सितम्बर २०१७
को मेरा ४-५ दिन को राजस्थान के बोराव गांव में जाने का सुयोग बना। मैं माता-पिता
के साथ उदयपुर से टैक्सी में बोराव के लिये निकला। हमारे पास समान बहुत ज्यादा था – भारी ६ नग थे, क्योंकि खाने
का समान और बर्तन भी साथ में थे।
हम शाम को
बोराव पहुंचे और सोचा यहां धर्मशाला में रूकेंगे। वहां पहुंचते ही वहां के ७-८
बुजुर्ग लोगो ने ’जय जिनेन्द्र’ कहकर कुशल
पूछी, और हमें भोजन के लिये ले गये। हमें टैक्सी से
एक भी नग उतारने नहीं दिया। उन्ही के बच्चो ने सारा समान उतारा, और जब मैने थोङा प्रतिरोध किया, तो कहा – ’ये बालक भी
मेहमान की खातिर करना सीखेंगे। करने दो इन्हे।’ आकस्मिक मेरे
को विचार आया कि मैं तो बचपन में ही होस्टल निकल गया था और वहां अतिथि सत्कार का
पाठ तो मेरे पाठ्यक्रम में था ही नहीं।
वो हमें भोजन
के लिये ले गये। भोजन में सारा समान उनके खेत का जैविक(ओर्गैनिक) था। लम्बी-मोटी
ककङी, और स्वादिष्ट सब्जी। घर का ही घी था। वहां पर
सब लोग बहुत की क्रियाशील थे। जिस परिवार में हम गये, वहां पर 8 भाई करीब
६०-७० साल के थे। सबका अलग अलग घर और परिवार था। मैने एक से पूछा कि आपका घर कौन
सा है। उन्होने कहा कि हमारे पैतिस जैन के घर हैं। लोग वहां इतने घुले मिले थे कि
४-५ वहां रहने के बावजूद भी पता नहीं पङा कि कौन
सा घर किसका है।
इस परिवार के
पास ३० -४० देसी गाय थी, और सारे बुजुर्ग भाई सुबह शाम खुद दूध निकालते
थे। इनकी ५०० एकङ की खेती थी, और कई सारी
दुकाने थी, और एक भी नौकर नहीं रखा था। महाराज जी के दर्शन
करने कई यात्री आते थे, मगर ना तो कोई भोजन शाला थी और ना धर्मशाला।
सारा समाज मिलकर अपने ही घर में रूकवाते थे, और खुद ही
भोजन करवाते थे।
रात को
उन्होने हमें अपने ही घर में रूकवाया। घर के बीच में बङा नीम का पेङ था, और साथ मे कमरा था जिसकी मोटी दिवारे और पत्थर
की जमीन थी। उसमें रूककर अपने आप ही मन में सुकून मिलता था।
सुबह उठके धोती दुपट्टा पहने मैं मन्दिर पहुंचा। मैं किसी को नहीं जानता था, मगर सब कोई मेरे को जय जिनेन्द्र कहने लगे। वहां जाके देखा कि सारे बुजुर्ग पुरूष सामग्री को खुद अपने हाथो से शोधन करके थाली तौयार कर रहे थे। एक ने मेरे से पूछा कि शान्ति धारा करोगे? मैने कहा ’हां’। और उन्होने मेरे को मुकुट पहनाकर शान्ति धारा करवाई और पूजा की थाली बना के दी। मैने तीन दिन अभिषेक किया, और तीनो दिन उन्होने मेरे से शान्ति धारा कराई, और पूजा की थाली बनाके दी। आखिरी दिन मैने आग्रह किया कि उनमे से कोई शान्ति धारा करे, तो उन्होने जवाब दिया – ’अतिथि देवो भवः’।
वें मेरे को
ठीक से जानते भी नहीं थे, फ़िर भी इतना वातसल्य! उन्हे इससे मतलब नहीं था
कि अतिथी कौन है, मगर उन्हे ज्यादा इससे मतलब थी कि उन्हे आगंतुक
के लिये ह्रदय में असीम वात्सल्य रखना है। यहां पर लोग को अगर कोई व्यसन था, तो वो था दूसरो को सम्मान देना।
वहां के सारे
लोगो का पहनावा भी एक दम साधारण – सफ़ेद कुर्ता
पजामा। जबकि उनके पास अपार धन सम्पत्ति थी। शरीर से एकदम क्रियाशील और मन से
प्रसन्न – ऐसा बस मैने अभी तक पुस्तको में ही पङा था।
मुझे पण्डित बैनाडा जी का सूत्र ध्यान आया – ’मोटा पहनो, मोटा खाओ, खुश रहो।’ शायद शहरो में आधे से ज्यादा अनावश्यक विकल्प
तो अपनी वेशभूषा, रहन सहन की वजह से ही होते है।
मेरी माता
-पिता जी से बात हुई, तो उन्होने कहा कि अब से ३०-४० साल पाले उनके
गांव में भी ऐसा ही वातावरण थी। शायद उनके गांव अलग दिशा में चले गये, मगर बोराव ने अपने को अभी भी अपनी आत्मा को
जीवन्त रखा।
दिन में मुनी
श्री विनीत सागर महाराज जी के दर्शन करने गया, तो उन्होने
कहा- “दुनिया में सारे कार्य आसान है- पैसा कमाना
इत्यादि – यहां तक की साधु वेष भी धारण करना। सबसे जटिल
काम है अपनी आत्मा को मोक्षमार्ग में लगाना।“
शाम को आरती हुई, तो उन्होने मेरे से कहा कि आप आरती गाने के लिये माइक लो। मैने कहा मेरा गला अच्छा नहीं है। माता जी ने वहां समाज में एक व्यक्ति से पूछा कि यहां कोई योगा क्लास होती है। तो उन्होने कहा कि सुबह होती है, और आप जाना – वो योगा कराते हैं, और आपको कोई कमी लगें तो आप उन्हे सिखा देना।
अगले दिन
महाराज जी का आहार हुआ तो बैण्ड बाजे के साथ महाराज जी को समाज मन्दिर में लेके
आया। बैण्ड बजाने वाले लोग भी समाज के ही थे। उनसे बात करी तो कहते हैं – ’हम all-in-one हैं, सारे काम खुद से करते हैं।’
आयुर्वेद का
प्रयोग भी बहुत बढ़िया तरीके से करते हैं। वैसे तो सभी लोग स्वस्थ दिखाई पङे, फ़िर भी बिमारी हो जाये तो स्थानिय वनस्पतियों
से अपना सटीक इलाज कैसे करना ये जानते हैं। ३५ घर की
समाज ने एक शास्त्री विद्वान को भी रखा हुआ था, जो प्रतिदिन
बच्चो और महिलाओं की पाठशाला लगाता है।
वहां से
निकलने से एक दिन पहले पिता जी को खूब खांसी हो गयी। तो वहां के एक मेडीकल स्टॊर
से दवाई लेने गये। उसके पास दो बार दवाई लेने जाना पङा। वो जैन समाज से ही था, और बहुत आग्रह करने पर भी उसने दवाई के पैसे
नहीं लिये।
एक बात बहुत
खास देखी। सारा काम वहां समय पर होता था। पूजा शुरू होने का समय, पूर्ण होने का समय, कोई नया प्रोग्राम हो, उसका समय – सब सटीक।
जैसा बता दिया, उसी समय पर। ऐसा अक्सर माना जाता है कि भारतीय
लोग आयोजन में समय का अनुशासन नहीं रखते, मगर यहां पर
बिल्कुल विपरीत दिखाई दिया।
बात करने की
कला में भी निपुण हैं। कम बोलते हैं, सटीक बोलते
हैं,
और ऐसा बोलते हैं कि दूसरे को अच्छा लगे और
उसके सम्मान की रक्षा रहे। आजकल ऐसा कहने में आता है कि भारतीय लोग स्पष्टवादी
नहीं रहे और टीमवर्क में कमजोर रहते हैं, मगर यहां के
लोग मुझे एक दम स्पष्टवादी और टीमवर्क में एकदम निपुण दिखाई दिये।
इतना प्रेम, सरलता और वात्सल्य मैने आज तक कहीं नहीं देखी था। लोगो ने बताया कि वहां पर बोली लगाने की परम्परा नहीं है। सब लोग प्रेम से खुद से ही सब व्यवस्था कर लेते हैं।
गांव में
लगभग ६०० घर थे, और सबके घर में देसी गाय। सङक पर जाओ तो सारी
जगह गाय घूमती दिखाई पङती थी।
शायद मैं
प्राचीन भारतीय संस्कृति के दर्शन कर रहा था, जो पिछली १-२
पीढ़ी में पता नहीं कहां खो गयी थी, और मुझे
किताबो में ही दिखाई देती थी, मगर बोराव
में मुझे वो जीवन्त दिखाई दी।
3 comments:
👌👌👌
Wow 👌👌
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