Below is excerpt from 'Meri Jeevan Gatha- 1' Page 83-88 by Ganesh Prasad Varni Ji. This is about how he had discussion about Dharma with a Hindu Scholar. A good logical discussion on Dharma including Jainism and Hinduism:
एक दिन मैं क्वान्स कालेज मे न्याय के मुख्य अध्यापक जीवनाथ मिश्र के निवास स्थान पर गया और प्रणाम कर महाराज से निवेदन किया कि "महाराज! मुझे न्यायशास्त्र पढना है यदि आपकी आज्ञा हो तो आपके बताये समय से आपके पास आया करूं।" मैने एक रूपया भी उनके चरणो में भेंट किया।
पण्डितजी ने पूछा-"कौन ब्राहमण हो?" सुनते ही अन्तरंग को चोंट पहुंची। मन में आया - "हे प्रभो! यह कहां की आपत्ति आ गई?" अवाक् रह गया, कुछ उत्तर नहीं सूझा। अन्त में निर्भीक होकर कहा - "महाराज! मैं ब्राहमण नहीं हूं और न क्षत्रिय हूं, वैश्य हूं, यद्यपि मेरा कौलिक मत श्रीराम का उपासक था- सृष्टिकर्ता परमात्मा में मेरे वंश के लोगो की श्रद्धा थी और आज तक चली भी आ रही है, परन्तु मेरे पिता की श्रद्धा जैन धर्म में दृढ हो गयी तथा मेर विश्वास भी जैन धर्म में दृढ हो गया। अब आपकी जो इच्छा हो, सो कीजिये।"
श्रीमान नैयायिक जी एकदम आवेग में आ गये और रूपया फ़ेंकते हुये बोले- "चले जाओ, हम नास्तिक लोगो को नहीं पढाते। तुम लोग ईश्वर को नहीं मानते हो और न वेद में ही तुम लोगो की श्रद्धा है, जाओ यहां से।" मैने कहा - "महाराज! इतना कुपित होने की बात नहीं। आखिर हम भी तो मनुष्य हैं, इतना आवेग क्यों? आप तो विद्वान हैं साथ ही प्रथम श्रेणी के माननीय विद्वानो में मुख्यतम हैं। आप ही इसका निर्णय कीजिये- जबकि सृष्टिकर्ता है तब उसने ही तो हमको बनाया है। तथा हमारी जो श्रद्धा है उसका भी निमित्तकारण भी वही है। कार्यान्तरगत हमारी श्रद्धा भी तो एक कार्य है। जब कार्यमात्र के प्रति ईश्वर निमित्तकारण हैं तब आप क्यों हमको घूसते हो? ईश्वर के प्रति कुपित होना चाहिये। आखिर उसने ही तो अपने विरूद्ध पुरूषो की सृष्टि की है या फ़िर यों कहिये कि हम जैनो को छोङकर अन्य का कर्ता है और यथार्थ में यदि ऐसा है तो कार्यत्व हेतु व्याभिचारी हुआ। यदि मेरा कहना सत्य है तो आपका हम पर कुपित होना न्यायसंगत नहीं।"
श्री नैयायिक जी महाराज बोले - "शास्त्रार्थ करने आये हो?" मैने कहा - "महाराज! यदि शास्त्रार्थ करने योग्य पाण्डित्य होता तो आपके सामने शिष्य बनने की चेष्टा क्यों करता? खेद के साथ कहना पङता है कि आप जैसे महापुरूष भी ऐसे - ऐसे शब्दो क प्रयोग करते हैं जो साधारण पुरूष के लिये भी सर्वथा असंगत है। वही मनुष्यता आदर्णीय होती है जिसमें शान्ति मार्ग की अवहेलना ना हो। आप तर्क शास्त्र में अद्वितीय विद्वन हैं फ़िर मेरे साथ इतना निष्ठुर व्यव्हार क्यों करते हैं?"
नैयायिक जी तेवरी चढाते हुये बोले - "तुम बङे धीठ हो जो कुछ भी भाषण करते हो उसमें ईश्वर के अस्तित्व का लोप कर एक नास्तिक मत की ही पुष्टी करते हो। मैने ठीक ही तो कहा है कि तुम नास्तिक हो-वेद निन्दत हो, तुमको विद्या पङाना सर्प को दूध और मिश्री खिलाने के सदृश होगा। गुङ और दूध पिलाने से क्या सर्प निर्विष हो सकता है? तुम जैसे हठग्राही मनुष्यो को न्याय विद्या का पण्डित बनाना नास्तिक मत की पुष्टी करना है। जानते हो - ईश्वर की महिमा अचिन्त्य है। उसी के प्रभाव से यह सब व्यवहार चल रहा है। यदि यह न होता तो आज संसार में नास्तिक मत की प्रभुता हो जाती।" नैयायिक जी यही कहकर ही सन्तुष्ट नहीं हुये, डेस्क पर हाथ पटकते हुए जोर से बोले - "हमारे स्थान से निकल जाओ।"
मैने कहा - "महाराज! आखिर जब आपको मुझसे संभाषण करने की इच्छा नहीं तब अगत्या जाना ही श्रेयस्कर होगा। किन्तु खेद होता है कि आप अद्वितीय तार्किक विद्वान होकर भी मेरे साथ ऐसा व्यवहार करते हैं। मेरी समझ में तो यही आता है कि आप स्वयं ईश्वर को नहीं मानते और हमसे कहते हो कि तुम नास्तिक हो। जब ईश्वर की इच्छा के बिना कोई कार्य नहीं होता तब हम क्या ईश्वर की इच्छा के बिना ही हो गए? नहीं हुए तब आप जाकर ईश्वर से झगङा करो कि आपने ऐसे-ऐसे नास्तिक क्यों बनाए जो कि आपका अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करते। आप मुझसे कहते हैं कि चूंकि तुम वेद-निन्दक हो अतः नास्तिक हो,परन्तु अन्तर्दृष्टि से परामर्श करने पर मालूम हो सकता है कि हम वेद के निन्दक है या आप? वेद मै लिखा है-"मा हिंस्यात्सर्वभूतानि" अर्थात यावन्त: प्राणिन: सन्ति ते न हिंस्या:-जितने प्राणी है वे अहिंस्य है। अब आप ही बतलाइये कि जो मत्स्य-मांसादिका भक्षण करें, देवता को बलि प्रदान करे और श्राद्ध में पितृतृप्ति के लिए मांसपिण्ड का दान करें वो वेद को न मानने वाले हैं या हम लोग, जो कि जलादि जीवो की रक्षा करने की चेष्टा करते हैं। ईश्वर की सृष्टी में सभी जीव हैं तब आपको क्या अधिकार है कि सृष्टिकर्ता की रची हुई सृष्टि का घात करें और ऐसे-ऐसे निम्नांकित वाक्य वेद में प्रक्षिप्त कर जगत को असन्मार्ग में प्रवृत्त करें-
यज्ञार्थं पशवः सृष्टा यज्ञार्थं पशुघातनम् ।
अतस्त्वां घातयिष्यामि तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ॥
और इस "मा हिंस्यात्सर्वभूतानि" वाक्य को अपनी इन्द्रिय तृप्ति के लिए अपवाद वाक्य कहें? खेद के साथ कहना पङता है कि आप स्वयं तो वेद को मानते नहीं और हम पर लांछन देते हैं कि जैन लोग वेद के निन्दक हैं।" पण्डित जी फ़िर बोले - "आज कैसे नादान के साथ संभाषण करने का अवसर आया? क्यों जी, तुमसे कह दिया ना यहां से चले जाओ, तुम महान असभ्य हो, आज तक तुममे भाषण करने की भी योग्यता ना आयी, किन ग्रामीण मनुष्यो के साथ तुम्हारा सम्पर्क रहा? अब यदि बहुत बकझक करोगे तो कान पकङकर बाहर निकाल दिये जाओगे।" जब पण्डितजी महाराज यहा बात कह चुके तब मैने कहा - "महाराज! आप कहते है कि तुम बङे असभ्य हो, ग्रामीण हो, शरारत करते हो, निकाल दिये जाओगे। महाराज! मैं तो आपके पास इस अभिप्राय से आया था कि दूसरे ही दिन उषाकाल से न्याय शास्त्र का अध्ययन करूंगा, पर फ़ल यह हुआ कि कान पकङने की नोबत आ गयी। अपराध क्षमा हो, आप ही बताइये असभ्य किसे कहते हैं? और महाराज! क्या यह व्याप्ति है कि जो ग्रामवासी हो वें असभय ही हों, ऐसा नीयम तो नहीं जान पङता, अन्यथा इस बनारस नगर में जो कि भारत वर्ष में सन्स्कृत भाषा के विद्वानो का प्रमुख केन्द्र है गुण्डाब्रज नहीं होना चहिए था और यहां पर जो बाहर से ग्रामवासी बङे-बङे धुरन्दर विद्वान काशीवास करने के लिये आते हैं उन्हे सभ्य कोटि में नहीं आना चहिए था। साथ ही महाराज आप भी तो ग्रामनिवासी ही होंगे। तथा कृपा कर यह तो समझा दीजिये कि सभ्य का क्या लक्षण है? केवल विद्या का पाण्डित्य ही तो सभ्यता का नियामक नहीं है, साथ में सदाचार गुण भी तो होना चाहिये। मैं तो बारम्बार नतमस्तक होकर आपके साथ व्यवहार कर रहा हूं और आप मेरे लिए उसी नास्तिक शब्द क प्रयोग कर रहे हैं! महाराज! संसार में उसी का मनुष्य जन्म प्रशंसनीय है जो राग-द्वेष से परे हो। जिसके राग-द्वेष की कलुषता हो वह चाहे बृहस्पति तुल्य भी विद्वान क्यों ना हो ईश्वर आज्ञा के प्रतिकूल होने से अधोमार्ग को ही जानेवाला है। आपकी मान्यता के अनुसार ईश्वर चाहें जो हो, परन्तु उसकी यह आज्ञा कदापि नहीं हो सकती कि किसी प्राणी के चित्त को खेद पहुंचाऊ। अन्य की कथा छोङो, नीतिकार का भी कहना है की -
"अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥"
परन्तु आपने मेरे साथ ऐसे मधुर शब्दो में व्यवहार किया कि मेरी आत्मा जानती है। मेरा तो निजी विश्वास है कि सभ्य वही है जो अपने ह्रदय को पाप-पंक से अलिप्त रखे, आत्महित में प्रवृत्ति करे। केवल शास्त्र का अध्ययन संसार-बन्धन से मुक्त करने का मार्ग नहीं। तोता राम-राम उच्चारण करता है परन्तु राम के मर्म से अनभिज्ञ ही रहता है। इसी तरह बहुत शास्त्रो का बोध होने पर भी जिसने अपने ह्रदय को निर्मल नहीं बनाया उससे जगत का क्या उपकार होगा? उपकार तो दूर रहा, अनुपकार ही होगा। किसी नीतिकार ने ठीक ही कहा है-
"विद्या विवादाय धनं मदाय
शक्तिः परेषां परपीङनाय।
खलस्य साधोर्विपरीतमेतत्
ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥"
यद्यपि मैं आपके समक्ष बोलने मे असमर्थ हूं, क्योंकि आप विद्वान हैं, राजमान्य हैं, ब्राहमण हैं तथा उस देश के हैं जहां ग्राम-ग्राम में विद्वान हैं। फ़िर भी प्रर्थना करता हूं, कि आप शयन समय विचार कीजियेगा कि मनुष्य के साथ ऐस अनुचित व्यवहार करना क्या सभ्यता के अनुकूल था। समय की बलवता है कि जिस धर्म के प्रवर्तक वीतराग सर्वज्ञ थे और जिस नगरी में श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर का जन्म हुआ था, आज उसी नगरी में जैन धर्म के मानने वालो का इतना तिरस्कार।"
उनके साथ कहां तक बातचीत हुई बेकार है। अन्त में उन्होने यही उत्तर दिया कि यहां से चले जाओ, इसी में तुम्हारी भलाई है। मैं चुपचाप वहां से चल दिया।
Wednesday, June 16, 2010
Shastra Mangalacharan
ओं जय जय जय। नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु।
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं,
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं॥
ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः |
कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नमः ||
अविरल-शब्द धनोद्य प्रक्षालित सकल भूतल मल-कलंका।
मुनिभिरुपासित-तीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान्
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानांजन शलाकयाः ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
श्री परम गुरवे नमः। परंपराचार्य श्री गुरुवे नमः ।
सकल कलुष विध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्म-समबन्धकं,
भव्य-जीव-मन: प्रतिबोध-कारकमिदं शास्त्रं
श्री रत्नकरण्डक श्रावकाचारं नामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः
श्री सर्वज्ञदेवास्तदुत्तर-ग्रन्थ-कर्तारः श्री गणघर-देवाः
प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्ये श्री समन्त्रभद्राचार्येण
विरचितं, सर्वे श्रोतारः सावधानतया श्रण्वंतु।
मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमो गणी ।
मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो, जैन धर्मोऽस्तु मंगलं ॥
________________
शास्त्र पठन में मेरे द्वारा यदि जो कहीं कहीं
प्रमाद से कुछ अर्थ वाक्य पद मात्रा छूट गयी
सरस्वती मेरी उस त्रुटी को कृपया क्षमा करे
और मुझे कैवल्यधाम में माँ अविलम्ब धरे
वंचित फल दात्री चिंतामणि सादृश मात तेरा
वंदन करने वाले मुझको मिले पता मेरा
बोधी समाधी विशुद्ध भावना आत्मसिद्धि मुझको
मिले और में पा जाऊ माँ मोक्षमहा सुख को
जा वाणी के ज्ञान से सूजे लोकालोक ।
सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूं धोक ॥
Saturday, June 5, 2010
Poojan in words of Ganesh Prasad Varni Ji
Below is excerpt from 'Meri Jeevan Gatha- 1' Page 31-35 by Ganesh Prasad Varni Ji. This is about how he did Pooja to Arihant Bhagwaan. This is great inspiration to how we should Poojan:
हे प्रभो। यद्यपि आप वीतराग सर्वज्ञ हैं, सब जानते हैं, परन्तु वीतराग होने से चाहें आपका भक्त हो चाहे भक्त ना हो, उस पर आपको न राग होता है और न द्वेष। जो जीव आपके गुण में अनुरागी है उनके स्वयमेव शुभ परिणामों का संचार हो जाता है और वें परिणाम पुण्यबन्ध में कारण हो जाते हैं। तदुक्तम-
इस्ति स्तुतिं देव! विधाय दैन्याद्
चरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि
छाया तरूं संश्रयतः स्वतः स्यात्
कश्छायया याचितयात्मलाभः
यह श्लोक धनंजय सेट ने श्री आदिनाथ प्रभु के स्तवन के अन्त में कहा है। इस प्रकार आपका स्तवन कर हे देव! मैं दीनता से कुछ वर की याचना नहीं करता; क्योंकि आप उपेक्षक हैं। 'रागद्वेषयोर्प्रणिधानमुपेक्षा' यह उपेक्षा जिसके हो उसको उपेक्षक कहते हैं। श्री भगवान उपेक्षक हैं, क्योंकि उनके राग-द्वेष नहीं है। जब यह बात है तब विचारो, जिनके राग-द्वेष नहीं उनकी अपने भक्त में भलाई करने की बुद्धि ही नहीं हो सकती। वह देवेंगे ही क्या? फ़िर यह प्रश्न हो सकता है कि उनकी भक्ति करने से क्या लाभ? उसका उत्तर यह है कि जो मनुष्य छायादार वृक्ष के नीचे बैठ गया, उसको इसकी अवश्यकता नहीं कि वृक्ष से याचना करे- हमें छाया दीजिये। वह तो स्वयं ही वृक्ष ने नीचे बैठने से लाभ ले रहें हैं। एवं जो रूचिपूर्वक अर्हंतदेव के गुणों का स्मरण करता है उसके मन्द कषाय होने से स्वयं ही शुभोपयोग होता है और उसके प्रभाव से स्वयं शान्ति का लाभ होने लगता है। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध बन रहा है। परन्तु व्यवहार ऐसा होता है जो वृक्ष की छाया। वास्तव में छाया तो वृक्ष की नहीं, सूर्य की किरणो का वृक्ष के द्वारा अवरोध होने से वृक्षतल में स्वयमेव छाया हो जाती है। एवं श्री भगवान के गुणो का रूचिपूर्वक स्मरण करने से स्वयमेव जीवो के शुभ परिणामो की उत्पत्ति होती है, फ़िर भी व्यवहार में ऐसा कथन होता है कि भगवान ने शुभ परिणाम कर दिये। भगवान को पतितपावन कहते है अर्थात जो पापियों का उद्धार करे उनका नाम पतितपावन है... यह कथन भी निमित्तकारण की अपेक्षा है। निमित्त कारणो में भी उदासीन निमित्त है प्रेरक नहीं, जैसे मछली गमन करे तो जल सहकारी कारण हो जाता है। एवं जो जीव पतित है यह यदि शुभ परिणाम करे तो भगवान निमित्त है। यदि वह शुभ परिणाम ना करे तो निमित्त नहीं। वस्तु की मर्यादा यही है परन्तु उपचार से कथन-शैली नाना प्रकार की है। 'यथा कुलदीपकोऽयं बालकः, मणवकः सिंहः'। विशेष कहां तक लिखे? आत्मा की अचिन्त्य शक्ति है। वह मोहकर्म के निमित्त से विकास को प्राप्त नहीं होती। मोहकर्म के उदय में यह जीव नाना प्रकार की कल्पनायें करता है। यद्यपि वे कल्पनाएं वर्तमान पर्याय की अपेक्षा तो सत हैं परन्तु कर्मोदय के बिना उनका अस्तित्व नहीं, अतः असत हैं। पुदगल द्रव्य की भी अचिन्त्य शक्ति है। यही कारण है कि वह आत्मा के अनन्तज्ञानादि गुणो को प्रकट नहीं होने देता और इसीसे कार्तिकेय स्वामी ने स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा है कि--
'कापि अपुव्वा दिस्सइ पुग्गलदव्वस्स एरिसी सत्ती।
केवलणाणसहावो विणासिदो जाइ जीवस्स॥
'अर्थात पुदगल द्रव्य में कोई अपूर्व शक्ति है जिससे कि जीवका स्वभावभूत केवलज्ञान भी तिरोहित हो जाता है।' यह बात असत्य नहीं। जब आत्मा मदिरापान करता है तप उसके ज्ञानादि गुण विकृत होते प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। मदिरा पुदगल द्रव्य ही तो है।
अस्तु,
यद्यपि जो आपके गुणो का अनुरागी है वह पुण्यबन्ध नहीं चाहता, क्योंकि पुण्यबन्ध संसार का ही तो कारण है, अतः ज्ञानी जीव, संसार का जो भाव है उसे उपादेय नहीं मानता। चारित्रमोह के उदय में ज्ञानी जीव के रागादिक भाव होते हैं, परन्तु उनमें कर्तत्व बुद्धी नहीं। तथाहि-
'कर्तव्यं न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत।
अज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारकः॥'
'जिस प्रकार कि भोक्तापन आत्मा का स्वभाव नहीं है उसी प्रकार कर्तापना भी आत्मा का स्वभाव नहीं है। अज्ञान से ही यह आत्मा कर्ता बनता है। अतः अज्ञान के अभाव में अकर्ता ही है।'
अज्ञानी जीव भक्ति को ही सर्वस्व मान तल्लीन हो जाते हैं, क्योंकि उससे आगे उन्हें कुछ सूझता ही नहीं। परन्तु ज्ञानी जीव जब श्रेणी चढने को समर्थ नहीं होता तब अन्यत्र - जो मोक्षमार्ग के पात्र नहीं उनमें, राग ना हो इस भाव से तथा तीव्र रागज्वर के अपगम की भावना से श्री अरिहन्तादि देव की भक्ति करता है। श्री अरिहन्त के गुणों में अनुराग होना यही तो भक्ति है। अरिहन्त के गुण हैं- वीतरागता, सर्वज्ञता तथा मोक्षमार्गका नेतापना। इनमें अनुराग होने से कौन सा विषय पुष्ट हुआ? यदि इन गुणों से प्रेम हुआ तो उन्ही की प्राप्ति के अर्थ तो प्रयास है। सम्यकदर्शन होने के बाद चारित्रमोह का चाहे तीव्र उदय हो चाहे मन्द उदय हो, उसकी जो प्रवृत्ति होती है उसमें कर्तत्व बुद्धि नहीं रहती। अतएव श्री दौलतराम जी ने एक भजन में लिखा है कि -
'जे भव-हेतु अबुधिके तस करत बन्ध की छटाछटी'
अभिप्राय के बिना जो क्रिया होती है वह बन्ध की जनक नहीं। यदि अभिप्राय के अभाव में भी क्रिया बन्धजनक होने लगे तब यथाख्यात चारित्र होकर भी अबन्ध नहीं हो सकता, अतः यह सिद्ध हुआ कि कषाय के सद्भाव में ही क्रिया बन्ध की उत्पादक है। इसलिये प्रथम तो हमें अनात्मीय पदार्थों में आत्मीयता का अभिप्राय है और जिसके सदभाव में हमारा ज्ञान तथा चारित्र मिथ्या हो रहा है उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिये। उस विपरीत अभिप्राय के अभाव में आत्मा की जो अवस्था होती है वह रोग जाने के बाद रोगी के जो हल्कापन आता है तत्सदृश हो जाती है। अथवा भारापगम के बाद जो दशा भारावाही की होती है वही मिथ्या अभिप्राय जाने के बाद आत्मा की हो जाती है और उस समय उसके अनुपामक प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि गुणों का विकास आत्मा में स्वयमेव हो जाता है।
हे प्रभो। यद्यपि आप वीतराग सर्वज्ञ हैं, सब जानते हैं, परन्तु वीतराग होने से चाहें आपका भक्त हो चाहे भक्त ना हो, उस पर आपको न राग होता है और न द्वेष। जो जीव आपके गुण में अनुरागी है उनके स्वयमेव शुभ परिणामों का संचार हो जाता है और वें परिणाम पुण्यबन्ध में कारण हो जाते हैं। तदुक्तम-
इस्ति स्तुतिं देव! विधाय दैन्याद्
चरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि
छाया तरूं संश्रयतः स्वतः स्यात्
कश्छायया याचितयात्मलाभः
यह श्लोक धनंजय सेट ने श्री आदिनाथ प्रभु के स्तवन के अन्त में कहा है। इस प्रकार आपका स्तवन कर हे देव! मैं दीनता से कुछ वर की याचना नहीं करता; क्योंकि आप उपेक्षक हैं। 'रागद्वेषयोर्प्रणिधानमुपेक्षा' यह उपेक्षा जिसके हो उसको उपेक्षक कहते हैं। श्री भगवान उपेक्षक हैं, क्योंकि उनके राग-द्वेष नहीं है। जब यह बात है तब विचारो, जिनके राग-द्वेष नहीं उनकी अपने भक्त में भलाई करने की बुद्धि ही नहीं हो सकती। वह देवेंगे ही क्या? फ़िर यह प्रश्न हो सकता है कि उनकी भक्ति करने से क्या लाभ? उसका उत्तर यह है कि जो मनुष्य छायादार वृक्ष के नीचे बैठ गया, उसको इसकी अवश्यकता नहीं कि वृक्ष से याचना करे- हमें छाया दीजिये। वह तो स्वयं ही वृक्ष ने नीचे बैठने से लाभ ले रहें हैं। एवं जो रूचिपूर्वक अर्हंतदेव के गुणों का स्मरण करता है उसके मन्द कषाय होने से स्वयं ही शुभोपयोग होता है और उसके प्रभाव से स्वयं शान्ति का लाभ होने लगता है। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध बन रहा है। परन्तु व्यवहार ऐसा होता है जो वृक्ष की छाया। वास्तव में छाया तो वृक्ष की नहीं, सूर्य की किरणो का वृक्ष के द्वारा अवरोध होने से वृक्षतल में स्वयमेव छाया हो जाती है। एवं श्री भगवान के गुणो का रूचिपूर्वक स्मरण करने से स्वयमेव जीवो के शुभ परिणामो की उत्पत्ति होती है, फ़िर भी व्यवहार में ऐसा कथन होता है कि भगवान ने शुभ परिणाम कर दिये। भगवान को पतितपावन कहते है अर्थात जो पापियों का उद्धार करे उनका नाम पतितपावन है... यह कथन भी निमित्तकारण की अपेक्षा है। निमित्त कारणो में भी उदासीन निमित्त है प्रेरक नहीं, जैसे मछली गमन करे तो जल सहकारी कारण हो जाता है। एवं जो जीव पतित है यह यदि शुभ परिणाम करे तो भगवान निमित्त है। यदि वह शुभ परिणाम ना करे तो निमित्त नहीं। वस्तु की मर्यादा यही है परन्तु उपचार से कथन-शैली नाना प्रकार की है। 'यथा कुलदीपकोऽयं बालकः, मणवकः सिंहः'। विशेष कहां तक लिखे? आत्मा की अचिन्त्य शक्ति है। वह मोहकर्म के निमित्त से विकास को प्राप्त नहीं होती। मोहकर्म के उदय में यह जीव नाना प्रकार की कल्पनायें करता है। यद्यपि वे कल्पनाएं वर्तमान पर्याय की अपेक्षा तो सत हैं परन्तु कर्मोदय के बिना उनका अस्तित्व नहीं, अतः असत हैं। पुदगल द्रव्य की भी अचिन्त्य शक्ति है। यही कारण है कि वह आत्मा के अनन्तज्ञानादि गुणो को प्रकट नहीं होने देता और इसीसे कार्तिकेय स्वामी ने स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा है कि--
'कापि अपुव्वा दिस्सइ पुग्गलदव्वस्स एरिसी सत्ती।
केवलणाणसहावो विणासिदो जाइ जीवस्स॥
'अर्थात पुदगल द्रव्य में कोई अपूर्व शक्ति है जिससे कि जीवका स्वभावभूत केवलज्ञान भी तिरोहित हो जाता है।' यह बात असत्य नहीं। जब आत्मा मदिरापान करता है तप उसके ज्ञानादि गुण विकृत होते प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। मदिरा पुदगल द्रव्य ही तो है।
अस्तु,
यद्यपि जो आपके गुणो का अनुरागी है वह पुण्यबन्ध नहीं चाहता, क्योंकि पुण्यबन्ध संसार का ही तो कारण है, अतः ज्ञानी जीव, संसार का जो भाव है उसे उपादेय नहीं मानता। चारित्रमोह के उदय में ज्ञानी जीव के रागादिक भाव होते हैं, परन्तु उनमें कर्तत्व बुद्धी नहीं। तथाहि-
'कर्तव्यं न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत।
अज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारकः॥'
'जिस प्रकार कि भोक्तापन आत्मा का स्वभाव नहीं है उसी प्रकार कर्तापना भी आत्मा का स्वभाव नहीं है। अज्ञान से ही यह आत्मा कर्ता बनता है। अतः अज्ञान के अभाव में अकर्ता ही है।'
अज्ञानी जीव भक्ति को ही सर्वस्व मान तल्लीन हो जाते हैं, क्योंकि उससे आगे उन्हें कुछ सूझता ही नहीं। परन्तु ज्ञानी जीव जब श्रेणी चढने को समर्थ नहीं होता तब अन्यत्र - जो मोक्षमार्ग के पात्र नहीं उनमें, राग ना हो इस भाव से तथा तीव्र रागज्वर के अपगम की भावना से श्री अरिहन्तादि देव की भक्ति करता है। श्री अरिहन्त के गुणों में अनुराग होना यही तो भक्ति है। अरिहन्त के गुण हैं- वीतरागता, सर्वज्ञता तथा मोक्षमार्गका नेतापना। इनमें अनुराग होने से कौन सा विषय पुष्ट हुआ? यदि इन गुणों से प्रेम हुआ तो उन्ही की प्राप्ति के अर्थ तो प्रयास है। सम्यकदर्शन होने के बाद चारित्रमोह का चाहे तीव्र उदय हो चाहे मन्द उदय हो, उसकी जो प्रवृत्ति होती है उसमें कर्तत्व बुद्धि नहीं रहती। अतएव श्री दौलतराम जी ने एक भजन में लिखा है कि -
'जे भव-हेतु अबुधिके तस करत बन्ध की छटाछटी'
अभिप्राय के बिना जो क्रिया होती है वह बन्ध की जनक नहीं। यदि अभिप्राय के अभाव में भी क्रिया बन्धजनक होने लगे तब यथाख्यात चारित्र होकर भी अबन्ध नहीं हो सकता, अतः यह सिद्ध हुआ कि कषाय के सद्भाव में ही क्रिया बन्ध की उत्पादक है। इसलिये प्रथम तो हमें अनात्मीय पदार्थों में आत्मीयता का अभिप्राय है और जिसके सदभाव में हमारा ज्ञान तथा चारित्र मिथ्या हो रहा है उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिये। उस विपरीत अभिप्राय के अभाव में आत्मा की जो अवस्था होती है वह रोग जाने के बाद रोगी के जो हल्कापन आता है तत्सदृश हो जाती है। अथवा भारापगम के बाद जो दशा भारावाही की होती है वही मिथ्या अभिप्राय जाने के बाद आत्मा की हो जाती है और उस समय उसके अनुपामक प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि गुणों का विकास आत्मा में स्वयमेव हो जाता है।
Friday, May 14, 2010
Mahatama Gandhi Ji: Miscellaneous Quotes
Mind: Control over the mind is alone necessary, and when that is attained, man is free like the king of the forest and his very glance withers the enemy.
Passive Resistance: Kings will always use their kingly weapons. To use force is bred in them. They want to command, but those who have to obey commands do not want guns; and these are in a majority throughout the would. They have to learn either body-force or soul-force. Where they learn the former, both the rulers and the ruled become like so many madmen: but where they learn soul-force, the commands of the rulers do not go beyond the point of their swords, for true men disregard unjust commands. Peasants have never been subdued by the sword, and never will be. They do not know the use of the sword, and they are not frightened by the use of it by others. That nation is great which rests its head upon death as its pillow. Those who defy death are free from all fear. For those who are labouring under the delusive charms of brute-force, this picture is not overdrawn. The fact is that, in India, the nation at large has generally used passive resistance in all departments of life. We cease to co-operate with our rulers when they displease us. This is passive
Education: Our ancient school system is enough. Character building has the first place in it and that is primary education. A building erected on that foundation will last.
Gandhi Ji: How to tackle a robber
Quoting Gandhi Ji:
"Let us proceed a little further. That well-armed man has stolen your property; you have harboured the thought of his act; you are filled with anger; you argue that you want to punish that rogue, not for your own sake, but for the good of your neighbours; you have collected a number of armed men, you want to take his house by assault; he is duly informed of it, he runs away; he too is incensed. He collects his brother robbers, and sends you a defiant message that he will commit robbery in broad daylight. You are strong, you do not fear him, you are prepared to receive him. Meanwhile the robber pesters your neighbours. They complain before you. You reply that you are doing all for their sake, you do not mind that your own goods have been stolen. Your neighbours reply that the robber never pestered them before, and that he commenced his depredations only after you declared hostilities against him. You are between Scylla and Charybdis. You are full of pity for the poor men. What they say is true. What are you to do? You will be disgraced if you now leave the robber alone. You therefore, tell the poor men: "Never mind. Come, my wealth is yours, I will give you arms, I will teach you how to use them; you should belabour the rogue; don't you leave him alone." And so the battle grows; the robbers increase in numbers; your neighbours have deliberately put themselves to inconvenience. Thus the result of wanting to take revenge upon the robber is that you have disturbed your own peace; you are in perpetual fear of being robbed and assaulted; your courage has given place to cowardice. If you will patiently examine the argument, you will see that I have not overdrawn the picture. This is one of the means. Now let us examine the other. You set this armed robber down as an ignorant brother; you intend to reason with him at a suitable opportunity: you argue that he is, after all, a fellow-man; you do not know what prompted him to steal. You, therefore, decide that, when you can, you will destroy the man's motive for stealing. Whilst you are thus reasoning with yourself, the man comes again to steal. Instead of being angry with him you take pity on him. You think that this stealing habit must be a disease with him. Henceforth, you, therefore, keep your doors and windows open, you change your sleeping-place, and you keep your things in a manner most accessible to him. The robber comes again and is confused as all this is new to him; nevertheless, he takes away your things. But his mind is agitated. He inquires about you in the village, he comes to learn about your broad and loving heart, he repents, he begs your pardon, returns you your things, and leaves off the stealing habit. He becomes your servant, and you find for him honourable employment. This is the second method. Thus, you see, different means have brought about totally different results. I do not wish to deduce from this that robbers will act in the above manner or that all will have the same pity and love like you, but I only wish to show that fair means alone can produce fair results, and that, at least in the majority of cases, if not indeed in all, the force of love and pity is infinitely greater than the force of arms. There is harm in the exercise of brute force, never in that of pity."
Thursday, May 13, 2010
Gandhi Ji: About Lawyers and Doctors
About Lawyers:
The lawyers, therefore, will, as a rule, advance quarrels instead of repressing them. Moreover, men take up that profession, not in order to help others out of their miseries, but to enrich themselves. It is one of the avenues of becoming wealthy and their interest exists in multiplying disputes. It is within my knowledge that they are glad when men have disputes. Petty pleaders actually manufacture them. Their toots, like so many leeches, suck the blood of the poor people. Lawyers are men who have little to do. Lazy people, in order to indulge in luxuries, take up such professions. This is a true statement. Any other argument is a men pretension. It is the lawyers who have discovered that theirs is an honourable profession. They frame laws as they frame their own praises.
They decide what fees they will charge and they put on so much side that poor people almost consider them to be heaven-born.
Why do they want more fees than common labourers? Why are their requirements greater? In what way are they more profitable to the country than the labourers? Are those who do good entitled to greater payment? And, if they have done anything for the country for the sake of money, how shall it be counted as good?
About Doctors:
Doctors have almost unhinged us. Sometimes I think that quacks are better than highly qualified doctors. Let us consider : the business of a doctor is to take care of the body, or, properly speaking, not even that. Their business is really to rid the body of diseases that may afflict it. How do these diseases arise? Surely by our negligence or indulgence. I overeat, I have indigestion. I go to a doctor, he gives me medicine, I am cured. I overeat again, I take his pills again. Had I not taken the pills in the first instance, I would have suffered the punishments deserved by me and I would not have overeaten again. The doctor intervened and helped me to indulge myself. My body thereby certainly felt more at ease; but my mind became weakened. A continuance of a course of medicine must, therefore, result in loss of control over the mind.
I have indulged in vice, I contract a disease, a doctor cures me, the odds are that I shall repeat the vice. Had the doctor not intervened, nature would have done its work, and I would have acquired mastrey over myself, would have been freed from vice and would have become happy.
Hospitals are institutions for propagating sin. Men take less care of their bodies and immorality increases. European doctors are the worst of all. For the sake of a mistaken care of the human body, they kill annually thousands of animals. They practise vivisection. No religion sanctions this. All say that it is not necessary to take so many lives for the sake of our bodies.
These doctors violate our religious instinct. Most of their medical preparations contain either animal fat or spirituous liquors; both of these are tabooed by Hindus and Mahomedans. We may pretend to be civilized, call religious prohibitions a superstition and wantonly indulge in what we like. The fact remains that the doctors induce us to indulge, and the result is that we have become deprived of self-control and have become effeminate. In these cirsumstances, we are unfit to serve the country. To study European medicine is to deepen our slavery.
It is worth considering why we take up the profession of medicine. It is certainly not taken up for the purpose of serving humanity. We become doctors so that we may obtain honours and riches.
The lawyers, therefore, will, as a rule, advance quarrels instead of repressing them. Moreover, men take up that profession, not in order to help others out of their miseries, but to enrich themselves. It is one of the avenues of becoming wealthy and their interest exists in multiplying disputes. It is within my knowledge that they are glad when men have disputes. Petty pleaders actually manufacture them. Their toots, like so many leeches, suck the blood of the poor people. Lawyers are men who have little to do. Lazy people, in order to indulge in luxuries, take up such professions. This is a true statement. Any other argument is a men pretension. It is the lawyers who have discovered that theirs is an honourable profession. They frame laws as they frame their own praises.
They decide what fees they will charge and they put on so much side that poor people almost consider them to be heaven-born.
Why do they want more fees than common labourers? Why are their requirements greater? In what way are they more profitable to the country than the labourers? Are those who do good entitled to greater payment? And, if they have done anything for the country for the sake of money, how shall it be counted as good?
Gandhi Ji: How India was portrayed wrongly
From Hind Swaraj:
Macaulay betrayed gross ignorance when he libelled Indians as being practically cowards. They never merited the charge. Cowards living in a country inhabited by hardy mountaineers and infested by wolves and tigers must surely find an early grave. Have you ever visited our fields? I assure you that our agriculturists sleep fearlessly on their farms even today; but the English and you and I would hesitate to sleep where they sleep. Strength lies in absence of fear, not in the quantity of flesh and muscle we may have on our bodies.
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There is a charge laid against us that we are a lazy people and that Europeans are industrious and enterprizing. We have accepted the charge and we therefore wish to change our condition. Hinduism, Islam, Zoroastrianism, Christianity and all other religions teach that we should remain passive about worldly pursuits and active about godly pursuits, that we should set a limit to our worldly ambition and that our religious ambition should be illimitable. Our activity should be directed into the latter channel.
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