आचार्य विद्यासागर जी द्वारा हाइकु छन्द:
1. अपना मन अपने विषय में क्यों न सोचता।
अर्थ: मन अपना होते हुए भी हमेशा दूसरो के विषय में ही सोचता है अपने विषय में कभी भी नहीं।
2. जगत रहा पुण्य पाप का खेत बोया सो पाया
अर्थ: यह जगत पुण्य पाप के खेत की तरह है। इस खेत में जो जैसा बोता है वैसा ही काटता है।
3. गुरू की चर्या देख भावना होती हम भी पावें।
अर्थ: गुरू की श्रेष्ठ चर्या को देखकर हमें भी उनके जैसे बनने की प्रेरणा मिलती है।
4. मौन के बिना मुक्ति संभव नहीं मन बना ले।
अर्थ: मौन के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है इसलिये मौन धारण करने के बारे में सोचे।
5. डाट के बिना शिष्य और शीशी का भविष्य ही क्या।
अर्थ: शिष्य को यदि डाट न पङे और शीशी को यदि डाट न लगाया जाये तो दोनो का भविष्य खतरे में होता है।
6. गुरू ने मुझे क्या न दिया हाथ में दिया दे दिया।
अर्थ: गुरू ने हाथ में दीपक थमाकर मानों मुझे सब कुछ दे दिया।
7. जितना चाहा जो चाहा जब चाहा क्या कभी मिला।
अर्थ: इन्सान जितना चाहता है उतना, जो चाहता है वह, और जब चाहता है तब क्या उसे मिल पाता है? नहीं।
8. मन की बात नहीं सुनना होती मोक्षमार्ग में।
अर्थ: मोक्षमार्ग में मन की बात सुनना अहितकर हो सकता है।
9. असमर्थन विरोध सा लगता विरोध नहीं।
अर्थ: किसी बात का समर्थन न करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि उसका विरोध किया जा रहा है, परन्तु वह विरोध नहीं होता।
10. मोक्षमार्ग में समिति समतल गुप्ति सीढ़ियां।
अर्थ: मोक्षमार्ग में समितियां का पालन समतल पर चलने की तरह होता है जबकि गुप्तियों का पालन सीढियां चढ़ने की तरह।
11. स्वानुभूति ही श्रमण का लक्ष्य हो अन्यथा भूसा।
अर्थ: आत्मा की अनुभूति ही श्रमण का लक्ष्य होना चाहिए। ऐसा न होने पर सब कुछ व्यर्थ है।
12. प्रकृति में जो रहता है वह सदा स्वस्थ रहता।
अर्थ: प्रकृति में जीने वाला कभी अस्वस्थ नहीं होता।
13. तेरी दो आंखे तेरी ओर हजार सतर्क हो जा।
अर्थ: दूसरों को देखेने के लिये हमारे पास केवल दो आंखे हैं। लेकिन हमारी ओर उठने वाली आंख हजारों हैं इसलिये एक एक कदम फ़ूंक फ़ूंक कर रखना चाहिये।
14. पौंधे न रोपें और छाया चाहते पौरूष्य नहीं।
अर्थ: मानव वृक्षारोपण तो करता नहीं और छांव चाहता है। यह तो पौरूष नहीं।
15. मान शत्रु है कछुआ बनूं बचूं खरगोश से।
अर्थ: मान शत्रु है, कछुआ की तरह निरहंकारी बन अपने पथ पर चलता रहूं न कि अहंकारी खरगोश की तरह जीवन में पराजय को प्राप्त होऊं।
16. मैं क्या जानता क्या क्या न जानता सो गुरूजी जानें।
अर्थ: मैं क्या जानता हूं और क्या नहीं, यह तो गुरू ही जानें।
17. मान चाहूं न पै अपमान अभी सहा न जाता।
अर्थ: मान सबको अच्छा लगता है। अपमान कोई नहीं सह पाता।
18. बिना प्रमाद ’श्वसन क्रिया सम’पथ पे चलूं।
अर्थ: जैसे श्वास बिना रूके निरन्तर चलती रहती है उसी प्रकार मैं भी अपने पथ पर निरन्तर चलता रहूं।
19. जिन बोध में ’लोकालोक तैरते’उन्हे नमन।
अर्थ: जिनेन्द्र देव के ज्ञान में लोकलोक झलकते हैं उन्हे हमारा नमस्कार हो।
20. उजाले में हैं “उजाला करते हैं” गुरू को बन्दूं।
अर्थ: जो स्वयं प्रकाशित हैं और सबको प्रकाश दिखाते हैं ऐसे गुरू को वन्दन करते हैं।
21. साधना छोङ ’कायरत होना ही’ कायरता है।
अर्थ: साधना से विमुख होकर शरीर से ममत्व करना कायरता है।
22. बिना रस भी पेट भरता छोङो मन के लड्डू।
अर्थ: इन्द्रियों के वशीभूत होकर रसों का सेवन करना बंद करो क्योंकि पेट भरने के लिये नीरस भोजन भी पर्याप्त हैं।
23. संघर्ष में भी ’चंदन सम सदा’सुगन्धि बांटू।
अर्थ: भले ही मुझे कष्ट झेलने पङे परन्तु मैं चन्दन की तरह सबको खुशबू प्रदान करता रहूं।
24. पाषाण भीगे ’वर्षा में, हमारी भी’ यही दशा।
अर्थ: वर्षा में भीगे हुये पाषाण की तरह हमारी दशा है जिसका असर बहुत शीघ्र समाप्त हो जाता है।
25. आप में न हो ’तभी तो अस्वस्थ हो’ अब तो आओ।
अर्थ: अपने आप में नहीं रहने वाला अस्वस्थ रहता है। इसलिये अब अपने में आ जाओ।
26. घनी निशा में ’माथा भयभीत हो' आस्था आस्था है।
अर्थ: संकट के समय यदि घबरा गये तो समझो आस्था कमजोर है।
27. मलाई कहां अशांत दूध में सो प्रशांत बनो।
अर्थ: अशांत दूध में मलाई नहीं होती, इसलिये शान्त बनों।
28. खाल मिली थी यही मिट्टी में मिली खाली जाता हूं।
अर्थ: चर्म का यह तन मिला था यह भी अन्ततः मिट्टी में मिल गया। खाली हाथ जाना होगा।
29. आगे बनूंगा अभी प्रभु पदों में बैठ तो जाऊं
अर्थ: पहले भगवान के चरणों में बैठना होगा, तभी भगवान बनना सम्भव है।
30. अपने मन, को टटोले बिना ही सब व्यर्थ है।
अर्थ: अपने मन को टटोलते रहना चाहिये अन्यथा सब व्यर्थ है।
31. देखो ध्यान में कोलाहल मन का नींद ले रहा।
अर्थ: ध्यान में मन का शोर समाप्त हो जाता है।
32. द्वेष से राग, जहरीला है जैसे शूल से फ़ूल।
अर्थ: द्वेष की अपेक्षा राग ज्यादा हानिकारक है, जैसे फ़ूल की अपेक्षा कांटा ज्यादा खतरनाक होता है।
33. छाया सी लक्ष्मी, अनुचरा हो यदि उसे न देखो।
अर्थ: यदि लक्ष्मी की तरफ़ ध्यान न दो वह दासी की तरह साथ देती है।
34. कैदी हूं देह जेल में जेलर ना तो भी भागा ना।
अर्थ: देह रूपी जेल में आत्मा कैद है। उस जेल में जेलर नहीं है फ़िर भी इसने भागने की कोशिश नहीं की। कारण इसे उस कैद में ही रस आने लगा है।
35. निजी पराये, बच्चों को दुग्ध-पान कराती गौ मां।
अर्थ: अपने पराये का भेद भुलाकर गौ माता सबको दुग्धपान करती है।
36. ज्ञानी कहता, जब बोलूं अपना स्वाद टूटता।
अर्थ: ज्ञानी कहता है कि जब भी मैं बोलता हूं बाहर आ जाता हूं और आत्मा के सुख से वंचित रह जाता हूं।
37. समानान्तर, दो रेखाओं में मैत्री पल सकती।
अर्थ: मैत्री समान लोगों की ही होती है। जैसे कि दो समानान्तर रेखायें अन्त तक साथ चलती है।
38. वक्ता व श्रोता बने बिना गूंगा सा स्व का स्वाद ले।
अर्थ: आत्मा का रस लेने के लिये मूक बनना होगा। न वक्ता और न ही श्रोता।
39. परिचित भी, अपरिचित लगे स्वस्थ ज्ञान में।
अर्थ: आत्मस्थ दशा में परिचित व्यक्ति भी, वास्तविकता का बोध हो जाने से अपरिचित ही लगना चाहिये।
40. नौ मास उल्टा लटका आज तप कष्टकर क्यों।
अर्थ: नव मास तक मां के पेट में उल्टा लटकता रहा फ़िर भी आज तप करने से डरता है।
41. कहो न सहो सही परीक्षा यही आपे में रहो।
अर्थ: कहो मत बल्कि सहो। सही परीक्षा प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने आप में रहने पर होती है।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
इच्छा और अपेक्षा
🌿 *इच्छा और अपेक्षा* 🌿 1️⃣ इच्छा क्या है? इच्छा एक कामना है — किसी बात के होने की सरल अभिलाषा। जैसे — > “मुझे अच्छा स्वास्थ्य चाहिए।” ...
-
रत्नकरण्ड श्रावकाचार Question/Answer : अध्याय १ : सम्यकदर्शन अधिकार प्रश्न : महावीर भगवान कौन सी लक्ष्मी से संयुक्त है...
-
The overview of 8 anga is at: http://www.jainpushp.org /munishriji/ss-3-samyagsarshan .htm What is Nishchaya Anga, and what is vyavhaar: whi...
-
I present my trip details and learnings from my first and only visit to Acharya Shree Vidya Sagar Ji Maharaj's Sangh. I got fortunate to...
No comments:
Post a Comment