Monday, August 18, 2014

Worldly goals

अज्ञानी के संसारिक लक्ष्य
ज्ञानी की संसारिक लक्ष्य
* अज्ञानी यह आसक्ति करता, कि मुझे यह चाहिये
* जो चीजे उसकी पूर्ति में लाभ करती है, उससे राग करता है और जो नहीं करती उससे द्वेष करता है।
* ज्ञानी यह विचार करता है, कि यह स्थिति मेरे लिए अनुकूल है, और नहीं मिली तो प्रतिकूल।
ज्ञानी अनुकूल के लिए पुरूषार्थ करता है।
* अज्ञानी की लक्ष्य के प्रति आसक्ति बहुत है। अगर उसे नहीं मिलता तो खेद करता है। अगर मिलता है तो बहुत खुश होता है।
* ज्ञानी की लक्ष्य के प्रति राग है, मगर आसक्ति नहीं। मिले या ना मिले उसे स्वीकार करता है और उसमें राग-द्वेष नहीं करता।
* अज्ञानी कर्म और पुरूषार्थ के समन्वय को नहीं जानता
* ज्ञानी पुरूषार्थ करता है और परिणाम को ’कर्म और पुरूषार्थ’ पर छोङ देता है।

Friday, August 8, 2014

मैं राग क्यों करूं, मैं द्वेष क्यो करूं


जैसे बैंक के दो ATM हैं। एक खराब है एक सही। खराब वाला पैसे नहीं देता और account से पैसे काट भी लेता है। सही वाला सही काम करता है। तो हम खराब वाले के पास नहीं जाते और सही वाले के पास जाते हैं। ना खराब वाले से द्वेष करते हैं, और सही वाले से राग। मात्र उनके गुण दोष जानकर अपना काम चला लेते हैं।


ऐसे ही कोई व्यक्ति से सम्पर्क होने पर वो हमारे लिये हितकारी निमित्त बनाता है, और कोई व्यक्ति अहितकारी बनता है। तो हम गुण दोष जानकर सम्पर्क करें, राग-द्वेष ना करें। कभी हमें गुण-दोष नहीं पता होते और सम्पर्क करके भुगतते हैं, तो अपनी अज्ञानता पर पछतावा करो बजाय कि दूसरे से द्वेष करने के।


दूसरा हमारे लिये अहितकारी है, तो है - उससे द्वेष क्यों करे। कोई कारण नहीं कि हम उससे द्वेष करें।

दूसरा हमारे लिये हितकारी है, तो है - उससे राग क्यों करे। कोई कारण नहीं कि हम उससे राग करें।

Thursday, July 10, 2014

Acharya VidyaSagar Ji द्वारा हाइकु छन्द:

आचार्य विद्यासागर जी द्वारा हाइकु छन्द:
1. अपना मन अपने विषय में क्यों न सोचता।
अर्थ: मन अपना होते हुए भी हमेशा दूसरो के विषय में ही सोचता है अपने विषय में कभी भी नहीं।
2. जगत रहा पुण्य पाप का खेत बोया सो पाया
अर्थ: यह जगत पुण्य पाप के खेत की तरह है। इस खेत में जो जैसा बोता है वैसा ही काटता है।
3. गुरू की चर्या देख भावना होती हम भी पावें।
अर्थ: गुरू की श्रेष्ठ चर्या को देखकर हमें भी उनके जैसे बनने की प्रेरणा मिलती है।
4. मौन के बिना मुक्ति संभव नहीं मन बना ले।
अर्थ: मौन के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है इसलिये मौन धारण करने के बारे में सोचे।
5. डाट के बिना शिष्य और शीशी का भविष्य ही क्या।
अर्थ: शिष्य को यदि डाट न पङे और शीशी को यदि डाट न लगाया जाये तो दोनो का भविष्य खतरे में होता है।
6. गुरू ने मुझे क्या न दिया हाथ में दिया दे दिया।
अर्थ: गुरू ने हाथ में दीपक थमाकर मानों मुझे सब कुछ दे दिया।
7. जितना चाहा जो चाहा जब चाहा क्या कभी मिला।
अर्थ: इन्सान जितना चाहता है उतना, जो चाहता है वह, और जब चाहता है तब क्या उसे मिल पाता है? नहीं।
8. मन की बात नहीं सुनना होती मोक्षमार्ग में।
अर्थ: मोक्षमार्ग में मन की बात सुनना अहितकर हो सकता है।
9. असमर्थन विरोध सा लगता विरोध नहीं।
अर्थ: किसी बात का समर्थन न करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि उसका विरोध किया जा रहा है, परन्तु वह विरोध नहीं होता।
10. मोक्षमार्ग में समिति समतल गुप्ति सीढ़ियां।
अर्थ: मोक्षमार्ग में समितियां का पालन समतल पर चलने की तरह होता है जबकि गुप्तियों का पालन सीढियां चढ़ने की तरह।
11. स्वानुभूति ही श्रमण का लक्ष्य हो अन्यथा भूसा।
अर्थ: आत्मा की अनुभूति ही श्रमण का लक्ष्य होना चाहिए। ऐसा न होने पर सब कुछ व्यर्थ है।
12. प्रकृति में जो रहता है वह सदा स्वस्थ रहता।
अर्थ: प्रकृति में जीने वाला कभी अस्वस्थ नहीं होता।
13. तेरी दो आंखे तेरी ओर हजार सतर्क हो जा।
अर्थ: दूसरों को देखेने के लिये हमारे पास केवल दो आंखे हैं। लेकिन हमारी ओर उठने वाली आंख हजारों हैं इसलिये एक एक कदम फ़ूंक फ़ूंक कर रखना चाहिये।
14. पौंधे न रोपें और छाया चाहते पौरूष्य नहीं।
अर्थ: मानव वृक्षारोपण तो करता नहीं और छांव चाहता है। यह तो पौरूष नहीं।
15. मान शत्रु है कछुआ बनूं बचूं खरगोश से।
अर्थ: मान शत्रु है, कछुआ की तरह निरहंकारी बन अपने पथ पर चलता रहूं न कि अहंकारी खरगोश की तरह जीवन में पराजय को प्राप्त होऊं।
16. मैं क्या जानता क्या क्या न जानता सो गुरूजी जानें।
अर्थ: मैं क्या जानता हूं और क्या नहीं, यह तो गुरू ही जानें।
17. मान चाहूं न पै अपमान अभी सहा न जाता।
अर्थ: मान सबको अच्छा लगता है। अपमान कोई नहीं सह पाता।
18. बिना प्रमाद ’श्वसन क्रिया सम’पथ पे चलूं।
अर्थ: जैसे श्वास बिना रूके निरन्तर चलती रहती है उसी प्रकार मैं भी अपने पथ पर निरन्तर चलता रहूं।
19. जिन बोध में ’लोकालोक तैरते’उन्हे नमन।
अर्थ: जिनेन्द्र देव के ज्ञान में लोकलोक झलकते हैं उन्हे हमारा नमस्कार हो।
20. उजाले में हैं “उजाला करते हैं” गुरू को बन्दूं।
अर्थ: जो स्वयं प्रकाशित हैं और सबको प्रकाश दिखाते हैं ऐसे गुरू को वन्दन करते हैं।
21. साधना छोङ ’कायरत होना ही’ कायरता है।
अर्थ: साधना से विमुख होकर शरीर से ममत्व करना कायरता है।
22. बिना रस भी पेट भरता छोङो मन के लड्डू।
अर्थ: इन्द्रियों के वशीभूत होकर रसों का सेवन करना बंद करो क्योंकि पेट भरने के लिये नीरस भोजन भी पर्याप्त हैं।
23. संघर्ष में भी ’चंदन सम सदा’सुगन्धि बांटू।
अर्थ: भले ही मुझे कष्ट झेलने पङे परन्तु मैं चन्दन की तरह सबको खुशबू प्रदान करता रहूं।
24. पाषाण भीगे ’वर्षा में, हमारी भी’ यही दशा।
अर्थ: वर्षा में भीगे हुये पाषाण की तरह हमारी दशा है जिसका असर बहुत शीघ्र समाप्त हो जाता है।
25. आप में न हो ’तभी तो अस्वस्थ हो’ अब तो आओ।
अर्थ: अपने आप में नहीं रहने वाला अस्वस्थ रहता है। इसलिये अब अपने में आ जाओ।
26. घनी निशा में ’माथा भयभीत हो' आस्था आस्था है।
अर्थ: संकट के समय यदि घबरा गये तो समझो आस्था कमजोर है।
27. मलाई कहां अशांत दूध में सो प्रशांत बनो।
अर्थ: अशांत दूध में मलाई नहीं होती, इसलिये शान्त बनों।
28. खाल मिली थी यही मिट्टी में मिली खाली जाता हूं।
अर्थ: चर्म का यह तन मिला था यह भी अन्ततः मिट्टी में मिल गया। खाली हाथ जाना होगा।
29. आगे बनूंगा अभी प्रभु पदों में बैठ तो जाऊं
अर्थ: पहले भगवान के चरणों में बैठना होगा, तभी भगवान बनना सम्भव है।
30. अपने मन, को टटोले बिना ही सब व्यर्थ है।
अर्थ: अपने मन को टटोलते रहना चाहिये अन्यथा सब व्यर्थ है।
31. देखो ध्यान में कोलाहल मन का नींद ले रहा।
अर्थ: ध्यान में मन का शोर समाप्त हो जाता है।
32. द्वेष से राग, जहरीला है जैसे शूल से फ़ूल।
अर्थ: द्वेष की अपेक्षा राग ज्यादा हानिकारक है, जैसे फ़ूल की अपेक्षा कांटा ज्यादा खतरनाक होता है।
33. छाया सी लक्ष्मी, अनुचरा हो यदि उसे न देखो।
अर्थ: यदि लक्ष्मी की तरफ़ ध्यान न दो वह दासी की तरह साथ देती है।
34. कैदी हूं देह जेल में जेलर ना तो भी भागा ना।
अर्थ: देह रूपी जेल में आत्मा कैद है। उस जेल में जेलर नहीं है फ़िर भी इसने भागने की कोशिश नहीं की। कारण इसे उस कैद में ही रस आने लगा है।
35. निजी पराये, बच्चों को दुग्ध-पान कराती गौ मां।
अर्थ: अपने पराये का भेद भुलाकर गौ माता सबको दुग्धपान करती है।
36. ज्ञानी कहता, जब बोलूं अपना स्वाद टूटता।
अर्थ: ज्ञानी कहता है कि जब भी मैं बोलता हूं बाहर आ जाता हूं और आत्मा के सुख से वंचित रह जाता हूं।
37. समानान्तर, दो रेखाओं में मैत्री पल सकती।
अर्थ: मैत्री समान लोगों की ही होती है। जैसे कि दो समानान्तर रेखायें अन्त तक साथ चलती है।
38. वक्ता व श्रोता बने बिना गूंगा सा स्व का स्वाद ले।
अर्थ: आत्मा का रस लेने के लिये मूक बनना होगा। न वक्ता और न ही श्रोता।
39. परिचित भी, अपरिचित लगे स्वस्थ ज्ञान में।
अर्थ: आत्मस्थ दशा में परिचित व्यक्ति भी, वास्तविकता का बोध हो जाने से अपरिचित ही लगना चाहिये।
40. नौ मास उल्टा लटका आज तप कष्टकर क्यों।
अर्थ: नव मास तक मां के पेट में उल्टा लटकता रहा फ़िर भी आज तप करने से डरता है।
41. कहो न सहो सही परीक्षा यही आपे में रहो।
अर्थ: कहो मत बल्कि सहो। सही परीक्षा प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने आप में रहने पर होती है।

Thursday, May 15, 2014

अपेक्षायें

"उसे ऐसा करना चाहिये" - यह अपेक्षा है। दूसरा जीव कोई कार्य करता है, और हम अपनी आसक्ति उसके कार्य से जोङ लेते हैं। सोचते हैं, कि वो मेरे अनुसार करे, या जो मेरे को ठीक लगता है ऐसा करे।

प्रश्न यह है कि वो ऐसा क्यों करेगा जैसा मैं चाहूंगा? उसे जैसा सही लगेगा वैसा सो करेगा, तो मैं उसके कार्य में आसक्ति क्यों रखूं।

शरीर में बिमारी होने पर जीव पुरूषार्थ करता है, और अगर स्वास्थ्य ठीक नहीं होता तो दुखी होता है। परिणाम पर इतनी आसक्ति क्यों, वो तो भाग्य और पुरूषार्थ पर निर्धारित है।

डांट

डांट को कई लोग अच्छा नहीं मानते। कुछ तो लोग ऐसा सोचते हैं कि यह मात्र प्रताङना है जिसमें दूसरे को मात्र दुखी किया जा सकता है। डांटने की जगह हमें दूसरे को मात्र प्रेम से समझाना चाहिये।

वास्तव में देखा जाये तो समझाना और डांट दोनो ही जीवन में जरूरी हैं। दूसरे को पहले तो समझाया ही जाता है, मगर समझने की बावजूद भी जब वह पुराने संस्कारो की वजह से गलत कार्य नहीं छोङ पाता है, तो डांट अति उपयोगी सिद्ध होती है।

डांट तभी कारगार होती है जब डांट पङने वाले व्यक्ति को डांट सुनकर पछतावा हो, अगर पछतावे की जगह उसे डांटने वाले से द्वेष हो जाये तो वह व्यक्ति उस प्रकार की डांट का पात्र नहीं है।

छोटे बच्चे को सही रस्ते पर समझाना ही अच्छा है, मगर जब समझाने के बावजूद भी गलत कार्य करे तो डांट कार्यकर होती है। जैसे मानलो बच्चे का चरित्र खराब होना शुरू हो जाये, तो उसे प्रथम समझाना ही जरूरी है। अगर वो सुधर जाये तो ठीक, अगर नहीं तो फ़िर से समझाना चाहिये और यह नक्की करना चाहिये कि उसे सही बात समझ में आ गयी। समझ में आने के बावजूद भी नहीं माने तो डांट ही उपयोगी।

अध्यात्मिक क्षेत्र में एक उदाहरण लें: एक व्यक्ति को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया, मगर चारित्रमोह वश चारित्र धारण नहीं कर पा रहा। ऐसी अवस्था में गुरू के द्वारा डांट उसके जगे हुए पुरूषार्थ को जगा सकती है और उस पुरूषार्थ से वह व्यक्ति चारित्रमोह को पछाङकर चारित्र ग्रहण कर सकता है।

दूसरा उदाहरण लें: चारित्र धारण किये हुये जीव जब चारित्र से स्खलित हो जाये तो गुरू के द्वारा डांट बहुत कार्यकारी सिद्ध होती है।

ऐसे जीव धन्य हैं जिन्हे सच्चे गुरू से समझदारी की बाते और डांट दोनो प्राप्त होती हैं।

Monday, February 3, 2014

दादी मां


हे दादी, तू चली गयी।
जिस परिवार को तूने पाला-पौसा, सींचा,
उसे छोङ के तू चली गयी।

जिस शरीर की तूनी जीवन भर सेवा की
जिसका साथ तेरे को हमेशा रहा
उसे भी छोङ के तू चली गयी

जिस घर में तू हमेशा रही
जिस घर के कण कण से तेरी पहचान थी
उसे तू छोङ के चली गयी।

हे परिवार वालो। जिस मां ने तुझे अपने खून से सींचा
क्या तेरे में इतनी नमक-हलाली नहीं थी, कि उसे तु जाने से रोक लेता?

हे शरीर। क्यों मृत सा पङा है तू
क्या तेरे परमाणुओं पर दादी का एहसान ना था, जिसनें तुझे पुष्ट किया
क्यों मौत के समय तू मूक होकर सब देखता रहा? 
तू क्यों ना उसको जाने से रोक सका।

हे घर, हे समाज! क्या तुम सब मूक दृष्टा हो।
अगर हो, तो क्यों कहते हो कि ’कोई मेरा चला गया’
और दादी क्यों तुम सबको अपना कहती थी।

और क्या ये ’अपनापन’ सिर्फ़ ढ़ोंग था। वास्तव में क्या कोई किसी का ही ना था?

प्रश्न: जब शरीर भी नहीं हूं, तो आत्मा साधना ही करूं, परिवार वालो के प्रति कर्तव्यो का निर्वाह क्यों करूं?

उत्तर : हमारे अन्दर कितनी विरक्ति होती है उसके अनुसार ही कार्य करने योग्य है। अगर जीव में पर्याप्त विरक्ति है, तो परिवार छोङकर सन्यास धारण क...