Friday, December 10, 2010
12 Bhavana
Thursday, August 12, 2010
Gary Francione: His Speech and my interaction with him
- Ahimsa and Anekantavad: Ahimsa is the main principle of Jainism. Some people consider Anekantvaad to the main principle, but that is not correct - Ahimsa is the main principle of Jainism.
- Anekantvaad: Anekantvaad is misinterpreted by many people. Some people think everything is justified because it is considered correct by someone or the other. This is not right. The concept of Anekantvaad is not that there is no truth but that truth is complicated. The doctrine arose to explain that the existents in Jainism (soul, matter, and non-material substance), cannot be known except by kevali because all aspects of Dravya, Guna, and Paryaya, cannot be known. Gary explained it by the example of Gold, and how this concept came to counter arguments of Sankhyamata and Buddhism. Moreover, Anekantavada is a doctrine that derives from Ahimsa, not the other way around. I was impressed after listening to the real concepts of Jainism from an American.
- Connection in Jainism and Christianity: Gary talked about the great concepts told by Jesus Christ- 'Love thy neighbour' etc. And explained that such concepts were foreign to the prevailing views when Jesus lived. Jainism is the only religion in the East which had similar concepts and he was convinced that Jesus must have had some interaction with Jains and that's how many of these these great concepts came to the West in the name of 'Christianity'.
- Karma and helping others: Gary talked about that Karma theory does not prohibit us from helping others. We can not say that others are suffering because of their Karma and we do not need to help them. He supported helping others and I was amazed to see that he supported his argument from scriptures of both Digamber and Shwetamber tradition- Panchastikaya, Tatvaarth Sutra and an Aagam granth (forgot the name).
- Donation and Recognition: Gary pointed out that in the West people donate but do want to have recognition, while in Jainism it is recommended to donate and not satisfy our Maan Kashaya by getting recognition. This reminded me of the Sholaka in Tatvaarth Sutra- One donates to get rid of greed and help others. Also a phrase prevalent in my hometown Saharanpur for anonymity during donation: जब दान एक हाथ से दे, तो दूसरे हाथ को भी पता नहीं पङना चाहिये कि दान दिया (When one donates by one hand, his other hand should not get to know that the donation has been done.) Actually it applies not to just donation, but any good thing we do- we should keep it to ourselves and not seek recognition.
- Taking Milk is Himsa: Gary explained how milk and milk related products case huge sufferings and killing of cows and should be avoided completely by Jains. In early days (3000 years back), there could be a possbility of not having Ahimsa in taking milk (although he doubted it), but taking milk in USA and anywhere else causes certain Himsa to 5 sensed beings and should be 100% avoided by the Jains. I could not agree more, and also stopped eating milk and Ghee for now, and vowed myself to buy only organic
- Gary said Micchami Dukkadam many times and emphasized that he was very concerned as a non-Indian about not offending Jains when he talked about Jain concepts.
I was impressed by the knowledge of Gary about Jainism, considering that he is an American and still learnt so much about Jainism. However I was unsure about his point of connection between Christianity and Jainism and finally got around 1 hour to talk to him on the lunch table. Parag Ji, Mahavir Ji were also there and following points were discussed:
- Christianity and Jainism: I did talk to him how he felt that compassionate words of Jesus were influenced by only Jainism and why not by Hinduism/Buddhism, which also had elements of compaasion and nonvoilence. Gary replied that the way love is explained by Jesus is only found in Jainism. Hinduism and Buddhism associate our actions with Ahimsa, but not the mind and speech. While Jainism talks about Ahimsa for actions, speech and mind and that is how there should be connection in Christianity and Jainism and he himself was convinced that Jesus must have had encounter with Jains before spreading the wisdom words in the west.
- His story of getting influenced by Jainism: He shared his story of how he got influenced by Jainism. He visited a slaughterhouse, and after seeing the voilence, he felt deeply about nonviolence. After searching for concept of Non Voilence he came across literature of Mahatma Gandhi who supported non voilence, and then realized Gandhi Ji learned about non voilence from Shrimad Raj Chandra Ji, who was follower of Jainism.
- He took a teachers training for Preksha Dhyaan and has a great respect for Samani Ji, Acharya Mahapragya Ji and Gurudev Chitrabhabu Ji.
- He told us when he walks he ensure he does not step any ants or grass. He used an old car with multiple dents, and does not replace it in order to follow Aparigraha
- He read the spiritual scripture Samaysaar 5 times, and does not consider that there are any fundamental differences in Digamber and Shwetamber sect.
- It was interesting to note that he knew the Jain terminology like GunaSthaan, Kashaya, Micchami Dukkadam, Ahimsa, Aparigraha, Karma and much more.
- It considered himself very fortunate to get into Jainism, and wanted to be reborn as a Gujarati, so he can understand both Hindi and Gujarati in his next birth.
It was amazing to see an American knowing and appreciating Jainism so much. It motiviated me to not to use animal products (milk etc), and be more serious in following Ahimsa and Aparigraha.
Micchami Dukhadam
Wednesday, June 16, 2010
Pujya Ganesh Varni Ji on Hinduism and Jainism
एक दिन मैं क्वान्स कालेज मे न्याय के मुख्य अध्यापक जीवनाथ मिश्र के निवास स्थान पर गया और प्रणाम कर महाराज से निवेदन किया कि "महाराज! मुझे न्यायशास्त्र पढना है यदि आपकी आज्ञा हो तो आपके बताये समय से आपके पास आया करूं।" मैने एक रूपया भी उनके चरणो में भेंट किया।
पण्डितजी ने पूछा-"कौन ब्राहमण हो?" सुनते ही अन्तरंग को चोंट पहुंची। मन में आया - "हे प्रभो! यह कहां की आपत्ति आ गई?" अवाक् रह गया, कुछ उत्तर नहीं सूझा। अन्त में निर्भीक होकर कहा - "महाराज! मैं ब्राहमण नहीं हूं और न क्षत्रिय हूं, वैश्य हूं, यद्यपि मेरा कौलिक मत श्रीराम का उपासक था- सृष्टिकर्ता परमात्मा में मेरे वंश के लोगो की श्रद्धा थी और आज तक चली भी आ रही है, परन्तु मेरे पिता की श्रद्धा जैन धर्म में दृढ हो गयी तथा मेर विश्वास भी जैन धर्म में दृढ हो गया। अब आपकी जो इच्छा हो, सो कीजिये।"
श्रीमान नैयायिक जी एकदम आवेग में आ गये और रूपया फ़ेंकते हुये बोले- "चले जाओ, हम नास्तिक लोगो को नहीं पढाते। तुम लोग ईश्वर को नहीं मानते हो और न वेद में ही तुम लोगो की श्रद्धा है, जाओ यहां से।" मैने कहा - "महाराज! इतना कुपित होने की बात नहीं। आखिर हम भी तो मनुष्य हैं, इतना आवेग क्यों? आप तो विद्वान हैं साथ ही प्रथम श्रेणी के माननीय विद्वानो में मुख्यतम हैं। आप ही इसका निर्णय कीजिये- जबकि सृष्टिकर्ता है तब उसने ही तो हमको बनाया है। तथा हमारी जो श्रद्धा है उसका भी निमित्तकारण भी वही है। कार्यान्तरगत हमारी श्रद्धा भी तो एक कार्य है। जब कार्यमात्र के प्रति ईश्वर निमित्तकारण हैं तब आप क्यों हमको घूसते हो? ईश्वर के प्रति कुपित होना चाहिये। आखिर उसने ही तो अपने विरूद्ध पुरूषो की सृष्टि की है या फ़िर यों कहिये कि हम जैनो को छोङकर अन्य का कर्ता है और यथार्थ में यदि ऐसा है तो कार्यत्व हेतु व्याभिचारी हुआ। यदि मेरा कहना सत्य है तो आपका हम पर कुपित होना न्यायसंगत नहीं।"
श्री नैयायिक जी महाराज बोले - "शास्त्रार्थ करने आये हो?" मैने कहा - "महाराज! यदि शास्त्रार्थ करने योग्य पाण्डित्य होता तो आपके सामने शिष्य बनने की चेष्टा क्यों करता? खेद के साथ कहना पङता है कि आप जैसे महापुरूष भी ऐसे - ऐसे शब्दो क प्रयोग करते हैं जो साधारण पुरूष के लिये भी सर्वथा असंगत है। वही मनुष्यता आदर्णीय होती है जिसमें शान्ति मार्ग की अवहेलना ना हो। आप तर्क शास्त्र में अद्वितीय विद्वन हैं फ़िर मेरे साथ इतना निष्ठुर व्यव्हार क्यों करते हैं?"
नैयायिक जी तेवरी चढाते हुये बोले - "तुम बङे धीठ हो जो कुछ भी भाषण करते हो उसमें ईश्वर के अस्तित्व का लोप कर एक नास्तिक मत की ही पुष्टी करते हो। मैने ठीक ही तो कहा है कि तुम नास्तिक हो-वेद निन्दत हो, तुमको विद्या पङाना सर्प को दूध और मिश्री खिलाने के सदृश होगा। गुङ और दूध पिलाने से क्या सर्प निर्विष हो सकता है? तुम जैसे हठग्राही मनुष्यो को न्याय विद्या का पण्डित बनाना नास्तिक मत की पुष्टी करना है। जानते हो - ईश्वर की महिमा अचिन्त्य है। उसी के प्रभाव से यह सब व्यवहार चल रहा है। यदि यह न होता तो आज संसार में नास्तिक मत की प्रभुता हो जाती।" नैयायिक जी यही कहकर ही सन्तुष्ट नहीं हुये, डेस्क पर हाथ पटकते हुए जोर से बोले - "हमारे स्थान से निकल जाओ।"
मैने कहा - "महाराज! आखिर जब आपको मुझसे संभाषण करने की इच्छा नहीं तब अगत्या जाना ही श्रेयस्कर होगा। किन्तु खेद होता है कि आप अद्वितीय तार्किक विद्वान होकर भी मेरे साथ ऐसा व्यवहार करते हैं। मेरी समझ में तो यही आता है कि आप स्वयं ईश्वर को नहीं मानते और हमसे कहते हो कि तुम नास्तिक हो। जब ईश्वर की इच्छा के बिना कोई कार्य नहीं होता तब हम क्या ईश्वर की इच्छा के बिना ही हो गए? नहीं हुए तब आप जाकर ईश्वर से झगङा करो कि आपने ऐसे-ऐसे नास्तिक क्यों बनाए जो कि आपका अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करते। आप मुझसे कहते हैं कि चूंकि तुम वेद-निन्दक हो अतः नास्तिक हो,परन्तु अन्तर्दृष्टि से परामर्श करने पर मालूम हो सकता है कि हम वेद के निन्दक है या आप? वेद मै लिखा है-"मा हिंस्यात्सर्वभूतानि" अर्थात यावन्त: प्राणिन: सन्ति ते न हिंस्या:-जितने प्राणी है वे अहिंस्य है। अब आप ही बतलाइये कि जो मत्स्य-मांसादिका भक्षण करें, देवता को बलि प्रदान करे और श्राद्ध में पितृतृप्ति के लिए मांसपिण्ड का दान करें वो वेद को न मानने वाले हैं या हम लोग, जो कि जलादि जीवो की रक्षा करने की चेष्टा करते हैं। ईश्वर की सृष्टी में सभी जीव हैं तब आपको क्या अधिकार है कि सृष्टिकर्ता की रची हुई सृष्टि का घात करें और ऐसे-ऐसे निम्नांकित वाक्य वेद में प्रक्षिप्त कर जगत को असन्मार्ग में प्रवृत्त करें-
यज्ञार्थं पशवः सृष्टा यज्ञार्थं पशुघातनम् ।
अतस्त्वां घातयिष्यामि तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ॥
और इस "मा हिंस्यात्सर्वभूतानि" वाक्य को अपनी इन्द्रिय तृप्ति के लिए अपवाद वाक्य कहें? खेद के साथ कहना पङता है कि आप स्वयं तो वेद को मानते नहीं और हम पर लांछन देते हैं कि जैन लोग वेद के निन्दक हैं।" पण्डित जी फ़िर बोले - "आज कैसे नादान के साथ संभाषण करने का अवसर आया? क्यों जी, तुमसे कह दिया ना यहां से चले जाओ, तुम महान असभ्य हो, आज तक तुममे भाषण करने की भी योग्यता ना आयी, किन ग्रामीण मनुष्यो के साथ तुम्हारा सम्पर्क रहा? अब यदि बहुत बकझक करोगे तो कान पकङकर बाहर निकाल दिये जाओगे।" जब पण्डितजी महाराज यहा बात कह चुके तब मैने कहा - "महाराज! आप कहते है कि तुम बङे असभ्य हो, ग्रामीण हो, शरारत करते हो, निकाल दिये जाओगे। महाराज! मैं तो आपके पास इस अभिप्राय से आया था कि दूसरे ही दिन उषाकाल से न्याय शास्त्र का अध्ययन करूंगा, पर फ़ल यह हुआ कि कान पकङने की नोबत आ गयी। अपराध क्षमा हो, आप ही बताइये असभ्य किसे कहते हैं? और महाराज! क्या यह व्याप्ति है कि जो ग्रामवासी हो वें असभय ही हों, ऐसा नीयम तो नहीं जान पङता, अन्यथा इस बनारस नगर में जो कि भारत वर्ष में सन्स्कृत भाषा के विद्वानो का प्रमुख केन्द्र है गुण्डाब्रज नहीं होना चहिए था और यहां पर जो बाहर से ग्रामवासी बङे-बङे धुरन्दर विद्वान काशीवास करने के लिये आते हैं उन्हे सभ्य कोटि में नहीं आना चहिए था। साथ ही महाराज आप भी तो ग्रामनिवासी ही होंगे। तथा कृपा कर यह तो समझा दीजिये कि सभ्य का क्या लक्षण है? केवल विद्या का पाण्डित्य ही तो सभ्यता का नियामक नहीं है, साथ में सदाचार गुण भी तो होना चाहिये। मैं तो बारम्बार नतमस्तक होकर आपके साथ व्यवहार कर रहा हूं और आप मेरे लिए उसी नास्तिक शब्द क प्रयोग कर रहे हैं! महाराज! संसार में उसी का मनुष्य जन्म प्रशंसनीय है जो राग-द्वेष से परे हो। जिसके राग-द्वेष की कलुषता हो वह चाहे बृहस्पति तुल्य भी विद्वान क्यों ना हो ईश्वर आज्ञा के प्रतिकूल होने से अधोमार्ग को ही जानेवाला है। आपकी मान्यता के अनुसार ईश्वर चाहें जो हो, परन्तु उसकी यह आज्ञा कदापि नहीं हो सकती कि किसी प्राणी के चित्त को खेद पहुंचाऊ। अन्य की कथा छोङो, नीतिकार का भी कहना है की -
"अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥"
परन्तु आपने मेरे साथ ऐसे मधुर शब्दो में व्यवहार किया कि मेरी आत्मा जानती है। मेरा तो निजी विश्वास है कि सभ्य वही है जो अपने ह्रदय को पाप-पंक से अलिप्त रखे, आत्महित में प्रवृत्ति करे। केवल शास्त्र का अध्ययन संसार-बन्धन से मुक्त करने का मार्ग नहीं। तोता राम-राम उच्चारण करता है परन्तु राम के मर्म से अनभिज्ञ ही रहता है। इसी तरह बहुत शास्त्रो का बोध होने पर भी जिसने अपने ह्रदय को निर्मल नहीं बनाया उससे जगत का क्या उपकार होगा? उपकार तो दूर रहा, अनुपकार ही होगा। किसी नीतिकार ने ठीक ही कहा है-
"विद्या विवादाय धनं मदाय
शक्तिः परेषां परपीङनाय।
खलस्य साधोर्विपरीतमेतत्
ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥"
यद्यपि मैं आपके समक्ष बोलने मे असमर्थ हूं, क्योंकि आप विद्वान हैं, राजमान्य हैं, ब्राहमण हैं तथा उस देश के हैं जहां ग्राम-ग्राम में विद्वान हैं। फ़िर भी प्रर्थना करता हूं, कि आप शयन समय विचार कीजियेगा कि मनुष्य के साथ ऐस अनुचित व्यवहार करना क्या सभ्यता के अनुकूल था। समय की बलवता है कि जिस धर्म के प्रवर्तक वीतराग सर्वज्ञ थे और जिस नगरी में श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर का जन्म हुआ था, आज उसी नगरी में जैन धर्म के मानने वालो का इतना तिरस्कार।"
उनके साथ कहां तक बातचीत हुई बेकार है। अन्त में उन्होने यही उत्तर दिया कि यहां से चले जाओ, इसी में तुम्हारी भलाई है। मैं चुपचाप वहां से चल दिया।
Shastra Mangalacharan
Saturday, June 5, 2010
Poojan in words of Ganesh Prasad Varni Ji
हे प्रभो। यद्यपि आप वीतराग सर्वज्ञ हैं, सब जानते हैं, परन्तु वीतराग होने से चाहें आपका भक्त हो चाहे भक्त ना हो, उस पर आपको न राग होता है और न द्वेष। जो जीव आपके गुण में अनुरागी है उनके स्वयमेव शुभ परिणामों का संचार हो जाता है और वें परिणाम पुण्यबन्ध में कारण हो जाते हैं। तदुक्तम-
इस्ति स्तुतिं देव! विधाय दैन्याद्
चरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि
छाया तरूं संश्रयतः स्वतः स्यात्
कश्छायया याचितयात्मलाभः
यह श्लोक धनंजय सेट ने श्री आदिनाथ प्रभु के स्तवन के अन्त में कहा है। इस प्रकार आपका स्तवन कर हे देव! मैं दीनता से कुछ वर की याचना नहीं करता; क्योंकि आप उपेक्षक हैं। 'रागद्वेषयोर्प्रणिधानमुपेक्षा' यह उपेक्षा जिसके हो उसको उपेक्षक कहते हैं। श्री भगवान उपेक्षक हैं, क्योंकि उनके राग-द्वेष नहीं है। जब यह बात है तब विचारो, जिनके राग-द्वेष नहीं उनकी अपने भक्त में भलाई करने की बुद्धि ही नहीं हो सकती। वह देवेंगे ही क्या? फ़िर यह प्रश्न हो सकता है कि उनकी भक्ति करने से क्या लाभ? उसका उत्तर यह है कि जो मनुष्य छायादार वृक्ष के नीचे बैठ गया, उसको इसकी अवश्यकता नहीं कि वृक्ष से याचना करे- हमें छाया दीजिये। वह तो स्वयं ही वृक्ष ने नीचे बैठने से लाभ ले रहें हैं। एवं जो रूचिपूर्वक अर्हंतदेव के गुणों का स्मरण करता है उसके मन्द कषाय होने से स्वयं ही शुभोपयोग होता है और उसके प्रभाव से स्वयं शान्ति का लाभ होने लगता है। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध बन रहा है। परन्तु व्यवहार ऐसा होता है जो वृक्ष की छाया। वास्तव में छाया तो वृक्ष की नहीं, सूर्य की किरणो का वृक्ष के द्वारा अवरोध होने से वृक्षतल में स्वयमेव छाया हो जाती है। एवं श्री भगवान के गुणो का रूचिपूर्वक स्मरण करने से स्वयमेव जीवो के शुभ परिणामो की उत्पत्ति होती है, फ़िर भी व्यवहार में ऐसा कथन होता है कि भगवान ने शुभ परिणाम कर दिये। भगवान को पतितपावन कहते है अर्थात जो पापियों का उद्धार करे उनका नाम पतितपावन है... यह कथन भी निमित्तकारण की अपेक्षा है। निमित्त कारणो में भी उदासीन निमित्त है प्रेरक नहीं, जैसे मछली गमन करे तो जल सहकारी कारण हो जाता है। एवं जो जीव पतित है यह यदि शुभ परिणाम करे तो भगवान निमित्त है। यदि वह शुभ परिणाम ना करे तो निमित्त नहीं। वस्तु की मर्यादा यही है परन्तु उपचार से कथन-शैली नाना प्रकार की है। 'यथा कुलदीपकोऽयं बालकः, मणवकः सिंहः'। विशेष कहां तक लिखे? आत्मा की अचिन्त्य शक्ति है। वह मोहकर्म के निमित्त से विकास को प्राप्त नहीं होती। मोहकर्म के उदय में यह जीव नाना प्रकार की कल्पनायें करता है। यद्यपि वे कल्पनाएं वर्तमान पर्याय की अपेक्षा तो सत हैं परन्तु कर्मोदय के बिना उनका अस्तित्व नहीं, अतः असत हैं। पुदगल द्रव्य की भी अचिन्त्य शक्ति है। यही कारण है कि वह आत्मा के अनन्तज्ञानादि गुणो को प्रकट नहीं होने देता और इसीसे कार्तिकेय स्वामी ने स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा है कि--
'कापि अपुव्वा दिस्सइ पुग्गलदव्वस्स एरिसी सत्ती।
केवलणाणसहावो विणासिदो जाइ जीवस्स॥
'अर्थात पुदगल द्रव्य में कोई अपूर्व शक्ति है जिससे कि जीवका स्वभावभूत केवलज्ञान भी तिरोहित हो जाता है।' यह बात असत्य नहीं। जब आत्मा मदिरापान करता है तप उसके ज्ञानादि गुण विकृत होते प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। मदिरा पुदगल द्रव्य ही तो है।
अस्तु,
यद्यपि जो आपके गुणो का अनुरागी है वह पुण्यबन्ध नहीं चाहता, क्योंकि पुण्यबन्ध संसार का ही तो कारण है, अतः ज्ञानी जीव, संसार का जो भाव है उसे उपादेय नहीं मानता। चारित्रमोह के उदय में ज्ञानी जीव के रागादिक भाव होते हैं, परन्तु उनमें कर्तत्व बुद्धी नहीं। तथाहि-
'कर्तव्यं न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत।
अज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारकः॥'
'जिस प्रकार कि भोक्तापन आत्मा का स्वभाव नहीं है उसी प्रकार कर्तापना भी आत्मा का स्वभाव नहीं है। अज्ञान से ही यह आत्मा कर्ता बनता है। अतः अज्ञान के अभाव में अकर्ता ही है।'
अज्ञानी जीव भक्ति को ही सर्वस्व मान तल्लीन हो जाते हैं, क्योंकि उससे आगे उन्हें कुछ सूझता ही नहीं। परन्तु ज्ञानी जीव जब श्रेणी चढने को समर्थ नहीं होता तब अन्यत्र - जो मोक्षमार्ग के पात्र नहीं उनमें, राग ना हो इस भाव से तथा तीव्र रागज्वर के अपगम की भावना से श्री अरिहन्तादि देव की भक्ति करता है। श्री अरिहन्त के गुणों में अनुराग होना यही तो भक्ति है। अरिहन्त के गुण हैं- वीतरागता, सर्वज्ञता तथा मोक्षमार्गका नेतापना। इनमें अनुराग होने से कौन सा विषय पुष्ट हुआ? यदि इन गुणों से प्रेम हुआ तो उन्ही की प्राप्ति के अर्थ तो प्रयास है। सम्यकदर्शन होने के बाद चारित्रमोह का चाहे तीव्र उदय हो चाहे मन्द उदय हो, उसकी जो प्रवृत्ति होती है उसमें कर्तत्व बुद्धि नहीं रहती। अतएव श्री दौलतराम जी ने एक भजन में लिखा है कि -
'जे भव-हेतु अबुधिके तस करत बन्ध की छटाछटी'
अभिप्राय के बिना जो क्रिया होती है वह बन्ध की जनक नहीं। यदि अभिप्राय के अभाव में भी क्रिया बन्धजनक होने लगे तब यथाख्यात चारित्र होकर भी अबन्ध नहीं हो सकता, अतः यह सिद्ध हुआ कि कषाय के सद्भाव में ही क्रिया बन्ध की उत्पादक है। इसलिये प्रथम तो हमें अनात्मीय पदार्थों में आत्मीयता का अभिप्राय है और जिसके सदभाव में हमारा ज्ञान तथा चारित्र मिथ्या हो रहा है उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिये। उस विपरीत अभिप्राय के अभाव में आत्मा की जो अवस्था होती है वह रोग जाने के बाद रोगी के जो हल्कापन आता है तत्सदृश हो जाती है। अथवा भारापगम के बाद जो दशा भारावाही की होती है वही मिथ्या अभिप्राय जाने के बाद आत्मा की हो जाती है और उस समय उसके अनुपामक प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि गुणों का विकास आत्मा में स्वयमेव हो जाता है।
Friday, May 14, 2010
Mahatama Gandhi Ji: Miscellaneous Quotes
Gandhi Ji: How to tackle a robber
Thursday, May 13, 2010
Gandhi Ji: About Lawyers and Doctors
Gandhi Ji: How India was portrayed wrongly
Slavery of Luxuries (विषय-कषाय) in current civilization
Wednesday, May 12, 2010
Affect of Computer on Society
- Serious impact on respect system: In Indian culture, we used to take knowledge from our teachers, parents, friends and society. And we used to have respect for them. Now since we have computers, we get all the knowledge/information from computer, and we have less value for our teachers and parents. This way computer in the future will break the backbone of respect system in our society.
- Interaction with neighbours: Because of TV and computer, we do our entertainment and fill our needs through them and we do not need our neighbors. In ancient Indian culture, there used to be a strong bond between neighbors. TV and computer are big criminals to devastate that culture.
- Wrong knowledge: In earlier system, parents or teachers used to tell us knowledge acording to our Prakriti(nature). And used to tell us the right thing specific to us. Now one can get all good and bad things from internet, and many times people divert towards more bad than good. Therefore computer is a bad thing for a healthy society.
Affect of Television on Society
- Interaction with neighbour: Because everybody is busy watching TV, so no time to interact with neighbours. It hampers one's development of human values by interacting with neighbours. It hampers development of tolerance because of all kind of neighbours. The whole structure of society has changed because of TV
- Sex, Voilence and other Paap: Because one watches all kind of bad things, it increases bent towards Paap.
Values are learnt from living people and stories
Saturday, February 27, 2010
Poem - VidyaSagar Ji Maharaj
Acharya Vidya Sagar Maharaj Ji ke CHarno me prarthana:
चरणो मे वन्दन है प्रभुवर, अगर धूल चरणो की मिल जाये
आपका पथ पालन करू, तो क्या आश्चर्य अगर महावीर भी मिल जायें
वीतरागता का मार्ग बताते, सृष्टि का सत्य स्वरूप बताते
उस दृष्टि से विश्व को देखू, तो क्या आश्चर्य अगर संसार मिट जाये
तुम चरणों मे लिपट जाऊं, ऐसा सौभाग्य कब आये
तुम आशीष मिल जाय, तो क्या आश्चर्य संयम प्रकट हो जाये
तुम उंगली पकङ कर चलू, ऐसा सौभाग्य कब होगा
तुम अमृत वचन का पालन करू, तो क्या आश्चर्य सत्य प्रकट हो जाये
विश्व रहस्यों को जानने वाले, तुम आत्मा को जानने वाले
तुम मार्ग पर निकलू, तो क्या आश्चर्य शुद्धात्मा प्राप्त हो जाये
Saturday, February 20, 2010
Small Poem(Prose)- The world is free
Poem - प्रभु तुमसे मिलने का मन करता है
इस अनन्त संसार में, अपना दिखे ना कोय
अपनेपन को पाने हेतु, प्रभु तुमसे मिलने का मन करता है।
अनेक दिशायें दिखाईं देती, सत्य जाने भाग्यशाली कोय
सत्य मार्ग पता करने को, प्रभु तुमसे मिलने का मन करता है।
परिवार यात्रा पर्यटन यात्रा, संसार यात्रा छोङी ना कोय
अब आखिरी यात्रा करने के लिये, प्रभु तुमसे मिलने का मन करता है।
प्रभु तुम ना मिले अभी तक, ना कुन्दकुन्द ना वर्णी जी
ज्ञानियों का अकाल मिटाने को, प्रभु तुमसे मिलने का मन करता है।
तर्को वितर्को के तीरो ने, मेरा सीना विदीर्ण कर डाला है
अब सत्य के मरहम लगाने को, प्रभु तुमसे मिलने का मन करता है।
यह विरह अब सही नहीं जाती, तुम तक रस्ता दिखाई पङता नहीं
अज्ञान की जंजीरे तोङ कर, प्रभु तुमसे मिलने का मन करता है।
अब तो दरश दे दो प्रभुवर, अब तो मुझे शरण दे दो प्रभुवर
तुम्हारे चरणो मे रहने, प्रभु तुमसे मिलने का मन करता है।
हे सीमंधर। हे वीर प्रभू। हे चौबीसो जिन। हे बीस प्रभु।
अनन्त काल के पाप लिये, ये पथिक तुम नाम तक पहुंचा है अब
अब महायात्रा जो तुमने बतायी, उस पर चलने का मन करता है
तुम आशिर्वाद पाने को, प्रभु तुमसे मिलने का मन करता है।
Wednesday, February 10, 2010
Quotes from JInendra Varni Ji books
"गाय, मनुष्य, घट, पट आदि को अलग-अलग क्यों देखते हो? इनके भी अन्दर उतर जाइये। गाय व मनुष्य में चित् मात्र को देखने पर गाय व मनुष्य का यह द्वैत कैसे ठहर सकता है, क्योंकि वह भी सच्चित् और वह भी सच्चित्। गोत्व (गायपना) व मनुष्यत्व (मनुष्यपना) तो उस सच्चित् के विकार मात्र से उत्पन्न होने वाले नाम और रूप हैं। इनकी क्या सत्ता है? इन सबमें जो व्याप कर रहता है उस सच्चित् मात्र तत्व को देखिये, जो त्रिकाल एक है। अखण्ड है तथा नाम रूप कर्मो से अतीत है। ऐसी समष्टि में सच्चित् तथा सत् के अतिरिक्त यहां दिखाई ही क्या देता है? सच्चित् व सत् ऐसा द्वैत भी क्यों रहा है? सामान्य व अखण्ड रूप समष्टि में द्वैत को अवकाश कहां? कहा जा सकता है कि जो कुछ भी दृष्ट है वह सब नित्य, एक व अखण्ड सच्चित् के अवयव हैं, उसके स्फ़ुलिंग हैं। वास्तव में सच्चित् ही एक परमार्थ तत्व है। इसके भी अतिरिक्त जीवन्मुक्त व नित्यमुक्त जीवो में क्या दिखाई देता है -- सत्, चित् व आनन्द। सत्, चित्त व आनन्द के अतिरिक्त उन मुक्त जीवो की पृथक, सत्ता समष्टि में कैसे दिखाई दे सकती है। पहले देखा था मात्र सत् चित् अब उसमें आनन्द और मिल गया। सत् चित् व आनन्द में सब कुछ समा गया। घट पट आदि सत् मात्र है। मनुष्य आदि सत् व चित् हैं और मुक्त जीव सत् चित् व आनन्द हैं।" (Adhyatma Lekhmala - अध्याय अद्वैत ब्रह्म)
धर्म कृत्रिमताओं में नहीं बल्कि स्वभाव में छिपा है जो प्राणी उसे अपने स्वभाव में डुबकी लगाकर खोज निकालता है अर्थात आत्म साक्षात्कार के द्वारा ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेता है उसका जीवन पलट जाता है। सर्व लौकिक कर्तव्य उसके लिये अकर्तव्य हो जाते हैं। लौकिक पुरूषार्थ उसके लिए हेय बन जाता है। इन्द्रियों द्वारा दीखने वाले सर्व चेतन व अचेतन पदार्थ उसकी दृष्टी में निस्सार भासने लगते हैं, उनमें होने वाले अच्छे-बुरे व मेरे-तेरे आदि के विकल्प शांत होते चले जाते हैं। फ़लस्वरूप उसकी नित्य की करने-धरने , बनाने-बिगाङने , मिलाने व पृथक् करने आदि के विकल्पों में रंगी हुई जीवन की भाग-दौङ विराम पाने लगती है। चिन्तायें दबती चली जाती हैं। जीवन का भार हल्का प्रतीत होता है। एक आलौकिक शान्ति का स्वाद आने लगता है जो उसे कृतकृत्यवत् कर देता है। (अध्यात्म लेख माला - अध्याय शांति मार्ग)
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अनेकान्तवाद:
- यदि दूसरों की बात को सुनने व समझने के प्रति उल्लास नहीं है, उसके अभिप्राय को जानने का प्रयत्न किये बिना उसके शब्दों को ही पकङकर उसे वादित्व कला द्वारा नीचा दिखाने में ही अपना गौरव समझता है, अपने पक्ष की क्षति को सहन नहीं कर सकता तो समझिये कि वहां हजरत पक्षपात अवश्य बैठे हुये हैं।
- ज्ञान की महिमा दूसरे की अवहेलना करने में नहीं, बल्कि उसकी बात को ठीक-ठीक उसके ही दृष्टिकोण से समझने में है। यदि ऐसा करे तो आश्चर्य होगा यह जानकर कि जो कुछ भी कोई कर रहा है इसमें कुछ न कुछ सार अवश्य है। सर्व ही सत्यों का निषेद्य करने की बजाए उनका संग्रह करने की आदत डाले।
- दूसरे के लिये हुए प्रश्न में उसके अभिप्राय को पढ़कर उसकी काट करने की बजाए समन्वय करने में ही अनेकान्त का सार छिपा है। ( अध्यात्म लेख माला - अनेकान्तवाद)
जो प्राणी आत्मसाक्षात्कार के द्वारा ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेता है उसका जीवन पलट जाता है। सर्व लौकिक कर्तव्य उसके लिए अकर्तव्य हो जाते हैं। लौकिक पुरूषार्थ उसके लिए हेय बन जाते हैं। इन्द्रियों द्वारा दिखने वाले सर्व चेतन व अचेतन पदार्थ उसकी दृष्टि में निस्सार भासने लगते हैं, उनमें होने वाले अच्छे-बुरे व मेरे-तेरे आदि के विकल्प शांत होते चले जाते हैं। फ़लस्वरूप उसकी नित्य की करने-धरने , बनाने-बिगाङने, मिलाने व पृथक करने आदि के विकल्पों में रंगी हुई जीवन की भाद-दौङ विराम पाने लगती है। चिंतायें दबती चली जाती हैं। जीवन का भार हल्का प्रतीत होता है। एक अलौकिक शान्ति का स्वाद आने लगता है जो उसे कृतकृत्यवत् कर देता है।
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उपदेश देने की प्रवृत्ति किसलिये है? क्या दूसरो को समझाने के लिए या अपनी विद्वता का प्रदर्शन करके लोगों की प्रशंसा प्राप्त करने के लिए? अरे भगवन्! क्या ही अच्छा होता यदि दूसरो को समझाने से पहिले स्वयं को समझा लेता। परोपकार के बहाने अपनी लोकेषणा की पुष्टि करना ही यदि इसका प्रयोजन है तब तो शास्त्र ज्ञान ही अहित के लिए हुआ। ऐसे शास्त्र ज्ञान से क्या लाभ? .. अध्यात्म लेखमाला- अध्याय १
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सुख के लिये क्या क्या करता है।
संसारी जीव: सोचता है विषयो से सुख मिलेगा, तो उसके लिये धन कमाता है। विषयो को भोगता है। मगर मरण के साथ सब अलग हो जाता है। और पाप का बन्ध ओर ...
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार Question/Answer : अध्याय १ : सम्यकदर्शन अधिकार प्रश्न : महावीर भगवान कौन सी लक्ष्मी से संयुक्त है...
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सहजानन्द वर्णी जी सहज चिन्तन, सहज परिक्षा, करे सहज आनन्द, सहज ध्यान, सहज सुख, ऐसे सहजानन्द। न्याय ज्ञान, अनुयोग ज्ञान, अरू संस्कृत व्या...
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The overview of 8 anga is at: http://www.jainpushp.org /munishriji/ss-3-samyagsarshan .htm What is Nishchaya Anga, and what is vyavhaar: whi...