वास्तविक जगत और जो जगत हमें दिखाई देता है उसमें अन्तर है। जो हमें दिखता है, वो इन्द्रिय से दिखता है और इन्द्रियों की अपनी सीमितता है। और जो वास्तविक जगत है, वो अलग है।
इंद्रिय जगत में ’स्पर्श’: जहां एक हाथ दूसरे के माथे को स्पर्श करता है। और हाथ की गर्मी दूसरे के सर पर आती है, और उसे सुकून महसूस होता है। जहां पर एक चन्दन लगी अंगुली को दूसरे के सर पर लगाते हैं, और उसके माथे पर तिलक बन जाता है। इस दुनिया में अधिकांश एक जगह पर एक वस्तु ही रहती है। दूसरी आती है, तो पहली वाली को हटना होता है। यहां की भाषा भी ऐसी ही होती है - ’मैंने उसे सुकून दिया, उसने मुझे मेरी जगह से हटा दिया, या तो वो रहेगा या मैं, मैंने उसे पाला, यह वस्तु दूसरी वस्तु से छू गयी- टकरा गयी’
वास्तविक दुनिया में स्पर्श: मगर वास्तविक दुनिया अलग है। जहां एक जगह पर अनन्त द्रव्य एक साथ रहते हैं, और अपनी सत्ता को कायम रखते हैं। उनमें कुछ द्रव्यों में बीच में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बनता भी हैं, और कुछ में नहीं भी। और जिनमें बनता है, इसमें मात्र निमित-नैमित्तिक सम्बन्ध ही बनता है - कोई गुण या पर्याय एक से दूसरे में प्रवेश नहीं करती - जिस प्रकार की पुद्गल की दुनिया में दिखाई देता था। यहां स्पर्श या टकराने का कोई मतलब नहीं। यहां मात्र निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बनता है। स्पर्श तो ’पुद्गल की दुनिया’ में ही होता है या जिसे इन्द्रिय जगत कहते है।
इस वास्तविक दुनिया की दृष्टि में मैं किसी को छूता नहीं।
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इन्द्रिय जगत में कर्ता: अग्नि ने पानी को गर्म कर दिया। इसमें ऐसा लगता है जैसे अग्नि की गर्मी पानी में प्रवेश कर गयी हो। पानी के गर्म होने में पानी की उपादान शक्ति भी है, मगर वो हमेशा ही है इसलिये उसकी मुख्यता समझ में नहीं आती। अग्नि एक ऐसा निमित्त है जो मिला तो काम हो गया, इसलिये वो ही प्रधान कारण दिखाई देता है। क्योंकि जल की उपदान शक्ति हमेशा ही है गर्म होने की, इसलिये वो हमें प्रधान कारण नहीं दिखाई देता।
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