्ञानी कहता, जब बोलूं अपना स्वाद टूटता।
अर्थ: ज्ञानी कहता है कि जब भी मैं बोलता हूं बाहर आ जाता हूं और आत्मा के सुख से वंचित रह जाता हूं।
37. समानान्तर, दो रेखाओं में मैत्री पल सकती।
अर्थ: मैत्री समान लोगों की ही होती है। जैसे कि दो समानान्तर रेखायें अन्त तक साथ चलती है।
38. वक्ता व श्रोता बने बिना गूंगा सा स्व का स्वाद ले।
अर्थ: आत्मा का रस लेने के लिये मूक बनना होगा। न वक्ता और न ही श्रोता।
39. परिचित भी, अपरिचित लगे स्वस्थ ज्ञान में।
अर्थ: आत्मस्थ दशा में परिचित व्यक्ति भी, वास्तविकता का बोध हो जाने से अपरिचित ही लगना चाहिये।
40. नौ मास उल्टा लटका आज तप कष्टकर क्यों।
अर्थ: नव मास तक मां के पेट में उल्टा लटकता रहा फ़िर भी आज तप करने से डरता है।
41. कहो न सहो सही परीक्षा यही आपे में रहो।
अर्थ: कहो मत बल्कि सहो। सही परीक्षा प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने आप में रहने पर होती है।
Thursday, July 10, 2014
Monday, June 30, 2014
Thursday, May 15, 2014
अपेक्षायें
"उसे ऐसा करना चाहिये" - यह अपेक्षा है। दूसरा जीव कोई कार्य करता है, और हम अपनी आसक्ति उसके कार्य से जोङ लेते हैं। सोचते हैं, कि वो मेरे अनुसार करे, या जो मेरे को ठीक लगता है ऐसा करे।
प्रश्न यह है कि वो ऐसा क्यों करेगा जैसा मैं चाहूंगा? उसे जैसा सही लगेगा वैसा सो करेगा, तो मैं उसके कार्य में आसक्ति क्यों रखूं।
शरीर में बिमारी होने पर जीव पुरूषार्थ करता है, और अगर स्वास्थ्य ठीक नहीं होता तो दुखी होता है। परिणाम पर इतनी आसक्ति क्यों, वो तो भाग्य और पुरूषार्थ पर निर्धारित है।
प्रश्न यह है कि वो ऐसा क्यों करेगा जैसा मैं चाहूंगा? उसे जैसा सही लगेगा वैसा सो करेगा, तो मैं उसके कार्य में आसक्ति क्यों रखूं।
शरीर में बिमारी होने पर जीव पुरूषार्थ करता है, और अगर स्वास्थ्य ठीक नहीं होता तो दुखी होता है। परिणाम पर इतनी आसक्ति क्यों, वो तो भाग्य और पुरूषार्थ पर निर्धारित है।
डांट
डांट को कई लोग अच्छा नहीं मानते। कुछ तो लोग ऐसा सोचते हैं कि यह मात्र प्रताङना है जिसमें दूसरे को मात्र दुखी किया जा सकता है। डांटने की जगह हमें दूसरे को मात्र प्रेम से समझाना चाहिये।
वास्तव में देखा जाये तो समझाना और डांट दोनो ही जीवन में जरूरी हैं। दूसरे को पहले तो समझाया ही जाता है, मगर समझने की बावजूद भी जब वह पुराने संस्कारो की वजह से गलत कार्य नहीं छोङ पाता है, तो डांट अति उपयोगी सिद्ध होती है।
डांट तभी कारगार होती है जब डांट पङने वाले व्यक्ति को डांट सुनकर पछतावा हो, अगर पछतावे की जगह उसे डांटने वाले से द्वेष हो जाये तो वह व्यक्ति उस प्रकार की डांट का पात्र नहीं है।
छोटे बच्चे को सही रस्ते पर समझाना ही अच्छा है, मगर जब समझाने के बावजूद भी गलत कार्य करे तो डांट कार्यकर होती है। जैसे मानलो बच्चे का चरित्र खराब होना शुरू हो जाये, तो उसे प्रथम समझाना ही जरूरी है। अगर वो सुधर जाये तो ठीक, अगर नहीं तो फ़िर से समझाना चाहिये और यह नक्की करना चाहिये कि उसे सही बात समझ में आ गयी। समझ में आने के बावजूद भी नहीं माने तो डांट ही उपयोगी।
अध्यात्मिक क्षेत्र में एक उदाहरण लें: एक व्यक्ति को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया, मगर चारित्रमोह वश चारित्र धारण नहीं कर पा रहा। ऐसी अवस्था में गुरू के द्वारा डांट उसके जगे हुए पुरूषार्थ को जगा सकती है और उस पुरूषार्थ से वह व्यक्ति चारित्रमोह को पछाङकर चारित्र ग्रहण कर सकता है।
दूसरा उदाहरण लें: चारित्र धारण किये हुये जीव जब चारित्र से स्खलित हो जाये तो गुरू के द्वारा डांट बहुत कार्यकारी सिद्ध होती है।
ऐसे जीव धन्य हैं जिन्हे सच्चे गुरू से समझदारी की बाते और डांट दोनो प्राप्त होती हैं।
वास्तव में देखा जाये तो समझाना और डांट दोनो ही जीवन में जरूरी हैं। दूसरे को पहले तो समझाया ही जाता है, मगर समझने की बावजूद भी जब वह पुराने संस्कारो की वजह से गलत कार्य नहीं छोङ पाता है, तो डांट अति उपयोगी सिद्ध होती है।
डांट तभी कारगार होती है जब डांट पङने वाले व्यक्ति को डांट सुनकर पछतावा हो, अगर पछतावे की जगह उसे डांटने वाले से द्वेष हो जाये तो वह व्यक्ति उस प्रकार की डांट का पात्र नहीं है।
छोटे बच्चे को सही रस्ते पर समझाना ही अच्छा है, मगर जब समझाने के बावजूद भी गलत कार्य करे तो डांट कार्यकर होती है। जैसे मानलो बच्चे का चरित्र खराब होना शुरू हो जाये, तो उसे प्रथम समझाना ही जरूरी है। अगर वो सुधर जाये तो ठीक, अगर नहीं तो फ़िर से समझाना चाहिये और यह नक्की करना चाहिये कि उसे सही बात समझ में आ गयी। समझ में आने के बावजूद भी नहीं माने तो डांट ही उपयोगी।
अध्यात्मिक क्षेत्र में एक उदाहरण लें: एक व्यक्ति को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया, मगर चारित्रमोह वश चारित्र धारण नहीं कर पा रहा। ऐसी अवस्था में गुरू के द्वारा डांट उसके जगे हुए पुरूषार्थ को जगा सकती है और उस पुरूषार्थ से वह व्यक्ति चारित्रमोह को पछाङकर चारित्र ग्रहण कर सकता है।
दूसरा उदाहरण लें: चारित्र धारण किये हुये जीव जब चारित्र से स्खलित हो जाये तो गुरू के द्वारा डांट बहुत कार्यकारी सिद्ध होती है।
ऐसे जीव धन्य हैं जिन्हे सच्चे गुरू से समझदारी की बाते और डांट दोनो प्राप्त होती हैं।
Monday, February 3, 2014
दादी मां
हे दादी, तू चली गयी।
जिस परिवार को तूने पाला-पौसा, सींचा,
उसे छोङ के तू चली गयी।
जिस शरीर की तूनी जीवन भर सेवा की
जिसका साथ तेरे को हमेशा रहा
उसे भी छोङ के तू चली गयी
जिस घर में तू हमेशा रही
जिस घर के कण कण से तेरी पहचान थी
उसे तू छोङ के चली गयी।
हे परिवार वालो। जिस मां ने तुझे अपने खून से सींचा
क्या तेरे में इतनी नमक-हलाली नहीं थी, कि उसे तु जाने से रोक लेता?
हे शरीर। क्यों मृत सा पङा है तू
क्या तेरे परमाणुओं पर दादी का एहसान ना था, जिसनें तुझे पुष्ट किया
क्यों मौत के समय तू मूक होकर सब देखता रहा?
तू क्यों ना उसको जाने से रोक सका।
हे घर, हे समाज! क्या तुम सब मूक दृष्टा हो।
अगर हो, तो क्यों कहते हो कि ’कोई मेरा चला गया’
और दादी क्यों तुम सबको अपना कहती थी।
और क्या ये ’अपनापन’ सिर्फ़ ढ़ोंग था। वास्तव में क्या कोई किसी का ही ना था?
Friday, January 10, 2014
Advantages of studying 3 Loka
तीन लोक के अध्ययन से हमें फ़ायदे:
पूजन करते समय फ़ायदा:
१) अब हमें मालूम है कि ७२० तीर्थंकर या विदेह के २० तीर्थंकर भगवान के अर्घ हैं, तो कहां कहां वे तीर्थंकर होते हैं। और अर्घ्य चढ़ाते हुये हम अपने मन से वहां पहुंच सकते हैं।
२) समुच्चय महार्घ्य में तीन लोक के कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्याल्य में- पंच मेरू के चैत्यालय, नन्दीश्वर द्वीप के चैत्यालय, उर्ध्व, अधो, मध्य लोक के चैत्यालय कहां कहां है। ताकि हम अपना मन वहां ले जाकर उन्हे अर्घ्य दे सकें।
३) समुच्चय महार्ध्य में सब हम वर्तमान के अरहन्त, सिद्ध, साधु को अर्घ चढ़ाते हैं - तो हमे मालूम हो गया कि ढ़ाई द्वीप में अरहन्त कहां कहां होते हैं, सिद्ध कहां कहां होते हैं, साधू कहां कहां होते हैं।
४) जब हम कहते हैं- ’अरहंता लोगुत्त्मा’ अर्थात ’अरहंत तीन लोक में उत्तम है’ तो हमें तीन लोक के जीवो को समझने से यह स्पष्ट हो गया कि अरहंत ही तीन लोक में उत्तम कैसे हैं।
५) ऐसे ही अनेको फ़ायदे पूजन करते समय होंगे।
स्वाध्याय करते समय फ़ायदे:
१) प्रथमानुयोग पढ़ते समय जब अनेक भूमियों, समुन्द्रो, भोगभूमियों का वर्णन आयेगा, तो आपको पता होगा कि वे कहां है।
२) द्रव्यानुयोग, करणानुयोग पढ़ते वक्त जब आप तत्व पढेंगे, तो वो सारे तत्व सम्पूर्ण तीन लोक में सत्य है यह विशेष रूप से समझ में आयेगा।
तत्व चिन्तन/ध्यान करते समय फ़ायदे:
१) जब शास्त्र में बतायेंगे: ’सारे संयोग नश्वर हैं’- तो हम पूरे तीन लोक को दृष्टि में लेकर सोच सकेंगे और एक दम स्पष्ट समझ में आयेगा कि वास्तव में सारे संयोग नश्वर ही हैं।
२) जब शास्त्र में बतायेंगे: ’मेरा कोई नहीं’ - तो हम पूरे तीन लोक को दृष्टि में लेकर सोच सकेंगे कि वास्तव में मेरा तीन लोक में किसी स्थान विशेष में या काल विशेष में ना कोई मेरा था, है और होगा।
३) जब पूजा में हम पढते हैं ’शान्ति करो सब जगत में, चौबीसो भगवान’ - तो हमारी भावना अपने देश और पूरे तीन लोक के चारो गतियों के जीवो को समाहित कर लेगी।
३) ऐसी ही सारे तत्व की बाते(बारह भावना) तीनो लोको पर घटाने से विशेष विशुद्धि हमारी बनेगी।
वैराग्य की उत्पत्ति में फ़ायदा:
१) जब तक तीन लोक नहीं जाने तो यह भी कोई सोच सकता है ’क्या पता मोक्ष के अलावा भी कहीं शाश्वत सुख हो’ अथवा ’क्या पता कोई ऐसा विषय सुख होता हो जो हमेशा अपने साथ रहे’। यह संशय टूट जाते हैं, जब तीन लोको के बारे में स्पष्टिकरण हो जाता है।
२) सम्पूर्ण तीन लोक को जानने पर संसार से छुटने का मन, और मोक्ष प्राप्त करने का मन सहज होने लगता है।
मुनि महाराज जी भी संस्थान विचय में लोक का ध्यान, और बारह भावना की लोक भावना भाते हुये तीन लोक का चिन्तवन करते हुये अपनी आत्मा को पवित्र करते हैं।
ऐसे ही तीन लोक को जानने से मनन करने से हमारा दृष्टिकोण विकसित हुआ, और हमें अनेक जगह इसका लाभ होगा।
Sunday, December 15, 2013
Trip to Acharya VidyaSagar Ji 2013
जो गुण मेरे ह्रदय में बैठ सके,
उनको तो मैं स्याही से रच सकता।
मगर जो मेरे ह्रदय और बुद्धि से पार हैं,
उन्हे रचने का मैं ढोंग ही कर सकता॥
ऊंचे पर्वत पर पहुंच चुके वीर को देख,
उसका प्रशंसा करना आसान है।
मगर जो पहुंच चुके वहां, जहां नजरे पहुंच ना सके,
उनका गुणगान करना मेरी कलम से बाहर है।
जो धर्म में आगे बङे चुके हैं,
उनकी स्तुति तो मैं कर सकता हूं
मगर जो धर्म के सागर मुनिवर आचार्य हैं,
उनकी स्तुति का तो ढ़ोंग ही कर सकता हूं।
उनको तो मैं स्याही से रच सकता।
मगर जो मेरे ह्रदय और बुद्धि से पार हैं,
उन्हे रचने का मैं ढोंग ही कर सकता॥
ऊंचे पर्वत पर पहुंच चुके वीर को देख,
उसका प्रशंसा करना आसान है।
मगर जो पहुंच चुके वहां, जहां नजरे पहुंच ना सके,
उनका गुणगान करना मेरी कलम से बाहर है।
जो धर्म में आगे बङे चुके हैं,
उनकी स्तुति तो मैं कर सकता हूं
मगर जो धर्म के सागर मुनिवर आचार्य हैं,
उनकी स्तुति का तो ढ़ोंग ही कर सकता हूं।
कुछ अच्छे वाक्य:(जो संघ में सीखे)
- मन के गुलाम नहीं बनना, मन को अपना गुलाम बनाना है।
- बहुत नहीं, बहुत बार पढ़ो।
- दूसरो से अपेक्षा रखोगे तो दुख मिलेगा, अपने से अपेक्षा रखोगे तो प्रेरणा मिलेगी।
- कष्ट सहिष्णु बनो।
- जीवन को प्राकृतिक रखना चाहिये। जितना प्राकृतिक रखो, उतना स्वस्थ। A.C., heater का प्रयोग ना करने का अभ्यास करें।
- ’ऐसा करो’ ऐसा मत कहो। ’ये सही है, ये गलत है। तुम्हारा जैसा मन करे वैसा कर लो’ ऐसा कहो। अगर सामने वाला गलत ही करे, तो संक्लेष ना करो।
- समता विपत्ति का सबसे बढ़ा प्रतिकार है।
- अधिक से अधिक ३ समय शरीर से वियोग ना हो, इसलिये जीव अपने नीयम भी छोङ देता है।
- जिस प्रकार अंधकार में पदार्थ नहीं दिखता, वैसे अहंकार में यथार्थ नहीं दिखता।
- पति पत्नि को निर्णय मिलकर लेने चाहियें।
- मल, मूत्र से दूर ही रहना चाहिये, इससे अशुद्धता होती है।
- सम्यक्दर्शन के ८ अंग धारण करो।
- घर में सामूहिक स्वाध्याय करना चाहिये। इससे सामूहिक पूण्य का अर्जन होता है, इससे परिवार पर आने वाली समस्याओं से समाधान होता है।
- प्रभावना करने का उपाय internet पर धर्म का प्रचार प्रसार करना नहीं, वरन चारित्र धारण करना है।
- बिमारी हो तो उसे असाता का उदय मानकर हर्षित हो- कि पुराना हिसाब चुकता हो रहा है। ऐसे असाता जल्दी निकल जाता है।
- सहन करने में समाधान है। जवाब देने में संघर्ष।
कुछ प्रश्न उत्तर जो किये:
प्रश्न: स्वास्थ्य आदि की कारण रात्रि भोकन त्याग ना कर सकें तो क्या करें।
उत्तर: (गम्भीरता पूर्वक)चारित्र दुर्लभ है।
प्रश्न: कई बार देर से उठने की वजह से सुबह अभिषेक, पूजन छुट जाता है, क्या करूं।
उत्तर: अभिषेक पूजन का उत्साह रखो। फ़िर नहीं छुटेगा।
प्रश्न: मैं कौन से स्तुति, ग्रन्थ को याद करूं।
उत्तर: पहले भक्तामर, फ़िर इष्टोपदेश
(एक ब्रहम्चारी बहन से प्रश्न) प्रश्न: नीयम ले नहीं कुछ कारण वश तो क्या करें।
उत्तर: जो असली में कारण हैं, उनकी छूट रख लो। पूरा नहीं कर सको तो जितना कर सको उतना नीयम लो।
त्याग तपस्या:
- एक साधर्मी से सुना कि आचार्य जी ने केशलोंच के दिन चौबीस घण्टे खङे होकर तपस्या करी। (नेमावर में)
- एक भाई से सुना कि आचार्य श्री ने संघ के अन्य मुनियो के साथ पूरी रात शमशान घाट में कई बार कायोत्सर्ग कर रात गुजारी।
- आचार्य श्री ने कई बार छत्तीस घण्टे एक पैर पर खङे होकर तपस्या करी।
- संघ में कई महाराज जी का मीठे, नमक का त्याग है। अगर मुनक्के इत्यादि का पानी बनाया तो उसे लेने से भी मना कर दिया।
- ४५ महाराज जी संघ में थे। रोज १०-१५ के उपवास होते थे। ८-१० के अन्तराय हो जाते थे। २०-२५ के ही निरन्तराय आहार हो पाते थी।
- रात को कई मुनि सर्दियों की रात मे भी चटाई का प्रयोग नहीं करते।
- दंशमंशक परिषहजय करते हैं।
संस्मरण:
- एक ब्रहम्चारी भैया जी के बालतोङ हो गया। वो आचार्य श्री के पास समाधान के लिये गये। आचार्य श्री ने कहा कि दवाई से जल्दी ठीक हो जायेगा, मगर दवाई का प्रयोग ना करो तो कष्ट ज्यादा होगा, मगर निर्जरा भी ज्यादा होगी। भैया जी ने दवाई का प्रयोग नहीं किया और गम्भीर दर्द को सहन कर जीता।
- एक सप्तम प्रतिमा धारी व्यक्ति के रीढ़ की हड्डी में slip होने पर भी कोई surgery नहीं कराई। दो साल बिना painkillers के भीषण दर्द भेदविज्ञान के सहारे जीते।
- एक ब्रहम्चारी बहन के देव दर्शन का नीयम था, फ़िर भी उन्होने युक्ति पूर्वक छूट रखी- जैसे महाराज जी को विहार कराते समय मन्दिर सुलभ नहीं हो पाता। अगर महाराज जी के लिये चौका लगा रहे हों, तो समय नहीं मिल पाता।
- एक ब्रह्मचारी बहन को बताया कि मुझे जीवन में स्वाध्याय करने में बहुत कष्ट आये- तो उन्होने कहा ’जो ज्ञान कष्ट सहकर प्राप्त होता है, वो कष्ट आने पर नहीं जाता’।
- एक ब्रहमचारी बहन ने बताया कि कि किस प्रकार उनके पिताजी की हड्डी टूटी और पैसो के अभाव में वो उपचार नहीं कर पायी, फ़िर ८ दिन तक विधान, और कुछ मंत्रो के माध्यम से उपचार हो गया।
- मंत्र शक्ति से गला खराब आदि स्वास्थ्य में परेशानी दूर हुई।
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